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प्रकृति (शाप), , भारतीय दर्शन में सांख्य दर्शन एक द्वैतवादी विचारधारा के रूप में प्रतिष्ठित है। यह विश्व के मूल्न में दो प्रकार के स्वतंत्र तत्वों, की सत्ता स्वीकार करता है। इनमें से एक जड प्रकृति और दूसरा चेतन पुरूष है। प्रकृति को संपूर्ण जड़-जगत का मूल कारण कहा, गया है।, , सांख्य दार्शनिकों की मान्यता है कि विश्व में दो प्रकार की वस्तुएं दिखाई देती है (1) स्थूत्र पदार्थ (मिट॒टी, जल,शरीर आदि) (2), सूक्ष्मातिसूक्ष्म पदार्थ (बुद्धि, इन्द्रिय, मन, अहंकार आदि) विश्व का मूल कारण केवल वही तत्व हो सकता है जो स्थूत्र पदार्थों को, उत्पन्न करने के साथ-साथ सूक्ष्मातिसूक्ष्म पदार्थों को भी उत्पन्न करने में सक्षम है। सांख्य मतानुसार कारण कार्य श्रृंखला से परे, होने के कारण चैतन्य स्वरूप पुरुष इस विश्व का कारण नहीं हो सकता। सांख्य दर्शन के अनुसार यह कारण सूलक्ष्मातिसूक्ष्म, जड़, एवं सामर्थ्यवान प्रकृति ही हो सकती है। यह प्रकृति पुरुष की विरुद्धधर्मी है।, , प्रकृति का अर्थ (6 ९7 ण शत), , 'प्रकृति' शब्द प्र+कृति से बना है। यहाँ 'प्र' का अर्थ है -पूर्व (8४/०९),अतः प्रकृति का अर्थ है - सृष्टि से पूर्व (8808 ८४९०४०॥) |, दूसरे शब्दों में सृष्टि निर्माण के पहले जो सत्ता विद्यमान हो, उसे ही 'प्रकृति' कहते हैं। सांख्य दर्शन में प्रकृति को विभिन्न नामों, से संबोधित किया गया है जैसे :, 1. प्रधान (2110/1॥) - चूंकि प्रकृति समस्त विश्व का कारणभूत प्रथम मौलिक तत्व है अतः इसे प्रधान भी कहा जाता है।, , 2. अव्यक्त (॥7/ला) - कारण होने के नाते विश्व के सभी पदार्थ प्रकृति में अव्यक्तत रूप से मौजूद रहते हैं। अतः इसे अव्यक्त भी, कहा गया है।, , 3.अनुमान (॥106/210०6) अतीन्द्रिय होने के कारण प्रकृति का प्रत्यक्ष ज्ञान संभव नहीं, बल्कि अनुमान से ही उसका ज्ञान होता है, अतः इसे अनुमान भी कहा जाता है।, , 4.जड़- प्रकृति मूलतः भौतिक पदार्थ है अतः इसे जड़ भी कहा गया है।, , 5. ब्रहम का तात्पर्य विकास से है। प्रकृति का विकास भिन्न-भिन्न पदार्थों में होता है। अतः इसे विकास भी कहा गया है। इसके, अतिरिक्त प्रकृति को अविद्या, शक्ति, माया आदि नामों से भी जाना गया है।, , प्रकृति की विशेषताएँ, , सांख्य दर्शन में प्रकृति को एक, स्वयंभू तथा स्वतंत्र माना गया है।, , प्रकृति त्रिगुणात्मक है अर्थात् वह सत्व, रजस् और तमस् नामक तीन गुणों से बनी है।, , प्रकृति प्रसवर्धर्मिणी है अर्थात् प्रकृति समस्त जड़-जगत की जननी है। समस्त जगत प्रकृति का ही परिणाम है।, , प्रकृति स्वयं अजन्मा है। यद्यपि प्रकृति समस्त वस्तुओं का मूल कारण है परंतु स्वयं अकारण है क्योंकि इसका कारण, , मानने पर अनवस्था दोष उत्पन्न होता है।, , 5. प्रकृति अद्दश्य है क्योंकि वह अत्यंत ही सूक्ष्म होने के कारण प्रत्यक्ष का विषय नहीं है। उसके कार्यों से ही कारणरूप में, उसका अनुमान किया जाता है।, , 6. प्रकृति शाश्वत है, क्योंकि वह संसार की सभी वस्तुओं का मूल कारण है। इसलिए प्रकृति को अनादि और अनन्त भी कहा, , गया है।, , प्रकृति अचेतन है क्योंकि वह जड़ है। यह विवेकशून्य है।, , प्रकृति निरन्तर परिणामशालिनी है। उसमें सरूप या विरूप परिवर्तन होता रहता है।, , , , के कुछ पुडी।. हुआ, , मा], , प्रकृति की स्वतंत्र सत्ता के प्रमाण
