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प्रस्तावना, प्रिय विद्य् ार्थी मित्रो !, आप सभी का बारहवीं कक्षा में हृदय से स्वागत ! ‘युवकभारती’ हिंदी पाठ्य पुस्तक आपके हाथों में देते हुए हमें, बहुत हर्ष हो रहा है ।, भाषा और जीवन का अटूट संबंध है । देश की राजभाषा तथा संपर्क भाषा के रूप में हिंदी भाषा को हम अपने, बहुत समीप अनुभव करते हैं । भाषा का व्यावहारिक उपयोग प्रभावी ढंग से करने के लिए आपको हिंदी विषय की ओर, भाषा विषय की दृष्टि से देखना होगा । भाषाई कौशलों को अात्मसात कर हिंदी भाषा को समृद्ध बनाने के लिए यह, पाठ्यपुस्तक आपके लिए महत्त्वपूर्ण एवं सहायक सिद्ध होगी । मूल्यांकन की दृष्टि से पाठ्य पुस्तक में मुख्यत: पाँच, विभाग किए गए हैं । गद्य, पद्य, विशेष साहित्य, व्यावहारिक हिंदी और व्याकरण । अध्ययन-अध्यापन की दृष्टि से यह, वर्गीकरण एवं पाठों का चयन बहुत उपयुक्त सिद्ध होगा ।, जीवन की चुनौतियों को स्वीकारने की शक्ति देने की प्रेरणा साहित्य में निहित होती है । इस पाठ्य पुस्तक के माध्यम, से आप साहित्य की विभिन्न विधाओं की जानकारी के साथ पुराने तथा नये ‘रचनाकारों’ तथा उनकी लेखन शैली से परिचित, होंगे । इनके द्वारा हिंदी भाषा के समृद्ध तथा व्यापक साहित्य को आप समझ पाएँगे । आपकी आयु एवं आपके भावजगत, को ध्यान में रखते हुए इस पुस्तक में संस्मरण, कहानियाँ, कुछ शेर, निबंध, एकांकी, पत्र, लोकगीत, नई कविताएँ आदि को, स्थान दिया गया है । चतुष्पदियाँ भी आपको नए छंद से अवगत कराएँगी । विशेष साहित्य के अध्ययन के रूप में ‘कनुप्रिया’, का समावेश किया गया है । यह अंश पुस्तक की साहित्यिक चयन की विशिष्टता को रेखांकित करता है ।, व्यावहारिक व्याकरण द्वारा आप व्याकरण को बहुत ही सहजता से समझ पाएँगे । व्यावहारिक हिंदी विभाग में, समसामयिक विषयों तथा उभरते क्षेत्रों से संबंधित पाठों काे समाविष्ट किया गया है जिसके माध्यम से आप इन क्षेत्रों में, व्यवसाय के अवसरों को पाएँगे । ब्लॉग लेखन, फीचर लेखन जैसे नवीनतम लेखन प्रकारों से आप यहाँ परिचित होंगे ।, आपकी विचारशक्ति, कल्पनाशक्ति तथा सृजनात्मकता का विकास हो; इसे ध्यान में रखते हुए अनेक प्रकार की, कृतियों का समावेश पाठ्यपुस्तक में किया गया है । अत: माना जाता है कि आप अपनी वैचारिक क्षमताओं को विकसित, कर वैज्ञानिक दृष्टिकोण को पुष्ट करेंगे । इन कृतियों की सहायता से पाठ एवं उससे संबंधित विषयों को समझने में आपको, सहजता होगी । साथ ही; आपका भाषा कौशल विकसित होगा और क्षमताओं में वृद्धि होगी । आप सरलता से विषय, वस्तु को समझ पाएँगे । आपका शब्द भंडार बढ़ेगा और लेखन शैली का विकास होगा ।, बारहवीं कक्षा में कृतिपत्रिका के माध्यम से आपके हिंदी विषय का मूल्यांकन होगा । इसके लिए आपको आकलन,, रसास्वादन तथा अभिव्यक्ति जैसे प्रश्नों पर ध्यान केंद्रित करना होगा । प्रत्येक पाठ के बाद विविध कृतियाँ दी गई हैं जो, आपका मार्गदर्शन करने में सहायक सिद्ध होंगी । ‘पढ़ते रहें, लिखते रहें, अभिव्यक्त होते रहें’ और विचारपूर्वक अपनी, दिशा निर्धारित कीजिए । आप सभी को उज्ज्वल भविष्य तथा यशप्राप्ति के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ ।, , पुणे, दिनांक ः २१ फरवरी २०२०, भारतीय सौर : २ फाल्गुन १९४१, , विवेक गोसावी, संचालक, महाराष्ट्र राज्य पाठ्यपुस्तक निर्मिती व, अभ्यासक्रम संशोधन मंडळ, पुणे-०4
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माध्यम से कवि ने उपस्थित किए हैं । विद्यार्थियों की संवेदनशीलता को बढ़ाने के, लिए इस काव्यांश को समाविष्ट किया गया है । इस विधा का अध्यापन रोचक तथा, प्रभावी ढंग से करने के लिए शिक्षक ‘कनुप्रिया’ को संपूर्ण रूप में पढ़ें और राधा के, आंतरिक द्वंद्व से विद्य ार्थियों को परिचित कराते हुए यह भी स्पष्ट करें कि मानव, जीवन की सार्थकता युद्ध में नहीं बल्कि एक-दूसरे की भावनाओं को समझने में, है ।, पाठ्यपुस्तक में समाविष्ट गद्य , पद्य तथा व्यावहारिक हिंदी की सभी रचनाओं, के आरंभ में रचनाकार का परिचय, उनकी प्रमुख रचनाएँ, विधा की जानकारी एवं, पाठ के केंद्रीय भाव/विचार को आवश्यक मानते हुए विद्यार्थियों के सम्मुख प्रस्तुत, किया है । परिपूर्ण तथा व्यापक अध्ययन की दृष्टि से प्रत्येक पाठ के अंत में शब्दार्थ,, स्वाध्याय के अंतर्गत आकलन, शब्द संपदा, अभिव्यक्ति कौशल, लघूत्तरी प्रश्न,, साहित्य संबंधी सामान्य ज्ञान, भाषाई कौशल आदि को आकलनात्मक और रोचक, ढंग से तैयार किया गया है जिससे विद्यार्थी परीक्षा के साथ-साथ पाठ का समग्र रूप, में बोध कर सकें । आप अपने अनुभव तथा नवीन संकल्पनाओं का आधार लेकर, पाठ के आशय को अधिक प्रभावी ढंग से विद्य ार्थियों तक पहुँचा सकते हैं ।, व्याकरण के अंतर्गत ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ाए जा चुके घटकों के शेष भाग का, परिचय बारहवीं कक्षा में कराया गया है । ग्यारहवीं की पाठ्य पुस्तक में दिए गए रसों, के अतिरिक्त शेष रसों का परिचय प्रस्तुत पाठ्यपुस्तक में कराया गया है । अलंकार, के अंतर्गत अर्थालंकार के भेद दिए गए हैं ।, पाठ्यपुस्तक के माध्यम से आप विद्यार्थियों में नैतिक मूल्य, जीवन कौशलों,, केंद्रीय तत्त्वों, संवैधानिक मूल्यों का विकास होने के अवसर अवश्य प्रदान करें ।, पाठ्य पुस्तक में अंतर्भूत प्रत्येक घटक को लेकर सतत मूल्यांकन होना अपेक्षित, है । आदर्श शिक्षक के लिए परिपूर्ण, प्रभावी तथा नवसंकल्पनाओं के साथ अध्यापन, कार्य करना अपने-आप में एक मौलिक कार्य होता है । इस मौलिक कार्य को, पाठ्य पुस्तक के माध्यम से विद्य ार्थियों तक पहुँचाने का दृढ़ संकल्प सभी शिक्षक, करेंगे; ऐसा विश्वास है ।
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१. नवनिर्माण, - त्रिलोचन, कवि परिचय ः त्रिलोचन जी का जन्म २० अगस्त १९१७ को उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले के कटघरा चिरानी पट्ट ी में, हुआ । आपका वास्तविक नाम वासुदेव सिंह है । आप हिंदी के अतिरिक्त अरबी और फारसी भाषाओं के निष्णात ज्ञाता माने, जाते हैं । पत्रकारिता के क्षेत्र में भी आप सक्रिय रहे । आपने काव्य क्षेत्र में प्रयोगधर्मिता का समर्थन किया और नवसृजन करने, वालों के प्रेरणा स्रोत बने रहे । आपका साहित्य भारत के ग्राम समाज के उस वर्ग को संबोधित करता है; जो वर्षों से, दबा-कुचला हुआ है । आपकी साहित्यिक भाषा लोकभाषा से अनुप्राणित है । सहज-सरल तथा मुहावरों से परिपूर्ण भाषा, आपके साहित्य को लोकमानस तक पहुँचाकर जीवंतता भी प्रदान करती है । आपका निधन २००७ में हुआ ।, प्रमुख कृतियाँ ः ‘धरती’, ‘दिगंत’, ‘गुलाब और बुलबुल’, ‘उस जनपद का कवि हूँ’, ‘सबका अपना आकाश’, (कविता संग्रह), ‘देशकाल’ (कहानी संग्रह), ‘दैनंदिनी’ (डायरी) आदि ।, विधा परिचय ः ‘चतुष्पदी’ चार चरणोंवाला छंद होता है । यह चौपाई की तरह होता है । इसमें चार चरण होते हैं । इसके प्रथम,, द्वितीय और चतुर्थ चरण में तुकबंदी होती है । भाव और विचार की दृष्टि से प्रत्येक चतुष्पदी अपने आप में पूर्ण होती है ।, पाठ परिचय ः प्रस्तुत चतुष्पदियों में कवि का आशावाद दृष्टिगोचर होता है । वर्तमान समय में सामान्य मनुष्य के लिए संघर्ष, करना अनिवार्य हो गया है । कवि मनुष्य को संघर्ष करने और अँधेरा दूर करने की प्रेरणा देते हैं । जीवन में व्याप्त अन्याय,, अत्याचार, विषमता और निर्बलता पर विजय पाने के लिए कवि बल और साहस एकत्रित करने का आवाहन करते हैं । न्याय, के लिए बल का प्रयोग करना समाज के उत्थान के लिए श्रेयस्कर होता है; इस सत्य से भी कवि अवगत कराते हैं । कवि का, मानना है कि समाज में समानता, स्वतंत्रता तथा मानवता को स्थापित करना हमारे जीवन का उद्देश्य होना चाहिए ।, , तुमने विश्वास दिया है मुझको,, मन का उच्छ्वास दिया है मुझको ।, मैं इसे भूमि पर सँभालूँगा,, तुमने आकाश दिया है मुझको ।, सूत्र यह तोड़ नहीं सकते हैं,, तोड़कर जोड़ नहीं सकते हैं ।, व्योम में जाएँ, कहीं भी उड़ जाएँ,, भूमि को छोड़ नहीं सकते हैं ।, , १
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सत्य है, राह में अँधेरा है,, रोक देने के लिए घेरा है ।, काम भी और तुम करोगे क्या,, बढ़ चलो, सामने अँधेरा है ।, बल नहीं होता सताने के लिए,, वह है पीड़ित को बचाने के लिए ।, बल मिला है तो बल बनो सबके,, उठ पड़ो न्याय दिलाने के लिए ।, जिसको मंजिल का पता रहता है,, पथ के संकट को वही सहता है ।, एक दिन सिद्धि के शिखर पर बैठ,, अपना इतिहास वही कहता है ।, प्रीति की राह पर चले आओ,, नीति की राह पर चले आओ ।, वह तुम्हारी ही नहीं, सबकी है,, गीति की राह पर चले आओ ।, साथ निकलेंगे आज नर-नारी,, लेंगे काँटों का ताज नर-नारी ।, दोनों संगी हैं और सहचर हैं,, अब रचेंगे समाज नर-नारी ।, वर्तमान बोला, अतीत अच्छा था,, प्राण के पथ का मीत अच्छा था ।, गीत मेरा भविष्य गाएगा,, यों अतीत का भी गीत अच्छा था ।, - (‘चुनी हुईं कविताएँ’ संग्रह से), ०, , व्योम = आकाश, सहचर = साथ-साथ चलने वाला, मित्र , , शब्दार्थ, , २, , सिद्धि = सफलता, मीत = मित्र, दोस्त
