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08/05/2020, राजकीय आदर्श विद्यालय ललोटना ., , लॉकडाऊन के दौरान शिक्षण (हिंदी), पाठ - 4, , भाषा की बात, , भाषा वह साधन है, जिसके द्वारा मनुष्य बोलकर, सुनकर, लिखकर व पढ़कर अपने मन के भावों या, विचारों का आदान-प्रदान करता है।, , दूसरे शब्दों में- जिसके द्वारा हम अपने भावों को लिखित अथवा कथित रूप से दूसरों को समझा सके और, दूसरों के भावो को समझ सके उसे भाषा कहते है।, , प्राचीनकाल में आदिमानव अपने मन के भाव एक-दूसरे को समझाने व समझने के लिए संकेतों का सहारा, लेते थे, परंतु संकेतों में पूरी बात समझाना या समझ पाना बहुत कठिन था। आपने अपने मित्रों के साथ संकेतों में, बात समझाने के खेल (0५७॥॥0 50५/ खेले होंगे। उस समय आपको अपनी बात समझाने में बहुत कठिनाई हुई होगी।, ऐसा ही आदिमानव के साथ होता था। इस असुविधा को दूर करने के लिए उसने अपने मुख से निकली ध्वनियों को, मिलाकर शब्द बनाने आरंभ किए और शब्दों के मेल से बनी- भाषा ।, , भाषा शब्द संस्कृत के भाष धातु से बना है। जिसका अर्थ है- बोलना। इसके द्वारा मनुष्य के भावों, विचारों, और भावनाओं को व्यक्त किया जाता है। वैसे भी भाषा की परिभाषा देना एक कठिन कार्य है। फिर भी भाषावैज्ञानिकों, ने इसकी अनेक परिभाषा दी है। किन्तु ये परिभाषा पूर्ण नही है। हर में कुछ न कुछ त्रुटि पायी जाती है।, , भाषा की विशेषताएँ, () भाषा में ध्वनि-संकेतों का परम्परागत और रूढ़ प्रयोग होता है।, , (2) भाषा के सार्थक ध्वनि-संकेतों से मन की बातों या विचारों का विनिमय होता है।, , (3) भाषा के ध्वनि-संकेत किसी समाज या वर्ग के आन्तरिक और ब्राह्म कार्यों के संचालन या विचारविनिमय में सहायक होते हैं।, , (4) वर्ग या समाज के ध्वनि-संकेत अपने होते हैं, दूसरों से भित्र होते हैं।, , , , , , , , , , , , कक्षा में अध्यापक अपनी बात बोलकर समझाते हैं और छात्र सुनकर उनकी बात समझते हैं। बच्चा, माता-पिता से बोलकर अपने मन के भाव प्रकट करता है और वे उसकी बात सुनकर समझते हैं। इसी प्रकार ,, छात्र भी अध्यापक द्वारा समझाई गई बात को लिखकर प्रकट करते हैं और अध्यापक उसे पढ़कर मूल्यांकन, करते हैं। सभी प्राणियों द्वारा मन के भावों का आदान-प्रदान करने के लिए भाषा का प्रयोग किया जाता है।, , , , , , भाषा के प्रकार भाषा को हम तीन भागों मे बाँट सकते हैं ।, 4 लिखित भाषा, 2 मौखिक भाषा, , 3 सांकेतिक भाषा
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भाषा व्यक्त करने के चाहे जो भी तरीके हों, हम किसी-न-किसी शब्द, शब्द-समूहों या भावों की ओर ही, इशारा करते हैं जिनसे सामने वाला अवगत होता है। इसलिए भाषा में हम केवल सार्थक शब्दों की बातें करते हैं। इन, शब्दों या शब्द-समूहों (वाक्यों) द्वारा हम अपनी आवश्यकताएँ, इच्छाएँ, प्रसन्नता या खिन्नता, प्रेम या घृणा,, क्रोध अथवा संतोष प्रकट करते हैं। हम शब्दों का प्रयोग कर बड़े-बड़े काम कर जाते हैं या मूर्खतापूर्ण प्रयोग कर बनेबनाए काम को बिगाड़ बैठते हैं।