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२. वारिस कौन?, - विभा रानी, एक राजा था । उसके चार बेटियाँ थीं । राजा ने सोचा कि इन चारों, में से जो सबसे बुद्धिमती होगी, उसे ही अपना राजपाट सौंपेगा । इसका, फैसला कैसे हो? वह सोचने लगा । अंत में उसे एक उपाय सूझ गया ।, उसने एक दिन चारों बेटियों को अपने पास बुलाया । सभी को गेहँू, के सौ-सौ दाने दिए और कहा, ‘‘इसे तुम अपने पास रखो, पाँच साल, बाद मैं जब इन्हें माँगँूगा तब तुम सब मुझे वापस कर देना ।’’, गेहँू के दाने लेकर चारों बहनें अपने-अपने कमरे में लौट आईं ।, बड़ी बहन ने उन दानों को खिड़की के बाहर फेंक दिया । उसने सोचा,, ‘आज से पाँच साल बाद पिता जी को गेहँू के इन दानों की याद रहेगी, क्या? और जो याद भी रहा तो क्या हुआ..., भंडार से लेकर दे दूँगी ।’, दूसरी बहन ने दानों को चाँदी की एक डिब्बी में डालकर उसे, मखमल के थैले में बंद करके सुरक्षा से अपनी संदूकची में डाल दिया ।, सोचा, ‘पाँच साल बाद जब पिता जी ये दाने माँगेंगे, तब उन्हें वापस कर, दूँगी ।’, तीसरी बहन बस सोचती रही कि इसका क्या करूँ । चौथी और, छोटी बहन तनिक बच्ची थी । शरारतें करना उसे बहुत पसंद था । उसे, गेहँू के भुने दाने भी बहुत पसंद थे । उसने दानों को भुनवाकर खा डाला, और खेल में मग्न हो गई ।, तीसरी राजकुमारी को इस बात का यकीन था कि पिता जी ने उन्हें, यँू ही ये दाने नहीं दिए होंगे । जरूर इसके पीछे कोई मकसद होगा । पहले, तो उसने भी अपनी दूसरी बहनों की तरह ही उन्हें सहेजकर रख देने की, सोची, लेकिन वह ऐसा न कर सकी । दो-तीन दिनों तक वह सोचती, रही, फिर उसने अपने कमरे की खिड़की के पीछेवाली जमीन में वे दाने, बो दिए । समय पर अंकुर फूटे । पौधे तैयार हुए, दाने निकले । राजकुमारी, ने तैयार फसल में से दाने निकाले और फिर से बो दिए । इस तरह पाँच, वर्षों में उसके पास ढेर सारा गेहँू तैयार हो गया ।, पाँच साल बाद राजा ने फिर चारों बहनों को बुलाया और कहा‘‘आज से पाँच साल पहले मैंने तुम चारों को गेहँू के सौ-सौ दाने दिए थे, और कहा था कि पाँच साल बाद मुझे वापस करना । कहाँ हैं वे दाने?’’, बड़ी राजकुमारी भंडार घर जाकर गेहँू के दाने ले आई और राजा को, दे दिए । राजा ने पूछा, ‘‘क्या ये वही दाने हैं जो मैंने तुम्हें दिए थे ?’’, , परिचय, जन्म ः १९5९, मधुबनी (बिहार), परिचय ः बहुआयामी प्रतिभा की, धनी विभा रानी हिंदी व मैथिली की, राष्ट्रीय स्तर की लेखिका हैं । आपने, कहानी, गीत, अनुवाद, लोक, साहित्य एवं नाट्य लेखन में प्रखरता, से अपनी कलम चलाई है । आप, समकालीन फिल्म, महिला व बाल, विषयों पर लोकगीत और लोक, साहित्य के क्षेत्र में निरंतर काम कर, रही है ।, प्रमुख कृतियाँ ः, ‘चल खुसरो घर अपने’, ‘मिथिला, की लोककथाएँ’, ‘गोनू झा के, किस्से’ (कहानी संग्रह), ‘अगलेजन्म मोहे बिटिया न कीजो’,, (नाटक)‘समरथ-CAN’ (द्विभाषी, हिंदी-अंग्रेजी का अनुवाद), ‘बिल, टेलर की डायरी’ आदि ।, , गद्य संबंधी, प्रस्तुत संवादात्मक कहानी के, माध्यम से विभा रानी जी का कहना है, कि हमें उत्तम फल प्राप्त करने के, लिए समय और साधनों का सदुपयोग, करना चाहिए । जो ऐसा करता है,, वही जीवन में सफल होता है ।, , मौलिक सृजन, अपने आस-पास घटित, चतुराई से संबंधित घटना, लिखो ।, , 3
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संभाषणीय, ‘उत्तर भारत की नदियों में, बारहों मास पानी रहता है’, इसके कारणों की जानकारी, प्राप्त करके कक्षा में बताओ ।, , श्रवणीय, भाषा की भिन्नता का आदर, करते हुए कोई लोकगीत, अपने सहपाठियों को, सुनाओ ।, , पठनीय, अपने परिसर की किसी, शैक्षिक संस्था की रजत, महोत्सवी पत्रिका का, वाचन करो ।, , लेखनीय, मराठी समाचार पत्र या, बालपत्रिका के किसी, परिच्छेद का हिंदी में, अनुवाद करो ।, , 44, , पहले तो राजकुमारी ने ‘हाँ’ कह दिया । मगर राजा ने फिर कड़ककर, पूछा, तब उसने सच्ची बात बता दी ।, राजा ने दूसरी राजकुमारी से, पूछा - ‘‘तुम्हारे दाने कहॉं हैं ?’’, दूसरी राजकुमारी अपनी, संदूकची में से मखमल के, खोलवाली डिब्बी उठा लाई,, जिसमें उसने गेहँू के दाने सहेजकर, रखे थे । राजा ने उसे खोलकर, देखा - दाने सड़ गए थे ।, तीसरी राजकुमारी से पूछा - ‘‘तुमने क्या किया उन दानों का ?’’, तीसरी ने कहा - ‘‘मैं इसका उत्तर आपको अभी नहीं दँूगी, क्योंकि, जवाब पाने के लिए आपको यहाँ से दूर जाना पड़ेगा और मैं वहाँ आपको, कल ले चलँूगी ।’’, राजा ने अब चौथी और सबसे छोटी राजकुमारी से पूछा । उसने, उसी बेपरवाही से जवाब दिया-‘‘उन दानों की कोई कीमत है पिता जी?, वैसे तो ढेरों दाने भंडार में पड़े हैं । आप तो जानते हैं न, मुझे गेहँू के भुने, दाने बहुत अच्छे लगते हैं, सो मैं उन्हें भुनवाकर खा गई । आप भी पिता, जी, किन-किन चक्करों में पड़ जाते हैं ।’’, सभी के उत्तर से राजा को बड़ी निराशा हुई । चारों में से अब उसे, केवल तीसरी बेटी से ही थोड़ी उम्मीद थी ।, दूसरे दिन तीसरी राजकुमारी राजा के पास आई । उसने कहा‘‘चलिए पिता जी, आपको मैं दिखाऊँ कि गेहँू के वे दाने कहाँ हैं ?’’, राजा रथ पर सवार हो गया । रथ महल, नगर पार करके खेत की, तरफ बढ़ चला । राजा ने पूछा, ‘‘आखिर कहाँ रख छोड़े हैं तुमने वे सौ, दाने ? इन सौ दानों के लिए तुम मुझे कहाँ-कहाँ के चक्कर लगवाओगी ?’’, तब तक रथ एक बड़े-से हरे-भरे खेत के सामने आकर रुक गया ।, राजा ने देखा - सामने बहुत बड़े खेत में गेहँू की फसल थी । उसकी, बालियाँ हवा में झूम रही थीं, जैसे राजा को कोई खुशी भरा गीत सुना रही, हों । राजा ने हैरानी से राजकुमारी की ओर देखा । राजकुमारी ने कहा‘‘पिता जी, ये हैं वे सौ दाने, जो आज लाखों-लाख दानों के रूप में, आपके सामने हैं । मैंने उन सौ दानों को बोकर इतनी अधिक फसल तैयार, की है ।’’, राजा ने उसे गले लगा लिया और कहा- ‘‘अब मैं निश्चिंत हो, गया । तुम ही मेरे राज्य की सच्ची उत्तराधिकारी हो ।’’
