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भारत में सामाजिक परिवर्तन एवं विकास, हमने पिछले अध्याय में यह जाना कि किस प्रकार उपनिवेशवाद से हुए परिवर्तनों ने भारतीय सामाजिक, संरचना में बदलाव उत्पन्न किए। औद्योगीकरण और नगरीकरण ने जनजीवन में रूपांतरण किया । कुछ लोगों, ने खेत के स्थान पर कारखानों में काम करना प्रारंभ किया । बहुत से लोग गाँवों को छोड़ शहरों में रहने, लगे। या कि रहने और कार्य करने की प्रणालियाँ अर्थात् संरचनाओं में परिवर्तन हुआ । संस्कृति, जीवनशैली,, प्ररूप, मूल्य, फैशन और यहाँ तक कि भाव- भंगिमाओं में भी गुणात्मक बदलाव हुए। समाजशास्त्रियों की समझ, में सामाजिक संरचना का अर्थ "लोगों के संबंधों की वह सत व्यवस्था है जिसे कि सामाजिक रूप से स्थापित, प्ररूप अथवा व्यवहार के प्रतिमान के रूप में सामाजिक संस्थाओं और संस्कृति के द्वारा परिभाषित और नियंत्रित, किया जाता है।" आपने पहले ही अध्याय-1 में उन संरचनात्मक परिवर्तनों का अध्ययन कर लिया है जिन्हें, उपनिवेशवाद ने उत्पन्न किया। इस अध्याय में आप यह जानेंगे कि वे संरचनात्मक परिवर्तन सांस्कृतिक, परिवर्तनों को समझने के लिए कितने महत्वपूर्ण हैं।, यहाँ आप दो परस्पर संबंधित घटनाओं के बारे में जानेंगे। ये दोनों उपनिवेशिक शासन के प्रभाव की, जटिल उत्पत्ति हैं। पहली घटना का संबंध 19वीं शताब्दी के समाज सुधारकों एवं प्रारंभिक 20वीं शताब्दी, के राष्ट्रवादी नेताओं के सुनियोजित एवं सजग प्रयासों से संबंधित है । यह उन सामाजिक व्यवहारों में, परिवर्तन लाने के लिए था जो महिलाओं एव निम्न जातियों के साथ भेदभाव करते थे। दूसरी घटना उन, कम सुनिश्चित परंतु निर्णायक परिवर्तनों से जुड़ी हुई है जो सांस्कृतिक व्यवहारों में हुए और जिन्हें, संस्कृतीकरण, आधुनिकीकरण, लौकिकीकरण एवं पश्चिमीकरण की चार प्रक्रियाओं के रूप में समझा जा, सकता है। ये बात बड़ी दिलचस्प है कि संस्कृतीकरण की प्रक्रिया उपनिवेशवाद की शुरुआत से पहले, से होती रही जबकि बाद की तीन प्रक्रियाएँ वास्तव में भारत के लोगों की वह जटिल प्रतिक्रिया हैं जो, उपनिवेशवाद से, हुए, परिवर्तनों के, कारण, 2.1 उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में, हुए, समाज सुधार आंदोलन, आप जान चुके हैं कि उपनिवेशवाद ने हमारे, जीवन पर दूरगामी प्रभाव डाले। उन्नीसवीं सदी, हुए समाज सुधार आंदोलन उन चुनौतियों के, जवाब थे जिन्हें औपनिवेशिक भारत महसूस, में, कर रहा था। आप संभवत: उन सभी सामाजिक, पहुलओं से अवगत हों जिन्हें भारतीय समाज में, सामाजिक कुरीति माना जाता था उन सामाजिक, कुरीतियों से भारतीय समाज बुरी तरह से ग्रस्त, था। सती प्रथा, बाल-विवाह, विधवा पुनर्विवाह निषेध और जाति-भेद कुछ इस प्रकार की कुरीतियाँ थीं।