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1, भारतीय ज्ञान परंपरा के अन्तर्गत हिन्दी, साहित्य के इतिहास की पृष्ठभूमि एव, प्रमुख कवि, भारतीय ज्ञान परम्परा और हिन्दी साहित्य, भारतीय ज्ञान परम्परा अद्वितीय ज्ञान और प्रज्ञा का प्रतीक है, जिसमें ज्ञान और विज्ञान , लौकिक और, परलौकिक, कर्म और धर्म तथा भोग और त्याग का अद्भुत समन्वय है। ऋग्वेद के समय से ही शिक्षा प्रणालां, सीवन के नैतिक, भौतिक, आध्यात्मिक और बौद्धिक मूल्यों पर केन्द्रित होकर विनम्रता, सत्यता, अनुशासन,, आद-निर्भरता और सभी के लिए सम्मान जैसे मूल्यों पर जोर देती थी। भारतीय ज्ञान परम्परा अति समृद्ध थी तथा, इसका उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को समाहित करते हुए व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को विकसित करना था।, जब सारा विश्व अज्ञान रूपी अधकार में भटकता था, तब सम्पूर्ण भारत के मनीषी उच्च्चतम ज्ञान का प्रसार करके, मानव को पशुता से मुक्त कर श्रेष्ठ संस्कारों से युक्त कर पूर्ण मानव बनाते थे।, तलसीदास द्वारा रचित 'रामचरितमानस' में राम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहा गया तथा राम को जन- जन के, आराध्य देव के रूप में प्रतिष्ठित किया। वास्तव में तुलसी के द्वारा ही राम के अवतार की पूर्ण प्रतिष्ठा हुई। इसी, प्रकार हिन्दी साहित्य में भगवान् श्रीकृष्ण का विशिष्ट महत्व है, उनके बाल रूप से लेकर गीता के उपदेशक, योगेश्वर रूप की अनेक झाँकियाँ साहित्य एवं दर्शन में मिलती हैं, वे भगवान विष्णु के पूर्णावतार माने गये हैं।, इस प्रकार हिन्दी वाङ्मय में पारम्परिक ज्ञान धारा प्रवाहित होती रही है, यह ज्ञान की परम्परा रामचरितमानस,, सूरसागर, भ्रमरगीत, भँवरगीत, पद्मावत, विनय पत्रिका, रामचन्द्रिका, कबीर-बीजक जैसे महाकाव्यों तथा, काव्यों से होती हुई नाटकों, रूपकों के माध्यम से आज तक बह रही है । हिन्दी साहित्य की मूल चेतना भारतवर्ष को, एक राष्ट्र के रूप में देखने की है। भारतवर्ष में क्षेतरीय विषमताओं के होने पर भी जिन तत्वों ने इस देश को एक सूत्र, में बाँध रखा है, उनमें हिन्दी साहित्य प्रमुख है। भारत के भूगोल को महाकाव्यों ने इस रूप में प्रस्तुत किया है कि, प्रत्येक नागरिक के मन में सम्पूर्ण देश के प्रति आस्था उत्पन्न हो जाती है। वह अपनी क्षेत्रीय भावना को राष्ट्र के प्रति, प्रेम के वृहत्तर आदर्श में विस्तृत करता है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी ने कहा है-, "निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल, बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को शूल।", हिन्दी साहित्य ने पूर्व-पश्चिम, उत्तर- दक्षिण के भेदभाव को मिटाकर प्रत्येक भारतवासी को भारतीय होने, का स्वाभिमान प्रदान किया। यही नहीं 'कृष्वन्तो विश्वमार्यम्' अर्थात् समस्त जगत् को हम आर्य बनाएँ,'वसुधैव, कुटुम्बकम्' अर्थात् सारी पृथ्वी ही हमारा परिवार है, इत्यादि सुन्दर उक्तियों के माध्यम से मानव मात्र के प्रति, आत्मीयता का भाव उत्पन्न कर दिया है।, इसी उद्देश्य से हिन्दी-अध्ययन की अनुभूति की जाती रही है। हिन्दी साहित्य के अध्ययन से हम अपने देश, को प्राचीन संस्कृति को समझ सकते हैं। पूर्वजों ने हिन्दी साहित्य के रूप में हमको ऐसी धरोहर (सम्पत्ति) दी है,, जिसका लाभ अनन्तकाल तक मिलता रहेगा। हिन्दी साहित्य के रूप में काव्य, दर्शन, धर्मशास्त्र, राजनीति,, ज्योतिष तथा अन्य क्षेत्रों में भारतीय ज्ञान-विज्ञान और हिन्दी भाषा की अभिव्यक्ति की सुन्दरता का आनन्द प्राप्त, करने हेतु हिन्दी साहित्य का अध्ययन करना चाहिए।, हिन्दी साहित्य का काल विभाजन एवं नामकरण, माटे तौर पर हिन्दी भाषा का विकास 1000 ई. के आसपास माना जाता है। तब से लेकर अब तक लगभग, 1000 वर्षों का जितना भी साहित्य हिन्दी प्रदेश में उपलब्ध होता है, वह हिन्दी साहित्य है। अध्ययन की सुविधा के, लिए यह अत्यन्त आवश्यक समझा गया कि इस दीर्घ अवधि को कालखण्डों में विभक्त कर लिया जाय । हिन्दी