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1, जिन्दगी और जोंक-अमरकांत, भारत आजाद हो गया, किंतु क्या हम सही मायने में स्वाधीन हुए? यह प्रश्न लगातार आम, जनता की हालत और हालात को देख कर बुद्धिजीवियों के बीच उठता रहा। हम लाख प्रजातंत्र,, विकास, आधुनिकता की बात कर लें लेकिन अमीर और गरीब के बीच की खाई, ऊँच -नीच की, मानसिकता, समर्थ द्वारा गरीब का शोषण क्या अब भी बंद हुआ है । पूर्वापेक्षा इसमें काफी मात्रा में कमी, अवश्य आई है, यह ठीक है लेकिन यह समझ लेने मात्र से संतोष नहीं किया जा सकता।, अमरकांत की कहानी जिन्दगी और जोंक इसी समस्या पर अभिधात्मक शैली में प्रकाश, डालते, हुए, विकसित और विकासशील समाज को सोचने-विचारने पर मजबूर कर देती है।, एक गरीब, दुबला-पतला, काला, नाटा, भिखमंगा रजुआ (मूल नाम गोपाल) मोहल्ले के, खण्डहर में अचानक आ कर रहने लगा और एक हफ्ते के भीतर ही शिवनाथ बाबू के यहाँ से एक साड़ी, चोरी हो गई। रजुआ को ही चोर समझ कर गाँववालों ने रजुआ की बुरी तरह पिटाई की, अंत में शिवनाथ, बाबू के पुत्र ने धीरे से बताया कि साड़ी घर पर ही मिल गई । रजुआ को लगता है कि मैं निर्दोष सिद्ध, हो गया। इस घटना के बाद लोग उसे कुछ-न-कुछ खाने पीने को दे ही देते और वह उन लोगों के, हल्के-फुल्के काम कर दिया करता। कुछ लोग उसे पहुँचा हुआ साधु-महात्मा समझने लगे। वह अब, खण्डहर छोड़ कर किसी के ओसारे या दालान में सोने लगा। एक दिन शिवनाथ बाबू ने उसे बुला कर, कहा 'दर-दर भटकता रहता है। कुत्ते-सूअर का जीवन जीता है। आज से इधर -उधर भटकना छोड़,, आराम से यहीं रह और दोनों जून भरपेट खा रजुआ उन्हीं के यहाँ रहने लगा और उनके काम करने लगा ।, दादा का नाम गोपाल सिंह था इसलिए उनके यहाँ उसे रजुआ नाम दे दिया गया ।, शिवनाथ, बाबू, के, मोहल्ले वालों को रजुआ का इस तरह शिवनाथ बाबू के यहाँ 'ही' काम करना हजम नहीं हुआ,, वे उसे मोहल्ले भर का नौकर समझते थे । रजुअआ दिखाई पड़ा कि कुछ पैसे या खाने पीने की चीज दे दिए, और अपना काम कराया। जिसका भी काम उसने नहीं किया या करने में देर हुई तो वह उसकी पिटाई, कर देता था। इस तरह वह मोहल्ले भर का नौकर बन गया । धीरे-धीरे रजुआ के भाव बढ़ने लगे। वह, गाँव की स्त्रियों के साथ हँसी-मजाक भी करने लगा । गाँव की छोटी जाति की स्त्रियों को वह भौजाई, कहने लगा। किसी भी जवान युवती को देखा, चाहे वह पहचान की हो या न हो,, देकर किलकने लगता। उसकी इस हरकत के कारण गाँव वाले उसे 'रजुआ साला' कहने लगे। एक दिन, रजुआ स्टेशन की एक पगली औरत को अपने साथ ले आया तथा सड़क के दूसरी ओर क्वार्टर की छत, पर ले गया तथा वहीं पगली के खाने-पीने का इंतजाम करता था। वह किसी के यहाँ काम करने भी, रजुआ, हिचकी दे-, जाता तो बार-बार क्वार्टर जाकर पगली की खबर ले -लेता। कुछ खाने-पीने को मिलता तो पगली को, दे आता। एक बार रात के समय जब रजुआ छत पर पहुँचा तो पगली के पास किसी दूसरे को सोता देख, कर आपत्ति करता है, तब वह लफंगा उसे खूब पीटता है तथा पगली को लेकर कहीं और चला जाता, है। इस घटना के बाद से रजुआ अनमना रहने लगता है तथा गंभीर भी हो जाता है।, इस बीच उसने दाढ़ी बढ़ा ली। पता चला कि रजुआ को काम के बदले जो पैसे मिलते थे उसमें, कुछ बचा कर वह बरन की बह के पास जमा कर देता था। जब दस रु. जमा हो गए तो रजुआ ने माँगा,
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पर बरन की बहू ने साफ मना कर दिया कि तेरी एक पाई भी मेरे पास नहीं है । इससे भी रजुआ आहत, हो गया, वह कहता है कि जब तक बरन की बहू को कोढ न फूटेगा, वह दाढ़ी न मुड़ायेगा । इसी काम, के लिए वह शनीचरी देवी पर जल चढ़ाता है। अब लोग उसे 'रज्जू भगत' कहने लगे। वह लोगों को, बजरंगबली से लेकर महात्मा गांधी तक के ऐसे किस्से सुनाता है जो किसी ने नहीं सुने होंगे।