, ऐसा नहीं है कि उपनिवेशवाद से पूर्व भारत में इन सामाजिक भेदभावों के विरुद्ध संघर्ष न हुए हों। ये बौद्ध, धर्म के केंद्र में थे। ऐसे कुछ प्रयत्न, मुख्यत: भक्ति एवं सूफी आंदोलनों के केंद्र में भी थे उन्नीसवीं सदी, में हुए समाज सुधारक आधुनिक संदर्भ एवं मिश्रित विचारों से संबद्ध थे यह प्रयास पश्चिमी उदारवाद के, आधुनिक विचार एवं-प्राचीन साहित्य के प्रतीक नयी दृष्टि के मिले-जुले रूप में उत्पन्न हुए।, राजा राम मोहन राय, पंडिता रमाबाई, सर सैयद अहमद खाँ, 18, 2019-2020
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सांस्कृतिक परिवर्तन, मिश्रित विचार, बॉक्स 2.1, > राममोहन राय ने सती प्रथा का विरोध करते हुए न केवल मानवीय व प्राकृतिक अधिकारों से संबंधित, आधुनिक सिद्धांतों का हवाला ही नहीं दिया बल्कि उन्होंने हिंदू शास्त्रों का भी संदर्भ दिया।, रानाडे ने विधवा-विवाह के समर्थन में शास्त्रों का संदर्भ देते हुए 'द टेक्स्ट ऑफ द हिंदू लॉ" जिसमें उन्होंने विधवाओं, के पुनर्विवाह को नियम के अनुसार बताया। इस संदर्भ में उन्होंने वेदों के उन पक्षों का उल्लेख किया जो विधवा, पुनर्विवाह को स्वीकृति प्रदान करते हैं और उसे शास्त्र सम्मत मानते हैं।, शिक्षा की नयी प्रणाली में आधुनिक और उदारवादी प्रवृत्ति थी। यूरोप में हुए पुनर्जागरण, धर्म-सुधारक आंदोलन और, प्रबोधन आंदोलन से उत्पन्न साहित्य को सामाजिक विज्ञान और भाषा-साहित्य में सम्मिलित किया गया। इस नए प्रकार, के ज्ञान में मानवतावादी, पंथनिरपेक्ष और उदारवादी प्रवृत्तियाँ थीं।, सर सैयद अहमद खान ने इस्लाम की विवेचना की और उसमें स्वतंत्र अन्वेषण की वैधता (इजतिहाद) का उल्लेख, किया। उन्होंने कुरान में लिखी गई बातों और आधुनिक विज्ञान द्वारा स्थापित प्रकृति के नियमों में समानता जाहिर की।, > कंदुकीरी विरेशलिंगम की पुस्तक 'द सोर्स ऑफ़ नॉलेज' में नव्य-न्याय के तक्कों को देखा जा सकता है। उन्होंने जुलियस, हक्सले द्वारा लिखे ग्रंथों को भी अनुवादित किया।, O NCE, be repubed, समाजशास्त्री सतीश सबरवाल ने औपनिवेशिक भारत में आधुनिक, निम्नलिखित तीन पहलुओं की विवेचना की है-, की रूपरेखा से जुड़े, संचार माध्यम, । संगठनों के स्वरूप, तथा, । विचारों की प्रकृति, नयी प्रौद्योगिकी ने संचार के विभिन्न स्वरूपों को गति प्रदान की। प्रिंटिंग प्रेस, टेलीग्राफ़ तथा बाद में, माइक्रोफ़ोन, लोगों के आवागमन एवं पानी के जहाज़ तथा रेल के आने से यह संभव हुआ। साथ ही रेल, से वस्तुओं के आवागमन में नवीन विचारों को तीव्र गति प्रदान करने में सहायता प्रदान की। इससे नए विचारों, नयी प्रौद्योगिकी तथा संगठन जिन्होंने, किट, नई दिल्ली-110016, POST OFFICE HAUZ KHAS MARKET, NEW DELHH10016, संचार के विभिन्न स्वरूपों को गति, प्रदान की, ES MED PT, BOOKING, CLITY AVAILABLE NENE, 19, 2019-2020