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२. निराला भाई, - महादेवी वर्मा, लेखक परिचय ः श्रीमती महादेवी वर्मा जी का जन्म २६ मार्च १९०७ को उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद में हुआ । हिंदी साहित्य, जगत में आप चर्चित एवं प्रतिभाशाली कवयित्री के रूप में प्रतिष्ठित हैं । आप जितनी सिद्धहस्त कवयित्री के रूप में चर्चित, हैं उतनी ही सफल गद्यकार के रूप में भी विख्यात हैं । आप छायावादी युग की प्रमुख स्तंभ हैं । आपके लिखे रेखाचित्र, काव्यसौंदर्य की अनुभूति तो कराते ही हैं; साथ-साथ सामाजिक स्थितियों पर चोट भी करते हैं । इसलिए वे काव्यात्मक, रेखाचित्र हमारे मन पर अमिट प्रभाव अंकित कर जाते हैं । कवि ‘निराला’ ने अापको ‘हिंदी के विशाल मंदिर की सरस्वती’, कहा है तो हिंदी के कुछ आलोचकों ने ‘आधुनिक मीरा’ उपाधि से संबोधित किया है । आपका निधन १९8७ में हुआ ।, प्रमुख कृतियाँ ः ‘नीहार’, ‘रश्मि’, ‘नीरजा’, ‘दीपशिखा’, ‘सांध्यगीत’, ‘यामा’ (कविता संग्रह), ‘अतीत के चलचित्र’,, ‘स्मृति की रेखाएँ’, ‘मेरा परिवार’ (रेखाचित्र), ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’, ‘साहित्यकार की आस्था’ (निबंध) आदि ।, विधा परिचय ः आधुनिक हिंदी गद्य साहित्य में ‘संस्मरण’ विधा अपना विशिष्ट स्थान रखती है । हमारे जीवन में आए किसी, व्यक्ति के स्वाभाविक गुणों से अथवा उसके साथ घटित प्रसंगों से हम प्रभावित हो जाते हैं । उन प्रसंगों को शब्दांकित करने, की इच्छा होती है । स्मृति के आधार पर उस व्यक्ति के संबंध में लिखित लेख या ग्रंथ को संस्मरण साहित्य कहते हैं ।, पाठ परिचय ः ‘निराला’ हिंदी साहित्य में छायावादी कवि और क्रांतिकारी व्यक्तित्व के रूप में जाने जाते हैं । वे आजीवन, फक्कड़ बने रहे, निर्धनता में जीवनयापन करते रहे तथा दूसरों के आर्थिक दुखों का बोझ स्वयं ढोते रहे । उन्होंने परिवार के, सदस्यों के वियोग की व्यथा को सहा, उसे काव्य में उतारा । आतिथ्य करने में उनका अपनापन देखते ही बनता था । अपने, समकालीन रचनाकारों के प्रति उनकी चिंता उनकी संवेदनशीलता को रेखांकित करती है । उनका व्यक्तित्व लोहे के समान, दृढ़ था तो हृदय भाव तरलता से ओतप्रोत था । वे मानवता के पुजारी थे । इन्हीं गुणों को लेखिका ने शब्दांकित किया है ।, , 5
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एक युग बीत जाने पर भी मेरी स्मृति से एक घटा भरी, अश्रुमुखी सावनी पूर्णिमा की रेखाएँ नहीं मिट सकी हैं । उन, रेखाओं के उजले रंग न जाने किस व्यथा से गीले हैं कि अब, तक सूख भी नहीं पाए, उड़ना तो दूर की बात है ।, उस दिन मैं बिना कुछ सोचे हुए ही भाई निराला जी से, पूछ बैठी थी, ‘आपके किसी ने राखी नहीं बाँधी?’ अवश्य, ही उस समय मेरे सामने उनकी बंधनशून्य कलाई और पीले, कच्चे सूत की ढेरों राखियाँ लेकर घूमने वाले, यजमान-खोजियों का चित्र था । पर अपने प्रश्न के उत्तर ने, मुझे क्षण भर के लिए चौंका दिया ।, ‘कौन बहिन हम जैसे भुक्खड़ को भाई बनावेगी !’, में उत्तर देने वाले के एकाकी जीवन की व्यथा थी या, चुनौती, यह कहना कठिन है पर जान पड़ता है कि किसी, अव्यक्त चुनौती के आभास ने ही मुझे उस हाथ के अभिषेक, की प्रेरणा दी, जिसने दिव्य वर्ण-गंध मधुवाले गीत सुमनों, से भारती की अर्चना भी की है और बर्तन माँजने, पानी भरने, जैसी कठिन श्रमसाधना से उत्पन्न स्वेद बिंदुओं से मिट्टी, का श्रृंगार भी किया है ।, दिन-रात के पगों से वर्षों की सीमा पार करने वाले, अतीत ने आग के अक्षरों में आँसू के रंग भर-भरकर ऐसी, अनेक चित्रकथाएँ आँक डाली हैं, जितनी इस महान कवि, और असाधारण मानव के जीवन की मार्मिक झाँकी मिल, सकती है पर उन सबको सँभाल सके; ऐसा एक चित्राधार, पा लेना सहज नहीं ।, उनके अस्त-व्यस्त जीवन को व्यवस्थित करने के, असफल प्रयासों का स्मरण कर मुझे आज भी हँसी आ, जाती है । एक बार अपनी निर्बंध उदारता की तीव्र आलोचना, सुनने के बाद उन्होंने व्यवस्थित रहने का वचन दिया ।, संयोग से तभी उन्हें कहीं से तीन सौ रुपये मिल गए ।, वही पूँजी मेरे पास जमा करके उन्होंने मुझे अपने खर्च का, बजट बना देने का आदेश दिया । जिन्हें मेरा व्यक्तिगत, हिसाब रखना पड़ता है, वे जानते हैं कि यह कार्य मेरे लिए, कितना दुष्कर है । न वे मेरी चादर लंबी कर पाते हैं; न मुझे, पैर सिकोड़ने पर बाध्य कर सकते हैं; और इस प्रकार एक, विचित्र रस्साकशी में तीस दिन बीतते रहते हैं ।, पर यदि अनुत्तीर्ण परीक्षार्थियों की प्रतियोगिता हो तो, सौ में दस अंक पाने वाला भी अपने-आपको शून्य पाने, वाले से श्रेष्ठ मानेगा ।, , अस्तु, नमक से लेकर नापित तक और चप्पल से, लेकर मकान के किराये तक का जो अनुमानपत्र मैंने बनाया;, वह जब निराला जी को पसंद आ गया, तब पहली बार मुझे, अपने अर्थशास्त्र के ज्ञान पर गर्व हुआ । पर दूसरे ही दिन से, मेरे गर्व की व्यर्थता सिद्ध होने लगी । वे सवेरे ही पहुँचे ।, पचास रुपये चाहिए... किसी विद्यार्थी का परीक्षा शुल्क, जमा करना है, अन्यथा वह परीक्षा में नहीं बैठ सकेगा ।, संध्या होते-होते किसी साहित्यिक मित्र को साठ देने की, आवश्यकता पड़ गई । दूसरे दिन लखनऊ के किसी ताँगेवाले, की माँ को चालीस का मनीऑर्डर करना पड़ा । दोपहर को, किसी दिवंगत मित्र की भतीजी के विवाह के लिए सौ देना, अनिवार्य हो गया । सारांश यह कि तीसरे दिन उनका जमा, किया हुआ रुपया समाप्त हो गया और तब उनके, व्यवस्थापक के नाते यह दान खाता मेरे हिस्से आ पड़ा ।, एक सप्ताह में मैंने समझ लिया कि यदि ऐसे, औढरदानी को न रोका जावे तो यह मुझे भी अपनी स्थिति, में पहुँचाकर दम लेंगे । तब से फिर कभी उनका बजट बनाने, का दुस्साहस मैंने नहीं किया ।, बड़े प्रयत्न से बनवाई रजाई, कोट जैसी नित्य व्यवहार, की वस्तुएँ भी जब दूसरे ही दिन किसी अन्य का कष्ट दूर, करने के लिए अंतर्धान हो गईं तब अर्थ के संबंध में क्या, कहा जावे, जो साधन मात्र है । वह संध्या भी मेरी स्मृति में, विशेष महत्त्व रखती है जब श्रद्धेय मैथिलीशरण जी निराला, जी का आतिथ्य ग्रहण करने गए ।, बगल में गुप्त जी के बिछौने का बंडल दबाए,, दियासलाई के क्षण प्रकाश, क्षीण अंधकार में तंग सीढ़ियों, का मार्ग दिखाते हुए निराला जी हमें उस कक्ष में ले गए जो, उनकी कठोर साहित्य साधना का मूक साक्षी रहा है ।, आले पर कपड़े की आधी जली बत्ती से भरा पर तेल, से खाली मिट्टी का दीया मानो अपने नाम की सार्थकता के, लिए जल उठने का प्रयास कर रहा था ।, वह आलोकरहित, सुख-सुविधाशून्य घर, गृहस्वामी, के विशाल आकार और उससे भी विशालतर आत्मीयता से, भरा हुआ था । अपने संबंध में बेसुध निराला जी अपने, अतिथि की सुविधा के लिए सतर्क प्रहरी हैं । अतिथि की, सुविधा का विचार कर वे नया घड़ा खरीदकर गंगाजल ले, आए और धोती-चादर जो कुछ घर में मिल सका; सब, तख्त पर बिछाकर उन्हें प्रतिष्ठित किया ।, , ६
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तारों की छाया में उन दोनों मर्यादावादी और विद्रोही, महाकवियों ने क्या कहा-सुना, यह मुझे ज्ञात नहीं पर सवेरे, गुप्त जी को ट्रेन में बैठाकर वे मुझे उनके सुख शयन का, समाचार देना न भूले ।, ऐसे अवसरों की कमी नहीं जब वे अकस्मात पहुँचकर, कहने लगे-मेरे इक्के पर कुछ लकड़ियाँ, थोड़ा घी आदि, रखवा दो । अतिथि आए हैं, घर में सामान नहीं है ।, उनके अतिथि यहाँ भोजन करने आ जावें, सुनकर, उनकी दृष्टि में बालकों जैसा विस्मय छलक आता है । जो, अपना घर समझकर आए हैं, उनसे यह कैसे कहा जावे कि, उन्हें भोजन के लिए दूसरे घर जाना होगा ।, भोजन बनाने से लेकर जूठे बर्तन माँजने तक का काम, वे अपने अतिथि देवता के लिए सहर्ष करते हैं । आतिथ्य, की दृष्टि से निराला जी में वही पुरातन संस्कार है, जो इस, देश के ग्रामीण किसान में मिलता है ।, उनकी व्यथा की सघनता जानने का मुझे एक अवसर, मिला है । श्री सुमित्रानंदन दिल्ली में टाईफाइड ज्वर से, पीड़ित थे । इसी बीच घटित को साधारण और अघटित को, समाचार मानने वाले किसी समाचारपत्र ने उनके स्वर्गवास, की झूठी खबर छाप डाली ।, निराला जी कुछ ऐसी आकस्मिकता के साथ आ, पहुँचे थे कि मैं उनसे यह समाचार छिपाने का भी अवकाश, न पा सकी । समाचार के सत्य में मुझे विश्वास नहीं था पर, निराला जी तो ऐसे अवसर पर तर्क की शक्ति ही खो बैठते, हैं । लड़खड़ाकर सोफे पर बैठ गए और किसी अव्यक्त, वेदना की तरंग के स्पर्श से मानो पाषाण में परिवर्तित होने, लगे । उनकी झुकी पलकों से घुटनों पर चूनेवाली आँसू की, बूँदें बीच में ऐसे चमक जाती थीं मानो प्रतिमा से झड़े जूही, के फूल हों ।, स्वयं अस्थिर होने पर भी मुझे निराला जी को सांत्वना, देने के लिए स्थिर होना पड़ा । यह सुनकर कि मैंने ठीक, समाचार जानने के लिए तार दिया है, वे व्यथित प्रतीक्षा की, मुद्रा में तब तक बैठे रहे जब तक रात में मेरा फाटक बंद होने, का समय न आ गया ।, सवेरे चार बजे ही फाटक खटखटाकर जब उन्होंने तार, के उत्तर के संबंध में पूछा तब मुझे ज्ञात हुआ कि वे रात भर, पार्क में खुले आकाश के नीचे ओस से भीगी दूब पर बैठे, सवेरे की प्रतीक्षा करते रहे हैं । उनकी निस्तब्ध पीड़ा जब, , कुछ मुखर हो सकी, तब वे इतना ही कह सके, ‘अब हम, भी गिरते हैं । पंत के साथ तो रास्ता कम अखरता था, पर, अब सोचकर ही थकावट होती है ।’, पुरस्कार में मिले धन का कुछ अंश भी क्या वे अपने, उपयोग में नहीं ला सकते; पूछने पर उसी सरल विश्वास के, साथ कहते, ‘वह तो संकल्पित अर्थ है । अपने लिए उसका, उपयोग करना अनुचित होगा ।’, उन्हें व्यवस्थित करने के सभी प्रयास निष्फल रहे हैं पर, आज मुझे उनका खेद नहीं है । यदि वे हमारे कल्पित साँचे, में समा जाएँ तो उनकी विशेषता ही क्या रहे ।, उनकी अपरिग्रही वृत्ति के संदर्भ में बातें हो रही थीं, तब वसंत ने परिहास की मुद्रा में कहा, ‘तब तो आपको, मधुकरी खाने की आवश्यकता पड़ेगी ।’, खेद, अनुताप या पश्चाताप की एक भी लहर से रहित, विनोद की एक प्रशांत धारा पर तैरता हुआ निराला जी का, उत्तर आया, ‘मधुकरी तो अब भी खाते हैं ।’ जिसकी, निधियों से साहित्य का कोष समृद्ध है; उसने मधुकरी, माँगकर जीवननिर्वाह किया है, इस कटु सत्य पर आने वाले, युग विश्वास कर सकेंगे, यह कहना कठिन है ।, गेरू में दोनों मलिन अधोवस्त्र और उत्तरीय कब रंग, डाले गए; इसका मुझे पता नहीं पर एकादशी के सवेरे स्नान,, , ७