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5. मधुबन, - अनुराग वर्मा, सुबह का समय था । मैं डाॅक्टर रामकुमार वर्मा जी के प्रयाग स्टेशन, स्थित निवास ‘‘मधुबन’’ की ओर पूरी रफ्तार से चला जा रहा था क्योंकि, १० बजे उनसे मिलने का समय तय था ।, वैसे तो मैंने डाॅक्टर साहब को विभिन्न उत्सवों, संगोष्ठियों एवं, सम्मेलनों में देखा था, परंतु इतने निकट से मुलाकात करने का यह मेरा, पहला अवसर था । मेरे दिमाग में विभिन्न विचारों का ज्वार उठ रहा थाकैसे होंगे डाॅक्टर साहब, कैसा व्यवहार होगा उस साहित्य मनीषी का,, आदि । इन तमाम उठते और बैठते विचारों को लिए मैंने उनके निवास, स्थान ‘मधुबन’ में प्रवेश किया । काफी साहस करके दरवाजे पर लगी, घंटी बजाई । नौकर निकला और पूछ बैठा, ‘‘क्या आप अनुराग जी, हैं ?’’ मैंने उत्तर मेंं सिर्फ ‘हाँ’ कहा । उसने मुझे ड्राइंग रूम में बिठाया, और यह कहते हुए चला गया कि ‘‘डाॅक्टर साहब आ रहे हैं ।’’ इतने में, डॉक्टर साहब आ गए । ‘‘अनुराग जी, कैसे आना हुआ ?’’ आते ही, उन्होंने पूछा ।, मैंने कहा, ‘‘डाॅक्टर साहब, कुछ प्रसंग जो आपके जीवन से संबंधित, हैं और उनसे आपको जो महत्त्वपूर्ण प्रेरणाएँ मिली हों उन्हीं की जानकारी, हेतु आया था ।’’, डाॅक्टर साहब ने बड़ी सरलता से कहा, ‘अच्छा, तो फिर पूछिए ।’, प्रश्न ः डाॅक्टर साहब, काव्य-रचना की प्रेरणा आपको कहाँ से, और कैसे प्राप्त हुई ? इस संदर्भ में कोई ऐसा प्रसंग बताने का कष्ट करें, जिसने आपके जीवन के अंतरंग पहलुओं को महत्वपूर्ण मोड़ दिया हो।, उत्तर ः पहले तो मेरे जीवन में समाज की अंध व्यवस्था के प्रति, विद्रोह अपने आप ही उदित हुआ । सन १९२१ मंे जब मैं केवल साढ़े, पंद्रह वर्ष का था, गांधीजी के असहयोग आंदोलन में पारिवारिक एवं, सामाजिक व्यवधानों से संघर्ष करते हुए मैंने भाग लिया । उस समय स्कूल, छोड़ने की बात तो सोची भी नहीं जा सकती थी मगर मध्य प्रदेश के, अंतर्गत नरसिंहपुर में मौलाना शौकत अली साहब आए और बोले,, ‘‘गांधीजी ने कहा है कि अंग्रेजी की तालीम गुलाम बनाने का एक नुस्खा, है ।’’ तत्पश्चात आवाज तेज करते हुए कहने लगे, ‘‘है कोई माई का, लाल जो कह दे कि मैं कल से स्कूल नहीं जाऊँगा ।’’ मैंने अपनी माँ के, आगे बड़ी ही श्रद्धा से स्कूल न जाने की घोषणा कर दी । सभी लोग, सकते में आ गए । बात भी अजीब थी कि उन दिनों एक डिप्टी कलेक्टर, का लड़का विद्रोह कर जाए । लोगों ने बहुत समझाया, पिता जी की, , परिचय, परिचय ः अनुराग वर्मा जी ने हिंदी में, विपुल लेखन किया है । आपकी, भाषा धारा प्रवाह, सरल एवं आशय, संपन्न होती है । आप हिंदी के, जाने-माने लेखक हैं ।, , गद्य संबंधी, प्रस्तुत पाठ में श्री अनुराग, वर्मा ने प्रसिद्ध लेखक डॉ., रामकुमार वर्मा जी का साक्षात्कार, लिया है । यहाँ अनुराग जी ने, डॉ. वर्मा जी से उनकी काव्य रचना, की प्रेरणा, लौकिक-पारलौकिक, प्रेम, देश की राजनीतिक स्थिति, आदि पर प्रश्न पूछें हैं । डॉ. वर्मा जी, ने इन प्रश्नों के बड़ी बेबाकी से उत्तर, दिए हैं ।, , मौलिक सृजन, ‘कहानियों/कविताओं द्वारा, मनोरंजन तथा ज्ञान प्राप्ति, होती है,’ इसपर अपने मत, लिखो ।, , 11
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श्रवणीय, यू-ट्यूब पर संत कबीर के दोहे, सुनो और सुनाओ ।, , संभाषणीय, ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ पर, पथनाट्य प्रस्तुत करो ।, , लेखनीय, साक्षात्कार लेने के लिए, किन-किन प्रश्नवाचक शब्दों, का प्रयोग हो सकता है, सूची, तैयार करो । प्रत्येक शब्द से, एक-एक प्रश्न बनाकर, लिखो ।, , पठनीय, द्विभाषी शब्दकोश पढ़कर, उसके आधार पर किसी एक, पाठ का द्विभाषी शब्दकोश, बनाओ ।, , 12, , नौकरी की बात कही परंतु मैं घर से निकल पड़ा क्योंकि गांधीजी का, आदेश मानना था । इस प्रकार सर्वप्रथम मैंने सत्य एवं देश के लिए विद्रोह, किया । तब तक मैं सोलह वर्ष का हो चुका था और राष्ट्रीय ध्वज लेकर, नगर में प्रभात फेरी भी किया करता था । यह बात सन १९२१ की ही है, और इसी समय मैंने देशप्रेम पर एक कविता लिखी । यही मेरी कविता का, मंगलाचरण था ।, प्रश्न ः आप मध्य प्रदेश से उत्तर प्रदेश कैसे आए ?, उत्तर ः हिंदी प्रेम ने मुझे मध्य प्रदेश से उत्तर प्रदेश आने को प्रेरित, किया क्योंकि उन दिनांे नागपुर विश्वविद्यालय में हिंदी नहीं थी । सन, १९२5 मंे मैंने इंटर की परीक्षा उत्तीर्ण की, तत्पश्चात उच्च शिक्षा हेतु, प्रयाग विश्वविद्यालय में प्रवेश ले लिया । मैंने इसी विश्वविद्यालय से, एम.ए. की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की ।, मैंने देखा कि डाॅक्टर साहब के चेहरे पर गंभीरता के भाव साफ, प्रतिबिंबित हो रहे हैं। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे वे अपने अतीत मेंे, खो-से गए हैं । मैंने पुनः सवाल किया ।, प्रश्न ः डॉक्टर साहब, प्रायः ऐसा देखा गया है कि कवियों एवं, लेखकों के जीवन में उनका लौकिक प्रेम, पारलौकिक प्रेम में बदल गया ।, क्या आपके साथ भी ऐसा हुआ है ?, उत्तर ः अनुराग जी, प्रेम मनुष्य की एक प्राकृतिक प्रवृत्ति है । सन, १९२६ मंे मेरा विवाह हो गया और मैं गृहस्थ जीवन में आ गया । अब, मुझे सात्विकता एवं नैतिकता से प्रेम हो गया । मैंने इसी समय, यानी सन, १९३० में ‘‘कबीर का रहस्यवाद’’ लिखा । इतना अवश्य है कि मेरे, जीवन के कुछ अनुभव कविता के माध्यम से प्रेषित हुए। मुझे बचपन से, ही अभिनय का शौक था और प्रायः उत्सवों के अवसर पर नाटकों में भाग, भी लिया करता था ।, मैंने बात आगे बढ़ाई और पूछा ।, प्रश्न ः डॉक्टर साहब, देश की राजनीतिक स्थिति के बारे में आपकी, क्या राय है ?, उत्तर ः मैं राजनीति से हमेशा दूर रहा क्योंकि आज की राजनीति में, स्थिरता का अभाव है । यद्यपि मैं नेहरू जी, शास्त्री जी, इंदिरा जी एवं, मोरारजी भाई से मिल चुका हँू और उनसे मेरा परिचय भी है, परंतु मैंने, राजनीति से अपने आपको सदा दूर रखा, मुझे राजनीति में कोई रुचि नहीं, है । मैं साहित्यकार हँू, और साहित्य चिंतन में विश्वास रखता हूँ ।, इतना कहते हुए डॉक्टर साहब ने घड़ी देखी और बोले, ‘‘अनुराग, जी, मुझे साढ़े ग्यारह बजे एक कार्य से जाना है ।’’ तत्पश्चात उन्होेंने मुझे, एक कुशल अभिभावक की भाँति आशीर्वाद देते हुए विदा किया ।
