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उपन्यास साहित्य को व्यापकता एवं गंभीरता देने वाले संवेदनशील लेखक मुंशी वो लिखीं, 1880 ई* में उत्तर प्रदेश के लमही ग्राम में एवं मृत्यु 1935 ई« में हुआ था। सकल क्या, जाती हैं; इसे सही अर्थों में प्रेमचंद ने सिखाया है। उन्होंने सभी आयु के के पाठकों के लिए, कप, साहित्य की रचना की है। अनेक यादगार पात्रों का सृजन करने वाले प्रेमचंद का योगदान हे कल क्या, भी है कि उन्होंने जीवन की सच्चाईयों का अध्ययन चित्रण करते हुए मनुष्य का महत्व हा, है। उनकी बाल-केंद्रित रचनाएँ जीवन की मुश्किलों से निकलने की सूझ-बूझ से युक्त हैं। जाय, भाषा सहज हिंदी है। जितनी व्यापक उनकी संवेदना थी उतनी ही सूक्ष्म उनकी दृष्टि थी। प्रस्तुत कह, में प्रेमचंद ने किसी के प्रति दुर्भावना से ग्रसित नहीं होने की प्रेरणा दी है।, , , , , , , , , , मुंशी प्रेमचंद, , छे सा शायद ही कोई महीना जाता कि अलारक्खी के वेतन से कुछ जुर्माना नहीं कटता, हो। कभी-कभी तो उसे 6 रुपये के 5 रुपये ही मिलते, लेकिन वह सब-कुछ सहकर, भी सफाई के दरोगा खैरातअली खाँ के चंगुल में कभी नहीं आती थी। खाँ साहब की, मातहती में सैकड़ों मेहतरानियाँ थीं। किसी की भी तलब नहीं कटती, किसी, पर जुर्माना नहीं होता, नहीं किसी को डाँट ही पड़ती। खाँ, साहब नेकनाम थे, दयालु थे। मगर अलारब्खी उनके, हाथों बराबर ताड़ना पाती रहती थी। वह कामचोर नहीं, थी, बेअदब नहीं थी, फूहड़ नहीं थी, बदसूरत ;, भी नहीं थी; पहर रात को इस ठंड के 5, दिनों में वह झाड़ू लेकर निकल जाती, और नौ बजे तक एक चित्त होकर सड़क, पर झाड़ू लगाती रहती। फिर भी उस, पर जुर्माना हो जाता। उसका पति हसैनी, भी अवसर पाकर उसका काम कर देता,, लेकिन अलारबखी की किस्मत में जुर्माना, देना लिखा था। तलब का दिन औरों, के लिए हँसने का दिन था, अलारक्खी, के लिए रोने का। उस दिन उसका मन, जैसे सूली पर टँगा रहता। न जाने कितने, पैसे कट जाएँगे? वह परीक्षावाले छात्रों, की तरह बार-बार जुर्मने की रकम का, , तखमीना करती। ७
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उस दिन थककर ज़रा दम लेने के लिए बैठ गई थी। उसी वक्त, नि दरोगाजी अप इक्के पर आ रहे थे। वह कितना कहती रही, हजूरआली,, मैं फिर काम करूँगी, लेकिन उन्होंने एक नहीं सुनी थी, अपनी किताब, में उसका नाम नोट कर लिया था। उसके कई दिन बाद फिर ऐसा ही, हुआ। वह हलवाई से एक पैसे के सेवड़े लेकर खा रही थी। उस वक्त, दरोगा न जाने किधर से निकल पड़ा था और फिर उसका नाम लिख, लिया गया था। न जाने कहाँ छिपा रहता है? ज़रा भी सुस्ताने लगे, कि भूत की तरह आकर खड़ा हो जाता है। नाम तो उसने दो, ४ ही दिन लिखा था, पर जुर्माना कितना करता है-- अल्लाह, 2६. जाने! आठ आने से बढ़कर एक रुपया न हो जाए। वह सिर, झुकाए वेतन लेने जाती और तखमीने से कुछ ज़्यादा ही, कटा हुआ पाती। कॉपते हुए हाथों से रुपये लेकर आँखों, में आँसू भरे लौट आती। किससे फरियाद करे, दरोगा के, . सामने उसकी सुनेगा कौन?, आज फिर वही तलब का दिन था। इस महीने में उसकी, दूध पीती बच्ची को खाँसी और ज़्वर आने लगा था।