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हवन आदि कर जब वे निकले तब गैरिक परिधान पहन चुके, थे । अंगोछे के अभाव और वस्त्रों में रंग की अधिकता के, कारण उनके मुँह-हाथ आदि ही नहीं, विशाल शरीर भी, गैरिक हो गया था, मानो सुनहली धूप में धुला गेरू के पर्वत, का कोई शिखर हो ।, बोले, ‘अब ठीक है । जहाँ पहुँचे, किसी नीम-पीपल, के नीचे बैठ गए । दो रोटियाँ माँगकर खा लीं और गीत, लिखने लगे ।’, इस सर्वथा नवीन परिच्छेद का उपसंहार कहाँ और, कैसे होगा; यह सोचते-सोचते मैंने उत्तर दिया, ‘आपके, संन्यास से मुझे तो इतना ही लाभ हुआ कि साबुन के कुछ, पैसे बचेंगे । गेरुए वस्त्र तो मैले नहीं दीखेंगे । पर हानि यही, है कि न जाने कहाँ-कहाँ छप्पर डलवाना पड़ेगा क्योंकि धूप, और वर्षा से पूर्णतया रक्षा करने वाले नीम और पीपल कम, ही हैं ।’ मन में एक प्रश्न बार-बार उठता है... क्या इस देश, की सरस्वती अपने वैरागी पुत्रों की परंपरा अक्षुण्ण रखना, चाहती है और क्या इस पथ पर पहले पग रखने की शक्ति, उसने निराला जी में ही पाई है?, निराला जी अपने शरीर, जीवन और साहित्य सभी में, असाधारण हैं । उनमें विरोधी तत्त्वों की भी सामंजस्यपूर्ण, संधि है । उनका विशाल डीलडौल देखने वाले के हृदय में, जो आतंक उत्पन्न कर देता है उसे उनके मुख की सरल, आत्मीयता दूर करती चलती है ।, सत्य का मार्ग सरल है । तर्क और संदेह की चक्करदार, राह से उस तक पहुँचा नहीं जा सकता । इसी से जीवन के, सत्य द्रष्टाओं को हम बालकों जैसा सरल विश्वासी पाते, हैं । निराला जी भी इसी परिवार के सदस्य हैं ।, किसी अन्याय के प्रतिकार के लिए उनका हाथ, लेखनी से पहले उठ सकता है अथवा लेखनी हाथ से, अधिक कठोर प्रहार कर सकती है पर उनकी आँखों की, स्वच्छता किसी मलिन द्वेष में तरंगायित नहीं होती ।, ओंठों की खिंची हुई-सी रेखाओं में निश्चय की छाप, है पर उनमें क्रूरता की भंगिमा या घृणा की सिकुड़न नहीं, मिल सकती ।, क्रूरता और कायरता में वैसा ही संबंध है जैसा वृक्ष की, जड़ में अव्यक्त रस और उसके फल के व्यक्त स्वाद में ।, निराला किसी से भयभीत नहीं, अत: किसी के प्रति क्रूर, होना उनके लिए संभव नहीं । उनके तीखे व्यंग्य की, , विद्युतरेखा के पीछे सद्भाव के जल से भरा बादल रहता, है ।, निराला जी विचार से क्रांतदर्शी और आचरण से, क्रांतिकारी हैं । वे उस झंझा के समान हैं जो हल्की वस्तुओं, के साथ भारी वस्तुओं को भी उड़ा ले जाती है । उस मंद, समीर जैसी नहीं जो सुगंध न मिले तो दुर्गंध का भार ही ढोता, फिरता है । जिसे वे उपयोगी नहीं मानते; उसके प्रति उनका, किंचित मात्र भी मोह नहीं, चाहे तोड़ने योग्य वस्तुओं के, साथ रक्षा के योग्य वस्तुएँ भी नष्ट हो जाएँ ।, उनका विरोध द्व ेषमूलक नहीं पर चोट कठिन होती, है । इसके अतिरिक्त उनके संकल्प और कार्य के बीच में, ऐसी प्रत्यक्ष कड़ियाँ नहीं रहतीं, जो संकल्प के औचित्य, और कर्म के सौंदर्य की व्याख्या कर सकें । उन्हें समझने के, लिए जिस मात्रा में बौद्धिकता चाहिए; उसी मात्रा में हृदय, की संवेदनशीलता अपेक्षित है । ऐसा संतुलन सुलभ न होने, के कारण उन्हें पूर्णता में समझने वाले विरले मिलते हैं ।, ऐसे दो व्यक्ति सब जगह मिल सकते हैं जिनमें एक, उनकी नम्र उदारता की प्रशंसा करते नहीं थकता और दूसरा, उनके उद्धत व्यवहार की निंदा करते नहीं हारता । जो, अपनी चोट के पार नहीं देख पाते, वे उनके निकट पहुँच ही, नहीं सकते । उनके विद्रोह की असफलता प्रमाणित करने के, लिए उनके चरित्र की उजली रेखाओं पर काली तूली फेरकर, प्रतिशोध लेते रहते हैं । निराला जी के संबंध में फैली हुई, भ्रांत किंवदंतियाँ इसी निम्न वृत्ति से संबंध रखती हैं ।, मनुष्य जाति की नासमझी का इतिहास क्रूर और लंबा, है । प्राय: सभी युगों में मनुष्य ने अपने में श्रेष्ठता पर समझ, में आने वाले व्यक्ति को छाँटकर, कभी उसे विष देकर,, कभी सूली पर चढ़ाकर और कभी गोली का लक्ष्य बनाकर, अपनी बर्बर मूर्खता के इतिहास में नये पृष्ठ जोड़े हैं ।, प्रकृति और चेतना न जाने कितने निष्फल प्रयोगों के, उपरांत ऐसे मनुष्य का सृजन कर पाती हैं, जो अपने स्रष्टाओं, से श्रेष्ठ हो पर उसके सजातीय ऐसे अद्भुत सृजन को नष्ट, करने के लिए इससे बड़ा कारण खोजने की भी आवश्यकता, नहीं समझते कि वह उनकी समझ के परे है अथवा उसका, सत्य इनकी भ्रांतियों से मेल नहीं खाता ।, निराला जी अपने युग की विशिष्ट प्रतिभा हैं । अत:, उन्हें अपने युग का अभिशाप झेलना पड़े तो आश्चर्य नहीं ।, उनके जीवन के चारों ओर परिवार का वह लौहसार घेरा नहीं, , 8
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३. सच हम नहीं; सच तुम नहीं, - डॉ. जगदीश गुप्त, कवि परिचय ः डॉ. जगदीश गुप्त जी का जन्म १९२4 को उत्तर प्रदेश के शाहाबाद में हुआ । प्रयोगवाद के पश्चात जिस, ‘नयी कविता’ का प्रारंभ हुआ; उसके प्रवर्तकों में आपका नाम प्रमुख रूप से लिया जाता है । नया कथ्य, नया भाव पक्ष और, नये कलेवर की कलात्मक अभिव्यक्ति आपके साहित्य की विशेषताएँ रही हैं । अनेक धार्मिक एवं पौराणिक प्रसंगों और, चरित्रों को नये संदर्भ देने का महत्त्वपूर्ण साहित्यिक कार्य आपने किया है । ‘नयी कविता’ की परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए, आपने इसी नाम की पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ किया । आपका निधन २००१ में हुआ ।, प्रमुख कृतियाँ ः ‘नाव के पाँव’, ‘शब्द दंश’, ‘हिम विद्ध ’, ‘गोपा-गौतम’ (काव्य संग्रह), ‘शंबूक’ (खंडकाव्य), ‘भारतीय, कला के पद चिह्न’, ‘नयी कविता : स्वरूप और समस्याएँ’, ‘केशवदास’ (आलोचना), ‘नयी कविता’ (पत्रिका) आदि ।, विधा परिचय ः प्रयोगवाद के बाद हिंदी कविता की जो नवीन धारा विकसित हुई वह ‘नयी कविता’ है । नये भावबोधों की, अभिव्यक्ति के साथ नये मूल्यों और नये शिल्प विधान का अन्वेषण नयी कविता की विशेषताएँ हैं । नयी कविता का प्रारंभ, डॉ. जगदीश गुप्त, रामस्वरूप चतुर्वेदी और विजयदेव साही के संपादन में प्रकाशित ‘नयी कविता’ पत्रिका से माना जाता है ।, पाठ परिचय ः प्रस्तुत नयी कविता में कवि संघर्ष को ही जीवन की सच्चाई मानते हैं । सच्चा मनुष्य वही है जो कठिनाइयों से, घबराकर, मुसीबतों से डरकर न कभी झुके, न रुके, परिस्थितियों से हार न माने । राह में चाहे फूल मिलें या शूल, वह चलता, रहे क्योंकि जिंदगी सहज चलने का नाम नहीं बल्कि लीक से हटकर चलने का नाम है । हमें अपनी क्षमताएँ स्वयं ही पहचाननी, होंगी । राह से भटककर भी मंजिल अवश्य मिलेगी। भीतर-बाहर से एक-सा रहना ही आदर्श है । हमें अपने दुखों को, पहचानना होगा, अपने आँसू स्वयं पोंछने होंगे तथा स्वयं योद्ध ा बनना होगा । जीवन संघर्ष की यही कहानी है ।, , सच हम नहीं, सच तुम नहीं ।, सच है सतत संघर्ष ही ।, संघर्ष से हटकर जीए तो क्या जीए, हम या कि तुम ।, जो नत हुआ, वह मृत हुआ ज्यों वृंत से झरकर कुसुम ।, जो पंथ भूल रुका नहीं,, जो हार देख झुका नहीं,, जिसने मरण को भी लिया हो जीत, है जीवन वही ।, सच हम नहीं, सच तुम नहीं ।, , १२
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ऐसा करो जिससे न प्राणों में कहीं जड़ता रहे ।, जो है जहाँ चुपचाप, अपने-आपसे लड़ता रहे ।, जो भी परिस्थितियाँ मिलें,, काँटे चुभें, कलियाँ खिलें,, टूटे नहीं इनसान, बस ! संदेश यौवन का यही ।, सच हम नहीं, सच तुम नहीं ।, हमने रचा, आओ ! हमीं अब तोड़ दें इस प्यार को ।, यह क्या मिलन, मिलना वही, जो मोड़ दे मँझधार को ।, जो साथ फूलों के चले,, जो ढाल पाते ही ढले,, यह जिंदगी क्या जिंदगी जो सिर्फ पानी-सी बही ।, सच हम नहीं, सच तुम नहीं ।, अपने हृदय का सत्य, अपने-आप हमको खोजना ।, अपने नयन का नीर, अपने-आप हमको पोंछना ।, आकाश सुख देगा नहीं, धरती पसीजी है कहीं !, हर एक राही को भटककर ही दिशा मिलती रही ।, सच हम नहीं, सच तुम नहीं ।, बेकार है मुस्कान से ढकना हृदय की खिन्नता ।, आदर्श हो सकती नहीं, तन और मन की भिन्नता ।, जब तक बँधी है चेतना, जब तक प्रणय दुख से घना, तब तक न मानूँगा कभी, इस राह को ही मैं सही ।, सच हम नहीं, सच तुम नहीं ।, - (‘नाव के पाँव’ कविता संग्रह से), ०, , नत = झुका हुआ, जड़ता = अचलता, ठहराव, पसीजना = मन में दया भाव आना, , शब्दार्थ, , १३, , वृंत = डंठल, मँझधार = नदी की धारा के बीच, चेतना = जागृत अवस्था
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रसास्वादन, 4. ‘आँसुओं को पोंछकर अपनी क्षमताओं को पहचानना ही जीवन है’, इस सच्चाई को समझाते हुए कविता का रसास्वादन, कीजिए ।, , साहित्य संबंधी सामान्य ज्ञान, 5. जानकारी दीजिए :, (अ) ‘नयी कविता’ के अन्य कवियों के नाम , , -, , (अा) कवि डॉ. जगदीश गुप्त की प्रमुख साहित्यिक कृतियों के नाम ६. निम्नलिखित वाक्यों में अधोरेखांकित शब्दों का लिंग परिवर्तन कर वाक्य फिर से लिखिए :, , (१) बहुत चेष्टा करने पर भी हरिण न आया ।, ............................................................................................., (२) सिद्धहस्त लेखिका बनना ही उसका एकमात्र सपना था ।, ............................................................................................., (३) तुम एक समझदार लड़की हो ।, ............................................................................................., (4) मैं पहली बार वृद्धाश्रम में मौसी से मिलने आया था ।, ............................................................................................., (5) तुम्हारे जैसा पुत्र भगवान सब को दें ।, ............................................................................................., (६) साधु की विद्वत्ता की धाक दूर-दूर तक फैल गई थी ।, ............................................................................................., (७) बूढ़े मर गए ।, ............................................................................................., (8) वह एक दस वर्ष का बच्चा छोड़ा गया ।, ............................................................................................., (९) तुम्हारा मौसेरा भाई माफी माँगने पहुँचा था ।, ............................................................................................., (१०) एक अच्छी सहेली के नाते तुम उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि का अध्ययन करो ।, ............................................................................................., , १5
