Page 1 :
(प्रस्तुत यात्रा वृतांत में नर्मदा नदी के सौंदर्य के साथ-साथ उसके तट के जनजीवन की, अंतरंग झलक भी मिलती है |), , गंगोत्री, यमुनोत्री या फिर नर्मदा कुंड - ये वे स्थान है, जहां नदी पहाड़ की कोख से, निकलकर पहाड़ की गोद में आती है । पहाड़ के गर्भ में छुपा हुआ पानी यहाँ अवतरित, होता है । नवजात शिशु की तरह नदी यहां धवल उज्जवल और कोमल होती है ।, , यहां से हमारी यात्रा का नया अध्याय शुरू हुआ | अभी तक हम नर्मदा के उत्तर - तट पर, थे, यहां से दक्षिण - तट पर आ गए | अभी तक उद्बम की ओर चलते थे, आज से संगम, की ओर चलेंगे।, , कोई 2 घंटे में कपिलधारा पहुंच गए | अधिकांश परकम्मावासी यहां से सड़क पकड़कर, कबीरचौरा होते हुए डिंडौरी निकल जाते हैं लेकिन हमें तो नर्मदा के किनारे किनारे ही, जाना था, पर कपिलधारा के सामने की गहरी घाटी को देखकर ठिठक कर खड़े हो गए ।, , जा, वहां से कोई नहीं जाता | वहां पगडंडी तो क्या पगडंडी की चुटिया तक नहीं थी । बहुत, चिरौरी करने पर भी कोई हमारे साथ आने को तैयार ना हुआ | उल्टे डरा दिया कि गर्मी के
Page 2 :
दिन है, सांप - बिच्छू नदी के किनारे आ जाते हैं, वहां से जाना खतरे से खाली नहीं |, लेकिन जाएंगे तो नर्मदा के संग - संग, इसी घाटी में से, चाहे जो हो।, , रक्षा करना मां ऐन कपिलधारा से नीचे उतरना संभव नहीं था | थोड़ा आगे बढ़ कर नीचे, उतरे।, , प्रपात के आसपास मधुमक्खी के सैकड़ों छत्तों को देखकर बड़ा ताज्जुब हुआ। दीपावली, के समय एक भी छत्ता नहीं था। मधुमक्खियों को गरमी में शायद यहाँ की ठंडक भाती, हो।, , दूधधारा से भी नीचे उतरे। चट्टानों पर से धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे थे। कहीं-कहीं तो समझ में, नहीं आता था कि कहाँ से बढ़ें। गिरते-पड़ते, चढ़ते-उतरते, चप्पा-चप्पा आगे बढ़ रहे थे।, थक जाते तो बैठ लेते, फिर तुरंत चल देते। इस सुनसान घाटी में हम अनावश्यक विलंब, करना नहीं चाहते थे।, , विलंब नर्मदा भी नहीं चाहती थी। तेज गति से कूदती-दौड़ती नीचे उतर रही थी।, अमरकंटक कोई बड़ा पहाड़ नहीं। आते समय हम इसे दो घंटे मे चढ़ गये थे। उस समय, नर्मदा का साथ छोड़ दिया था, सीधे पगडंडी से चढ़े थे। इस बार नर्मदा के किनारे-किनारे,, बिना पगडंडी के उतर रहे थे।, , नर्मदा की उँगली पकड़कर चल रहे थे। आमने-सामने ऊँचे हरे-भरे पहाड़ और बीच में, गहरी और सँकरी घाटी में से बहती हुई तन्वंगी नर्मदा। तीसरे पहर घाटी चैड़ी होने लगी। मैं, समझ गया कि पहाड़ खत्म होने को है, मैदान आ गया। हमारी खुशी का क्या कहना।, , अमरकंटक का नाम मेकल भी है। इसलिए नर्मदा का नाम मेकलसुता भी है। मेकल, अपनी बिटिया को वनाच्छादित घाटी में से किस हिफाजत से नीचे छोड़ गया है, इसे आज, हमने अपनी आँखों से देखा।, , आगे जाने पर पगडंडी मिल गयी। इक्के-दुक्के ग्रामीण भी दिखाई देने लगे। शाम होते-होते, पकरीसोंढा पहुँचे। खूब सबेरे आगे बढ़े। सामने के सूखे खेतों में से बहती नर्मदा साफ
