Page 1 :
2, मेरे, संग की औरतें, मुदुला गर्ग, 0956CH02, मेरी, एक नानी थीं। जाहिर है। पर मैंने उन्हें कभी देखा नहीं । मेरी, माँ की शादी होने से पहले ही उनकी मृत्यु हो गई थी। शायद नानी से कहानी न, सुन पाने के कारण बाद में, हम तीन बहिनों को खुद कहानियाँ कहनी पड़ीं। नानी, से कहानी भले न सुनी हो, नानी की कहानी ज़रूर सुनी और बहुत बाद में जाकर, उसका असली मर्म समझ में आया। पहले इतना ही जाना कि मेरी नानी, पारंपरिक,, अनपढ़, परदानशीं' औरत थीं, जिनके पति शादी के तुरंत बाद उन्हें छोड़कर बैरिस्ट्री, पढ़ने विलायत चले गए थे। कैंब्रिज विश्वविद्यालय से डिग्री लेकर जब वे लौटे और, विलायती रीति-रिवाज के संग जिंदगी बसर करने लगे तो, नानी के अपने, रहन-सहन पर, उसका कोई असर नहीं पड़ा, न उन्होंने अपनी किसी इच्छा-आकांक्षा, या पसंद-नापंसद का इज़हार पति पर कभी किया।, 1. परदा करने वाली स्त्री, 2021-22
Page 2 :
14 कृतिका, पर जब कम-उम्र में नानी ने खुद को मौत के करीब पाया तो, पंद्रह वर्षीय, इकलौती बेटी 'मेरी माँ' की शादी की फ़िक्र ने इतना डराया कि वे एकदम, मुँहज़ोर' हो उठीं। नाना से उन्होंने कहा कि वे परदे का लिहाज़ छोड़कर उनके, दोस्त स्वतंत्रता-सेनानी प्यारेलाल शर्मा से मिलना चाहती हैं। सब दंग-हैरान रह, गए। जिस परदानशीं औरत ने पराए मर्द से क्या, खुद अपने मर्द से मुँह खोलकर, बात नहीं की थी, आखिरी वक्त में अजनबी से क्या कहना चाह सकती है? पर, नाना ने वक्त की कमी और मौके की नज़ाकत की लाज रखी! सवाल-जवाब में, वक्त बरबाद करने के बजाए फ़ौरन जाकर दोस्त को लिवा लाए और बीबी के, हुजूर में पेश कर दिया।, अब जो नानी ने कहा, वह और भी हैरतअंगेज़ था। उन्होंने, कि मेरी लड़की के लिए वर आप तय करेंगे। मेरे पति तो साहब हैं और मैं नहीं, चाहती मेरी बेटी की शादी, साहबों के फ़रमाबरदार से हो। आप अपनी तरह, कहा, "वचन दीजिए, ety, आज़ादी का सिपाही ढूँढ़कर उसकी शादी करवा दीजिएगा । " कौन कह सकता था, कि अपनी आज़ादी से पूरी तरह बेखबर उस औरत के मन में देश की आज़ादी के, लिए ऐसा जुनून होगा। बाद में मेरी समझ में आया कि दरअसल वे निजी जीवन, में भी काफ़ी आज़ाद- खयाल रही होंगी। ठीक है, उन्होंने नाना की ज़िंदगी में कोई, दखल नहीं दिया, न उसमें साझेदारी, की, पर अपनी जिंदगी को अपने ढंग, से जीती ज़रूर रहीं। पारंपरिक, घरेलू,, उबाऊ और खामोश जिंदगी जीने में,, आज के हिसाब से, क्रांतिकारी चाहे, कुछ न रहा हो दूसरे की तरह जीने के, लिए मजबूर न होने में असली आज़ादी, 11, कुछ ज्यादा ही थी।, 1. बहुत बोलने वाली 2. आज्ञाकारी, 2021-22
Page 3 :
