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मिश्रबंधुओं ने ई.स. 643 से 1387 तक के काल को प्रारंभिक काल कहा है। यह एक सामान्य नाम है और इसमें किसी प्रवृत्ति, को आधार नहीं बनाया गया है। यह नाम भी विद्वानों को स्वीकार्य नहीं है।, , डॉ॰ रामकु मार वर्मा का मत, डॉ॰रामकु मार वर्मा- इन्होंने हिंदी साहित्य के प्रारंभिक काल को चारणकाल नाम दिया है। इस नामकरण के बारे में उनका, कहना है कि इस काल के सभी कवि चारण थे, इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता। क्योंकि सभी कवि राजाओं के, दरबार- आश्रय में रहनेवाले, उनके यशोगान करनेवाले थे। उनके द्वारा रचा गया साहित्य चारणी कहलाता है। किन्तु विद्वानों का, मानना है कि जिन रचनाओं का उल्लेख वर्मा जी ने किया है उनमें अनेक रचनाएँ संदिग्ध हैं। कु छ तो आधुनिक काल की भी हैं।, इस कारण डॉ॰वर्मा द्वारा दिया गया चारणकाल नाम विद्वानों को मान्य नहीं है।, , राहुल संकृ त्यायन का मत, राहुल संकृ त्यायन- उन्होंने 8वीं से 13 वीं शताब्दी तक के काल को सिद्ध- सांमत युग की रचनाएँ माना है। उनके मतानुसार उस, समय के काव्य में दो प्रवृत्तियों की प्रमुखता मिलती है- 1.सिद्धों की वाणी- इसके अंतर्गत बौद्ध तथा नाथ- सिद्धों की तथा, जैनमुनियों की उपदेशमुलक तथा हठयोग की क्रिया का विस्तार से प्रचार करनेवाली रहस्यमूलक रचनाएँ आती हैं। 2.सामंतों की, स्तृति- इसके अंतर्गत चारण कवियों के चरित काव्य (रासो ग्रंथ) आते हैं, जिनमें कवियों ने अपने आश्रय दाता राजा एवं सामंतों, की स्तृति के लिए युद्ध, विवाह आदि के प्रसंगों का बढ़ा- चढ़ाकर वर्णन किया है। इन ग्रंथों में वीरत्व का नवीन स्वर मुखरित हुआ, है। राहुल जी का यह मत भी विद्वानों द्वारा मान्य नहीं है। क्योंकि इस नामकरण से लौकिक रस का उल्लेख करनेवाली किसी, विशेष रचना का प्रमाण नहीं मिलता। नाथपंथी तथा हठयोगी कवियों तथा खुसरो आदि की काव्य- प्रवृत्तियों का इस नाम में, समावेश नहीं होता है।hu, , आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का मत, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी- उन्होंने हिंदी साहित्य के प्रथम काल का नाम बीज- बपन काल रखा। उनका यह नाम योग्य नहीं, है क्योंकि साहित्यिक प्रवृत्तियों की दृष्टि से यह काल आदिकाल नहीं है। यह काल तो पूर्ववर्ती परिनिष्ठित अपभ्रंश की साहित्यिक, प्रवृत्तियों का विकास है।, , आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का मत, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी- इन्होंने हिंदी साहित्य के इतिहास के प्रारंभिक काल को आदिकाल नाम दिया है। विद्वान भी इस, नाम को अधिक उपयुक्त मानते हैं। इस संदर्भ में उन्होंने लिखा है- वस्तुतः हिंदी का आदि काल शब्द एक प्रकार की भ्रामक, धारणा की सृष्टि करता है और श्रोता के चित्त में यह भाव पैदा करता है कि यह काल कोई आदिम, मनोभावापन्न,, परंपराविनिर्मुक्त, काव्य- रूढि़यों से अछू ते साहित्य का काल है। यह ठीक नहीं है। यह काल बहुत अधिक परंपरा- प्रेमी,, रूढि़ग्रस्त, सजग और सचेत कवियों का काल है। आदिकाल नाम ही अधिक योग्य है क्योंकि साहित्य की दृष्टि से यह काल