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सांस्कृतिक परिवर्तन, गरिमामय माना। दूसरे शब्दों में 19वीं सदी में हो रहे सुधारों ने एक ऐसा दौर उत्पन्न किया जिसमें बौद्धिक, तथा सामाजिक उन्नति के प्रश्न और उनकी पुनर्व्याख्या सम्मिलित हैं।, विभिन्न प्रकार के समाज सुधारक आंदोलनों में कुछ विषयगत समानताएँ थी। परंतु साथ ही अनेक, महत्वपूर्ण असहमतियाँ भी थी। कुछ में उन सामाजिक मुद्दों के प्रति चिंता थी जो उच्च जातियों के, मध्यवर्गीय महिलाओं और पुरुषों से संबंधित थी। जबकि कुछ ने तो ये माना कि सारी समस्याओं का मूल, कारण सच्चे हिंदुत्व के सच्चे विचारों का कमजोर होना था । कुछ के लिए तो धर्म में जाति एवं लैंगिक, शोषण अंतर्निहित था। ये तो हिंदू धर्म से संबंधित समाज सुधारक वाद -विवाद था। इसी तरह मुस्लिम समाज, सुधारकों ने बहुविवाह और पर्दा प्रथा पर सक्रिय स्तर पर बहस की। उदाहरण के लिए जहाँआरा शाह नवास, ने अखिल भारतीय मुस्लिम महिला सम्मेलन में, बहुविवाह की कुप्रथा के विरुद्ध प्रस्ताव प्रस्तुत किया।, उनके, अनुसार : ...जिस प्रकार का बहुविवाह मुस्लिम समुदाय के कुछ, हिस्सों में होता है वह वस्तुत: कुरान की मूलभावनाओं के खिलाफ़, है... ये शिक्षित औरतों की जिम्मेदारी है कि वो अपने प्रभाव का, क्रियाकलाप 2.1, निम्नलिखित समाज सुधारकों के बारे में, सूचनाएँ इकट्ठी करें, जैसेकि किसने किस, मुद्दे या समस्या पर काम किया, कैसे संघर्ष, किस प्रकार जागरूकता फैलाई,, क्या उन्हें किसी प्रकार के विरोध का, इस्तेमाल कर अपने रिश्तेदारों को बहुविवाह करने से रोकें।, बहुविवाह के खिलाफ लाए गए प्रस्ताव से उर्दू भाषा के अखबारों,, पत्रिकाओं आदि में एक बहस छिड़ गई। पंजाब से निकलने वाली महिलाओं, की एक पत्रिका 'तहसिब-ए-निसवान' ने खुलकर बहुविवाह- विरोधी इस, प्रस्ताव का समर्थन किया, जबकि अन्य पत्रिकाओं ने इसका विरोध किया, (चौधरी 1993:111)। समुदायों के भीतर इस तरह की बहस उन दिनों आम, बात थी। उदाहरण के लिए ब्रह्म समाज ने सती प्रथा का विरोध किया।, प्रतिवाद में, बंगाल में हिंदू समाज के रूढ़िवादियों ने धर्म सभा का गठन, किया जिसकी तरफ़ से ब्रिटिश सरकार को एक याचिका भेजी गयी | इस, याचिका में रूढ़िवादी हिंदुओं ने ये दावा किया कि सुधारकों को कोई, अधिकार नहीं है कि वो धर्मग्रंथों की व्याख्या करें । एक और दृष्टिकोण भी, था जिसके अंतर्गत दलितों ने हिंदू रैली को पूर्वत: अस्वीकृत किया।, उदाहरण के लिए फुले के विद्यालय में एक 13 साल की एक छात्रा, मुक्ताबाई ने आधुनिक शिक्षा के प्रभाव से 1852 में लिखा:-, सामना करना पड़ा?, > वीरेशलिंगम, > पंडिता रमाबाई, > विद्यासागर, > दयानंद सरस्वती, > जोतिबा फुले, > श्री नारायण गुरु, > सर सैयद अहमद खान, > कोई अन्य, हर वो मजहब, जो कुछ लोगों को सहूलियत देकर, बाकी को वंचित कर दे,, हर उस मजहब को, ए इंसान, इस धरती से वंचित कर दे,, हर उस मजहब के लिए, एक जरा भी गुरूर को, ए इंसान, अपने जेहन में ना रहने दे, 21, 2019-2020