मेरे संग की औरतें 15, खैर, इस तरह मेरी माँ की शादी ऐसे पढ़े-लिखे होनहार लड़के से हुई जिसे, आज़ादी के आंदोलन में हिस्सा लेने के अपराध में आई.सी. एस. के इम्तिहान में, बैठने से रोक दिया गया था और जिसकी जेब में पुश्तैनी पैसा-धेला एक नहीं था।, माँ, बेचारी, अपनी माँ और गांधी जी के सिद्धांतों के चक्कर में सादा जीवन जीने, और ऊँचे खयाल रखने पर मजबूर हुईं। हाल उनका यह था कि खादी की साड़ी, उन्हें इतनी भारी लगती थी कि कमर चनका खा जाती। रात -रात भर जागकर वे उसे, पहनने का अभ्यास करतीं, जिससे दिन में शर्मिंदगी न उठानी पड़े। वे, नाजुक थीं कि उन्हें देखकर उनकी सास यानी मेरी दादी ने कहा था, "हमारी बहू, तो ऐसी है कि धोई, पोंछी और छींके पर टाँग दी । " गनीमत यही थी कि किसी ने, कुछ ऐसी, उन्हें छींके पर से उतारने की पेशकश नहीं की ।, क्यों नहीं की, उसकी दो वजहें थीं। पहली यही कि हिंदुस्तान के तमाम, वाशिंदों की तरह, उनके ससुरालवाले भी, साहबों से खासे अभिभूत थे और मेरे, नाना पक्के साहब माने जाते थे। बस जात से वे हिंदुस्तानी थे, बाकी चेहरे-मोहरे,, रंग-ढंग, पढ़ाई-लिखाई, सबमें अंग्रेज़ थे। मजे की बात यह थी कि हमारे देश, में आज़ादी की जंग लड़ने वाले ही अंग्रेज़ों के सबसे बड़े प्रशंसक थे ,, हों या मेरे पिता जी के घरवाले। भले लड़का, आज़ादी की लड़ाई लड़ते,, खाली और शोहरत सिर करता रहे, दबदबा उसके साहबी ससुर का ही था। एक, आन-बान-शान वाले साहब ने उनके सिरफिरे लड़के को अपनी नाज़ुक जान लड़की, सौंपी, उससे रोमांचक क्या कोई परिकथा होती! नानी की सनकभरी आखिरी, ख्वाहिश और नाना की रज़ामंदी, वे रोमांचक उपकथाएँ थीं , जो कहानी के तिलिस्म, को और गाढ़ा बना चुकी थीं। दूसरी वजह माँ की अपनी शख्सियत थी । उनमें, खूबसूरती, नज़ाकत, गैर-दुनियादारी के साथ ईमानदारी और निष्पक्षता कुछ इस, तरह घुली-मिली थी कि वे परीजात से कम जादुई नहीं मालूम पड़ती थीं| उनसे, ठोस काम करवाने की कोई सोच भी नहीं सकता था। हाँ, हर ठोस और हवाई, काम के लिए उनकी जबानी राय जरूर माँगी जाती थी और पत्थर की लकीर, की तरह निभाई भी जाती थी।, sh, गांधी-नेहरू, जेब, 2021-22
Page 4 :
16 ০ कृतिका, मैंने अपनी दादी को कई बार कहते सुना था, "हम हाथी पे हल ना जुतवाया, करते, हम पे बैल हैं।" बचपन में ही मुझे इस जुमले का भावार्थ समझ में आ गया, था, जब देखा था कि, हम बच्चों की ममतालू परवरिश के मामले में माँ के सिवा, घर के सभी प्राणी मुस्तैद' रहते थे। दादी और उनकी जिठानियाँ ही नहीं,, खुद-मर्दजात, पिता जी भी।, पर ठोस काम न करने का यह मतलब नहीं था कि माँ को आज़ादी का जुनून, कम था। वह भरपूर था और अपने तरीके से वे उसे भरपूर निभाती रही थीं। ज़ाहिर, है कि जब जुनून आज़ादी का हो तो, उसे निभाना भी आज़ादी से चाहिए । जिस-तिस, से पूछकर, उसके तरीके से नहीं, खुद अपने तरीके से।, हमने अपनी माँ को कभी भारतीय माँ जैसा नहीं पाया। न उन्होंने कभी हमें लाड़, किया, न हमारे लिए खाना पकाया और न अच्छी पत्नी-बहू होने की सीख दी। कुछ, अपनी बीमारी के चलते भी, वे घरबार नहीं सँभाल पाती थीं पर उसमें ज़्यादा हाथ, 11, उनकी अरुचि का था। उनका ज्यादा वक्त किताबें पढ़ने में बीतता था, बाकी वक्त, साहित्य-चर्चा में या संगीत सुनने में और वे ये सब बिस्तर पर लेटे-लेटे किया