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74, , , , इकाई 26 समकालीन हिंदी काव्य, , , , इकाई की रूपरेखा, , 26.0. उद्देश्य, , 26.1 प्रस्तावना, , 26.2 समकालीन कविता की पृष्ठभूमि, 26.2.1 नयी कविता और समकालीन कविता, 26.2.2 समकालीन परिस्थितियाँ, 26.2.3 समकालीन कविता की प्रमुख धाराएँ, , 26.3 समकालीन कविता की प्रमुख प्रवृत्तियाँ ,, 26.3.1 साठोत्तरी कविता, 26.3.2. प्रगतिशील-जनवादी कविता, 26.3.3 नवगीत परंपरा, , 26.4 समकालीन कविता की प्रमुख शिल्पगत विशेषताएँ, 26.4.1 काव्य-भाषा, 26.4.2 शिल्प-पक्ष, 26.4.3. प्रतीक और बिंब, , 26.5 समकालीन कविता के प्रमुख कवि, , 26.6 सारांश, , 26.7 उंपयोगी पुस्तकें, , 26.8 बोध प्रश्नों/अभ्यासों के उत्तर, , , , 26.0 उद्देश्य, , , , हिंदी साहित्य के इतिहास से संबंधित इस पाठ्यक्रम के खंड 7 की यह अंतिम इकाई है।, इसमें नयी कविता के बाद की प्रमुख काव्य प्रवृत्तियों पर विचार किया गया है। इस इकाई, को पढ़ने के बाद आप:, , # हिंदी की समकालीन कविता की पृष्ठभूमि बता सकेंगे;, ०» समकालीन कविता की प्रमुख काव्य प्रवृत्तियों का परिचय दे सकेंगे;, ७ समकालीन कविता की प्रमुख शिल्पगत विशेषताएँ समझा सकेंगे; और, , * समकालीन कविता से जुड़े प्रमुख कवियों और उनकी प्रमुख रचनाओं के बारे में बता, सकेंगे। *, , , , 23.1 प्रस्तावना े, , , , इस खंड की आपने अब तक तीन इकाइयाँ पढ़ ली हैं जिनमें आपने छायावाद, छायावादोत्तर, काब्य, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद और नयी कविता के बारे में जानकारी हासिल की हैं। आपने, अनुभव किया होगा कि छायावाद से नयी कविता तक हिंदी कविता में जीवन दृष्टि, विषय, वस्तु, काव्य-रूप और काव्य-भाषा सभी दृष्टियों से महत्वपूर्ण परिवर्तन आया है। छायावाद, , से प्रगतिवाद तक की काव्य-यात्रा की प्रमुख प्रेरणा राष्ट्रीय आंदोलन था। जबकि प्रयोगवाद, , और नयी कविता का जन्म इनसे भिन्न स्थितियों के बीच हुआ। प्रयोगवाद प्रगतिवाद की, प्रतिक्रियास्वरूप जन्मा था। उसने काव्य में प्रयोग पर अधिक बल दिया। प्रयोगवाद के, दौरान कविता समाज सापेक्ष होने की बजाए व्यक्ति-उन्मुख हुई । नयी कविता ने भी
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व्यक्ति की स्वतंत्रता और अनुभवपरकता पर बल दिया परन्तु इस काव्यधारा में प्रगतिशील समकालीन हिंदी काव्य, और समाजोन्मुख काव्य प्रवृत्ति भी स्पष्ट दृष्टिगोचर होती थी ।, , नयी कविता की उपर्युक्त दोनों धाराओं-व्यक्तिवादी-आधुनिकतावादी तथा प्रगतिशील का, विकास हम समकालीन कविता में देख सकते हैं। हिंदी में समकालीन कविता जैसी कोई, काव्य-प्रवृत्ति नहीं है। नयी कविता के बाद के दौर में उभरे विभिन्न काव्यांदोलनों,, काव्यधाराओं और काव्य प्रवृत्तियों को ही यहाँ सुविधा के लिए समकालीन कविता कहा, गया है। नयी कविता का काल प्राय: सन् 1959-60 तक माना जाता है। इस प्रकार इस, इकाई में पिछले तीन दशकों की हिंदी कविता की विकास यात्रा का परिचय दिया जाएगा।