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७. मेरे रजा साहब, - सुजाता बजाज, , परिचय, जन्म ः १९58, जयपुर (राजस्थान), परिचय ः सुजाता बजाज जी एक, प्रसिद्ध चित्रकार हैं । आजकल, आप पेरिस में रहती हैं । आपके चित्र, एवं मूर्तिकला भारतीय रंग में डूबी हुई, रहती हैं । आपके चित्रों एवं मूर्तियांे, पर प्राचीन संस्कृति एवं कला की, छाप दिखाई पड़ती है । आपने अपनी, कला में ऐसी दुनिया का सृजन किया, है, जिसमें सादगी भी है और रंगीनी, भी, खुशी भी है और गम भी ।, प्रमुख कृतियाँ ः सुजाता जी द्वारा, बनाए गए ‘गणेश जी के चित्रों पर, आधारित’ एक पुस्तक प्रकाशित ।, , गद्य संबंधी, प्रस्तुत पाठ में प्रसिद्ध, चित्रकार सैयद हैदर रजा के बारे में, लेखिका सुजाता बजाज ने अपने, संस्मरण लिखे हैं । यहाँ रजा साहब, के सर्वधर्मसमभाव, मानवमात्र से, प्रेम, युवा कलाकारों को प्रोत्साहन,, उनकी जिज्ञासावृत्ति, कृतियों के, प्रति लगाव आदि गुणों को दर्शाया, है । इस पाठ में एक सच्चे कलाकार, के दर्शन होते हैं ।, , मौलिक सृजन, ‘कला से प्राप्त आनंद अवर्णनीय, होता है ।’ इसपर अपने मत, लिखो ।, , 16, , २३ जुलाई सुबह-सुबह ही समाचार मिला, रजा साहब नहीं रहे,, और यह सुनते ही मानस पटल पर यादों की एक कतार-सी लग गई ।, पिछले फरवरी की ही बात है । मैं दिल्ली पहुँची थी अपनी ‘गणपति, प्रदर्शनी’ के लिए । सोच रही थी कि रजा साहब शायद अपनी व्हीलचेअर, पर मेरी प्रदर्शनी के उद्घ ाटन के अवसर पर आ जाएँ पर उस रात कुछ, अनहोनी-सी हुई । उस रात रजा साहब सपने में आए, मुझे उठाया, हमने, बातें की, शो के लिए मुझे उन्होंने शुभकामना दी और कहने लगे, सुजाता, एक बार मुझसे मिलने आ जाओ । अब मैं जाने वाला हूँ । इसके बाद तो, रुकना मुश्किल था । मैं पहुँच गई उनसे मिलने । वे अस्पताल में शून्य की, तरह लेटे हुए थे, मैंने उनके हाथों को छुआ । सिर्फ सांॅस चल रही थी ।, अलविदा कहकर लौट आई ।, रजा साहब अपने धर्म के साथ-साथ उतने ही हिंदू और ईसाई भी, थे । उनके स्टुडियो में गणपति की मूर्ति, क्रॉस, बाइबल, गीता, कुरान,, उनकी माँ का एक फाेटो, गांधीजी की आत्मकथा व भारत से लाई हुई, मोगरे की कुछ सूखी मालाएँ, सब एक साथ रखा रहता था । वे गणेश को, भी पूजते थे और हर रविवार को सुबह चर्च भी जाते थे ।, एक दिन जहाँगीर आर्ट गैलरी में प्रदर्शनी देखते हुए किसी ने कहा,, अरे यह तो एस.एच. रजा हैं । मैं एकदम सावधान हो गई क्योंकि मेरी, सूची में उनका भी नाम था । मैंने उनके पास जाकर कहा-‘‘रजा साहब,, आपसे बात करनी है !’’ वे देखते ही रह गए ! उन्होंने मुझे इंटरव्यू दिया,, बहुत सारी बातें हुईं । अचानक मुझसे पूछने लगे कि आप और क्या-क्या, करती हैं । मैंने कहा, ‘‘मैं कलाकार हूँ, पेंट करती हूँ ।’’ वे तुरतं खड़े हो, गए और कहने लगे, ‘‘चलो तुम्हारा काम देखते हैं ।’’, मैं सोच में पड़ गई-मेरा काम तो पुणे में है । उन्हें बताया तो वे बोले,, ‘‘चलो पुणे ।’’ ताज होटल के सामने से हमने टैक्सी ली और सीधे पुणे, पहुँचे । उन्होंने मेरा काम देखा और फिर कहा- ‘‘आपको पेरिस आना, है । आपका भविष्य बहुत उज्ज्वल है ।’’, छोटी-से-छोटी बात भी उनके लिए महत्त्वपूर्ण हुआ करती थी ।, बड़ी तन्मयता और लगन के साथ करते थे सब कुछ । पेंटिंग बिकने के, बाद पैकिंग में भी उनकी रुचि हुआ करती थी । कोई इस काम में मदद, करना चाहता तो मना कर देते थे । किसी को हाथ नहीं लगाने देते थे ।, बड़े करीने से, धैर्य के साथ वे पैकिंग करते । कहते थे- ‘‘लड़की ससुराल
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जा रही है, उसे सँभालकर भेजना है ।’’ जब वे किसी को पत्र लिखते या, कुछ और लिखते थे तो मत पूछिए, हर शब्द, हर पंक्ति काे नाप-तौलकर, लिखते थे । फूल उन्हें बहुत प्यारे लगते थे ।, मुझे याद है २२ अक्तूबर, १९88 को मैं लंदन से पेरिस के गारदीनो, स्टेशन पर ट्रेन से पहुँची थी । रजा साहब स्टेशन पर मेरा इंतजार कर रहे, थे । ट्रेन लेट थी पर वे वहीं डटे रहे । मुझे मेरे होस्टल के कमरे में छोड़कर, ही वे गए ।, एक दिन मैं बीमार होकर अपने कमरे में पड़ी थी । रात ग्यारह बजे रजा, साहब मेरे लिए दवा, भारतीय रेस्टाॅ रेंट से खाना पैक करवाकर पहुँच गए ।, मेरे घरवालों को फोन करके कहा-‘‘आप लोग चिंता न करें, मैं हूँ पेरिस में, सुजाता की चिंता करने के लिए ।’’, हर बार जब मैं या रजा साहब पेंटिंग पूरी करते तो सबसे पहले, एक-दूसरे को दिखाते थे । दोनों एक-दूसरे के ईमानदार समालोचक थे ।, हमने मुंबई, लंदन, पेरिस और न्यूयॉर्क में साथ-साथ प्रदर्शनियाँ कीं पर, कभी कोई विवाद नहीं हुआ । यह उनके, स्नेह व अपनेपन के कारण ही था ।, हिंदी, उर्दू तो हमेशा से ही बहुत अच्छी, रही है उनकी । अंग्रेजी-फ्रेंच भी वे बहुत, अच्छी लिखते थे । कविताओं से बहुत, प्यार था उन्हें । शेर-गजल व पुराने हिंदी, फिल्मी गाने बड़े प्यार से सुनते थे । एक, डायरी रखते थे अपने पास । हर सुंदर चीज, को लिख लिया करते उसमें । मेरी बेटी, हेलेना बहुत खूबसूरत हिंदी बोलती थी तो उन्हें बहुत गर्व होता था । वे, हमेशा उसके साथ शुद्ध हिंदी में ही बात करते ।, रजा साहब को अच्छा खाने का बहुत शौक था पर दाल-चावल,, रोटी-आलू की सब्जी में जैसे उनकी जान अटकी रहती थी । मैं हफ्ते मंे एक, बार भारतीय शाकाहारी खाना बनाकर भेजती थी उनके लिए, उनके, फ्रांसीसी दोस्तों के लिए ।, रजा साहब के कुछ पुराने फ्रांसीसी दोस्तों को उनके जाने की खबर देने, गई तो फिर से एक बार उनकी दीवारों पर रजा साहब की काफी सारी, कृतियाँ देखने का मौका मिल गया । मैं हमेशा कहती, रजा साहब आप मेरे, ‘एन्जल गारजियन’ हैं तो मुस्कुरा देते पर सन २००० के बाद से कहते,, ‘क्यों, अब हमारी भूमिका बदल गई है-तुम मेरी एन्जल गार्जियन हो । अब, मैं नहीं ।’, , लेखनीय, हस्तकला प्रदर्शनी में किसी, मान्यवर को अध्यक्ष के रूप में, आमंत्रित करने के लिए निमंत्रण, पत्र लिखो ।, , पठनीय, अंतरजाल से ग्राफिक्स, वर्ड, आर्ट, पिक्टोग्राफ संबंधी, जानकारी पढ़ो और उनका, प्रयोग कहाँ-कहाँ हो सकता है,, यह बताओ ।, , श्रवणीय, दूरदर्शन पर किसी कलाकार का, साक्षात्कार सुनो और कक्षा में, सुनाओ ।, , संभाषणीय, किसी प्रसिद्ध चित्र के बारे में, अपने मित्रों से चर्चा करो ।, , ०, , 17