Page 3 :
दिखाई दे रही थी। अभी तक तंग घाटी के घने शाल वन में नर्मदा छुपी थी, मुश्किल से ही, नजर आती थी, लेकिन यहाँ से वह दूर से भी साफ-साफ दिखाई देती है। नर्मदा का जन्म, मानों गौरैया की तरह हुआ है। ऊपर कुंड के घोंसले में अंडे की तरह अवतरित हुई है। अंडे, में से बाहर वह यहाँ नीचे निकली है।, , आगे एक पेड़ की छाया में भोजन बनाने बैठे। पास में किरंगी गाँव है। वहाँ का एक, ग्रामीण नहाने आया था। हमारे बारे में जानकर बहुत खुश हुआ। कहने लगा, "गुरु जी,, हमारे गाँव में अखंड कीर्तन हो रहा है, जरूर आइए, मेरे घर पर ही ठहरिए।', , उसके घर पहुँचे। पड़ोस में अखंड कीर्तन चल रहा था। दूसरे दिन आम का विवाह था, तो, वहाँ दो दिन रह गये। उसके पड़ोसी ने घर के आँगन में आम का पेड़ लगाया था। दो साल, से उसमें आम लग रहे थे। लेकिन जब तक वह उस पेड़ का विवाह नहीं कर देता, तब तक, उसके फल नहीं खा सकता। ऐसा रिवाज है यहाँ। सो चमेली की बेल के साथ आम का, विवाह रचाया है।, , पंडित जी आये हैं, विधिवत विवाह हो रहा है। हम यह सब रसपूर्वक देखते रहे ! गाँव के, कठोर जीवन में ऐसे अनुष्ठान रस घोलते हैं।, , गारकामट्टा में गोपी कोटवार के घर रहे। गाँव में एक जगह शादी हो रही थी। हम भी, शामिल हुए। भाँवरें पड़ रही थीं। सभी ने दूल्हा-दुलहन के पैर पूजे। मैंने भी पूजे। दुलहन, के हाथ मं> दो रुपये रखे तो तहलका मच गया। सभी दस्सी-दस्सी जो दे रहे थे !, , एक मजे की बात यह थी कि यह लड़की का नहीं, लड़के का घर था।, , यहाँ चार भाँवरे लड़की के घर पड़ती हैं, तीन लड़के के घर। यहाँ से चलने पर नर्मदा का, एक प्रपात देखने को मिला। नर्मदा के बीसियों प्रपातों में सबसे लहुरा- कोई एक मीटर, ऊँचा। पानी ने पथरीले पाट को काट-छाँट कर खोखला बना दिया है, मानो नदी में, कोठियाँ बनी हों। इसलिए इसका नाम है कोठीघुघरा। घुघर या घुघरा यानी प्रपात।
Page 4 :
श्रीहीन धरती पर से आगे बढ़ रहे थे। दीवाली के समय जब सामने तट से चले थे, तब, कैसी हरियाली थी ! उसकी जगह अब है सूरज की ज्वाला से चटखी हुई भूरी, सूखी, जमीन। छाया के लिए कहीं पेड़ तक नहीं। डिंडौरी तक ऐसा ही उजाड़ रहेगा। इसलिए बड़े, सबेरे चल देते और नौ-दस बजे तक जो गाँव आ जाता, वहीं ठहर जाते।, , अगला पड़ाव बंजरटोला। इसके बाद सिवनीसंगम। यहाँ सिवनी नदी नर्मदा में आ मिली, है। संगम पर बने मंदिर में रहने की बढ़िया व्यवस्था हो गयी और यहाँ का एकांत भी मन, को छू गया, तो यहाँ चार दिन रह गये। शादियों के दिन थे। मंदिर में सामने की पगडंडी से, बारातें निकलती रहती थीं।