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शरा्ताएए्ट -1, (ख). आधुनिक हिन्दी नाटक और रंगमंच(4० 5९९४९), , 39//09/ (७४9/ 00209, 495/5/90/ /0/2550/, ७0799 ४0/2/5//, , 1.आधुनिक हिन्दी रंग मंच, , हिन्दी रंगमंच संस्कृत नाटक, लोक रंगमंच एवं पारसी रंगमंच की पृष्ठभूमि, का आधार लेकर विकसित हुआ है। ध्यातव्य है कि भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में, "नाट्य ' शब्द का प्रयोग केवल नाटक के रूप में न करके व्यापक अर्थ में किया, है जिसके अंतर्गत रंगमंच , अभिनय , नृत्य , संगीत , रस , वेशभूषा , रंगशिल्प, » दर्शक आदि सभी पक्ष आ जाते हैं। भारत में संस्कृत रंगमंच के पृष्ठभूमि में, चले जाने के बाद भी लोक रंगमंचों की परम्परा अत्यन्त सुदृढ़ रही॥, नौटंकी , रासलीला ,रामलीला , स्वांग , नकल , खयाल , यात्रा , यक्षगान , ना, चा , तमाशा आदि लोकप्रिय लोक-नाट्य रूप रहे हैं। इसी प्रकार पारसी रंगमंच, की भी हिंदी रंगमंच के विकास में ऐतिहासिक भूमिका है।, , हिंदी रंगमंच का प्रारम्भ 1853 ईसवी में नेपाल के माटगांव में अभिनीत ', विद्याविल्लाप * नाटक से माना जाता है। किन्तु यह नेपाल तक ही सीमित रह, गया। वस्तुतः हिंदी रंगमंच का नवोत्थान 1871 ईसवी में स्थापित 'अल्फ्रेड नाटक, मंडली ' से हुआ जिसने भारतेन्दु और राधाकृष्ण दास के नाटकों का मंचन प्रस्तुत, किया। राधेश्याम कथावाचक इस मंडली के प्रमुख नाटककार थे। इस मंडली के, मंच पर स्त्री चरित्रों की भूमिका पुरुष पात्र ही किया करते थे। इसी बीच कोलकाता, के * मॉर्डन थिएटर ' ने मुंबई की ' पारसी रंगमंच ' की * इम्पीरियर ' आदि अनेक, नाटक कंपनियों को खरीदकर कोलकाता को रंगमंच का केंद्र बना दिया। इन, संस्थाओं के एकीकरण के कारण नारायण बेताब , आगा हआश्र , तुलसीदत्त
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शैदा , हरिकृष्ण जौहर आदि अनेक नाटककारों का संगम-स्थल कलकाता का ', मॉडर्न थिएटर * हो गया। मुंबई और कोलकाता के इन रंगमंच के एकीकरण में, हिंदी रंगमंच के विकास में अभूतपूर्व योगदान दिया।, , हिंदी में अव्यवसायिक रंगमंच का सूत्रपात 1868 ईस्वी में बनारस थिएटर, के साथ हुआ। 1884 में बनारस में 'नेशनल थियेटर' की स्थापना हुई। भारतेन्दु, के अंधेर नगरी का प्रथम मंचन नेशनल थियेटर में ही किया था।, , हिंदी रंगमंच के विकास में 'भारतेन्दु नाटक मंडली * (1906) की भूमिका, महत्वपूर्ण मानी जाती है। इस मंडली ने त्रगभग डेढ़ दर्जन नाटकों का मंचन किया, जिसमें 'सत्य हरिश्चंद्र' , 'सुभद्रा हरण' , “चंद्रगुप्त ' , ' स्कंदगुप्त ( ,, ' ध्रुवस्वामिनी ' प्रमुख है। इस नाटक मंडली ने भारतेन्दुयुगीन नाटकों के साथसाथ प्रसाद के नाटकों को भी सफलतापूर्वक मंचित कर हिंदी के अपने स्वतंत्र, रंगमंच के विकास का मार्ग प्रशस्त किया। जयशंकर प्रसाद के नाटकों को मंचित, कर इस संस्था ने सिद्ध किया कि प्रसाद के नाटक पूर्णतः अभिनेय है।, , आगे चल्रकर काशी हिंदू विश्वविद्यालय की ' विक्रम परिषद ' की स्थापना, 1939 ईस्वी में हुई थी। इसने नाठकों में स्त्री पात्र के लिए स्त्रियों द्वारा ही, अभिनय की परम्परा डाली।, , हिंदी रंगमंच के विकास में * बलिया नाट्य समाज ' (1884) की भूमिका, दी ऐतिहासिक मानी जाती है। 1884 ईसवी में यही पर भारतेंदु ने नाटक पर एक, लंबा व्याख्यान दिया था। उसी समय ' सत्य हरिश्चंद्र ' तथा * नीलदेवी ' नाटकों, का मंचन किया गया था। उसी समय भारतेंदु ने हरिश्चंद्र की भूमिका निभाई थी।, इस नाटक के मंचन को उम क्षेत्र में अपार लोकप्रियता प्राप्त हुई थी। इस संदर्भ, में गोपालराम गहमरी ने लिखा है कि "पात्रों का शुद्ध उच्चारण हमने उसी समय, हिंदी में नाटक स्टेज पर सुना था।"
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हिंदी रंगमंच के विकास में काशी के पश्चात प्रयाग के रंगमंचों का महत्वपूर्ण, योगदान रहा है। यहां के महत्वपूर्ण नाट्य मंच 'आर्य नाट्य सभा' , “श्री राम लीला, नाटक मंडली' तथा (हिंदी नाट्य समिति थे। कानपुर की संस्थाओं ने भी हिंदी, रंगमंच को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यहां के प्रमुख नाट्य मंच, है “ भारत नाट्य समिति' और भारतीय कला मंदिर'। वर्तमान समय में कानपुर, की 'कानपुर अकादमी ऑफ ड्रामेटिक आर्ट्स' तथा एंबेसडर “ संस्थाएं समकालीन, नाटकों के मंचन में महत्वपूर्ण" भूमिका निभा रही है। बिहार में 'पटना नाटक, मंडली * (1876) तथा “अमेच्योर ड्रामेटिक एसोसिएशन उल्लेखनीय नाट्य मंच, रहे हैं।