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8. पूर्ण विश्राम, - सत्यकाम विद्यालंकार, डाॅक्टर ने बाँह पर काला कपड़ा लपेटा और रबड़ की थैली, से हवा फूँककर नाड़ी की गति देखी फिर बोला, ‘‘कुछ सीरियस नहीं है,, दफ्तर से छुट्टी लेकर बाहर हो आइए; विश्राम आपको पूर्ण निरोग कर, देगा । लेकिन, विश्राम भी पूर्ण होना चाहिए’’ तो पत्नी बड़ी प्रसन्न हुई ।, घर जाकर श्रीमती जी से कह दिया ः ‘‘जुहू की तैयारी कर लो, हम, दो दिन पूर्ण विश्राम करेंगे ।’’, एक दिन बाद पूर्णिमा भी थी । चाँदनी रात का मजा जूहू पर ही है ।, एक दिन पहले आधी रात से ही उन्होंने तैयारी शुरू कर दी । दो बजे का, अलार्म बेल लग गया । स्वयं वह दो से पहले ही उठ बैठी और कुछ नोट, करने लगी ।, श्रीमती जी ने इन सब कामों की सूची बनाकर मेरे हाथ में दी ।, गैरेज में पहुँचकर श्रीमती जी ने मोटर में हवा भरने की पिचकारी,, ट्यूब वाल, रबड़ सोल्यूशन, एक गैलन इंजिन आयल आदि-आदि, चीजें और भी लिखी थीं । दिन भर दौड़-धूप करके पायधुनी से मिस्त्री, लाया । सुबह से शाम हो गई मगर शाम तक चार में से दो खिड़कियों की, चटखनियाँ भी नहीं कसी गईं । मोटर के लिए जरूरी सामान लाते-लाते, रात तक दिल की धड़कन दुगुनी हो गई थी ।, रात को सोने लगे तो श्रीमती जी ने आश्वासन देते हुए कहा ः, ‘‘कल जुहू पर दिन भर विश्राम लेंगे तो थकावट दूर हो जाएगी ।’’, श्रीमती जी ने अपने करकमलों से घड़ी की घुंडी घुमाकर अलार्म, लगा दिया और खुद बाहर जाकर मोटर का पूरा मुआयना करके यह, तसल्ली कर ली कि सूची में लिखा सब सामान आ गया या नहीं । सुबह, पाँच बजते ही अलार्म ने शोर मचाया ।, रोशनी होते न होते जुहू की तैयारी चरम सीमा पर पहुँच गई । स्टोव, को भी आज ही धोखा देना था । वह हर मिनट बुझने लगा । आधा घंटा, उसमें तेल भरने, धौंकनी करने में चला गया । आखिर चाय का प्रोग्राम, स्थगित कर दिया गया और हम दत्तचित्त हो तैयारी में जुट गए ।, वाटरलू जाने से पहले नेपोलियन ने भी ऐसी तैयारी न की होगी ।, ऐसी महत योजनाओं के संपन्न करने में हम पति-पत्नी परस्पर, सहयोग भावना से काम करने पर विश्वास रखते हैं । सहयोग भावना, , परिचय, जन्म ः १९३5, लाहौर (अविभाजित, भारत), परिचय ः आप सफल संपादक,, लेखक और कवि हैं । सरल-सुबोध, भाषा और रोचक बोधगम्य शैली, आपके लेखन की विशेषताएँ, हैं । लेखन व्यावहारिक है । आपने, व्यक्तित्व और चरित्र निर्माण पर, अधिक बल दिया है ।, प्रमुख कृतियाँ ः ‘स्वतंत्रतापूर्व चरित्र, निर्माण’, ‘मानसिक शक्ति के, चमत्कार’, ‘सफल जीवन’, (लेखसंग्रह), ‘वीर सावरकर’,, ‘वीर शिवाजी’, ‘सरदार पटेल’,, ‘महात्मा गांधी’ (जीवन चरित्र), आदि ।, , गद्य संबंधी, प्रस्तुत हास्य-व्यंग्य कहानी, के माध्यम से कहानीकार ने यह, समझाने का प्रयास किया है कि, जीवन की आपा-धापी में विश्राम, के पल मुश्किल से ही मिलते हैं ।, जब कभी ऐसे अवसर मिलते भी हैं, तो घरेलू उलझनों के कारण हम उन, पलों का आनंद नहीं उठा पाते ।, , 19
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मौलिक सृजन, पर्यटन स्थलों पर सैर करने के, लिए जाते समय बरती जाने वाली, सावधानियाें की सूची बनाओ ।, , श्रवणीय, दूरदर्शन, रेडियो, यू-ट्यूब पर, हास्य कविता सुनो और सुनाओ ।, , 20, , हमारे जीवन का मूलमंत्र है । सहयोग, मन, वचन, कर्म इन तीनों से होता, है । जीवन का यह मूलमंत्र, मुझे भूला न था । श्रीमती जी मुझे मेरे कामों, की याद दिलाने लगीं और मैं उनके उपकार के बदले उनकी चिंताओं में, हाथ बँटाने लगा । मैंने याद दिलाया-‘‘पूड़ियों के साथ मिर्ची का अचार, जरूर रख लेना ।’’, श्रीमती जी बोली, ‘‘अचार तो रख लूँगी पर तुम भी समाचार पत्र, रखना न भूल जाना, मैंने अभी पढ़ा नहीं है ।’’ मैं बोला ः ‘‘वह तो मैं रख, लूँगा ही लेकिन तुम वह गुलबंद न भूल जाना जो हम पिछले साल कश्मीर, से लाए थे । जुहू पर बड़ी सर्द हवा चलती है ।’’, ‘‘गुलबंद तो रख लूँगी लेकिन तुम कहीं बेदिंग सूट रखना न भूल, जाना, नहीं तो नहाना धरा रह जाएगा ।’’, ‘‘और, तुम कहीं रबर कैप भूल गई तो गजब हो जाएगा ।’’, ‘‘वह तो रख लूँगी लेकिन कुछ नोट पेपर, लिफाफे भी रख लेना ।, और देखो राइटिंग पैड भी न भूल जाना ।’’, ‘‘राइटिंग पैड का क्या करोगी ?’’, ‘‘कई दिन से माँ की चिट्ठी आई पड़ी है । जुहू पर खाली बैठे जवाब, भी दे दूँगी । यों तो वक्त भी नहीं मिलता ।’’, ‘‘और जरा वे चिट्ठियाँ भी रख लेना, जिनके जवाब देने हैं,, चिट्ठियाँ ही रह गईं तो जवाब किसके दोगे ?’’, ‘‘और सुनाे, बिजली के बिल और बीमा के नोटिस आ पड़े हैं, उनका भी भुगतान करना है, उन्हें भी डाल लेना ।’’, ‘‘उस दिन तुम धूप का चश्मा भूल गए तो सर का दर्द चढ़ गया, इसलिए कहती हूँ छतरी भी रख लेना ।’’, ‘‘अच्छा बाबा रख लूँगा और देखा, धूप से बचने की क्रीम भी रख, लेना । शाम तक छाले न पड़ जाएँ । वहाँ बहुत करारी धूप पड़ती है ।’’, श्रीमती जी कहती तो जा रही थीं कि रख लूॅंगी, रख लूँगी, लेकिन, ढूँढ़ रही थीं नेलकटर । कैंची, ब्रश और सब तो मिल गया था लेकिन, नेलकटर नहीं मिल रहा था इसलिए बहुत घबराई हुई थीं ।, मैंने कहाः ‘‘जाने दो नेलकटर, बाकी सब चीजें तो रख लो ।’’, इधर मैं अपने लिए नया अखबार और कुछ ऐसी किताबें थैले मंे भर, रहा था जो बहुत दिनों से समालोचना के लिए आई थीं और सोचता था, कि फुरसत से समालोचना कर दँूगा । आखिर तीन किताबें थैले में झोंक, लीं । कई दिनों से कविता करने की भी धुन सवार हुई थी । उनकी कई, कतरनें इधर-उधर बिखरी पड़ी थीं । उन्हें भी जमा किया । सोचा, काव्य, प्रेरणा के लिए जुहू से अच्छी जगह और कौन-सी मिलेगी ?