, ठंड भी खूब पड़ी थी। कुछ तो ठंड के मारे और कुछ, लड़की के रोने-चिल्लाने के कारण उसे रात-रात-भर, जागना पड़ता था। कई दिन काम पर जाने में देर हो, >+ वाई थी। दरोगा ने उसका नाम लिख लिया था। अब, , , , , हट हर क कीं आधे रुपये कट जाएँगे। आधे भी मिल जाएँ तो, गनीमत है। कौन जाने कितना कटा है? उसने तड़के बच्ची को गोद में उठाया और झाड़ू लेकर सड़क पर, दरोगा के आने की धमकी दी- अभी, , जा पहुँची। मगर वह दुष्ट गोद से उतरती ही नहीं थी। उसने बास्बार द, आता होगा, मुझे भी मारेगा, तेरे भी नाक-कान काट लेगा। लेकिन लड़की को अपने नाक-कान कंटवाना, मंजूर था, गोद से उतरना मंजूर नहीं था। आखिर जब वह डराने-धमकाने, प्यारने-पुचकारने, किसी उपाय से, , छोड़कर झाड़ू लगाने लगी।, , नहीं उतरी तो अलाख्खी ने उसे गोद से उतार दिया और उसे रोती-चिल्लाती, गेती भी नहीं थी। अलाखखी के पीछे लगी हुई बार-बार, , मगर वह अभागिनी एक जगह बैठकर मन-भर, उसकी साड़ी पकड़कर खींचती, उसकी टाँग से लिपट जाती, फिर ज़मीन पर लोट जाती और एक क्षण, , फिर रोने लगती।, उसने झाड़ू तानकर कहा, “चुप हो जा, नहीं तो झाड़ू से मारूँगी, जान निकल जाएगी। अभी दरोगा, दाढ़ीजार आता होगा... ।'', , पूरी धमकी मुँह से निकल भी नहीं पाई थी कि दरोगा खैरातअली खाँ सामने आकर साइकिल से उतर पड़ा।, , अलाखखी का रंग उड़ गया, कलेजा धक-धक करने लगा। या मेरे अल्लाह, कहीं इसने सुन न लिया हो।, , मेरी आँखे फूट जाएँ। सामने से आया और मैंने देखा नहीं। कौन जानता था, आज़ पैरगाड़ी पर आ रहा, , शक, है? रोज़ तो इक्के पर आता था। नाड़ियों में रक्त का दौड़ना बंद हो गया।, , ज्ञानोदय-6, (155) 55, , , , , , ._ ०7०8-17 /> जहा *
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॒ पुछिल्ला साथ ले लेती है। इसे घर पर क्यों नहीं, , , , , , , , , , , , , , दरोगा ने डाँटकर कहा- “काम करने चलती है तो एक पुछिल्ल, छोड़ आई?!, अलाखखी ने कातर स्वर में कहा- “इसका जी अच्छा नहीं है ह॒जूर, घर पर किसके पास छोड़ आती..." ', “क्या हुआ है इसको?!, “बुखार आता है हुजूर!, “और तू इसे यों छोड़कर रुला रही है। मरेगी या जिएगी?, “गोद में लिए-लिए काम कैसे करूँ हुजूर! '', “छुट्टी क्यों नहीं ले लेती? '', “तलब कट जाती है हुजूर, गुज़ारा कैसे होगा? ', “इसे उठा ले और घर जा। हुसैनी लौटकर आए तो इधर झाड़ू लगाने के लिए भेज देना।'', अलारब्खी ने लड़की को उठा लिया और चलने को हुई, तब दरोगाजी ने पूछा- ' 'मुझे गाली क्यों दे रही, थी?, अलाखखी की रही-सही जान भी निकल आई। काटो तो लहू नहीं। थर-थर कॉपती बोली- “ नहीं हुजूर,, मेरी आँखें फूट जाएँ जो तुमको गाली दी हो।”', और वह फूट-फूटकर रोने लगी।, संध्या समय हसैनी और अलाखखी दोनों तलब लेने चले। अलारक्खी बहुत उदास थी।, हसैनी ने सांत्वना दी- ''तू इतनी उदास क्यों है? तलब ही न कटेगी, कटने दे। अबकी तेरी जान की कसम, खाता हूँ, एक घूँट दारू नहीं पीऊँगा।'', “मैं डरती हूँ बरखास्त न कर दे। मेरी जीभ जल जाए। कहाँ से कहाँ...”, ““बरखास्त कर देगा, कर दे, उसका अल्लाह भला करे! कहाँ तक रोएँ?'