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4. आदर्श बदला, - सुदर्शन, लेखक परिचय ः सुदर्शन जी का जन्म २९ मई १8९5 को सियालकोट में हुआ । आपका वास्तविक नाम बदरीनाथ है ।, आपने प्रेमचंद की लेखन परंपरा को आगे बढ़ाया है । साहित्य को लेकर आपका दृष्टिकोण सुधारवादी रहा । आपकी रचनाएँ, आदर्शोन्मुख यथार्थवाद को रेखांकित करती हैं । साहित्य सृजन के अतिरिक्त आपने हिंदी फिल्मों की पटकथाएँ और गीत भी, लिखे । ‘हार की जीत’ आपकी प्रथम कहानी है और हिंदी साहित्य में विशिष्ट स्थान रखती है । आपकी कहानियों की भाषा, सरल, पात्रानुकूल तथा प्रभावोत्पादक है । आपकी कहानियाँ घटनाप्रधान हैं । रचनाओं में प्रयुक्त मुहावरे आपकी साहित्यिक, भाषा को जीवंतता और कथ्य को प्रखरता प्रदान करते हैं । आपका निधन ९ मार्च १९६७ में हुआ ।, प्रमुख कृतियाँ ः ‘पुष्पलता’, ‘सुदर्शन सुधा’, ‘तीर्थयात्रा’, ‘पनघट’ (कहानी संग्रह), ‘सिकंदर’, ‘भाग्यचक्र’ (नाटक), ‘भागवती’ (उपन्यास), ‘आनररी मजिस्ट्रेट’ (प्रहसन) आदि ।, विधा परिचय ः कहानी भारतीय साहित्य की प्राचीन विधा है । कहानी जीवन का मार्गदर्शन करती है । जीवन के प्रसंगों को, उद्घाटित करती है । मन को बहलाती है । अत: कहानी विधा का विभिन्न उद्देश्यों के अनुसार वर्गीकरण किया जाता है ।, सरल-सीधी भाषा, मुहावरों का सटीक प्रयोग, प्रवाहमान शैली कहानी की प्रभावोत्पादकता को वृद्धिंगत करती है ।, पाठ परिचय ः प्रस्तुत पाठ में लेखक ने बदला शब्द को अलग ढंग से व्याख्यायित करने का प्रयास किया है । यदि वह बदला, किसी के मन में उत्पन्न हिंसा को समाप्त कर उसे जीवन का सम्मान करने की सीख देता है तो वह आदर्श बदला कहलाता, है । बचपन में बैजू अपने पिता को भजन गाने के कारण तानसेन की क्रूरता का शिकार होता हुआ देखता है परंतु वही बैजू, तानसेन को संगीत प्रतियोगिता में पराजित कर उसे जीवनदान देता है और संगीत का सच्चा साधक सिद्ध होता है । कलाकार, को अपनी कला पर अहंकार नहीं करना चाहिए । कला का सम्मान करना कलाकार का परम कर्तव्य होता है ।, प्रभात का समय था, आसमान से बरसती हुई प्रकाश, की किरणें संसार पर नवीन जीवन की वर्षा कर रही थीं ।, बारह घंटों के लगातार संग्राम के बाद प्रकाश ने अँधेरे पर, विजय पाई थी । इस खुशी में फूल झूम रहे थे, पक्षी मीठे, गीत गा रहे थे, पेड़ों की शाखाएँ खेलती थीं और पत्ते, तालियाँ बजाते थे । चारों तरफ खुशियाँ झूमती थीं । चारों, तरफ गीत गूँजते थे । इतने में साधुओं की एक मंडली शहर, के अंदर दाखिल हुई । उनका खयाल था- मन बड़ा चंचल, है । अगर इसे काम न हो, तो इधर-उधर भटकने लगता है, और अपने स्वामी को विनाश की खाई में गिराकर नष्ट कर, डालता है । इसे भक्ति की जंजीरों से जकड़ देना चाहिए ।, साधु गाते थेसुमर-सुमर भगवान को,, मूरख मत खाली छोड़ इस मन को ।, जब संसार को त्याग चुके थे, उन्हें सुर-ताल की क्या, परवाह थी । कोई ऊँचे स्वर में गाता था, कोई मुँह में, गुनगुनाता था । और लोग क्या कहते हैं, इन्हें इसकी जरा भी, चिंता न थी । ये अपने राग में मगन थे कि सिपाहियों ने, , १६, , आकर घेर लिया और हथकड़ियाँ लगाकर अकबर बादशाह, के दरबार को ले चले ।, यह वह समय था जब भारत में अकबर की तूती, बोलती थी और उसके मशहूर रागी तानसेन ने यह कानून, बनवा दिया था कि जो आदमी रागविद्य ा में उसकी बराबरी, न कर सके, वह आगरे की सीमा में गीत न गाए और जो, गाए, उसे मौत की सजा दी जाए । बेचारे बनवासी साधुओं, को पता नहीं था परंतु अज्ञान भी अपराध है । मुकदमा, दरबार में पेश हुआ । तानसेन ने रागविद्य ा के कुछ प्रश्न, किए । साधु उत्तर में मुँह ताकने लगे । अकबर के होंठ हिले, और सभी साधु तानसेन की दया पर छोड़ दिए गए ।, दया निर्बल थी, वह इतना भार सहन न कर सकी ।, मृत्युदंड की आज्ञा हुई । केवल एक दस वर्ष का बच्चा, छोड़ा गया - बच्चा है, इसका दोष नहीं । यदि है भी तो, क्षमा के योग्य है ।, बच्चा रोता हुआ आगरे के बाजारों से निकला और, जंगल में जाकर अपनी कुटिया में रोने-तड़पने लगा । वह, बार-बार पुकारता था - ‘‘बाबा ! तू कहाँ है? अब कौन
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मुझे प्यार करेगा? कौन मुझे कहानियाँ सुनाएगा? लोग, आगरे की तारीफ करते हैं, मगर इसने मुझे तो बरबाद कर, दिया । इसने मेरा बाबा छीन लिया और मुझे अनाथ बनाकर, छोड़ दिया । बाबा ! तू कहा करता था कि संसार में, चप्पे-चप्पे पर दलदलें हैं और चप्पे-चप्पे पर काँटों की, झाड़ियाँ हैं । अब कौन मुझे इन झाड़ियों से बचाएगा? कौन, मुझे इन दलदलों से निकालेगा? कौन मुझे सीधा रास्ता, बताएगा? कौन मुझे मेरी मंजिल का पता देगा?’’, इन्हीं विचारों में डूबा हुआ बच्चा देर तक रोता रहा ।, इतने में खड़ाऊँ पहने हुए, हाथ में माला लिए हुए, रामनाम, का जप करते हुए बाबा हरिदास कुटिया के अंदर आए और, बोले - ‘‘बेटा ! शांति करो । शांति करो ।’’, बैजू उठा और हरिदास जी के चरणों से लिपट गया ।, वह बिलख-बिलखकर रोता था और कहता था ‘‘महाराज ! मेरे साथ अन्याय हुआ है । मुझपर वज्र गिरा, है ! मेरा संसार उजड़ गया है । मैं क्या करूँ? मैं क्या करूँ?’’, हरिदास बोले - ‘‘शांति, शांति ।’’, बैजू - ‘‘महाराज ! तानसेन ने मुझे तबाह कर दिया !, उसने मेरा संसार सूना कर दिया !’’, हरिदास - ‘‘शांति, शांति ।’’, बैजू ने हरिदास के चरणों से और भी लिपटकर, कहा - ‘‘महाराज ! शांति जा चुकी । अब मुझे बदले की, भूख है । अब मुझे प्रतिकार की प्यास है । मेरी प्यास, बुझाइए ।’’, हरिदास ने फिर कहा - ‘‘बेटा ! शांति, शांति !’’, बैजू ने करुणा और क्रोध की आँखों से बाबा जी की, तरफ देखा । उन आँखों में आँसू थे और आहें थीं और आग, थी । जो काम जबान नहीं कर सकती, उसे आँखें कर देती, हैं, और जो काम आँखें भी नहीं कर सकतीं उसे आँखों के, आँसू कर देते हैं । बैजू ने ये दो आखिरी हथियार चलाए और, सिर झुकाकर खड़ा हो गया ।, हरिदास के धीरज की दीवार आँसुओं की बौछार न, सह सकी और काँपकर गिर गई । उन्होंने बैजू को उठाकर, गले से लगाया और कहा - ‘‘मैं तुझे वह हथियार दूँगा,, जिससे तू अपने पिता की मौत का बदला ले सकेगा ।’’, बैजू हैरान हुआ - बैजू खुश हुआ - बैजू उछल, पड़ा । उसने कहा - ‘‘बाबा ! आपने मुझे खरीद लिया ।, आपने मुझे बचा लिया । अब मैं आपका सेवक हूँ ।’’, , हरिदास - ‘‘मगर तुझे बारह बरस तक तपस्या करनी, होगी - कठोर तपस्या - भयंकर तपस्या ।’’, बैजू - ‘‘महाराज, आप बारह बरस कहते हैं ।, मैं बारह जीवन देने को तैयार हूँ । मैं तपस्या करूँगा, मैं दुख, झेलूँगा, मैं मुसीबतें उठाऊँगा । मैं अपने जीवन का, एक-एक क्षण आपको भेंट कर दूँगा । मगर क्या इसके बाद, मुझे वह हथियार मिल जाएगा, जिससे मैं अपने बाप की, मौत का बदला ले सकूँ?’’, हरिदास - ‘‘हाँ ! मिल जाएगा ।’’, बैजू - ‘‘तो मैं आज से आपका दास हूँ । आप आज्ञा, दें, मैं आपकी हर आज्ञा का सिर और सिर के साथ दिल, झुकाकर पालन करूँगा ।’’, ***, ऊपर की घटना को बारह बरस बीत गए । जगत में, बहुत-से परिवर्तन हो गए । कई बस्तियाँ उजड़ गईं । कई, वन बस गए । बूढ़े मर गए । जो जवान थे; उनके बाल सफेद, हो गए ।, अब बैजू बावरा जवान था और रागविद्य ा में, दिन-ब-दिन आगे बढ़ रहा था । उसके स्वर में जादू था, और तान में एक आश्चर्यमयी मोहिनी थी । गाता था तो, पत्थर तक पिघल जाते थे और पशु-पंछी तक मुग्ध हो जाते, थे । लोग सुनते थे और झूमते थे तथा वाह-वाह करते थे ।, हवा रुक जाती थी । एक समाँ बँध जाता था ।, एक दिन हरिदास ने हँसकर कहा - ‘‘वत्स ! मेरे पास, जो कुछ था, वह मैंने तुझे दे डाला । अब तू पूर्ण गंधर्व हो, गया है । अब मेरे पास और कुछ नहीं, जो तुझे दूँ ।’’, बैजू हाथ बाँधकर खड़ा हो गया । कृतज्ञता का भाव, आँसुओं के रूप में बह निकला । चरणों पर सिर रखकर, बोला - ‘‘महाराज ! आपका उपकार जन्म भर सिर से न, उतरेगा ।’’, हरिदास सिर हिलाकर बोले - ‘‘यह नहीं बेटा ! कुछ, और कहो । मैं तुम्हारे मुँह से कुछ और सुनना चाहता हूँ ।’’, बैजू - ‘‘आज्ञा कीजिए ।’’, हरिदास - ‘‘तुम पहले प्रतिज्ञा करो ।’’, बैजू ने बिना सोच-विचार किए कह दिया‘‘मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि.....’’, हरिदास ने वाक्य को पूरा किया - ‘‘इस रागविद्य ा से, किसी को हानि न पहुँचाऊँगा ।’’, , १७
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बैजू का लहू सूख गया । उसके पैर लड़खड़ाने लगे ।, सफलता के बाग परे भागते हुए दिखाई दिए । बारह वर्ष की, तपस्या पर एक क्षण में पानी फिर गया । प्रतिहिंसा की छुरी, हाथ आई तो गुरु ने प्रतिज्ञा लेकर कुंद कर दी । बैजू ने होंठ, काटे, दाँत पीसे और रक्त का घूँट पीकर रह गया । मगर गुरु, के सामने उसके मुँह से एक शब्द भी न निकला । गुरु गुरु, था, शिष्य शिष्य था । शिष्य गुरु से विवाद नहीं करता ।, ***, कुछ दिन बाद एक सुंदर नवयुवक साधु आगरे के, बाजारों में गाता हुआ जा रहा था । लोगों ने समझा, इसकी, भी मौत आ गई है । वे उठे कि उसे नगर की रीति की सूचना, दे दें, मगर निकट पहुँचने से पहले ही मुग्ध होकर, अपने-आपको भूल गए और किसी को साहस न हुआ कि, उससे कुछ कहे । दम-के-दम में यह समाचार नगर में जंगल, की आग के समान फैल गया कि एक साधु रागी आया है,, जो बाजारों में गा रहा है । सिपाहियों ने हथकड़ियाँ सँभालीं, और पकड़ने के लिए साधु की ओर दौड़े परंतु पास आना था, कि रंग पलट गया । साधु के मुखमंडल से तेज की किरणें, फूट रही थीं, जिनमें जादू था, मोहिनी थी और मुग्ध करने, की शक्ति थी । सिपाहियों को न अपनी सुध रही, न, हथकड़ियों की, न अपने बल की, न अपने कर्तव्य की, न, बादशाह की, न बादशाह के हुक्म की । वे आश्चर्य से उसके, मुख की ओर देखने लगे, जहाँ सरस्वती का वास था और, जहाँ से संगीत की मधुर ध्वनि की धारा बह रही थी । साधु, मस्त था, सुनने वाले मस्त थे । जमीन-आसमान मस्त थे ।, गाते-गाते साधु धीरे-धीरे चलता जाता था और श्रोताओं, का समूह भी धीरे-धीरे चलता जाता था । ऐसा मालूम होता, था, जैसे एक समुद्र है जिसे नवयुवक साधु आवाजों की, जंजीरों से खींच रहा है और संकेत से अपने साथ-साथ, आने की प्रेरणा कर रहा है ।, मुग्ध जनसमुदाय चलता गया, चलता गया, चलता, गया । पता नहीं किधर को? पता नहीं कितनी देर? एकाएक, गाना बंद हो गया । जादू का प्रभाव टूटा तो लोगों ने देखा, कि वे तानसेन के महल के सामने खड़े हैं । उन्होंने दुख और, पश्चात्ताप से हाथ मले और सोचा- यह हम कहाँ आ गए?, साधु अज्ञान में ही मौत के द्व ार पर आ पहुँचा था ।, भोली-भाली चिड़िया अपने-आप अजगर के मुँह में आ, फँसी थी और अजगर के दिल में जरा भी दया न थी ।, , १8, , तानसेन बाहर निकला । वहाँ लोगों को देखकर वह, हैरान हुआ और फिर सब कुछ समझकर नवयुवक से, बोला- ‘‘तो शायद आपके सिर पर मौत सवार है?’’, नवयुवक साधु मुस्कुराया- ‘‘जी हाँ । मैं आपके साथ, गानविद्या पर चर्चा करना चाहता हूँ ।’’