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आखिर कई अटैची, कई थैले, कई झोले भरकर हम जुहू पहुँचे ।, पाँच-सात मिनट तो हम स्वप्नलोक में विचरते रहे ।, हम समुद्र में नहाने को चल पड़े । समुद्र तट पर और लोग भी नहा, रहे थे । एक ऊँची लहर ने आकर हम दोनों को ढँक लिया । लहर की उस, थपेड़ से न जाने श्रीमती जी के मस्तिष्क में क्या नई स्फूर्ति आ गई कि, उन्होंने मुझसे पूछा ः ‘‘तुम्हें याद है बरामदे की खिड़की को तुमने अंदर से, बंद कर दिया था या नहीं ?’’, मैं कह उठा, ‘‘मुझे तो कुछ याद नहीं पड़ता ।’’, ‘‘अगर वह बंद नहीं हुई और खुली ही रह गई तो क्या होगा ?’’, कहते-कहते श्रीमती जी के चेहरे का रंग पीला पड़ गया ।, मैंने कहा ‘‘चलो छोड़ो अब इन चिंताओं को, जो होना होगा हो, जाएगा ।’’मेरी बात से तो उनकी आँखों में आँसुओं का समुद्र ही बह, पड़ा । उनके काँपते ओठों पर यही शब्द थे ‘‘अब क्या होगा ?’’, ‘‘और अगर खिड़कियाँ खुली रह गई होंगी तो घर का क्या होगा ?’’, यह सोच उनकी अधीरता और भी ज्यादा होती जा रही थी । जिस धड़कन, का इलाज करने को जुहू पर आया था वह दस गुना बढ़ गई थी । मैंने तेजी, से मोटर चलाई । मोटर का इंजिन धक-धक कर रहा था लेकिन मेरा दिल, उससे भी ज्यादा तेज रफ्तार से धड़क रहा था । जिस रफ्तार से हम गए थे,, दूनी रफ्तार से वापस आए । अंदर आकर देखा कि खिड़की की चटखनी, बदस्तूर लगी थी, सब ठीक-ठाक था । मैंने ही वह लगाई थी, लेकिन, लगाकर यह भूल गया था कि लगाई या नहीं और इसका नतीजा यह हुआ, कि पहले तो मेरे ही दिल की धड़कन बढ़ी थी, अब श्रीमती जी के दिल, की धड़कन भी बढ़ गई । मुझे याद आ रहे थे ‘पूर्ण विश्राम’ और ‘पूर्ण, निरोग’, साथ ही यह विश्वास भी पक्का हो गया था कि जिस शब्द के, साथ ‘पूर्ण’ लग जाता है, वह ‘पूर्ण भयावह’ हो जाता है ।, , पठनीय, प्रेमचंद की कोई कहानी पढ़ो और, उसका आशय, अपने शब्दों में, व्यक्त करो ।, , लेखनीय, ‘सड़क सुरक्षा सप्ताह’ के अवसर, पर यातायात के नियमों के बैनर्स, बनाकर विद्यालय की दीवारों पर, लगाओ ।, , संभाषणीय, किसी दुकानदार और ग्राहक, के बीच का संवाद प्रस्तुत, करो ।, , शब्द वाटिका, मुहावरे, , धौंकनी करना = हवा भरना, झल्लाना = बहुत बिगड़ जाना, झॅुंझलाना, , आँखों से ओझल होना = गायब हो जाना, हाथ बँटाना = सहायता करना, चेहरे का रंग पीला पड़ना = घबरा जाना, धुन सवार होना = लगन होना, , 21
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ग्रामीण, , मेरी है ही नहीं । (दुखी होकर) खैर, जाने दो भाई, तुमने मेरे, लिए बहुत कष्ट उठाए ।, ः (बीच मंे ही) नहीं भाई नहीं । इसमंे कष्ट की क्या बात है ।, मुसीबत के समय एक दूसरे के काम आना तो हमारा धर्म, है । मैं एक बार फिर कोशिश करता हँू । (ग्रामीण नदी में, कूदकर लोहे की कुल्हाड़ी निकालता है ।), , ग्रामीण ः लो भाई, इस बार तो यह लोहा ही हाथ लगा है ।, लकड़हारा ः (अपनी लोहे की कुल्हाड़ी देखकर खुश हो उठता है ।), तुम्हारा यह उपकार मैं जीवन भर नहीं भूलँूगा । भगवान, तुुम्हें सुखी रखें ।, ग्रामीण ः एक बात मेरी समझ में नहीं आई ।, लकड़हारा ः (हाथ जोड़कर) वह क्या ?, ग्रामीण ः मैंने तुम्हें पहले चाँदी की कुल्हाड़ी दी, फिर सोने की दी,, तुमने नहीं ली । ऐसा क्यों ?, लकड़हारा ः दूसरे की चीज को अपनी कहना ठीक नहीं है । मेहनत, और ईमानदारी से मुझे जो भी मिलता है, वही मेरा धन, है । (ग्रामीण चला जाता है और भगवान के रूप में मंच पर, भगवान, , श्रवणीय, विभिन्न अवसरों पर शाला, में खेले जाने वाले नाटकों, के संवाद ध्यान देते हुए, सुनो ।, , फिर से आता है ।), , ः धन्य हो भाई, मैं तुम्हारी ईमानदारी से बहुत प्रसन्न हँू, लेकिन एक शर्त पर । तुम हरे-भरे पेड़ों को नहीं काटोगे,, न ही लालच मंे पड़कर जरूरत से अधिक सूखी लकड़ी, काटोगे ।, लकड़हारा ः मुझे शर्त मंजूर है । (परदा गिरता है । ), दूसरा दृश्य, पत्नी , , (मंच पर लकड़हारा सो रहा है । मंच के पीछे से उसकी पत्नी, आवाज देती है ।), , ः अरे, रामू के बापू, घोड़े बेचकर सो रहे हो । क्या आज, लकड़ी काटने नहीं जाना है ?, लकड़हारा ः जाता हँू भागवान । (अपनी कुल्हाड़ी उठाकर जंगल की, तरफ जाता है । मन-ही-मन सोचता है ।), , जिधर देखो, दूर तक जंगल का पता नहीं । जो थे, वे कटते, जा रहे हैं और उनकी जगह खड़े हो रहे हैं सीमेंट के जंगल ।, (अचानक उसे चोट लगती है, वह चीख उठता है, फिर एक, पेड़ की छाँव में बैठ जाता है ।) अहा ! कितनी ठंडी छाया, है । सारी थकान दूर हो गई । (हरे-भरे पेड़ के नीचे से, , संभाषणीय, किसी भारतीय लोककथा, की विशेषताओं के बारे में, अपने सहपाठियों के साथ, चर्चा करो ।, , 31
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4. सौहार्द-सौमनस्य, - जहीर कुरैशी, , परिचय, जन्म ः १९5०, गुना (म.प्र.), परिचय ः आपकी रचनाएँ,, अंग्रेजी, गुजराती, मराठी, पंजाबी, आदि भाषाओं में अनूदित हो, चुकी हैं । आपको ‘इनकार्पोरेटेड, सम्मान’, ‘गोपाल सिंह नेपाली, सम्मान’ प्राप्त हुए हैं ।, प्रमुख कृतियाँ ः ‘एक टुकड़ा, धूप’, ‘लेखनी के स्वप्न’,, ‘चाँदनी का दुख’, ‘भीड़ में सबसे, अलग’, ‘पेड़ तनकर भी नहीं, टूटा’ (गजल संग्रह) आदि ।, , पद्य संबंधी, प्रस्तुत दोहों में जहीर, कुरैशी जी ने छोटे-बड़े के भेद, मिटाने, नफरत, स्वार्थ आदि, छोड़ने के लिए प्रेरित किया है ।, आपका मानना है कि अनेकता, में एकता ही अपने देश की शान, है । अतः हमें मिल-जुलकर, रहना चाहिए ।, , कल्पना पल्लवन, ‘भारत की विविधता मंे एकता, है’, इसे स्पष्ट करो ।, , 34, ३4, , वो छोटा, मैं हूँ बड़ा, ये बातें निर्मूल,, उड़कर सिर पर बैठती, निज पैरों की धूल ।, , नफरत ठंडी आग है, इसमें जलना छोड़,, टूटे दिल को प्यार से, जोड़ सके तो जोड़ ।, पौधे ने बाँटे नहीं, नाम पूछकर फूल,, हमने ही खोले बहुत, स्वारथ के इस्कूल ।, , , , धर्म अलग, भाषा अलग, फिर भी हम सब एक,, विविध रंग करते नहीं, हमको कभी अनेक ।, , जो भी करता प्यार वो, पा लेता है प्यार,, प्यार नकद का काम है, रहता नहीं उधार ।, जर्रे-जर्रे मंे खुदा, कण-कण में भगवान,, लेकिन ‘जर्रे’ को कभी, अलग न ‘कण’ से मान ।, , , , इसीलिए हम प्यार की, करते साज-सम्हार,, नफरत से नफरत बढ़े, बढ़े प्यार से प्यार ।, , भाँति-भाँति के फूल हैं, फल बगिया की शान,, फल बगिया लगती रही, मुझको हिंदुस्तान ।, , , , हम सब जिसके नाम पर, लड़ते हैं हर बार,, उसने सपने में कहा, लड़ना है बेकार !, , कितना अच्छा हो अगर, जलें दीप से दीप,, ये संभव तब हो सके, आएँ दीप समीप ।।