करती, थीं। फिर भी, जैसा मैंने पहले कहा था, हमारे परंपरागत दादा-दादी या उनकी, ससुराल के अन्य सदस्य उन्हें न नाम धरते थे, न उनसे आम औरत की तरह होने, की अपेक्षा रखते थे। उनमें सबकी इतनी श्रद्धा क्यों थी , जबकि वह पत्नी, माँ और, बहू के किसी प्रचारित कर्तव्य का पालन नहीं करती थीं? साहबी खानदान के रोब, के अलावा मेरी समझ में दो कारण आए हैं-(1) वे कभी झूठ नहीं बोलती थीं, और (2) वे एक की गोपनीय बात को दूसरे पर जाहिर नहीं होने देती थी ।|, पहले के कारण उन्हें घरवालों का आदर मिला हुआ था; दूसरे के कारण, बाहरवालों की दोस्ती। दोस्त वे हमारी भी थीं , माँ की भूमिका हमारे पिता बखूबी, निभा देते थे। मुझे याद है, बचपन में भी हमारे घर में किसी की चिट्ठी आने पर, कोई उससे यह नहीं पूछता था कि उसमें क्या लिखा है। भले वह एक बहन की, 1. तैयार,, चुस्त, तत्पर, 2021-22
Page 5 :
मेरे संग की औरतें 17, दूसरी के नाम क्यों न हो। और माँ यह जानने को बेहाल हों कि बीमारी से वह, उबरी या नहीं। छोटे से घर में छह बच्चों के साथ, सास-ससुर आदि के रहते, हुए भी, हर व्यक्ति को अपना निजत्व बनाए रखने की छूट थी। इसी निजत्व, बनाए रखने की छूट का फ़ायदा उठाकर, हम तीन बहनें और छोटा भाई लेखन, के हवाले हो गए।, लीक से खिसके, अपने पूर्वजों में, माँ और नानी ही रही होतीं तो गरनीमत, रहती, पर अपनी एक परदादी भी थीं, जिन्हें कतार से बाहर चलने का शौक था।, उन्होंने व्रत ले रखा था कि अगर खुदा के फ़ज़ल' से, उनके पास कभी दो से, ज़्यादा धोतियाँ हो जाएँगी तो वे तीसरी दान कर देंगी । जैन समाज में अपरिग्रह, की सनक बिरादरी बाहर हरकत नहीं मानी जाती, इसलिए वहाँ तक तो ठीक था।, पर उनका असली जलवा तब देखने को मिला, जब मेरी माँ पहली बार गर्भवती, हुईं। मेरी परदादी ने मंदिर में जाकर मन्नत माँगी कि उनकी पतोहू का पहला, बच्चा लड़की हो। यह गैर-रवायती मन्नत माँगकर ही उन्हें चैन नहीं पड़ा। उसे, भगवान और अपने बीच पोशीदा रखने के बजाए सरेआम उसका ऐलान कर, दिया। लोगों के मुँह खुले-के-खुले रह गए। उनके फ़ितूर की कोई वाजिब वजह, ढूँढ़े न मिली। यह भी नहीं कह सकते थे कि खानदान में पुश्तों से कन्या पैदा, नहीं हुई थी, इसलिए माँ जी बेचारी कन्यादान के पुण्य के अभाव को पूरा करने, के चक्कर में थीं। क्योंकि पिता जी की ही नहीं, दादा जी की भी बहनें मौजूद, थीं। हाँ, पहला बच्चा हर बहू का बेटा होता रहा था। खैर, माँ जी ने अपनी तरफ़, से कोई सफ़ाई नहीं दी, बल्कि बदस्तूर' मंदिर जाकर मन्नत दुहराती रहीं । पूरा, नकुड़ गाँव जानता था कि माँ जी का भगवान के साथ सीधा-सीधा तार जुड़ा हुआ, है। बेतार का तार। इधर वह तार खींचती, उधर टन से तथास्तु बजता। मेरी दादी, तो पहली मर्तबा में ही तैयार हो गई थीं कि गोद में खेलेगी, तो पोती। पर माँ, जी की आरजू किस कदर रंग लाएगी, उसका उन्हें भी गुमान न रहा होगा।, 1. अनुग्रह, दया 2. संग्रह न करना, किसी से कुछ ग्रहण न करना 3. नियम से, 2021-22