, तानसेन ने बेपरवाही से उत्तर दिया- ‘‘ अच्छा ! मगर, आप नियम जानते हैं न? नियम कड़ा है और मेरे दिल में, दया नहीं है । मेरी आँखें दूसरों की मौत को देखने के लिए, हर समय तैयार हैं ।’’ नवयुवक - ‘‘और मेरे दिल में जीवन, का मोह नहीं है । मैं मरने के लिए हर समय तैयार हूँ ।’’, इसी समय सिपाहियों को अपनी हथकड़ियों का ध्यान, आया । झंकारते हुए आगे बढ़े और उन्होंने नवयुवक साधु, के हाथों में हथकड़ियाँ पहना दीं । भक्ति का प्रभाव टूट, गया । श्रद्धा के भाव पकड़े जाने के भय से उड़ गए और, लोग इधर-उधर भागने लगे । सिपाही कोड़े बरसाने लगे, और लोगों के तितर-बितर हो जाने के बाद नवयुवक साधु, को दरबार की ओर ले चले । दरबार की ओर से शर्तें सुनाई, गईं- ‘‘कल प्रात:काल नगर के बाहर वन में तुम दोनों का, गानयुद्ध होगा । अगर तुम हार गए, तो तुम्हें मार डालने, तक का तानसेन को पूर्ण अधिकार होगा और अगर तुमने, उसे हरा दिया तो उसका जीवन तुम्हारे हाथ में होगा ।’’, नौजवान साधु ने शर्तें मंजूर कर लीं । दरबार ने आज्ञा, दी कि कल प्रात:काल तक सिपाहियों की रक्षा में रहो ।, यह नौजवान साधु बैजू बावरा था ।, ***, सूरज भगवान की पहली किरण ने आगरे के लोगों को, आगरे से बाहर जाते देखा । साधु की प्रार्थना पर सर्वसाधारण, को भी उसके जीवन और मृत्यु का तमाशा देखने की आज्ञा, दे दी गई थी । साधु की विद्वत्ता की धाक दूर-दूर तक, फैल गई थी । जो कभी अकबर की सवारी देखने को भी घर, से बाहर आना पसंद नहीं करते थे, आज वे भी नई पगड़ियाँ, बाँधकर निकल रहे थे ।, ऐसा जान पड़ता था कि आज नगर से बाहर वन में, नया नगर बस जाने को है- वहाँ, जहाँ कनातें लगी थीं, जहाँ, चाँदनियाँ तनी थीं, जहाँ कुर्सियों की कतारें सजी थीं । इधर, जनता बढ़ रही थी और उद्विग्नता और अधीरता से, गानयुद्ध के समय की प्रतीक्षा कर रही थी । बालक को, प्रात:काल मिठाई मिलने की आशा दिलाई जाए तो वह रात
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को कई बार उठ-उठकर देखता है कि अभी सूरज निकला, है या नहीं? उसके लिए समय रुक जाता है । उसके हाथ से, धीरज छूट जाता है । वह व्याकुल हो जाता है ।, समय हो गया । लोगों ने आँख उठाकर देखा । अकबर, सिंहासन पर था, साथ ही नीचे की तरफ तानसेन बैठा था, और सामने फर्श पर नवयुवक बैजू बावरा दिखाई देता था ।, उसके मुँह पर तेज था, उसकी आँखों में निर्भयता थी ।, अकबर ने घंटी बजाई और तानसेन ने कुछ सवाल, संगीतविद्या के संबंध में बैजू बावरा से पूछे । बैजू ने उचित, उत्तर दिए और लोगों ने हर्ष से तालियाँ पीट दीं । हर मुँह से, ‘‘जय हो, जय हो’’, ‘‘बलिहारी, बलिहारी’’ की ध्वनि, निकलने लगी !, इसके बाद बैजू बावरा ने सितार हाथ में ली और जब, उसके पर्दों को हिलाया तो जनता ब्रह्मानंद में लीन हो, गई । पेड़ों के पत्ते तक नि:शब्द हो गए । वायु रुक गई ।, सुनने वाले मंत्रमुग्धवत सुधिहीन हुए सिर हिलाने लगे । बैजू, बावरे की अँगुलियाँ सितार पर दौड़ रही थीं । उन तारों पर, रागविद्या निछावर हो रही थी और लोगों के मन उछल रहे, थे, झूम रहे थे, थिरक रहे थे । ऐसा लगता था कि सारे विश्व, की मस्ती वहीं आ गई है ।, लोगों ने देखा और हैरान रह गए । कुछ हरिण छलाँगें, मारते हुए आए और बैजू बावरा के पास खड़े हो गए । बैजू, बावरा सितार बजाता रहा, बजाता रहा, बजाता रहा । वे, , १९, , हरिण सुनते रहे, सुनते रहे, सुनते रहे । और दर्शक यह, असाधारण दृश्य देखते रहे, देखते रहे, देखते रहे ।, हरिण मस्त और बेसुध थे । बैजू बावरा ने सितार हाथ, से रख दी और अपने गले से फूलमालाएँ उतारकर उन्हें, पहना दीं । फूलों के स्पर्श से हरिणों को सुध आई और वे, चौकड़ी भरते हुए गायब हो गए ! बैजू ने कहा- ‘‘तानसेन !, मेरी फूलमालाएँ यहाँ मँगवा दें, मैं तब जानूँ कि आप, रागविद्या जानते हैं ।’’, तानसेन सितार हाथ में लेकर उसे अपनी पूर्ण प्रवीणता, के साथ बजाने लगा । ऐसी अच्छी सितार, ऐसी एकाग्रता, के साथ उसने अपने जीवन भर में कभी न बजाई थी । सितार, के साथ वह आप सितार बन गया और पसीना-पसीना हो, गया । उसको अपने तन की सुधि न थी और सितार के बिना, संसार में उसके लिए और कुछ न था । आज उसने वह, बजाया, जो कभी न बजाया था । आज उसने वह बजाया, जो कभी न बजा सकता था । यह सितार की बाजी न थी,, यह जीवन और मृत्यु की बाजी थी । आज तक उसने अनाड़ी, देखे थे । आज उसके सामने एक उस्ताद बैठा था । कितना, ऊँचा ! कितना गहरा !! कितना महान !!! आज वह, अपनी पूरी कला दिखा देना चाहता था । आज वह किसी, तरह भी जीतना चाहता था । आज वह किसी भी तरह जीते, रहना चाहता था ।, बहुत समय बीत गया । सितार बजती रही । अँगुलियाँ
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६. पाप के चार हथियार, - कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’, लेखक परिचय ः कन्हैयालाल मिश्र जी का जन्म २६ सितंबर १९०६ को उत्तर प्रदेश के देवबंद गाँव में हुआ । आप हिंदी, के कथाकार, निबंधकार, पत्रकार तथा स्वतंत्रता सेनानी थे । आपने पत्रकारिता में स्वतंत्रता के स्वर को ऊँचा उठाया । आपके, निबंध भारतीय चिंतनधारा को प्रकट करते हैं । आपका संपूर्ण साहित्य मूलत: सामाजिक सरोकारों का शब्दांकन है । आपने, साहित्य और पत्रकारिता को व्यक्ति और समाज के साथ जोड़ने का प्रयास किया है । आप भारत सरकार द्वारा ‘पद्मश्री’, सम्मान से विभूषित हैं । आपकी भाषा सहज-सरल और मुहावरेदार है जो कथ्य को दृश्यमान और सजीव बना देती है । तत्सम, शब्दों का प्रयोग भारतीय चिंतन-मनन को अधिक प्रभावशाली बनाता है । आपका निधन १९९5 में हुआ ।, प्रमुख कृतियाँ ः ‘धरती के फूल’ (कहानी संग्रह), ‘जिंदगी मुस्कुराई’, ‘बाजे पायलिया के घुँघरू’, ‘जिंदगी लहलहाई’,, ‘महके आँगन-चहके द्वार’ (निबंध संग्रह), ‘दीप जले, शंख बजे’, ‘माटी हो गई सोना’ (संस्मरण एवं रेखाचित्र) आदि ।, विधा परिचय ः निबंध का अर्थ है - विचारों को भाषा में व्यवस्थित रूप से बाँधना । हिंदी साहित्यशास्त्र में निबंध को गद्य, की कसौटी माना गया है । निबंध विधा में जो पारंगत है वह गद्य की अन्य विधाओं को सहजता से लिख सकता है । निबंध, विधा में वैचारिकता का अधिक महत्त्व होता है तथा विषय को प्रखरता से पाठकों के सम्मुख रखने की सामर्थ्य होती है ।, पाठ परिचय ः प्रत्येक युग में विचारकों, दार्शनिकों, संतों-महापुरुषों ने पाप, अपराध, दुष्कर्मों से मानवजाति को मुक्ति, दिलाने का प्रयास किया परंतु विडंबना यह है कि आज भी विश्व में अन्याय, अत्याचार, भ्रष्टाचार, पाप और दुष्कर्मों का, बोलबाला है और मनुष्य जाने-अनजाने इन्हीं का समर्थक बना हुआ है । समाज संतों-महापुरुषों की जयंतियाँ मनाता है,, जय-जयकार करता है, उनके स्मारकों का निर्माण करवाता है परंतु उनके विचारों को आचरण में नहीं उतारता । ऐसा क्यों, होता है? लेखक ने अपने चिंतन के आधार पर इस प्रश्न का उत्तर खोजने का प्रयास प्रस्तुत निबंध में किया है ।, जॉर्ज बर्नार्ड शॉ का एक पैराग्राफ मैंने पढ़ा है । वह, उनके अपने ही संबंध में है : ‘‘मैं खुली सड़क पर कोड़े खाने, से इसलिए बच जाता हूँ कि लोग मेरी बातों को दिल्लगी, समझकर उड़ा देते हैं । बात यूँ है कि मेरे एक शब्द पर भी वे, गौर करें, तो समाज का ढाँचा डगमगा उठे ।, ‘‘वे मुझे बर्दाश्त नहीं कर सकते, यदि मुझपर हँसें, नहीं । मेरी मानसिक और नैतिक महत्ता लोगों के लिए, असहनीय है । उन्हें उबाने वाली खूबियों का पुंज लोगों के, गले के नीचे कैसे उतरे? इसलिए मेरे नागरिक बंधु या तो, कान पर उँगली रख लेते हैं या बेवकूफी से भरी हँसी के, अंबार के नीचे ढँक देते हैं मेरी बात ।’’ शॉ के इन शब्दों में, अहंकार की पैनी धार है, यह कहकर हम इन शब्दों की, उपेक्षा नहीं कर सकते क्योंकि इनमें संसार का एक बहुत ही, महत्त्वपूर्ण सत्य कह दिया गया है ।, संसार में पाप है, जीवन में दोष, व्यवस्था में अन्याय, है, व्यवहार में अत्याचार... और इस तरह समाज पीड़ित, और पीड़क वर्गों में बँट गया है । सुधारक आते हैं, जीवन, की इन विडंबनाओं पर घनघोर चोट करते हैं । विडंबनाएँ, , ३१, , टूटती-बिखरती नजर आती हैं पर हम देखते हैं कि सुधारक, चले जाते हैं और विडंबनाएँ अपना काम करती रहती हैं ।, आखिर इसका रहस्य क्या है कि संसार में इतने महान, पुरुष, सुधारक, तीर्थंकर, अवतार, संत और पैगंबर आ, चुके पर यह संसार अभी तक वैसा-का-वैसा ही चल रहा, है । इसे वे क्यों नहीं बदल पाए? दूसरे शब्दों में जीवन के, पापों और विडंबनाओं के पास वह कौन-सी शक्ति है, जिससे वे सुधारकों के इन शक्तिशाली आक्रमणों को झेल, जाते हैं और टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर नहीं जाते?, शॉ ने इसका उत्तर दिया है कि मुझपर हँसकर और इस, रूप में मेरी उपेक्षा करके वे मुझे सह लेते हैं । यह मुहावरे की, भाषा में सिर झुकाकर लहर को ऊपर से उतार देना है ।, शॉ की बात सच है पर यह सच्चाई एकांगी है । सत्य, इतना ही नहीं है । पाप के पास चार शस्त्र हैं, जिनसे वह, सुधारक के सत्य को जीतता या कम-से-कम असफल, करता है । मैंने जीवन का जो थोड़ा-बहुत अध्ययन किया, है, उसके अनुसार पाप के ये चार शस्त्र इस प्रकार हैं :उपेक्षा, निंदा, हत्या और श्रद्धा ।