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5. खेती से आई तब्दीलियाँ, - पं. जवाहरलाल नेहरू, , परिचय, जन्म ः १88९, इलाहाबाद (उ.प्र.), मृत्यु ः २७ मई १९६4(नई दिल्ली), परिचय ः स्वतंत्र भारत के प्रथम, प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू, चिंतक, वक्ता, लेखक अौर, विचारक थे । नेहरू जी ने आधुनिक, भारत के निर्माण में महत्त्वपूर्ण, भूमिका अदा की । आपने विज्ञान, और प्रौद्योगिकी के विकास को, प्रोत्साहित किया ।, प्रमुख कृतियाँ ः ‘एक आत्मकथा’,, ‘दुनिया के इतिहास का स्थूल, दर्शन’, ‘भारत की खोज’, ‘पिता के, पत्र पुत्री के नाम’, आदि ।, , गद्य संबंधी, प्रस्तुत पत्र पं. जवाहरलाल, नेहरू ने अपनी पुत्री इंदिरा को लिखा, है । इस पत्र में आदिम अवस्था से, आगे बढ़कर खेती के माध्यम से हुए, मानवीय सभ्यता के क्रमिक विकास, को बताया गया है । यहाँ नेहरू जी ने, अमीर-गरीब के मानदंड एवं बचत, प्रणाली को सुंदर ढंग से समझाया, है ।, , 36, , प्रिय बेटी इंदिरा,, अपने पिछले खत में मैंने कामों के अलग-अलग किए जाने का, कुछ हल बतलाया था । बिलकुल शुरू में जब आदमी सिर्फ शिकार, पर गुजर-बसर करता था, काम बंॅटे हुए न थे । हरेक आदमी शिकार, करता था और मुश्किल से खाने भर को पाता था । सबसे पहले मर्दों, और औरतों के बीच मंंे काम बंॅटना शुरू हुआ होगा; मर्द शिकार करता, होगा और औरत घर में रहकर बच्चों और पालतू जानवरों की निगरानी, करती होगी ।, जब आदमियों ने खेती करना सीखा तो बहुत-सी नई-नई बातें, निकलीं । पहली बात यह हुई कि काम कई हिस्सों में बंॅट गए ।, कुछ लोग शिकार खेलते और कुछ खेती करते और हल चलाते ।, ज्यों-ज्यों दिन गुजरते गए आदमियों ने नये-नये पेशे सीखे और उनमें, पक्के हो गए ।, खेती करने का दूसरा अच्छा नतीजा यह हुआ कि गांॅव, और कस्बे बने । लोग इनमें आबाद होने लगे । खेती के पहले लोग, इधर-उधर घूमते-फिरते थे और शिकार करते थे । उनके लिए एक, जगह रहना जरूरी नहीं था । शिकार हरेक जगह मिल जाता था । इसके, सिवा उन्हें गायों, बकरियों और अपने दूसरे जानवरों की वजह से, इधर-उधर घूमना पड़ता था । इन जानवरों के चराने के लिए चरागाहों, की जरूरत थी । एक जगह कुछ दिनों तक चरने के बाद जमीन में, जानवरों के लिए काफी घास पैदा नहीं होती थी और सारी जाति को, दूसरी जगह जाना पड़ता था ।, जब लोगों को खेती करना आ गया तो उनका जमीन के पास, रहना जरूरी हो गया । जमीन को जोत-बोकर वे छोड़ नहीं सकते थे ।, उन्हें साल भर तक लगातार खेती का काम लगा ही रहता था और इस, तरह गांॅव और शहर बन गए ।, दूसरी बड़ी बात जो खेती से पैदा हुई वह यह थी कि आदमी की, जिंदगी ज्यादा आराम से कटने लगी । खेती से जमीन में अनाज पैदा, करना, सारे दिन शिकार खेलने से कहीं ज्यादा आसान था । इसके, सिवा जमीन में अनाज भी इतना पैदा होता था जितना वे एकदम खा
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नहीं सकते थे, इसे वे सुरक्षित रखते थे । एक और मजे की बात सुनाे । जब, आदमी निपट शिकारी था तो वह कुछ जमा न कर सकता था या कर भी सकता, था तो बहुत कम, किसी तरह पेट भर लेता था । उसके पास बैंक न थे, जहांॅ वह, अपने रुपये व दूसरी चीजें रख सकता । उसे तो अपना पेट भरने के लिए रोज, शिकार खेलना पड़ता था । खेती से उसे एक फसल मंे जरूरत से ज्यादा मिल, जाता था । अतिरिक्त खाने को वह जमा कर देता था । इस तरह लोगों ने, अतिरिक्त अनाज जमा करना शुरू किया । लोगों के पास अतिरिक्त अनाज, इसलिए हो जाता था कि वह उससे कुछ ज्यादा मेहनत करते थे जितना सिर्फ, पेट भरने के लिए जरूरी था । तुम्हें, मालूम है कि आज-कल बैंक खुले हुए, हैं जहांॅ लोग रुपये जमा करते हैं और, चेक लिखकर निकाल सकते हैं । यह, रुपया कहांॅ से आता है? अगर तुम गौर, करो तो तुम्हें मालूम होगा कि यह, अतिरिक्त रुपया है, यानी ऐसा रुपया, जिसे लोगों को एक बारगी खर्च करने की जरूरत नहीं है । इसे वे बैंक में रखते, हैं । वही लोग मालदार हैं जिनके पास बहुत-सा अतिरिक्त रुपया है और जिनके, पास कुछ नहीं वे गरीब हैं । आगे तुम्हें मालूम होगा कि यह अतिरिक्त रुपया, आता कहाँ से है । इसका सबब यह नहीं है कि आदमी दूसरे से ज्यादा काम, करता है और ज्यादा कमाता है बल्कि आज-कल जो आदमी बिलकुल काम, नहीं करता उसके पास तो बचत होती है और जो पसीना बहाता है उसे खाली, हाथ रहना पड़ता है । कितना बुरा इंतजाम है । बहुत से लोग समझते हैं कि इसी, बुरे इंतजाम के कारण दुनिया मंे आज-कल इतने गरीब आदमी हैं । अभी शायद, तुम यह बात समझ न सको इसलिए इसमें सिर न खपाओ । थोड़े दिनों में तुम, इसे समझने लगोगी ।, इस वक्त तो तुम्हें इतना ही जानना पर्याप्त है कि खेती से आदमी को उससे, ज्यादा खाना मिलने लगा जितना वह खा नहीं सकता था, यह जमा कर लिया, जाता था। उस जमाने मंे न रुपये थे, न बैंक। जिनके पास बहुत-सी गायें, भेड़ें,, ऊँट या अनाज होता था, वे ही अमीर कहलाते थे।, , , तुम्हारा पिता,, , जवाहरलाल नेहरू, , पठनीय, बालवीर पुरस्कार प्राप्त, बच्चों की कहानियाँ पढ़ो ।, , लेखनीय, वन महोत्सव जैसे प्रसंग की, कल्पना करते समय विशेष, उद्धरणों, वाक्यों का प्रयोग, करके आठ से दस वाक्य, लिखो।, , संभाषणीय, ‘जय जवान, जय किसान’, नारे पर अपने विचार कक्षा, में प्रस्तुत करो ।, , श्रवणीय, रेडियो/दूरदर्शन पर जैविक, खेती के बारे में जानकारी, सुनो और सुनाओ ।, , 37
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विज्ञान के दो भाग हैं-पहला दैवी और दूसरा राक्षसी । एक राष्ट्र की, दासता दूसरे भाग में आती है । राजनीति-विज्ञान के राक्षसी भाग का, कोई नैतिक औचित्य नहीं हो सकता । एक राष्ट्र जो उसे उचित ठहराता, है, ईश्वर की दृष्टि में पाप का भागी है ।, कुछ लोगों में उस बात को बताने का साहस होता है, जो उनके, लिए हानिकारक है और कुछ लोगों में यह साहस नहीं होता । लोगों, को इस सिद्धांत के ज्ञान से अवगत कराना चाहता हँू कि राजनीति, और धर्म, शिक्षा का एक अंग हैं । धार्मिक और राजनीतिक शिक्षाएँ, भिन्न नहीं हैं, यद्यपि विदेशी शासन के कारण वे ऐसे प्रतीत होती हैं ।, राजनीति के विज्ञान में सभी दर्शन समाए हैं ।, इंग्लैंड भारत की सहायता से बेल्जियम जैसे छोटे से देश को, संरक्षण देने का प्रयास कर रहा है, फिर वह कैसे कह सकता है कि हमें, स्वशासन नहीं मिलना चाहिए ? जो हममें दोष देखते हैं, वे लोभी, प्रकृति के लोग हैं परंतु ऐसे भी लोग हैं, जो परम कृपालु ईश्वर में भी, दोष देखते हैं । हमें किसी बात की परवाह किए बिना अपने राष्ट्र की, आत्मा की रक्षा करने के लिए कठोर प्रयास करने चाहिए । अपने उस, जन्मसिद्ध अधिकार की रक्षा में ही हमारे देश का हित छिपा हुआ है ।, कांग्रेस ने स्वशासन का यह प्रस्ताव पास कर दिया है ।