, , अद्भुत आकर्षण है माँ नर्मदा में।, , वैसाखी पूर्णिमा के दिन खूब बारातें देखने को मिलीं। शहनाई, निशान, नगाड़े, टिमकी, और झुमका के स्वर दिन भर गूँजते रहे। दूल्हा-दुलहन हाथ में पंखा लिये घोड़े पर सवार, रहते। एक काँवर में दहेज रहता। पगडंडी पर चलते एक के पीछे एक दस-पंद्रह बाराती, रहते। बस हो गयी बारात !, , तोताराम पास के गोरखपुर बाजार में मनिहारी का सामान बेचता है। रोज नर्मदा नहाने, आता है। साथ में रहता है उसका तोता- पिंजड़े में नहीं, उसके कंधे पर, लेकिन उड़ नहीं, पाता। तोते से बड़ा प्यार है उसे। अकेला जीव, न घर न घाट। न कोई आगे, न पीछे।, थोड़े-बहुत पैसे इकट्ठे होते ही तीरथ करने निकल पड़ता है। एक दिन मैंने पूछा, 'तोताराम,, तुमने शादी नहीं की ?', , “सगाई तो तीन बार हुई, लेकिन शादी एक बार भी नहीं हुई। किसी न किसी कारण से, सगाई टूट जाती है।'
Page 5 :
तीन-तीन सगाई के बावजूद कुँवारे तोताराम की व्यथा-कथा सुनकर मन उदास हो गया।, लेकिन उसने अपने मन को मना लिया है। तोते में मन लगाया है।, , एक दिन गोरखपुर का बाजार कर आये, फिर चल दिये। गरमी के दिन थे, खेतों में फसल, नहीं थी। पहाड़ नहीं, जंगल नहीं। जंगल तो दूर, छाया के लिए एक पेड़ नहीं। सामने का, गाँव दूर से ही दिखता रहता। रास्ता भटक जाने का कोई भय नहीं। सो पगडंडी की, परवाह किये बिना नर्मदा के किनारे-किनारे ही चलते।, , , , धूप के कारण बुरा हाल था, पर आज आकाश में बादल थे। पथरकुचा तक पहुँचते-पहुँचते, आकाश बादलों से घिर गया। यहाँ नदी के पाट में बहुत-सी चट्टाने थीं। वरना यहाँ तक, नदी केवल मिट्टी में होकर बहती है। कपड़े धोने तक के लिए पत्थर नहीं था। दोपहर का, भोजन हमने नदी के पथरीले पाट में बनाया। भोजन करके चले ही थे कि तेज वर्षा के, कारण भागकर गाँव में शरण लेनी पड़ी। थोड़ी देर की वर्षा में गाँव में इतना कीचड़ हो, गया कि चलना मुश्किल हो गया। इसलिए रात वहीं रह गये।, , , , पौ फटते ही कुछ दूर चलने पर लिखनी गाँव में एक वृद्धा से पीने के लिए पानी माँगा तो, उसने कहा, 'आओ बेटा, पानी देती हँ:। लेकिन ऐसा करो, रोटी खाकर पानी पीओ। धूप, में से आ रहे हो। खाकर पानी पीओगे तो ठीक रहेगा।', , माँ जैसे बच्चे को फुसलाती है, दुलराती है, बिलकुल वही भाव। उसके नेह को टाल नहीं, सके। वह रोटियाँ ले आयी, उन पर शक्कर रखी थी। 'लो, खा लो बेटा।', , कैसा तृप्ति का भाव था उसके चेहरे पर !, , अगला पड़ाव मझियाखार, फिर गोमतीसंगम। फिर लछमनमड़वा। लछमनमड़वा में एक, साध्वी रहती है। मैंने उनसे कहा कि नौकरी के कारण पूरी परिक्रमा एक साथ नहीं कर, सकता, छुट्टियों मं? थोड़ी-थोड़ी करके करता हूँ, तो उन्होंने कहा, “बेटा, बूँदी का लड्डू पूरा, खाओ तो मीठा लगता है और चूरा खाओ तो मीठा लगता है। इसका दुःख न करना।