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सुधारक पापों के विरुद्ध विद्रोह का झंडा बुलंद करता, है तो पाप और उसका प्रतिनिधि पापी समाज उसकी उपेक्षा, करता है, उसकी ओर ध्यान नहीं देता और कभी-कभी, कुछ सुन भी लेता है तो सुनकर हँस देता है जैसे वह किसी, पागल की बड़बड़ हो, प्रलाप हो । इन क्षणों में पाप का नारा, होता है, ‘‘अरे, छोड़ो इसे और अपना काम करो ।’’, सुधारक का सत्य उपेक्षा की इस रगड़ से कुछ तेज, होता जाता है, उसके स्वर अब पहले से कुछ पैने हो जाते हैं, और कुछ ऊँचे भी ।, अब समाज का पाप विवश हो जाता है कि वह, सुधारक की बात सुने । वह सुनता है और उसपर निंदा की, बौछारें फेंकने लगता है । सुधारक, सत्य और समाज के पाप, के बीच यह गालियों की दीवार खड़ी करने का प्रयत्न है ।, जीवन अनुभवों का साक्षी है कि सुधारक के जो जितना, समीप है, वह उसका उतना ही बड़ा निंदक होता है । यही, कारण है कि सुधारकों को प्राय: क्षेत्र बदलने पड़े हैं ।, इन क्षणों में पाप का नारा होता है : ‘‘अजी बेवकूफ, है, लोगों को बेवकूफ बनाना चाहता है ।’’, सुधारक का सत्य निंदा की इस रगड़ से और भी प्रखर, हो जाता है । अब उसकी धार चोट ही नहीं करती, काटती, भी है । पाप के लिए यह चोट धीरे-धीरे असह्य हो उठती, है और वह बौखला उठता है । अब वह अपने सबसे तेज, शस्त्र को हाथ में लेता है । यह शस्त्र है हत्या ।, सुकरात के लिए यह जहर का प्याला है, तो ईसा के, लिए सूली, दयानंद के लिए यह पिसा काँच है । इन क्षणों में, पाप का नारा होता है, ‘‘ओह, मैं तुम्हें खिलौना समझता, रहा और तुम साँप निकले । पर मैं साँप को जीता नहीं छोडूँगा, - पीस डालूँगा ।’’, सुधारक का सत्य हत्या के इस घर्षण से प्रचंड हो, उठता है । शहादत उसे ऐसी धार देती है कि सुधारक के, जीवन में उसे जो शक्ति प्राप्त न थी, अब वह हो जाती है ।, सूर्यों का ताप और प्रकाश उसमें समा जाता है, बिजलियों, की कड़क और तूफानों का वेग भी ।, पाप काँपता है और अब उसे लगता है कि इस वेग में, वह पिस जाएगा - बिखर जाएगा । तब पाप अपना ब्रह्मास्त्र, तोलता है और तोलकर सत्य पर फेंकता है । यह ब्रह्मास्त्र, है - श्रद्धा ।, , ३२, , इन क्षणों में पाप का नारा होता है - ‘‘सत्य की जय !, सुधारक की जय !’’, अब वह सुधारक की करने लगता है चरणवंदना और, उसके सत्य की महिमा का गान और बखान ।, सुधारक होता है करुणाशील और उसका सत्य सरल, विश्वासी । वह पहले चौंकता है, फिर कोमल पड़ जाता है, और तब उसका वेग बन जाता है शांत और वातावरण में छा, जाती है सुकुमारता ।, पाप अभी तक सुधारक और सत्य के जो स्तोत्र पढ़ता, जा रहा था, उनका करता है यूँ उपसंहार ‘‘सुधारक महान है,, वह लोकोत्तर है, मानव नहीं, वह तो भगवान है, तीर्थंकर, है, अवतार है, पैगंबर है, संत है । उसकी वाणी में जो सत्य, है, वह स्वर्ग का अमृत हैै । वह हमारा वंदनीय है, स्मरणीय, है, पर हम पृथ्वी के साधारण मनुष्यों के लिए वैसा बनना, असंभव है, उस सत्य को जीवन में उतारना हमारा आदर्श, है, पर आदर्श को कब, कहाँ, कौन पा सकता है?’’ और, इसके बाद उसका नारा हो जाता है, ‘‘महाप्रभु सुधारक, वंदनीय है, उसका सत्य महान है, वह लोकोत्तर है ।’’, यह नारा ऊँचा उठता रहता है, अधिक-से-अधिक, दूर तक उसकी गूँज फैलती रहती है, लोग उसमें शामिल, होते रहते हैं । पर अब सबका ध्यान सुधारक में नहीं; उसकी
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पाठ पर आधारित लघूत्तरी प्रश्न, 4. (अ) ‘पाप के चार हथियार’ पाठ का संदेश लिखिए ।, (अा) ‘पाप के चार हथियार’ निबंध का उद्देश्य स्पष्ट कीजिए ।, , साहित्य संबंधी सामान्य ज्ञान, 5. (अ) कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ जी के निबंध संग्रहों के नाम लिखिए ..............................................................................................., (अा) लेखक कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ जी की भाषाशैली ..............................................................................................., ६. रचना के आधार पर निम्न वाक्यों के भेद पहचानिए :, , संयोग से तभी उन्हें कहीं से तीन सौ रुपये मिल गए ।, ............................................................................................., (१), , यह वह समय था जब भारत में अकबर की तूती बोलती थी ।, ............................................................................................., (२), , सुधारक होता है करुणाशील और उसका सत्य सरल विश्वासी ।, ............................................................................................., (३), , फिर भी सावधानी तो अपेक्षित है ही ।, ............................................................................................., (4), , यह तस्वीर नि:संदेह भयावह है लेकिन इसे किसी भी तरह अतिरंजित नहीं कहा जाना चाहिए ।, ............................................................................................., (5), , आप यहीं प्रतीक्षा कीजिए ।, ............................................................................................., (६), , निराला जी हमें उस कक्ष में ले गए जो उनकी कठोर साहित्य साधना का मूक साक्षी रहा है ।, ............................................................................................., (७), , लोगों ने देखा और हैरान रह गए ।, ............................................................................................., (8), , सामने एक बोर्ड लगा था जिस पर अंग्रेजी में लिखा था ।, ............................................................................................., (९), , ओजोन एक गैस है जो ऑक्सीजन के तीन परमाणुओं से मिलकर बनी होती है ।, ............................................................................................., (१०), , ३5
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७. पेड़ होने का अर्थ, - डाॅ. मुकेश गौतम, कवि परिचय ः डॉ. मुकेश गौतम जी का जन्म १ जुलाई १९७० को उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में हुआ । आधुनिक कवियों में, आपने अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है । आपने आधुनिक भावबोध को सहज-सीधे रूप में अभिव्यक्ति दी है । वर्तमान मनुष्य, की समस्याएँ और प्रकृति के साथ हो रहा क्रूर मजाक आपके काव्य में प्रखरता से उभरकर आते हैं । आप हास्य-व्यंग्य के, लोकप्रिय मंचीय कवि हैं फिर भी सामाजिक सरोकार की भावना आपके काव्य का मुख्य स्वर है । आपकी समग्र रचनाओं, की भाषा अत्यंत सरल-सहज है तथा मन को छू जाती है । आपके काव्य में बड़े ही स्वाभाविक और लोकव्यवहार के बिंब,, प्रतीक और प्रतिमान आते हैं जो प्रभावशाली ढंग से आपके भावों और विचारों का संप्रेषण पाठकों तक करते हैं ।, प्रमुख कृतियाँ ः ‘अपनों के बीच’, ‘सतह और शिखर’, ‘सच्चाइयों के रू-ब-रू’, ‘वृक्षों के हक में’, ‘लगातार कविता’,, ‘प्रेम समर्थक हैं पेड़’, ‘इसकी क्या जरूरत थी’ (कविता संग्रह) आदि ।, विधा परिचय ः प्रस्तुत काव्य ‘नयी कविता’ की अभिव्यक्ति है । नये भावबोध को व्यक्त करने के लिए काव्य क्षेत्र में नये, प्रयोग शिल्प और भावपक्ष के स्तर पर किए गए । नये शब्द प्रयुक्त हुए, नये प्रतिमान, उपमान और प्रतीकों को तलाशा गया ।, फलत: नयी कविता आज के व्यस्ततम मनुष्य का दर्पण बन गई है और आस-पास की सच्चाई की तस्वीर ।, पाठ परिचय ः प्रकृति मनुष्य के जीवन का स्पंदन है औैर पेड़ इस स्पंदन का पोषक तत्त्व है । पेड़ मनुष्य का बहुत बड़ा शिक्षक, है । पेड़ और मनुष्य के बीच पुरातन संबंध रहा है । पेड़ ने भारतीय संस्कृति को जीवित रखा है और मनुष्य को संस्कारशील, बनाया है । पेड़ मनुष्य का हौसला बढ़ाता है, समाज के प्रति दायित्व और प्रतिबद्धता का निर्वाह करना सिखाता है और सच्ची, पूजा का अर्थ समझाता है । कवि ने मनुष्य जीवन में पेड़ की विभिन्नार्थी भूमिकाओं को स्पष्ट करते हुए उसके होने की, आवश्यकता की ओर संकेत किया है । सब कुछ दूसरों को देकर पेड़ जीवन की सार्थकता को सिद्ध करता है ।, , आदमी पेड़ नहीं हो सकता..., कल अपने कमरे की, खिड़की के पास बैठकर,, जब मैं निहार रहा था एक पेड़ को, तब मैं महसूस कर रहा था पेड़ होने का अर्थ !, मैं सोच रहा था, आदमी कितना भी बड़ा क्यों न हो जाए,, वह एक पेड़ जितना बड़ा कभी नहीं हो सकता, या यूँ कहूँ किआदमी सिर्फ आदमी है, वह पेड़ नहीं हो सकता !, , ३६
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हौसला है पेड़..., अंकुरित होने से ठूँठ हो जाने तक, आँधी-तूफान हो या कोई प्रतापी राजा-महाराजा, पेड़ किसी के पाँव नहीं पड़ता है,, जब तक है उसमें साँस, एक जगह पर खड़े रहकर, हालात से लड़ता है !, जहाँ भी खड़ा हो, सड़क, झील या कोई पहाड़, भेड़िया, बाघ, शेर की दहाड़, पेड़ किसी से नहीं डरता है !, हत्या या आत्महत्या नहीं करता है पेड़ ।, थके राहगीर को देकर छाँव व ठंडी हवा, राह में गिरा देता है फूल, और करता है इशारा उसे आगे बढ़ने का ।, पेड़ करता है सभी का स्वागत,, देता है सभी को विदाई !, गाँव के रास्ते का वह पेड़, आज भी मुस्कुरा रहा है, हालाँकि वह सीधा नहीं, टेढ़ा पड़ा है, सच तो यह है किरात भर तूफान से लड़ा है, खुद घायल है वह पेड़, लेकिन क्या देखा नहीं तुमने, उसपर अब भी सुरक्षित, चहचहाते हुए चिड़िया के बच्चों का घोंसला है, जी हाँ, सच तो यह है कि, पेड़ बहुत बड़ा हौसला है ।, , ३७
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दाता है पेड़..., जड़, तना, शाखा, पत्ती, पुष्प, फल और बीज, हमारे लिए ही तो है पेड़ की हर एक चीज !, किसी ने उसे पूजा,, किसी ने उसपर कुल्हाड़ी चलाई, पर कोई बताए, क्या पेड़ ने एक बूँद भी आँसू की गिराई?, हमारी साँसों के लिए शुद्ध हवा, बीमारी के लिए दवा, शवयात्रा, शगुन या बारात, सभी के लिए देता है पुष्पों की सौगात, आदिकाल से आज तक, सुबह-शाम, दिन-रात, हमेशा देता आया है मनुष्य का साथ, कवि को मिला कागज, कलम, स्याही, वैद, हकीम को दवाई, शासन या प्रशासन, सभी के बैठने के लिए, कुर्सी, मेज, आसन, जो हम उपयोग नहीं करें, वृक्ष के पास ऐसी एक भी नहीं चीज है, जी हाँ, सच तो यह है कि, पेड़ संत है, दधीचि है ।, - (‘प्रेम समर्थक हैं पेड़’ कविता संग्रह से), ०, , ठूँठ = फूल-पत्ते विहीन सूखा पेड़, , शब्दार्थ, , सौगात = भेंट, उपहार, , टिप्पणी, * दधीचि : एक ॠषि जिन्होंने वृत्रासुर का वध करने हेतु अस्त्र बनाने के लिए इंद्र को अपनी हड्डियाँ दी थीं ।, , ३8