, , हम इसके प्रयोग कर किसी क्रोधी के क्रोध का शमन कर जाते हैं तो किसी शांत-गंभीर व्यक्ति को उत्तेजित कर, बैठते हैं। किसी को प्रोत्साहित तो किसी को हतोत्साहित भी हम शब्द-प्रयोग से ही करते हैं। कहने का यह तात्पर्य है, कि हम भाषा के द्वारा बहुत सारे कार्यो को करते हैं। हमारी सफलता या असफलता (अभिव्यक्ति के अर्थ में) हमारी, भाषायी क्षमता पर निर्भर करती है।, , भाषा से हमारी योग्यता-अयोग्यता सिद्ध होती है। जहाँ अच्छी और सुललित भाषा हमें सम्मान दिलाती है, वहीं अशुद्ध और फूहड़ भाषा हमें अपमानित कर जाती है (समाज में) । स्पष्ट है कि भाषा ही मनुष्य की वास्तविक, योग्यता, विद्धत्ता और बुद्धिमता, उसके अनुशीलन, मनन और विचारों की गंभीरता उसके गूढ़ उद्देश्य तथा उसके, स्वभाव, सामाजिक स्थिति का परिचय देती है।, , कोई अपमानित होना नहीं चाहता। अतएव, हमें सदैव सुन्दर और प्रभावकारिणी भाषा का प्रयोग करना, चाहिए। इसके लिए यह आवश्यक है कि हमारा प्रयत्न निरंतर जारी रहे। भाषा में पैठ एवं अच्छी जानकारी के लिए, हमें बोल कर , लिखकर और पढ़कर भाषा मे नये नये शब्दों का प्रयोग करना चाहिए और अपना शब्द भंडार बढ़ाना, चाहिए।, , हमें सदैव इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि भाषा परिवर्तनशील होती है। किसी भाषा में नित नये शब्दों,, वाक््यों का आगमन होते रहता है और पुराने शब्द टूटते, मिटते रहते हैं। किसी शब्द या वाक्य को पकड़े रहना कि, यह ऐसा ही प्रयोग होता आया है और आगे भी ऐसा ही रहेगा या यही रहेगा- कहना भूल है। आज विश्व में कुल, 2,796 भाषाएँ और 400 लिपियाँ मान्यता प्राप्त हैं। एक ही साथ इतनी भाषाएँ और लिपियाँ नहीं आई। इनका, जन्म विकास के क्रम में हुआ, टूटने-फूटने से हुआ।, , जानते हैं कि हर भाषा का अपना प्रभाव हुआ करता है। हर आदमी की अपने-अपने हिसाब से भाषा पर पकड़, होती है और उसी के अनुसार वह एक-दूसरे पर प्रभाव डालता है। जब पारस्परिक सम्पर्क के कारण एक जाति की, भाषा का दूसरी जाति की भाषा पर असर पड़ता है, तब निश्चित रूप से शब्दों का आदान-प्रदान भी होता है। यही, कारण है कि कोई भाषा अपने मूल रूप में नहीं रह पाती और उससे अनेक शाखाएँ विभिन्न परिस्थितियों के कारण, टूटती फूटती रहती हैं तथा अपना विस्तार कर अलग-अलग समृद्ध भाषा का रूप ले लेती हैं।, , कल्पना कीजिए कि किसी कारण से अलग-अलग चार भाषाओं के लोग कुछ दिन तक एक साथ रहे। वे अपनीअपनी भाषाओं में एक-दूसरे से बातें करते-सुनते रहे। चारों ने एक दूसरे की भाषा के शब्द ग्रहण किए और अपनेअपने साथ लेते गए। अब प्रश्न उठता है कि चारों में से किसी की भाषा अपने मूल रूप में रह पायी ? इसी तरह यदि, दो-चार पीढ़ियों तक उन चारों के परिवारों का एक-साथ उठना-बैठना हो तो निश्चित रूप से विचार-विनिमय के, लिए एक अलग ही किस्म की भाषा जन्म ले लेगी, जिसमें चारों भाषाओं के शब्दों और वाकयों का प्रयोग होगा। उस, नई भाषा में उक्त चारों भाषाओं के सरल और सहज उच्चरित होनेवाले शब्द ही प्रयुक्त होंगे वे भी अपनी-अपनी प्रकृति, के अनुसार और सरलतम रूपों में; क्योंकि जब कोई एक भाषाभाषी दूसरी भाषा के शब्दों को ग्रहण करता है तो, वह सरल से सरलतम शब्दों का चयन करके भी उसे अपने अनुसार सहज बना लेता है।, , नल महादेव गौड़