, , नयी कविता के बाद उभरी काव्य प्रवृत्तियों का नयी कविता से क्या संबंध था? वे कौन-सी, परिस्थितियाँ थीं ज़िन्होंने इन प्रवृत्तियों को जन्म दिया ? इन काव्य-प्रवृत्तियों की क्या, विशेषताएँ हैं. तथा ईंस दौर के प्रमुख कवि कौन-कौन से हैं? आदि विभिन्न पक्षों का, उल्लेख इकाई में किया गया है। इकाई को पढ़ने से आपके सम्मुख समकालीन कविता की, पूरी तस्वीर उभर आएगी।, , , , 26.2 समकालीन कविता की पृष्ठभूमि, , , , "तीसरा सप्तक' का प्रकाशन 1959 में हुआ था। आमतौर पर इस अवधि तक नयी ह, कविता का काल माना जाता है। नयी कविता के बाद के दौर की कविता को क्या नाम, दिया जाए, यह विवाद का विषय रहा है । सन् 1960 के बाद के दौर में नयी कविता की, , * व्यक्तिवादी-आधुनिकतावादी काव्यधारा ही और अधिक तीब्रता के साथ विकसित हुई।, यद्यपि इस दौर में उभरे कवियों ने अपने की पूर्व की काव्यधाराओं से अलगाया था। लेकिन, साठ के बाद के पहले दशक की कविता जिसे साठोत्तरी कविता नाम भी दिया गया है, अपने, को कई नामों और आंदोलनों से व्यक्त करती है। अकविता, ब्रिद्रोही कविता, बीट कविता,, सनातन सूर्योदयी कविता, युयुत्सावादी कविता, नूतन कविता, सहज कविता, विचार कविता, आदि विभिन्न नामों के साथ सातवें दशक में युवा कवि नये तेवर और नयी भंगिमा के साथ, उभर रहे थे परन्तु इनमें से एक भी नाम और आंदोलन हिंदी काव्य परंपरा में स्थायी, महत्व प्राप्त नहीं कर सका। ये सभी काव्यांदोलन क्षणजीवी प्रमाणित हुए। परन्तु महत्व, इस बात का नहीं है। अलग-अलग नामों और घोषणाओं के साथ जो नये काव्यांदोलन, उभर रहे थे, वे सारी भिन्नताओं के दावों के बावजूद एक सी काव्य दृष्टि और विचार दृष्टि, का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। सर्वस्वीकृत प्रवृत्तिगत नाम के अभाव में हम भी सातवें दशक, की इस युवा कविता को सामेत्तरी कविता कहेंगे।, , सन 1967-68 में भारतीय परिस्थितियों में कछ महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए जिनकी चर्चा हम, आगे करेंगे, उनका प्रभाव हिंदी कविता पर भी पड़ा और साठोत्तरी कविता की, व्यक्तिवादिता, निषेधना, पराजय-भाववाद आदि से कवि धीरे-धीरे मुक्त होने लगा और, उसके बदले एक नयी आशा और उत्साह का उदय हुआ। हिंदी कविता का यह दौर, अत्यंत महत्वपूर्ण है यद्यपि (75 के बाद इस कविता के तेवर में कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तन, आए । समकालीन कविता के इस विकास क्रम की पृष्ठभूमि पर आइए, विस्तार से चर्चा, करें।, , 26.2.1 नयी कविता और समकालीन कविता, , नयी कविता पर विचार करते हुए हमने लिखा था कि नयी कविता पर द्वितीय विश्वयुद्ध के, , बाद की विश्व परिस्थितियों और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की राष्ट्रीय परिस्थितियों का, , असर था। विश्व युद्ध में हुए भयावह विनाश ने यूरोप को व्यापक स्तर पर प्रभावित, , किया । मृत्यु और विनाश का भय जीवन की वास्तविकता बन गया था | इसके कारण, , मध्यवर्ग में भोगवाद की प्रवृत्ति बढ़ी । विश्व बाजार की होड़ और युद्धों की जघन्यता के, , बीच व्यक्ति को यह लगने लगा कि सत्य केवल मृत्यु है, शेष सब क॒छ मिथ्या है। आस्था,, , आदर्श, मूल्य, प्रगति, भविष्य सभी कुछ मिथ्या है। इस सोच ने लोगों को स्वार्थ-प्रेरित और, , आत्म केन्द्रित बनाया । 75