, प्रांतीय सम्मेलन कांग्रेस की ही देन है, जो उसके आदेशों का, पालन करता है । इस प्रस्ताव को लागू कराने हेतु कार्य करने के लिए, हम कृतसंकल्प हैं, चाहे ऐसे प्रयास हमें मरुभूमि में ही ले जाएँ, चाहे, हमें अज्ञातवास में रहना पड़े, चाहे हमें कितने ही कष्ट उठाने पड़ें या, अंत में चाहे जान ही गँवानी पड़े । श्रीरामचंद्र ने ऐसा किया था । उस, प्रस्ताव को केवल तालियाँ बजाकर पास न कराएँ, बल्कि इस प्रतिज्ञा, के साथ कराएँ कि आप उसके लिए काम करेंगे । हम सभी संभव, संवैधानिक और विधिसम्मत तरीकों से स्वशासन की प्राप्ति के लिए, कार्य करेंगे ।, जॉर्ज ने खुलकर स्वीकार किया है कि भारत के सहयोग के बिना, इंग्लैंड अब चल नहीं सकता है । पाँच हजार वर्ष पुराने एक राष्ट्र के बारे, मंे सारी धारणाएँ बदलनी होंगी । फ्रांसीसी रणभूमि में भारतीय सैनिकों, ने ब्रिटिश सैनिकों की जान बचाकर अपनी बहादुरी का परिचय दिया, है । हमें उन्हें बता देना चाहिए कि हम तीस करोड़ भारतीय साम्राज्य के, लिए अपनी जान भी देने को तैयार हैं ।, , श्रवणीय, राष्ट्रीय त्योहारों पर आयोजित, कार्यक्रम में वक्ताओं द्वारा, दिए गए वक्तव्य सुनो और, मुख्य मुद्दे सुनाओ ।, , संभाषणीय, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के, प्रसिद्ध घोषवाक्यों की सूची, बनाकर उनपर गुट में चर्चा, करो ।, , लेखनीय, राष्ट्रप्रेम की भावना से, ओत-प्रोत चार पंक्तियों, की कविता लिखो ।, , पठनीय, सुभद्राकुमारी चौहान की, ‘झाँसी की रानी’ कविता, पढ़ो ।, , 43, 4३
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मौलिक सृजन, अपने जीवन में पिता की, महत्त्वपूर्ण भूमिका को, अधोरेखित करते हुए कृतज्ञता, ज्ञापन करने वाला पत्र लिखो ।, , श्रवणीय, रेडियो, दूरदर्शन, यू ट्यूब से शौर्य, कथा/गीत सुनो और सुनाओ ।, , 4६, 46, , घेरकर पढ़ाना-रटाना शुरू कर देते । शायद उनकी मेहनत के ही बल पर, मैं आठवीं कक्षा तक पहुँचा हूँ ।, एक बार पूरी क्लास पिकनिक पर जा रही थी । पिता जी ने मना, किया । मेरे जिद करने पर माँ और पिता जी में भी झिक-झिक होने लगी ।, मैं अड़ा ही रहा । परिणामस्वरूप पहले समझाया, धमकाया और डाँटा, गया और सबसे आखिर में दो चाँटे लगाकर नालायक करार दिया गया ।, मैं बड़ा क्रोधित हुआ ।, कभी ‘डोनेशन’ या सालाना जलसे आदि के लिए चंदे वगैरह की, छपी पर्चियाँ लाता तो पिता जी झल्ला पड़ते ।, एक-दो रुपये देते भी तो मैं अड़ जाता कि, बाकी लड़के दस-दस, बीस-बीस रुपये लाते, हैं, मैं क्यों एक-दो ही ले जाऊँ ? मैंने इस बारे, में माँ से बात की पर माँ भी इसे फिजूल खर्चा, मानती थीं ।, रमन की ‘वर्षगाँठ’ की बात तो मैं कभी, भूल ही नहीं सकता । सबसे पहले उसने मुझे, ही बताया था कि अगले महीने उसकी वर्षगाँठ, है । मैं अंदर-बाहर एकदम खुशी से किलकता, घर पहुॅंचा था । मैं शायद रमन से भी ज्यादा बेसब्री से उसकी वर्षगाँठ का, इंतजार कर रहा था; क्योंकि रमन ने अपनी वर्षगाँठ की तैयारियों का जो, चित्र खींचा था, उसने मुझे पूरे एक महीने से बेचैन कर रखा था ।, लेकिन उस दिन पिता जी ने मुझे एकदम डपट दिया-‘‘नहीं जाना, है ।’’ मैंने जोर-जोर से लड़ना, जिद मचाना और रोना-चिल्लाना शुरू, कर दिया । गुस्से मंे पिता जी ने एक भरपूर थप्पड़ गालों पर जड़ दिया ।, गाल पर लाल निशान उभर आए । उस दिन पहली बार माँ ने मेरे गालों, पर उँगलियाँ फेर रो पड़ी थीं और पिता जी से लड़ पड़ी थीं । पिता जी को, भी शायद पछतावा हुआ था । माँ ने मेरा मुँह धुलाया, गाल पर दवा लगाई, और बाजार से बिस्कुट का एक डिब्बा मँगाकर पिता जी के साथ रमन के, घर भिजवा दिया ।, रमन के पापा दरवाजे पर ही मिल गए थे । खूब खुश होकर उन्होंने, रमन को बुलाया । फिर उनकी दृष्टि गालों पर पड़ी । पिता जी जल्दी से, बोले, ‘‘आते-आते सीढ़ियों से गिर गया ... पर मैंने कहा, ‘‘तुम्हारे, दोस्त का जन्मदिन है, जरूर जाओ ।’’, मेरा दिमाग गुस्से से पागल हो गया । मन किया, जोर से चीख पड़ूँ ।, रमन के पापा के सामने ही-कि ये झूठे, मक्कार और निर्दयी हैं, मुझे
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पीटकर लाए हैं और यहाँ झूठ बोल रहे हैं । बोला कुछ नहीं, बस गुस्से से, उन्हें घूरता रमन की उँगली पकड़े अंदर चला गया ।, अंदर जाकर तो मुझे लगा कि मैं लाल परी के जादुई देश मंे आ गया, हूँ । ढेर-के-ढेर झूलते रंग-बिरंगे गुब्बारे, रिबंस, प्रेजेंटस् , ट्रॉफियाँगुलदस्ते-सा सज्जा, उल्लास से हमेशा हँसते-से उसके मम्मी-डैडी ।, घर लौटकर मैंने पहला प्रश्न माँ से यही किया-‘तुम और पिता जी मेरा, जन्मदिन क्यों नहीं मनाते ?’, उत्तर में पिता जी की झिड़की ने उसके प्रति उपेक्षा व आक्रोश को, और भी बढ़ा दिया । शायद धीरे-धीरे इसी उपेक्षा और आक्रोश का, स्थान विद्राेह लेने लगा । अनजाने में मेरे अंदर पिता जी का एक शत्रु पैदा, हो गया, जो हर समय पिता जी को तंग करने, दुखी करने और उनसे अपने, प्रति किए गए अन्यायों के विरुद्ध बदला लेने की स्कीमें बनाता । चूकि, ँ, पिता जी और पढ़ाई एक-दूसरे के पर्यायवाची बन गए थे, अतः पढ़ाई से, भी मुझे उतनी ही चिढ़ हो गई थी जितनी पिता जी से ।, घर में छोटी बहन शालू और उससे छोटे मंटू के आगमन के साथ ही, तंगहाली और भी बढ़ गई थी, शायद इसी वजह से मैं ज्यादा विद्राेही हो, गया था । अब बात-बात पर पिटना एक आम बात हो गई थी ।, धीरे-धीरे पिटने का डर भी दिमाग से काफूर हो गया और मैं दुस्साहसी हो, पिता जी के हाथ उठाते ही घर से भाग खड़ा होता ।, बस पढ़ाई पिछड़ती गई । फर्स्ट आने लायक शायद नहीं था पर, सामान्य लड़कों से अच्छे नंबर तो मैं आसानी से ला सकता था । पढ़ाई, से तो मुझे शत्रुता हो गई थी । पिता जी से बदला लेने के लिए अपना, कैरियर चौपट करने तक में मुझे एक मजा मिलता, लगता पिता जी को, नीचा दिखाने का इससे अच्छा उपाय दूसरा नहीं हो सकता ।, मुझे याद है कि पाँचवीं कक्षा में सातवीं पोजीशन लाने के बाद छठी, कक्षा मंे मैं मेहनत करके थर्ड अाया था सोचा था, पिछले साल से अच्छे, नंबर लाने पर पिता जी खुश होंगे पर वे रिपोर्ट देखते ही खीझे थे-‘चाहे, कितना भी घोलकर पिला दूँ, पर तू रहेगा थर्ड -का-थर्ड ही ।’ मेरा मन, अपमान से तिलमिला गया । सोचा, चीखकर कहूँ-‘अगले साल मैं फेल, होऊँगा फेल ।’, अक्सर पेपर देकर लौटने पर इम्तहान का बोझ टलने की खुशी, में उमंगता से घर लौटता तो बैठक में ही पिता जी मिलते-‘‘कैसा किया, पेपर ?’’ मैं खुश होकर कहता, ‘अच्छा’ पर पिता जी के होंठ बिदक, जाते, ‘‘कह तो ऐसे रहे हो जैसे फर्स्ट ही आओगे ।’’, खीझकर पेपर देकर लौटने पर तो खास तौर से उनका सामना करने, , संभाषणीय, ‘भारत की संपर्क भाषा हिंदी, है’, इस कथन पर विचार करते, हुए अपना मत प्रस्तुत करो ।, , 47, 4७