, एक बार रजुआ को हैजा हो गया। वह के और दस्त से पस्त हो गया। जिनके यहाँ वह काम, करता था उन सबने उसे भगा दिया, इस डर से कि उनके घर में भी बीमारी फैल सकती है। वह खण्डहर, में, पड़ा, मौत से, जूझता, है। शिवनाथ बाबू तो यहाँ तक कहते हैं कि- यह बच नहीं सकता। लेखक, अस्पताल के अधिकारियों को सूचित करते हैं, वहाँ से गाड़ी में बैठकर साथ आते हैं और जब मेहतर, उसे खींच कर गाड़ी में लाद कर चले जाते हैं तब लेखक संतोष की साँस लेते हैं । रजुआ बच जाता है ।, वह बेहद कमजोर हो जाता है, पेट भरने के लिए कुछ न कुछ काम करने का प्रयत्न करता है । एक दिन, वह फिर खण्डहर में पड़ा मिला। इस बार उसे जबरदस्त खुजली हो गई । शिवनाथ बाबू ने साफ कह दिया, कि मेरे घर आयेगा तो पैर तोड़ ढूँगा। रजुआ अब नरकंकाल हो गया था । एक दिन एक लड़के ने आकर, अचानक लेखक को बताया कि रजुआ मर गया, साथ ही एक कार्ड दिया और कहा कि उसके, परिवारवालों को, 6., की, सूचना, लिख दीजिये । लेखक ने सूचना लिखकर लड़के को कार्ड सौंप दिया।, मृत्यु, की, गाँव में, की सूचना फैल गई। तीन-चार दिन बाद अचानक रजुआ की छाया देख कर, रजुआ, लेखक डर जाते हैं। इतने में रजुआ कहता है कि सरकार मैं मरा नहीं, जिंदा हूँ। वह बताता है कि मैंने, ही उस लड़के को भेजा था। हुआ यह कि मेरे सिर पर एक कौवा बैठ गया था। कौवे का सिर पर बैठना, बहुत अशुभ माना जाता है, उससे मौत आ जाती है। कहा जाता है कि ऐसे में अपने रिश्तेदार को मृत्यु, की सूचना भेज देने से मौत टल जाती है। वह एक और कार्ड लेखक को देते हुए कहता है कि- मालिक, इस पर लिख दें कि गोपाल जिन्दा है, मरा नहीं। लेखक समझने की कोशिश करते हैं कि, की तरह जिन्दगी से चिमटा था कि जिन्दगी जोंक की तरह उससे चिमटी थी।, मृत्यु, रजुआ, जोंक, यह कहानी अपनी सहज शैली में यह बताना चाहती है कि एक अतिगरीब, लाचार व्यक्ति के, भीतर भी काम करने, लोगों के साथ मिलने-जुलने, प्रेम करने, युवावस्था का आनंद लेने, भविष्य की, योजना बनाने की इच्छा होती है। रजुआ में जीवन के प्रति अदम्य लालसा थी। इस कहानी में कौवे का, सिर पर बैठने वाला प्रसंग अंधविश्वास से नहीं जुड़ा है, वह प्रतीक रूप में यह बताता है कि तमाम, विडंबनाओं के बाद भी रजुआ जीना चाहता है। यह कहानी स्वार्थ अभिप्रेरित समाज के सामने यह प्रश्न, 6., उपस्थित करती है कि जब-जब रजुआ काम करने लायक रहा वह लोगों के घर में रहता था लेकिन जब, रजुआ बीमार पड़ा तब सबने उसे भगा दिया। यह कहानी संदेश देती है उन लोगों को जो जीवन के कठोर, संघर्षों से जूझते-जूझते थक-हार कर आत्महत्या कर लेते हैं। ऐसे लोगों के लिए रजुआ एक आदर्श है, क्योंकि उसे हर हाल में जीने की राह खोजना आता है । कहानी के प्रारंभ का गरीब, लाचार, विवश,, दया का पात्र रजुआ कहानी के अंत तक उस जैसे लोगों के लिए पथप्रदर्शक तथा अन्य लोगों के लिए, आत्म-परीक्षण का कारण बन जाता है। कहानी कह जाती है कि जिस व्यक्ति के भीतर जीने की इच्छा, होती है वह मौत को भी मात दे देता है। रजुआ को न गरीबी थका पाई, न हैजा मार पाया और न खुजली, हताश कर पाई। मौत को तीन-तीन बार परास्त कर देने वाला रजुआ व्यक्तित्त्व की कमजोरी, गंदेपन, 6.
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3, के बाद भी पाठकों को याद रह जाता है। इस कहानी में रजुआ जीवन भर न जाने क्या-क्या भोगता है,, तमाम प्रकार के मान-अपमान, गरीबी और लाचारी का अभिशाप भोगने वाले रजुआ द्वारा लेखक से, कहा गया अंतिम वाक्य उसके जीवन भर के संघर्षों के बाद जीत का ऐलान है। वह कार्ड देकर लेखक, से कहता है- 'सरकार इस पर लिख दें कि गोपाल जिन्दा है, मरा नहीं ।, इस कहानी में भाषा की दृष्टि से भी कुछ सुंदर प्रयोग हुए हैं जैसे- 'खण्डहर में वह ऐसे पड़ा था, जैसे रात में आसमान से टपककर बेहोश हो गया हो अथवा दक्षिण भारत का भूला- भटका साधु निश्चिंत, स्थान पाकर चुपचाप नाक से हवा खींच-खींच कर प्राणायाम कर रहा हो।', मुहावरे-प्रतीक-बिम्ब- 'चमार-सियार डाँट-, नीच और नींबू को दबाने से ही रस निकलता है।', डपट पाते ही रहते हैं।', उसकी खोपड़ी किसी हलवाई की दूकान पर दिन में लटकते काले गैस लैम्प की भाँति हिल-, डुल रही थी।, 'ए मियाँ एढ़े तो हम तुम से ड्योढ़े, 'सारा वातावरण इतना शांत था जैसे किसी षड़यंत्र में लीन हो %', -০-০-০-