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आधुनिक हिंवी काव्य, , 76, , , , इस दौर में व्यक्ति-स्वातंत्रय का हे! भी लगाया गया । इसके पीछे मार्क्सवाद विरोध की, भावना भी थी। सोवियत संघ तथा अन्य समाजवादी देशों के बारे में यह धारणा प्रचलित, थी कि इन देशों में व्यक्ति को किसी प्रकार की स्वतंत्रता उपलब्ध नहीं है। इसलिए, मार्क्सवाद विरोध व्यक्ति स्वातंत्रय के नारे में बदुल गया । लेकिन व्यक्ति की स्वतंत्रता की, यह माँग मध्यवर्ग, के व्यक्ति की ही माँग थी,जो शेष जनता को “भीड़” के रूप में देखता, था और अपने को उससे घिरा पाता था | समाजवाद विरोध ने इस मध्यवर्गीय व्यक्ति को, विचारधारा से भी मुक्त कर दिया और कवि केवल निजी विवेक को ही अंतिम सत्य बताने, लगां। नये कवि का मानना था कि व्यक्ति का विवेक ही उसे सही दिशा दे सकता है न कि, कोई बाहरी सत्य | नयी कविता में औद्योगिक सभ्यता की भी तीब्र आलोचना थी। बढ़ते, औद्योगीकरण और मशीनीकरण ने मनुष्य को भावात्मक स्तर पर अकेला और असहाय, बनाया, स्वार्थी और लोभी भी । भारत में भी स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हुए विकास ने, मध्यवर्ग के संवेदनशील मन पर गहरा असर डाला | किसी समाजोन्मुख चिंतन के अभाव, में इस दौर का कवि अपने आसपास की सारी समस्याओं का कारण औद्योगिक विकास को, ही मानने लगा । नयी कविता में मनुष्य की निजी अनुभूतियों की अभिव्यक्ति पर अधिक, बल दिया गया है! इस प्रकार नयी कविता की व्यक्तिवादी-आधुनिकतावादी धारा ने जो, तरुता अपनाया उसी का विकास (या पतन) हम साठोत्तरी कविता में देख सकते हैं ।, , साठोत्तरी कविता में यह व्यक्तिवाद और प्रबल हुआ। निजी विवेक में भी कहीं-न-कहीं, चिंतन और सोच की संभावना निहित थी, जबकि साठोत्तरी कविता ने ''विवेक से विदाई”, का नारा दिया। इस दौर के कवियों के लिए भी जनता भीड़ ही रही वरन् इस “भीड़” के, प्रति उसकी घुणा और नफरत और अधिक तीत्र रूप में व्यक्त हुई। साठोत्तरी कविता में, भोगवाद यौन-जुंगुप्सा में बदल गया। नारी मात्र देह रह गयी । कवियों में पराजय और, निषेध की भावना ही प्रबल थी। आस्था, आशा और आदर्श जैसे शब्द कविता से लुप्त हो, गये थे । व्यक्तिवाद के प्रबल आग्रह ने कवियों को छोटे-छोटे गुटों में बदल दिया | नित नये, आंदोलन बनने और टूटने लगे। कविता के क्षेत्र में संपूर्ण अराजकता की स्थिति व्याप्त हो, गई। यह अराजकता कविता की भाषा, रूप और शिल्प में भी व्यक्त होने लगी। कविता, कवि की मानसिक प्रतिक्रियाओं की वाहक मात्र रह गयी। प्रयोग के नाम पर कविता और, भाषा दोनों से खिलवाड़ किया जाने लगा। ऐसे काव्य-बिंबों और प्रतीकों का प्रयोग होने, लगा जो केवल जुगुप्सा उत्पन्न करते थे। इन युवा कवियों ने विद्रोही तेवर के साथ अपनी, कविता को ''एंटी-पोइट्री” या अकविता नाम दिया। नयी कविता की व्यक्तिवादी, आधुनिकतावादी धारा की इस परिणति के कारण तत्कालीन परिस्थितियों में निहित थे ।