!, “तुम मुझे नाहक लिए चलते हो। सबकी सब हँसेंगी।', ““बरखास्त करेगा तो पूछूँगा नहीं कि किस इल्ज़ाम पर बरखास्त करते हो? गाली देते किसने सुना? कोई, , अँधेर है, जिसे चाहे, बरखास्त कर दे! और जो कहीं सुनवाई न हुई तो पंचों से फरियाद करूँगा। चौधरी, के दरबज्जे पर सर पटक दूँगा।'!, , “ऐसी ही एकता रहती तो दरोगा इतना जरीमाना करने पाता? '!, “'जितना बड़ा रोग होता है, उतनी बड़ी दवा होती है, पगली।, , फिर भी अलारक्खी का मन शांत नहीं हुआ। मुख पर विषाद का धुआँ-सा छाया हुआ था। दरोगा क्यों गाली, सुनकर भी बिगड़ा नहीं, उसी वक्त उसे क्यों नहीं बरखास्त कर दिया, यह उसकी समझ में नहीं आ रहा, था। वह कुछ दयालु भी मालूम होता था। उसका रहस्य वह नहीं समझ पाती थी और जो चीज़ हमारी समझ, में नहीं आती उसी से हम डरते हैं। केवल जुर्माना करना होता तो उसने किताब पर उसका नाम लिखा होता।, उसको निकाल बाहर करने का निश्चय कर चुका है, तभी दयालु हो गया था। उसने सुना था कि जिन्हें फाँसी, दी जाती है, उन्हें अंत समय खूब पूरी-मिठाई खिलाई जाती है, जिससे मिलना चाहें, उससे मिलने दिया, , (७9 ज्ञानोदय-6
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जता है। निश्चित रूप से बरखास्त करेगा।, , शुनिसिपैलिटी का दफ़्तर आ गया। हज़ारों. ४, परेहतरानिर्यो, , जमा थीं, रंग-बिरंगे कपड़े पहन,, बनाव-सिंगार किए। पान-सिगरेटवाले.., प्रीआ गए थे, खोमचेवाले भी। पठानों, क्षा एक दल भी अपने असामियों से, झपये वसूल करने आ पहुँचा था। ये, दोनों भी जाकर खड़े हो गए।, , वेतन बँटने लगा। पहले मेहतरानियों, का नंबर था। जिसका नाम पुकारा जाता, वह लपककर जाती और रुपये लेकर, दरगेगाजी को मुफ़्त की दुआएँ देती हुई, चली जाती। चंपा के बाद अलारक्खी, का नाम बराबर पुकारा जाता था। आज, अलाखखी का नाम उड़ गया। चंपा के, बाद जहूरन का नाम पुकारा गया जो, अलाख्खी के नीचे था।, अलाखखी ने हताश आँखों से हसैनी को देखा। मेहतरानियाँ उसे देख-देखकर कानाफूसी करने लगी। उसके, जी में आया, घर चली जाए। यह उपहास नहीं सहा जाता। जमीन फट नहीं जाती कि उसमें समा जाए।, एक के बाद दूसरा नाम आता गया और अलारक््खी सामने के वृक्षों की ओर देखती रही। उसे अब उसकी, परवाह नहीं थी कि किसका नाम आता है, कौन जाता है, कौन उसकी ओर ताकता है, कौन उस पर हँसता है।, सहसा अपना नाम सुनकर वह चौंक पड़ी। धीरे से उठी और नवेली बहू की भाँति पग उठाती हुई चली।, खजांची ने पूरे 6 रुपये उसके हाथ पर रख दिए।, , उसे आश्चर्य हुआ। खजांची ने भूल तो नहीं की? इन तीनों बरसों में पूरा वेतन तो कभी मिला नहीं। और, अबकी तो आधा भी मिले तो बहुत है। वह एक सेकंड वहीं खड़ी रही कि शायद खजांची उससे रुपया, वापस माँगे। जब खजांची ने पूछा- अब क्यों खड़ी है, जाती क्यों नहीं?” तब वह धीरे-से बोली- “यह, तो पूरे रुपये हैं।', , खजांची ने चकित होकर उसकी ओर देखा।, , “तो और क्या चाहती है, कम मिले।', , “कुछ जरीमाना नहीं है?!, , “नहीं, अबकी कुछ जशीमाना नहीं है।”', अलाखखी चली, पर उसका मन प्रसन्न नहीं था। वह पछता रही थी कि दरोगाजी को गाली क्यों दी?, , -प्रेमचंद, ज्ञनोदय-6 - (6), , , , ४7