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ईश्वरकृष्ण कृत "सांख्यकारिका में प्रकृति की स्वतंत्र सत्ता का सिद्ध करने के लिए निम्न युक्तियों का प्रयोग किया गया है।, "भेदानां परिमाणात् समन्वयात् शक्तितः प्रवृत्तेश्च |, , कारणकार्यविभागादविभागाद् वैश्वरूप्यस्य।।, , इसका निहितार्थ है:, , 1. संसार के समस्त विषय सीमित, परतंत्र, अनित्य तथा सापेक्ष है। अतः संसार के सभी विषयों का मूल कारण अवश्य ही, असीमित, स्वतंत्र, नित्य एवं एक होगा। यह कारण प्रकृति है।, , 2. संसार के समस्त विषयों का यह सामान्य धर्म है कि वे सुख-दु:ख या मोह उत्पन्न करते हैं। इससे यह सूचित होता है, कि उनके मूल्रभूत कारण में भी ये तीनों गुण विद्यमान रहने चाहिए। यह मूल्रभूत कारण त्रिगुणात्मक प्रकृति है।, , 3. सभी कार्य ऐसे समर्थ कारणों से उत्पन्न होते हैं जिनमें वे व्यक्त रूप से निहित थे। शक्तियुक्त कारण से ही कार्य की, उत्पत्ति होती है। इस जगत् रूपी कार्य का सामर्थ्यवान कारण प्रकृति ही है।, , 4. व्यक्त अवस्था में कार्य का कारण से विभाग या भेद किया जाता है। यह विभाग सिद्ध करता है कि अव्यक्त कारण से, ही समस्त व्यक्त कार्य उत्पन्न होते हैं। यह अव्यक्त कारण प्रकृति है।, , 5. अव्यक्त अवस्था में समस्त कार्य बीजरूप से अपने कारण में विलीन हो जाते हैं। अव्यक्तावस्था में कार्य और कारण में, अविभाग या अभेद हो जाता है। प्रलयावस्था में विश्व के समस्त पदार्थ जिसमें तिरोहित हो जाते हैं वही मूल कारण प्रकृति, है।, , प्रकृति और गुण, , प्रकृति त्रिगुणात्मक है। इसके तीन गुण हैं - सत्व, रज और तम। इन तीनों गुणों की साम्यावस्था का ही नाम प्रकृति है। ये गुण, स्वयं द्रव्यरूप हैं। इनको गुण इसलिए कहा गया है क्योंकि ये प्रकृति की अपेक्षा गौण है। ये गुण प्रकृति का निर्माण करने वाले, तत्व हैं, संघटक तत्व हैं। न्याय वैशेषिक में गुणों को गुण मात्र के रूप में स्वीकार किया गया है। वहाँ गुणों के गुण की बात नहीं, की गई है। सांख्य में इन गुणों के भी गुण माने गये हैं। ये गुण सूक्ष्म, अतीन्द्रिय है, इसल्रिये इनका प्रत्यक्ष नहीं होता है। इनके, कार्यो से इनका अनुमान किया जाता है। सत्वगुण का कार्य सुख है, रजोगुण का कार्य दुःख है तथा तमोगुण का कार्य मोह है।, , 1 सत्वगुण - सत्वगुण शुद्धता का प्रतीक है। यह प्रकाशक और लघु है। सत्व के कारण मन तथा बुद्धि विषयों का ग्रहण करते, है। इसका रंग श्वेत है। सभी प्रकार के सुखात्मक अनुभूति जैसे हर्ष, उल्लास आदि इसके कार्य है।, , 2. रजोगुण- रजोगुण का स्वभाव उत्तेजक एवं दुःखात्मक होता है। यह सक्रिय तथा चंचल होता है। इसका रंग लाल है। यह दुःख, उत्पन्न करता है।, , 3. तमोगुण- तमोगुण मोह या अज्ञान का प्रतीक है। यह भारी और अवरोधक है। यह प्रकाश तथा रजोगुण की क्रिया का अवरोध, करता है। इससे जड़ता एवं निष्क्रियता आती है।, , तीनों गुणों में पररुपर विरोध भी है और सहयोग भी। वे सर्वदा एक साथ, एक दूसरे से अविच्छेद रूप से रहते हैं। उनमें केवल एक, ही गुण स्वतः कोई कार्य उत्पन्न नहीं कर सकता। जिस प्रकार तेल, बत्ती एवं आग का स्वरूप विरोधात्मक होने पर भी प्रकाश का, निर्माण करता है, उसी प्रकार सत्व रज और तमो गुण परस्पर विरोधी होते हुए भी परस्पर सहयोग से पुरुष के प्रयोजन की सिद्धि, करते हैं।, , तीनों गुण निरंतर परिवर्तनशील है। परिवर्तित होना इनका स्वभाव ही है। गुणों में दो प्रकार का परिवर्तन होता है- (1) सरूप, परिवर्तन, (2) विरूप परिवर्तन |, , सरूप परिवर्तन: वह है जब एक गुण अपने वर्ग के गुणों में स्वतः परिणत हो जाता है। यह परिवर्तन प्रत्नयावस्था में होता है। प्रकृति, की साम्यावस्था ही उसकी प्रल्नयावस्था है। इस स्थिति में कोई विकास नहीं होता है।