, , 26.2.2 समकालीन परिस्थितियाँ, , सन् 1947 में भारतीय राजसत्ता की स्थापना जिस आशा, उत्साह और उमंग के साथ हई, थी, वह जल्दी ही धूल-धुसरित होने लगी । बढ़ती बेरोजगारी, भूखमरी, सूखा, बाढ़ आदि, ने आम लोगों के जीवन के कष्टों को बढ़ाया ही, कम नहीं किया । इसका असर छोटे नगरों, और कस्बों में रहने वाले युवाओं पर भी पड़ा | प्रगति और विकास का जब कोई फल, दिखाई नहीं दिया तो उनका विचलित होना स्वाभाविक था। एक तरह की मोहभंग की, स्थिति इसे कहा जा सकता है। इन परिस्थितियों को बदलने वाली शक्तियाँ भी निस्तेज, थीं। देश में वामपंथी और प्रगतिशील आंदोलन अपने अंतर्विरोधों के कारण बिखर गया, था। ऐसे में युवा मन जल्दी ही निराशां, पराजय और नकारवाद की गिरफ्त में आ गया।, कस्बों और छोटे नगरों में रहने वाले युवा कवि जब महानगरों में आकर रहने लगे तो उन्हें, एक नये आश्चर्यलोक के दर्शन हुए। महानगर में फैली संपन्नता, विलासिता और, चमक-दमक ने उसे चकाचौंध कर दिया। अपने कस्बे के गतिहीन जीवन और महानगर, की इस रफ्तार भरी जिंदगी को वह सहज ही जज्ब नहीं कर पाया । इस अंतर्विरोध को, समझने की ब्रजाय उसे यहाँ और वहाँ दोनों ही जीवन निरर्थक लगने लगे। एक इसलिए, कि वह उसकी मध्यवर्गीय पहुँच से परे था और दूसरा इसलिए कि वह उसकी आकांक्षाओं, से अत्यंत अल्प था। ऐसे में सब कुछ को नकारने के विद्रोही तेवर अपनाते हुए हर चीज, को और अपने-आपको भी निरर्थक मानने और बताने लगा। विचार, प्रेम, आस्था, संघर्ष, आदि शब्द उसे गाली की तरह लगते थे।, , सातवें दशक की यह मानसिकता उस दौर के मध्यवर्ग की मन:स्थिति को व्यक्त करती है।
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लेकिन यह-कोई स्थायी चीज नहीं थी। 1962 में चीन के साथ संघर्ष और 1965 में समकालीन हिंदी कब्प, पाकिस्तान के साथ लड़ाई ने स्थितियों को और बदतर बनाया । शासक पार्टी कांग्रेस की, लोकप्रियता कम होने लगी। जनता का असंतोष विभिन्न जन आंदोलनों के माध्यम से व्यक्त, होने लगा। 1967 के चुनांवों में लोकसभा में कांग्रेस को मामूली-सा बहुमत प्राप्त हुआ और, कई राज्यों में विरोधी दलों की संयुक्त सरकारें बनीं। पश्चिम बंगाल और केरल में, वामपंथी सरकारें स्थापित हुईं। देश के कुछ हिस्सों में नक्सलवादी आंदोलन के रूप में, सशस्त्र विद्रोह भी हुए। बहरहाल, सातवें दशक की समाप्ति तक सारे देश में जगह-जगह, जनता का असंतोष और परिवर्तन की आकांक्षा जनांदोलनों के रूप में व्यक्त हो रही थी।, इसका असर युवा कवियों पर पड़ने लगा था। जनांदोलनों में उन्हें नयी आशा और नये, भविष्य के सपने उगते नजर आने लगे । उनकी कविता को एक नया प्रेरणा संसार मिला ।, वे पराजय और नकारवाद के चंगुल से मुक्त होकर जतता की अपराजेय शक्ति के गीत, गाने लगे। ऐसे समय इन कवियों को काव्य परंपरा के रूप में प्रगतिवाद का स्मरण आना, स्वाभाविक था। आश्चर्य यह था कि नागार्जुन, त्रिलोचनशास्त्री, केदारनाथ अग्रवाल,, मुक्तिबोध, शमशेर आदि प्रगतिवादी कवि ही नहीं रघुवीर सहाय, केदारनाथ सिंह जैसे नये, कवि भी इस निराशा और हताशा के दौर में भी जीवन की आस्था और संघर्ष की कविता, लिख रहे थे। लेकिन व्यक्तिवादी- पराजयवादी स्वर इतना प्रबल था कि उसके शोर में ये, कविताएँ हाशिए पर चली गईं। लेकिन बदली परिस्थितियों ने एक बार फिर इस, प्रगतिशील-जनवादी धारा को काव्य परंपरा के केन्द्र में स्थापित किया ।