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8. सुनो किशोरी, - आशारानी व्होरा, लेखक परिचय ः श्रीमती आशारानी व्होरा जी का जन्म ७ अप्रैल १९२१ को अविभाजित भारत के झेलम जिले की तकवाल, तहसील स्थित ग्राम दुलहा में हुआ । आधुनिक हिंदी साहित्य में नारी विषयक लेखन में आप अपना अलग स्थान रखती हैं ।, प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में आपके लेख धारावाहिक रूप से छपते रहे । विभिन्न क्षेत्रों में अग्रणी रहीं महिलाओं के जीवन संघर्ष, को चित्रित करना और वर्तमान नारी वर्ग के सम्मुख आदर्श प्रस्तुत करना आपके लेखन कार्य का प्रमुख उद्द ेश्य रहा है ।, आपकी रचनाओं ने लेखन की नयी धारा को जन्म दिया है और हिंदी साहित्य में नारी विमर्श लेखन की परंपरा को समृद्ध, किया है । आप अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित हैं । आपका निधन २००९ में हुआ ।, प्रमुख कृतियाँ ः ‘भारत की प्रथम महिलाएँ’, ‘स्वतंत्रता सेनानी लेखिकाएँ’, ‘क्रांतिकारी किशोरी’, ‘स्वाधीनता सेनानी’,, ‘लेखक-पत्रकार’ आदि ।, विधा परिचय ः अनेक साहित्यकारों, महान राजनीतिकों द्व ारा अपने परिजनों को भेजे गए पत्रों ने तत्कालीन साहित्यिक,, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक स्थितियों का लेखा-जोखा प्रखरता से प्रस्तुत किया है । इन पत्रों का कला पक्ष साहित्यिक, कलात्मकता को स्पर्श करता है ।, पाठ परिचय ः लेखिका ने अपनी इस नवीनतम पत्र शैली में किशोरियों की शंकाओं, प्रश्नों एवं दुश्चिंताओं का समाधान एक, माँ, अंतरंग सहेली और मार्गदर्शिका के रूप में किया है । किशोरियों के हृदय में झाँककर मित्रवत उन्हें उचित-अनुचित,, करणीय-अकरणीय का बोध कराया है । हमारे देश की नयी पीढ़ी पश्चिमी देशों से आ रहे मूल्यों और संस्कारों का अंधानुकरण, करती जा रही है । हमारे देश की संस्कृति और परंपराओं को कालबाह्य और त्याज्य मानकर उनकी अवहेलना कर रही है ।, आत्मनिर्भर हो जाने से युवक-युवतियों का जीवन के प्रति बदला दृष्टिकोण, विवेकहीनता और जल्दबाजी में लिया जाने, वाला निर्णय नयी पीढ़ी का जीवनसौंदर्य नष्ट कर रहा है । लेखिका के अनुसार नये मूल्यों को भारतीय संस्कृति, परंपराओं, और संस्कारों की भूमि पर उतारकर स्वीकारना होगा ।, सुनो सुगंधा ! तुम्हारा पत्र पाकर खुशी हुई । तुमने, दोतरफा अधिकार की बात उठाई है, वह पसंद आई ।, बेशक, जहाँ जिस बात से तुम्हारी असहमति हो; वहाँ तुम्हें, अपनी बात मुझे समझाने का पूरा अधिकार है । मुझे खुशी, ही होगी तुम्हारे इस अधिकार प्रयोग पर । इससे राह खुलेगी, और खुलती ही जाएगी । जहाँ कहीं कुछ रुकती दिखाई, देगी; वहाँ भी परस्पर आदान-प्रदान से राह निकाल ली, जाएगी । अपनी-अपनी बात कहने-सुनने में बंधन या, संकोच कैसा?, मैंने तो अधिकार की बात यों पूछी थी कि मैं उस बेटी, की माँ हूँ जो जीवन में ऊँचा उठने के लिए बड़े ऊँचे सपने, देखा करती है; आकाश में अपने छोटे-छोटे डैनों को चौड़े, फैलाकर ।, धरती से बहुत ऊँचाई में फैले इन डैनों को यथार्थ से, दूर समझकर भी मैं काटना नहीं चाहती । केवल उनकी डोर, , 4१, , मजबूत करना चाहती हूँ कि अपनी किसी ऊँची उड़ान में वे, लड़खड़ा न जाएँ । इसलिए कहना चाहती हूँ कि ‘उड़ो बेटी,, उड़ो, पर धरती पर निगाह रखकर ।’ कहीं ऐसा न हो कि, धरती से जुड़ी डोर कट जाए और किसी अनजाने-अवांछित, स्थल पर गिरकर डैने क्षत-विक्षत हो जाएँ । ऐसा नहीं होगा, क्योंकि तुम एक समझदार लड़की हो । फिर भी सावधानी, तो अपेक्षित है ही ।, यह सावधानी का ही संकेत है कि निगाह धरती पर, रखकर उड़ान भरी जाए । उस धरती पर जो तुम्हारा आधार, है- उसमें तुम्हारे परिवेश का, तुम्हारे संस्कार का, तुम्हारी, सांस्कृतिक परंपरा का, तुम्हारी सामर्थ्य का भी आधार जुड़ा, होना चाहिए । हमें पुरानी-जर्जर रूढ़ियों को तोड़ना है,, अच्छी परंपराओं को नहीं ।, परंपरा और रूढ़ि का अर्थ समझती हो न तुम? नहीं !, तो इस अंतर को समझने के लिए अपने सांस्कृतिक आधार
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से संबंधित साहित्य अपने कॉलेज पुस्तकालय से खोजकर, लाना, उसे जरूर पढ़ना । यह आधार एक भारतीय लड़की, के नाते तुम्हारे व्यक्तित्व का अटूट हिस्सा है, इसलिए ।, बदले वक्त के साथ बदलते समय के नये मूल्यों को, भी पहचानकर हमें अपनाना है पर यहाँ ‘पहचान’ शब्द को, रेखांकित करो । बिना समझे, बिना पहचाने कुछ भी नया, अपनाने से लाभ के बजाय हानि उठानी पड़ सकती है ।, पश्चिमी दुनिया का हर मूल्य हमारे लिए नये मूल्य का, पर्याय नहीं हो सकता । हमारे बहुत-से पुराने मूल्य अब इतने, टूट-फूट गए हैं कि उन्हें भी जैसे-तैसे जोड़कर खड़ा करने, का मतलब होगा, अपने आधार को कमजोर करना । या यूँ, भी कह सकते हैं कि अपनी अच्छी परंपराओं को रूढ़ि में, ढालना ।, समय के साथ अपना अर्थ खो चुकी या वर्तमान, प्रगतिशील समाज को पीछे ले जाने वाली समाज की कोई, भी रीति-नीति रूढ़ि है, समय के साथ अनुपयोगी हो गए, मूल्यों को छोड़ती और उपयोगी मूल्यों को जोड़ती निरंतर, बहती धारा परंपरा है, जो रूढ़ि की तरह स्थिर नहीं हो, सकती ।, यही अंतर है दोनों में । रूढ़ि स्थिर है, परंपरा निरंतर, गतिशील । एक निरंतर बहता निर्मल प्रवाह, जो हर, सड़ी-गली रूढ़ि को किनारे फेंकता और हर भीतरी-बाहरी,, देशी-विदेशी उपयोगी मूल्य को अपने में समेटता चलता, , 4२, , है । इसीलिए मैंने पहले कहा है कि अपने टूटे-फूटे मूल्यों, को भरसक जोड़कर खड़ा करने से कोई लाभ नहीं, आज, नहीं तो कल, वे जर्जर मूल्य भरहराकर गिरेंगे ही ।, इसी तरह पश्चिमी मूल्य भी, जो हमारी धरती के, अनुकूल नहीं हैं, ज्यों-के-त्यों यहाँ नहीं उगाए जा सकते ।, उगाएँगे, तो वे पौधे फलीभूत नहीं होंगे । होंगे, तो जल्दी झड़, जाएँगे । वे फल हमारे किसी काम के नहीं होंगे ।, मुझे लगता है, पत्र का यह अंश आज तुम्हारे लिए, कुछ भारी हो गया । बेहतर है, अपनी संस्कृति व परंपरा को, ठीक से समझने के लिए फुरसत के समय इससे संबंधित, साहित्य पढ़ना । इसलिए कि यह बुनियादी जानकारी हर, भारतीय लड़की के लिए जरूरी है, जिससे वह अपनी धरती,, अपनी जड़ों को अच्छी तरह पहचान सके ।, यहाँ तुम्हारी सहेली रचना के संदर्भ में यह प्रसंग, इसलिए कि वह इस सीमारेखा को नहीं समझ पा रही । एक, रचना का ही संघर्ष नहीं है यह, एक पूरी पीढ़ी का संघर्ष, है । नयी पीढ़ी पुराने मूल्यों को तो काट फेंकना चाहती है पर, नये मूल्यों के नाम पर केवल पश्चिमी मूल्यों को ही, जानती-पहचानती है । कहें, उधार लिए मूल्यों से ही काम, चला लेना चाहती है । नये मूल्यों के निर्माण का दम-खम, अभी उसमें नहीं आया है ।, सुनो, नये मूल्यों का निर्माण करना है तो नये, ज्ञान-विज्ञान को पहले अपनी धरती पर टिकाना होगा ।
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अपनी सामर्थ्य और अपनी सीमाओं में से ही उसकी पगडंडी, काटनी होगी । यह पगडंडी काटने का साहस ही पहले, जरूरी है, नयी चौड़ी राह उसी में से खुलती दिखाई देगी ।, तुम अपनी सहेली रचना को यह समझाओ कि क्रांति, की बड़ी-बड़ी बातें करना आसान है, कोई छोटी-सी क्रांति, भी कर दिखाना कठिन है और एक ही झटके में यूँ, टूट-हारकर बैठ जाना तो निहायत मूर्खता है । फिर अभी तो, वह प्रथम वर्ष के पूर्वार्ध में ही है । अभी से उसे ऐसा कोई, कदम नहीं उठाना चाहिए । जरूरी हो तो सोच-समझकर वे, अपनी दोस्ती को आगे बढ़ा सकते हैं ।, कॉलेज जीवन की पूरी अवधि में वे निकट मित्रों की, तरह रहकर एक-दूसरे को देखें-जानें, जाँचें-परखें ।, एक-दूसरे की राह का रोड़ा नहीं, प्रेरणा और ताकत बनकर, परस्पर विकास में सहभागी बनें । फिर अपनी पढ़ाई की, समाप्ति पर भी यदि वे एक-दूसरे के साथ पूर्ववत लगाव, महसूस करें, उन्हें लगे कि निकट रहकर सामने आईं, कमियों-गलतियों ने भी उनकी दोस्ती में कोई दरार नहीं, डाली है, तो वे एक-दूसरे को उनकी समस्त, खूबियों-कमियों के साथ स्वीकार कर अपना लें ।, उस स्थिति में की गई यह कथित क्रांति न कठिन होगी,, न असफल ।, मेरी राय में रचना को और उसके दोस्त को तब तक, धैर्य से प्रतीक्षा करनी चाहिए । इस बीच वे पूरे जतन के साथ, एक-दूसरे के लिए स्वयं को तैयार करें । बिना तैयारी के, जल्दबाजी में, पढ़ाई के बीच शादी का निर्णय लेना केवल, बेवकूफी ही कही जा सकती है, क्रांति नहीं । ऐसी कथित, क्रांति का असफल होना निश्चित ही समझना चाहिए ।, इतनी जल्दबाजी में तो किसी छोटे-से काम के लिए उठाया, कोई छोटा कदम भी शायद ही सफल हो । यह तो जिंदगी, का अहम फैसला है ।, मैं समझती हूँ, रचना की इस मूर्खतापूर्ण ‘क्रांति’ में, उसकी सहायता न करने का तुम्हारा निर्णय एक सही निर्णय, है पर तटस्थ रहना ही काफी नहीं है । यदि रचना सचमुच, तुम्हारी प्यारी सहेली है तो उसका हित-अहित देखना भी, तुम्हारा काम है, उसमें हस्तक्षेप करना भी ।, पर रचना को इसके लिए दोष देने व उसकी भर्त्सना, करने से भी बात नहीं बनेगी, बिगड़ जरूर सकती है ।, हो सकता है, कथित प्यार के जुनून में इसका उलटा असर, , 4३, , हो और वह तुम्हारी बात का बुरा मानकर तुमसे कन्नी काटने, लगे । इसलिए सँभलकर बात करनी होगी आैर सूझ-बूझ से, बात सँभालनी होगी ।, दोष अकेली रचना का है भी नहीं । दोष उसकी, नासमझ उम्र का है या उसके उस परिवेश का है, जिसमें उसे, सँभलकर चलने के संस्कार नहीं दिए गए हैं । यह उम्र ही, ऐसी है जब कोई भावुक किशोरी किसी युवक की प्यार, भरी, मीठी-मीठी बातों के बहकावे में आकर उसे अपना, सब कुछ समझने लगती है और कच्ची, रोमानी भावनाओं, में बहकर जल्दबाजी में मूर्खता कर बैठती है । पछतावा उसे, तब होता है जब पानी सिर से गुजर चुका होता है ।, इस अल्हड़ उम्र में अगर वह लड़की अपने परिवार के, स्नेह संरक्षण से मुक्त है, आजादी के नाम पर स्वयं को, जरूरत से ज्यादा अहमियत देकर अंतर्मुखी हो गई है तो, उसके फिसलने की संभावना अधिक बढ़ जाती है । अपने, में अकेली पड़ गई लड़की जैसे ही किसी लड़के के संपर्क में, आती है, उसे अपना हमदर्द समझ बैठती है और उसके, बहकने की, उसके कदम भटकने की संभावना और भी बढ़, जाती है । लगता है, अपने परिवार से कटी रचना के साथ, ऐसा ही है । यदि सचमुच ऐसा है तो तुम्हें और भी सावधानी, से काम लेना होगा अन्यथा उसे समझाना मुश्किल होगा,, उलटे तुम्हारी दोस्ती में दरार आ सकती है ।, एक अच्छी सहेली के नाते तुम उसकी पारिवारिक, पृष्ठभूमि का अध्ययन करो । अगर लगे कि वह अपने, परिवार से कटी हुई है तो उसकी इस टूटी कड़ी को जोड़ने, का प्रयास करो । जैसे तुम मुझे पत्र लिखती हो, उससे भी, कहो; वह अपनी माँ को पत्र लिखे । अपने घर की,, भाई-बहनों की बातों में रुचि लें । अपनी समस्याओं पर माँ, से खुलकर बात करे और उनसे सलाह ले । यदि उसकी माँ, इस योग्य न हो तो वह अपनी बड़ी बहन या भाभी से निर्देशन, ले । यह भी संभव न हो तो अपनी किसी समझदार सहेली, या रिश्तेदार को ही राजदार बना ले । घर में किसी से भी, बातचीत का सिलसिला जोड़कर वह अपनी समस्या से, अकेले जूझने से निजात पा सकती है । नहीं तो तुम तो हो, ही । ऐसे समय वह तुम्हारी बात न सुने, तुम्हें झटक दे,, तब भी उसकी वर्तमान मनोदशा देखकर तुम्हें उसकी बात, का बुरा नहीं मानना है । उसका मूड देखकर उसका मन, टटोलो और उसे प्यार से समझाओ ।