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पठनीय, किसी अंतरिक्ष यात्री की, अंतरिक्ष यात्रा का अनुभव पढ़ो, और चर्चा करो ।, , लेखनीय, निम्नलिखित जगहों पर जाना, हो तो तुम्हारा संपर्क किस भाषा, से होगा लिखो ः, चंडीगढ़ , -----अहमदाबाद, -----पुरी , -----रामेश्वरम, -----श्रीनगर , -----पेरिस , -----टोकियो , -----ब्राजिल , -----बीजिंग , -----इजराइल , ------, , 4488, , से कतराता, चिढ़ता और माँ के सामने भुन-भुनाकर अपना आवेश व्यक्त, करता । शालू मुझे बच्ची लगती थी; पर जब से थोड़ी बड़ी होने के साथ, उसने पिता जी-माँ का कहना मानना, उनसे डरना शुरू कर दिया है, मुझे, उस चमची से चिढ़ हो गई है । नन्हे मंटू को गोद मंे लेकर उछालने-खेलाने, की तबीयत होती है पर पिता जी उसे प्यार करते हैं, यह सोचकर ही मुझे, उसे रोते रहने देने में शांति मिलती है ।, इस महीने पैसे की ज्यादा परेशानी है-टेरीकॉट की कड़क कॉलरवाली, बुश्शर्ट जरूर सिलवाऊँगा, मेरे पास घड़ी क्यों नहीं है ? बिना घड़ी के, परीक्षा नहीं दूँगा, साइकिल पंक्चर हो गई तो बस नहीं, ऑटोरिक्शा से, किराया देकर घर लौटूँगा, हिप्पी कट बाल कटाऊँगा, माथे पर फुलाकर, सँवारूँगा ... कर लें, जो कर सकते हों मेरा । हूँ ऽऽ ......, कई बार मन करता है-कोशिश करके एक बार फर्स्ट आ ही जाऊँ,, लेकिन तभी अंदर से कोई चीखता है-नहीं, यह तो पिता जी की जीत हो, जाएगी । वे इसे अपनी ही उपलब्धि समझेंगे; और ... और खुश भी तो, होंगे, मेरा उनकी खुशी से क्या वास्ता ? अब उनका और कुछ वश नहीं, चलता तो माँ को सुनाकर दहाड़ते हैं- ‘‘ठीक है, मत पढ़े-लिखे । करे, सारे दिन मटरगश्ती । मैं भी इस इम्तहान के बाद किसी कुली-कबाड़ी के, काम पर लगा देता हूँ ।’’, यही देख लीजिए, अभी नुक्कड़ की दुकान पर कुछ खरीदने आया, ही था कि अचानक पिता जी सड़क से गुजरते दीखे । जानता हूँ, घर पर, पहुँचकर खूब गरजेंगे-दहाड़ेंगे । लेकिन बाहरी दरवाजे पर आकर सन्न रह, जाता हूँ । पिता जी को लगा कि उनके बेटे का भविष्य बरबाद हो गया है, यह सोचकर वे गलियारे में खड़े-खड़े दीवार से कोहनियाँ टिकाए निश्शब्द, कातर रो रहे हैं । मैं सन्नाटे में खिंचा अवाक खड़ा रह जाता हूँ । पिता जी, का ऐसा बेहद निराश, आकुल-व्याकुल रूप मेैंने इसके पहले कभी नहीं, देखा था । जिंदगी में पहली बार मैंने अपने पिता को इतना विवश, इतना, व्यथित और इतना बेबस देखा तो क्या पिता जी पहले भी कभी ऐसी ही, अवश मजबूरियों के बीच रोए होंगे-मुझे लेकर ?, अब मुझे अपने किए पर पछतावा हुआ । पिता जी की दशा देखकर, मैं मन-ही-मन दुखी हुआ । माँ से मिलकर मैंने सब कुछ बताया । आज, माँ की खुशी का पारावार न था । उसने मुझे गले लगाया । उसकी आँखों, से आँसू झरने लगे । वे दुख के नहीं खुशियों के थे । मेरी आँखों के, विद्रोही अंगारे बुझने लगे हैं-मेरे अपने ही आँसुओं की धार से । मैं निःशब्द, कह रहा हूँ-पिता जी ! मैं संधि चाहता हूॅं । हाँ, मैं संधि चाहता हूँ ।, मैंने आपको गलत समझा, मुझे क्षमा कर दीजिए ।
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उपयोजित लेखन (रचना विभाग), , * पत्रलेखन, , अपने विचारों, भावों को शब्दों के द्वारा लिखित रूप में अपेक्षित व्यक्ति तक पहँुचा देने वाला साधन है पत्र ! हम सभी, ‘पत्रलेखन’ से परिचित हैं ही । आजकल हम नई-नई तकनीक को अपना रहे हैं । पत्रलेखन में भी आधुनिक तंत्रज्ञान/तकनीक का, उपयोग करना समय की माँग है । आने वाले समय में आपको ई-मेल भेजने के तरीके से भी अवगत होना है । अतः इस वर्ष से पत्र, के नये प्रारूप के अनुरूप ई-मेल की पद्धति अपनाना अपेक्षित है ।, * पत्र लेखन के मुख्य दो प्रकार हैं, औपचारिक और अनौपचारिक ।, , गद्य आकलन (प्रश्न निर्मिति), दिए गए परिच्छेद (गद्यांश) को पढ़कर उसी के आधार पर पाँच प्रश्नों की निर्मिति करनी है । प्रश्नों के उत्तर एक वाक्य में हों, ऐसे ही प्रश्न बनाए जाएँ । प्रश्न के उत्तर लिखना अपेक्षित नहीं है ।, * प्रश्न ऐसे हों ः तैयार प्रश्न सार्थक एवं प्रश्न के प्रारूप मंे हो । प्रश्न रचना और प्रश्नों के उत्तर दिए गए गद्यांश पर आधारित, हो । रचित प्रश्न के अंत में प्रश्नचिह्न लगाना आवश्यक है । प्रश्न समूचे परिच्छेद पर आधारित हों ।, , मनुष्य को अपने जीवन की आवश्यकताएँ पूर्ण करने के लिए बहुत कुछ श्रम करना पड़ता है । इस श्रम से थके, हुए मन और मस्तिष्क को विश्राम की आवश्यकता होती है, शरीर पर भी इस श्रम का प्रभाव पड़ता है । इसलिए वह, भी विश्राम माँगता है किंतु यदि मनुष्य आलसी की भाँति सीधा चारपाई पर लेट जाए तो इससे वह थकान भले ही उतार, ले, परंतु वह नया उत्साह नहीं पा सकता जो उसे अगले दिन फिर से काम करने की शक्ति प्रदान कर सके । यह तभी, हो सकता है जब दिन भर के काम से थके मन को हँस-खेलकर बहला लिया जाए । आकर्षक गीत सुनकर या संुदर, दृश्य देखकर दिन भर पढ़ने अथवा सोचने से दिमाग पर जाे प्रभाव पड़ा हो, उसे निकालकर मस्तिष्क को उस चिंता से, दूर कर देना चाहिए । इसका परिणाम यह होगा कि मनुष्य पुनः विषय पर नई शक्ति से सोच-विचार कर सकेगा ।, प्रश्नः, १., २., ३., 4., 5., , * वृत्तांत लेखन ः वृत्तांत का अर्थ है- घटी हुई घटना का विवरण/रपट/अहवाल लेखन । यह रचना की एक विधा, , है । वृत्तांत लेखन एक कला है, जिसमें भाषा का कुशलतापूर्वक प्रयोग करना होता है । यह किसी घटना, समारोह का विस्तृत, वर्णन है जो किसी को जानकारी देने हेतु लिखा होता है । इसे रिपोर्ताज, इतिवृत्त, अहवाल आदि नामों से भी जाना जाता, है । वृत्तांत लेखन के लिए ध्यान रखने योग्य बातें ः वृत्तांत में घटित घटना का ही वर्णन करना है । घटना, काल, स्थल, का उल्लेख अपेक्षित होता है । साथ-ही-साथ घटना जैसी घटित हुई उसी क्रम से प्रभावी और प्रवाही भाषा में वर्णित हो ।, आशयपूर्ण, उचित तथा आवश्यक बातों को ही वृत्तांत में शामिल करें । वृत्तांत का समापन उचित पद्धति से हो ।, , * कहानी लेखन ः कहानी सुनना-सुनाना आबाल वृद्धों के लिए रुचि और आनंद का विषय होता है । कहानी लेखन विद्यार्थियों, , की कल्पनाशक्ति, नवनिर्मिति व सृजनशीलता को प्रेरणा देता है ।, कहानी लेखन में निम्न बातों की ओर विशेष ध्यान दें ः शीर्षक, कहानी के मुद्दों का विस्तार और कहानी से प्राप्त सीख/प्रेरणा/, संदेश ये कहानी लेखन के अंग हैं । कहानी भूतकाल में लिखी जाए । कहानी के संवाद प्रसंगानुकूल वर्तमान या भविष्यकाल में हो, सकते हैं । संवाद अवतरण चिह्न में लिखना अपेक्षित है । कहानी लेखन की शब्द सीमा सौ शब्दों तक हो । कहानी का शीर्षक, लिखना आवश्यक होता है । शीर्षक छोटा, आकर्षक, अर्थपूर्ण और सारगर्भित होना चाहिए । कहानी में कालानुक्रम, घटनाक्रम, और प्रवाह होना आवश्यक है । घटनाएँ श्रृंखलाबद्ध होनी चाहिए । कहानी लेखन में आवश्यक विरामचिह्न ों का प्रयोग करना, न भूलें । कहानी लेखन करते समय अनुच्छेद बनाएँ । कहानी का विस्तार करने के लिए उचित मुहावरे, कहावतें, सुवचन,, पर्यायवाची शब्द आदि का प्रयोग करें ।, , 53, 5३