, , 1975 तक क्रांति और परिवर्तन का स्वर मुखर से मुखरतर होता गया | कवियों को लग, रहा था कि बस क्रांति तो उनके दरवाजे पर दस्तक दे रही है लेकिन तभी देश में, आपातकाल की घोषणा हो गई | राजनीतिक गतिविधियाँ ठप्प पड़ गईं, जनांदोलन लुप्त हो, गये, चारों ओर सन्नाटा और आतंक का साम्राज्य छा गया। कवियों के लिए यह अकल्पनीय, स्थिति थी। लेकिन इस बार वह निषेधवाद और पराजय-भावना से ग्रस्त होने से बचा, , रहा। क्रांति का स्वर तो लुप्त हो गया परन्तु जनता में आस्था और परिवर्तन की आकांक्षा, बरकरार रही। 1977 में हुए घटनाचक्र ने एक बार फिर उसे उत्साहित किया, परन्तु, इसके बाद के लगभग डेढ़ दशक में राजनीतिक परिस्थितियों में परिवर्तन तो होते रहे, परन्तु जनता की बदहाली में कोई परिवर्तन नहीं आया बल्कि बढ़ती सांप्रदायिकता,, जातिवाद और क्षेत्रीयतावाद ने राष्ट्रीय एकता और अखंडता के सामने ही गंभीर चुनौती, खड़ी कर दी। आज हिंदी कविता इन स्थितियों के प्रति अधिक सजंग है, उसका चिंतन, अधिक प्रौढ़ और उसकी अभिव्यक्ति अधिक संतुलित और सकारात्मक है। आगे हम हिंदी, कविता के इसी विकास-क्रम का परिचय प्राप्त करेंगे ।, , 26.2.3 समकालीन कविता की प्रमुख धाराएँ, , साकेत्तरी कविता: नग्मी कविता ने काव्य रचना के जो मुहावरे और सरोकार अपनाये थे., वह सन् 60 तक आते-आते रूढ़ होने लगे। अधिकांश कवि एक सा कथ्य, एक सी भाषा,, बिंब, प्रतीक, शैली आदि दोहराने लगे। जाहिर है, इस स्थिति को तोड़ना आवश्यक हो, गया। 1960 के आसपास उभरे युवा कवियों ने नयी कविता की रूढ़िबद्धता से भिन्न मार्ग, खोजने की कोशिश की । सातवें दशक में सामने आये कवियों ने लघु पत्रिकाओं के माध्यम, से अपने को व्यक्त करना श्रू किया । हर लघु पत्रिका के साथ एक नया काव्यांदोलन, जन्म ले रहा था। नये काव्यांदोलन के घोषणा पत्र तैयार हो रहे थे। अकविता, सनातन, सूर्योदयी कविता, युयुत्सावादी कविता, विद्रोही कविता, नूतन कविता, बीट कविता, नंगी, कविता, ठोस कविता, सहज कविता, विचार कविता आदि लगभग पचास कविता आंदोलनों, की चर्चा डॉ. जगदीश गुप्त ने अपने लेख "किसिम-किसिम की कविता” में की है।, , 1963 में जगदीश चतुर्वेदी ने ''प्रारंभ'” का संपादन किया था जिसमें पहली बार ऐसी, , कविताएँ संग्रहीत हुई थीं जो नयी कविता से भिन्त एक नयी प्रवृत्ति की सूचक थी।, , जगदीश चतर्वेदी के ही संपादन में 'अकविता' पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ। इसके, , प्रवेशांक में लिखा गया था-''आज का कवि परंपरागत रूढ़ियों और संस्कारों के प्रति, , विक्षुब्ध है और उसका काव्यात्मक संवेदन भी उसी अनूपात में परंपरा से मुक्त भी और, , निस्संग भी.। परिवर्तित सौन्दर्यवोध के कारण आज का कवि पिछली परंपराओं को नकार, , कर अपना संपूर्णतया पृथक् मार्ग भी खोजने में रत है। आधुनिक मनोवृत्ति की इसी कं
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आशुनिक हिंदी कव्य, , 78, , अनिवार्यता को हम 'अकविता” के माध्यम से व्यक्त करने का | कर रहे हैं।” (डॉ., हरदयाल की पुस्तक "हिंदी कविता की प्रकृति से उद्धृत पृ. 137) इस कथन से स्पष्ट है, कि सातऊोत्तरी दौर के कवि भी अपने को अपने से पूर्व की काव्यधारा से भिन्न मानते थे और, 'एक नये मार्ग की खोज पर बल दे रहे थे। परन्तु क्या ये भिन्न-भिन््त काव्यांदोलन एक सी, जीवन दृष्टि और काव्य मूल्य से प्रेरित नहीं थे ? स्वयं जगदीश चतुर्वेदी ने लिखा है, ''नई, कविता से इतर जिस काव्य-संवेदना का प्रारंभ इस दशक की कविता में हुआ, वह, युगांतकारी और समय-सापेक्ष है “इस दशक में अस्वीकृति के विभिन्न स्वर कई, काव्यांदोलनों के नाम से मुखरित हुए और उन निषेधात्मक काव्याभिव्यक्तियों ने पिछले, कई दशकों से चली आ रही काव्य-संवेदना में आमूल परिवर्तन किया |”, , "काव्य संवेदना में आमूल परिवर्तन” की जो बात जगदीश चतुर्वेदी ने कही है, वह किस, हद तक साठोत्तरी कविता पर लागू होती है यह विवाद का विषय है, परन्तु महत्वपूर्ण है, उस दौर में उपजे क्षणजीवी काव्यांदोलनों की एकता की पहचान | निश्चय ही साठोत्तरी, कविता की केन्द्रीय विशेषता ''निषेधात्मकता' को माना जा सकता है। इसलिए हम यहाँ, अकविता, ठोस कविता, बीट कविता आदि "किसिम-किसिम” नामों से प्रचलित इस, साठोत्तरी कविता को एक ही काव्य-प्रवृत्ति की भिन्न-भिन्न अभिव्यक्तियां मानकर विचार, करेंगे। इस काव्य प्रवृत्ति की विशेषताओं की चर्चा हम आगे के भागों में करेंगे।, , प्रगतिशील-जनवादी कविता: 1967 के बाद बदली परिस्थितियों का प्रभाव कवियों पर भी, पड़ रहा था। जहाँ एक ओर पुराने प्रगतिशील कवि नयी ऊर्जा और तेजस्विता के साथ, सामने आ रहे थे, कहीं रंघुवीर सहाय, सर्वेश्वर आदि नये कवि अधिक जनोन्मुखी और, सकारात्मक रचनाधर्मिता का परिचय दे रहे थे । धूमिल, लीलाधर जगूड़ी, राजकमल, चौधरी जैसे साठोत्तरी दौर के कवियों पर भी इस नये प्रगतिशील-जनवादी उभार का असर, दिखाई दे रहा था1 आठवें दशक में सामने आने वाले अधिकांश कवि तो इस़ उभार से, प्रभावित और प्रेरित थे,ही। यह नयी प्रगतिशील-जनवादी कविता चौथे-पांचवें दशक के, प्रगतिवाद का अनुकरण मात्र नहीं था | यह काव्यधारा भी अपनी प्रेरणा जन' आंदोलनों से, ले रही थी परन्तु जीवन-यथार्थ, काव्य रूप, शैली आदि की दृष्टि से यह निर्तांत भिन्न, काव्यधारा थी । इसकी विशिष्टताओं की चर्चा हम आगे करेंगे।, , नवगीत परंपरा: छायावाद से प्रगतिवाद तक कविता लिखने के साथ-साथ गीत लिखने की, परंपरा भी अबाध रूप से चलती रही । परन्तु प्रयोगवाद और नयी कविता में गैर, रूमानियत पर इतना अधिक बल दिया गया कि गीत लेखन की परंपरा लगभग अवरूद्ध हो, गयी । छठे दशक के अंत तक आते-आते कुछ गीतकारों ने “नयी कविता” की तरह, "नवगीत का नारा दिया। नवगीत की यह परंपरा छायावाद की रूमानी धारा से भिन्न, थी। परन्तु इसने हिंदी काव्य परंपरा को-अधिक प्रभावित नहीं किया । यह अवश्य है कि, नवगीत की यह परंपरा बाद के दंशकों में भी चलती रही और कविता के क्षेत्रों में होने वाले, परिवर्तनों का असर.भी नवगीत परंपरा पर पड़ा और आठवें दशक में जनवादी गीत की भी, सुदृढ़ धारा दिखाई देने लगी। नवगीत की इस परंपरा पर लोकगीतों का असर था।, नवगीत की विशेषताओं की चर्चा भी हम आगे करेंगे।, , इस प्रकार, समकालीन कविता को हम उपर्युक्त तीन काव्यधाराओं में अभिव्यक्त होता पाते, , हैं।, , , , बोध प्रश्न, 1) साठोत्तरी हिंदी कविता में नयी कविता की किस धारा का विकास हुआ ?