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एक शुभचिंतक सहेली के नाते ऐसे समय तुम्हें उसे, इसलिए अकेला नहीं छोड़ देना है कि वह तुम्हारी बात नहीं, सुनती या तुम्हारी बात का बुरा मानती है । तुम साथ छोड़, दोगी तो वह और टूट जाएगी । अकेली पड़कर वह उधर ही, जाने के लिए कदम बढ़ा लेगी, जिधर जाने से तुम उसे, रोकना चाहती हो । यहीं पर तुम्हारे धैर्य और संयम की, परीक्षा है ।, अगर जरूरी समझो तो सहेली के कथित दोस्त या, प्रेमी लड़के से भी किसी समय बात कर सकती हो । उसकी, मंशा जानकर उससे अपनी सहेली को अवगत करा सकती, हो या आगाह कर सकती हो ।, यदि तुम्हें लगे कि लड़का निर्दोष है, निश्छल है,, अपने प्यार में सच्चा या अडिग लगता है तो दोनों को पढ़ाई, के अंत तक प्रतीक्षा करने और तब तक केवल दोस्त बने, रहने का परामर्श दे सकती हो ।, , डैना = पंख, अवांछित = जिसकी इच्छा न की गई हो, भरहराकर = तेजी से, निहायत = अत्याधिक, पूरी तरह से, जुनून = पागलपन, उन्माद, अंतर्मुखी होना = अपने भीतर झाँककर सोचना, निजात = छुटकारा, आगाह करना = सूचित करना,, , पर यहाँ भी तुम्हें सतर्कता बरतनी होगी । रचना को, विश्वास में लेकर दोस्ती के दौरान उससे कोई गलत कदम, न उठाने का वायदा लेना होगा, वरना दूसरों की आग बुझाते, अपने हाथ जला लेना कोई अनहोनी या असंभव बात, नहीं । इसीलिए मैंने कहा है, यह तुम्हारी सूझ-समझ की भी, परीक्षा होगी । और एक बात, यह मत समझना कि सलाह, केवल तुम बेटी हो इसलिए दी जा रही है, यही सलाह कोई, भी माँ अपने पुत्र को भी देगी । ये बातें बेटा-बेटी के लिए, समान रूप से लागू होती हैं ।, मैं इसके परिणाम की प्रतीक्षा करूँगी । अगले पत्र में, जानकारी देना । दोगी न ?, - तुम्हारी माँ, (‘सुनो किशोरी’ पत्र संग्रह से), ०, , शब्दार्थ, , यथार्थ = सच्चाई/वास्तविकता, क्षत-विक्षत = बुरी तरह से घायल, लहू-लुहान, बुनियादी = मौलिक, भर्त्सना = अनुचित काम के लिए बुरा-भला कहना, अल्हड़ = भोला-भाला, राजदार = भेद जानने वाला/भेदिया, मंशा = इच्छा, निश्छल = छल रहित, , मुहावरे, धरती पर निगाह रखना = वास्तविकता से जुड़े रहना, राह का रोड़ा बनना = उन्नति में बाधा बनना, , फलीभूत होना = फल में परिणत होना, परिणाम निकल आना, कन्नी काटना = बचकर निकल जाना, , 44
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९. चुनिंदा शेर, - कैलाश सेंगर, कवि परिचय ः कैलाश सेंगर जी का जन्म १६ फरवरी १९54 को महाराष्ट्र के नागपुर में हुआ । सहज-सरल हिंदुस्तानी भाषा, में लिखी आपकी रचनाएँ सामान्य आदमी की जिंदगी में घुली वेदना, प्रश्न, भावना और उसकी धड़कन को व्यक्त करती, हैं । काव्य में किए जाने वाले मौलिक प्रयोगों और कथ्य के तीखेपन के कारण कैलाश सेंगर आज के गजलकारों में महत्त्वपूर्ण, और लोकप्रिय नाम है । गजलों के अलावा गीत, कविता, कहानी, नाटक आदि विधाओं में आप लेखन करते हैं । पत्रकारिता, के क्षेत्र में भी आपका उल्लेखनीय योगदान है । हिंदी के साथ-साथ मराठी भाषा पर भी आपका प्रभुत्व है । आपके लेख में, प्रस्तुत विचार सोचने को बाध्य करते हैं । आपकी साहित्यिक भाषा पाठकों के मन-बुद्धि को झकझोरकर रख देती है ।, प्रमुख कृतियाँ ः ‘सूरज तुम्हारा है’ (गजल संग्रह), ‘यहाँ आदमी नहीं, जूते भी चलते हैं’, ‘सुबह होने का इंतजार’, (कहानी संग्रह), ‘अभी रात बाकी है’ (अनूदित साहित्य) आदि ।, विधा परिचय ः उर्दू कविता का लोकप्रिय प्रकार गजल है जिसे गढ़ने में शेरों की अहम भूमिका होती है । गजल की, लोकप्रियता के फलस्वरूप इसे हिंदी ने भी अपना लिया है । गजल हिंदी में आते-आते रूमानी भावभूमि से हटकर यथार्थ की, जमीन पर खड़ी हो गई है । इन शेरों द्व ारा हिंदी गजलों ने अपनी अभिव्यक्ति शैली के बल पर लोकप्रियता प्राप्त की है ।, पाठ परिचय ः प्रस्तुत शेरों में सामाजिक अव्यवस्था और विडंबना के विभिन्न चित्र शब्दों के माध्यम से व्यक्त किए गए, हैं । इस सामाजिक अव्यवस्था में आम आदमी की अनसुनी कराहें इन शेरों के माध्यम से कवि हम तक पहुँचाने का प्रयास, करता है । विवशताओं के कारण आम आदमी अपनी पीड़ा अभिव्यक्त करने में स्वयं को असमर्थ पाता है, ये शेर उन्हीं, विवशताओं को व्यक्त करने का माध्यम बन जाते हैं । मनुष्य की इस विवशता को और उसे समाप्त करने के प्रयासों को कवि, ने वाणी प्रदान की है ।, गजलों से खुशबू बिखराना हमको आता है ।, चट्टानों पर फूल खिलाना हमको आता है ।, × ×, ××, परिंदों को शिकायत है, कभी तो सुन मेरे मालिक ।, तेरे दानों में भी शायद, लगा है घुन मेरे मालिक ।, × ×, ××, हम जिंदगी के चंद सवालों में खो गए ।, सारे जवाब उनके उजालों में खो गए ।, × ×, ××, चट्टानी रातों को जुगनू से वह सँवारा करती है ।, बरसों से इक सुबह हमारा नाम पुकारा करती है ।, × × × ×, वह आसमाँ पे रोज एक ख्वाब लिखता था ।, उसे पता न था वह इन्कलाब लिखता था ।, × × × ×, , 4७
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हँसी से अपने आँसुओं को छुपाकर देखो ।, नया मुखौटा ये चेहरे पे लगाकर देखो ।, अंध, शाला, × × × ×, वह फकीरों की दुआओं में असर देता है ।, आँख से इत्र बाँटने का हुनर देता है ।, , × × , ××, इसमें लाशें भी मिला करती हैं, तुम जरा देख-भाल तो लेते,, इसको माँ कह के पूजनेवालो, इस नदी को खँगाल तो लेते ।, × × × ×, जब भी पानी किसी के सर से गुजर जाएगा ।, तब वह सीने में नई आग ही लगाएगा ।, × × × ×, आँखों में बहुत बाढ़ है, शेष सब कुशल ।, जीवन नहीं अषाढ़ है, फिर शेष सब कुशल ।, × × × ×, सड़क ने जब मेरे पैरों की उँगलियाँ देखीं;, कड़कती धूप में सीने पे बिजलियाँ देखीं ।, × × × ×, दिव्यांग, , साँस हमारी हमें पराये धन-सी लगती है,, साहुकार के घर गिरवी कंगन-सी लगती है ।, × × × ×, किसी का सर खुला है तो किसी के पाँव बाहर हैं,, जरा ढंग से तू अपनी चादरों को बुन मेरे मालिक ।, × × × ×, वह जो मजदूर मरा है, वह निरक्षर था मगर,, अपने भीतर वह रोज, इक किताब लिखता था ।, , स्पर्धा, , - (‘सूरज तुम्हारा है’ गजल संग्रह से), ०, , टिप्पणी, घुन = एक कीड़ा जो अनाज को खाकर खोखला बनाता है ।, , मुहावरे, चट्टानों पर फूल खिलाना = कड़ी मेहनत से खुशहाली पाना, सिर से पानी गुजर जाना = कष्ट या संकट का पराकाष्ठा तक पहुँच जाना, संयम अथवा सहने की सीमा समाप्त होना, , 48
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१०. ओजोन विघटन का संकट, - डॉ. कृष्ण कुमार मिश्र, लेखक परिचय ः डॉ. कृष्ण कुमार मिश्र जी का जन्म १5 मार्च १९६६ को उत्तर प्रदेश के जौनपुर में हुआ । आपने हिंदी, साहित्य में विज्ञान संबंधी लेखन कार्य में अपनी विशेष पहचान बनाई है । आपने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से १९९२ में, रसायन शास्त्र में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की । आपने विज्ञान को लोकप्रिय बनाने और जनमानस तक पहुँचाने का महनीय, कार्य किया है । इसके लिए आपने लोक विज्ञान के अनेक विषयों पर हिंदी में व्यापक लेखन किया है । विज्ञान से संबंधित, आपकी अनेक मौलिक एवं अनूदित पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं । आप विज्ञान लेखन की समकालीन पीढ़ी के सशक्त, हस्ताक्षर हैं । आप मुंबई के होमी भाभा विज्ञान शिक्षा केंद्र में वैज्ञानिक हैं ।, प्रमुख कृतियाँ ः ‘लोक विज्ञान : समकालीन रचनाएँ’, ‘विज्ञान-मानव की यशोगाथा’, ‘जल-जीवन का आधार’ आदि ।, विधा परिचय ः प्रस्तुत पाठ विज्ञान संबंधी लेख है । वर्तमान समय में लेख का स्वरूप विस्तृत और बहुआयामी हो गया, है । इसमें विज्ञान, सूचना एवं तकनीकी विज्ञान जैसे विषयों का लेखन भी समाहित हो गया है । विज्ञान जैसे विषयों पर अनेक, लेख विभिन्न पत्रिकाओं तथा पुस्तकों के रूप में पाठकों के सम्मुख आ रहे हैं जो ज्ञानवृद्धि में सहायक हो रहे हैं ।, पाठ परिचय ः प्रस्तुत पाठ में मनुष्य की सुविधाओं के लिए किए जाने वाले अनुसंधानों और उत्पादित किए जाने वाले साधनों, के कारण पर्यावरण के होते जा रहे ह्रास की ओर संकेत किया गया है । वर्तमान समय में ओजोन की परत में छेद होना अथवा, परत को क्षति पहुँचना मनुष्य की स्वार्थी प्रवृत्ति का परिणाम है । हमें यह भली-भाँति समझना होगा कि यद्यपि सूर्य हमारा, जीवनदाता है परंतु उसकी पराबैंगनी किरणें संपूर्ण चराचर सृष्टि के लिए घातक सिद्ध होती हैं । अत: आज यह आवश्यक है, कि ओजोन के विघटन को रोकने का हम संकल्प करें और मानव जाति को इस संकट से उबारें ।, वर्तमान युग विज्ञान और प्रौद्योगिकी का युग है ।, दुनिया में भौतिक विकास हासिल कर लेने की होड़ मची, है । विकास की इस दौड़ में जाने-अनजाने हमने अनेक, विसंगतियों को जन्म दिया है । प्रदूषण उनमें से एक अहम, समस्या है । हमारे भूमंडल में हवा और पानी बुरी तरह, प्रदूषित हुए हैं । यहाँ तक कि मिट्टी भी आज प्रदूषण से, अछूती नहीं रही । इस प्रदूषण की चपेट से शायद ही कोई, चीज बची हो । साँस लेने के लिए स्वच्छ हवा मिलना, मुश्किल हो रहा है । जीने के लिए साफ पानी कम लोगों को, ही नसीब हो रहा है । पर्यावरणविदों का कहना है कि अगले, पच्चीस सालों में दुनिया को पेयजल के घनघोर संकट का, सामना करना पड़ सकता है । आज शायद ही कोई जलस्रोत, प्रदूषण से अप्रभावित बचा हो । कुछ लोगों का कहना है कि, अगला विश्वयुद्ध राजनीतिक, सामरिक या आर्थिक हितों, के चलते नहीं, वरन् पानी के लिए होगा । यह तस्वीर, नि:संदेह भयावह है लेकिन इसे किसी भी तरह से अतिरंजित, नहीं कहा जाना चाहिए । परिस्थितियाँ जिस तरह से बदल, रही हैं और धरती पर संसाधनों के दोहन के चलते जिस तरह, से जबर्दस्त दबाव पड़ रहा है तथा समूची परिस्थिति का तंत्र, , 5१, , जिस तरह चरमरा गया है, उसके चलते कुछ भी संभव, हो सकता है ।, फिलहाल यहाँ हम पर्यावरणीय प्रदूषण के सिर्फ एक, पहलू की चर्चा कर रहे हैं और वह है ओजोन विघटन का, संकट । पिछले कई वर्षों से पूरी दुनिया में इसकी चर्चा हो, रही है तथा इसे लेकर खासी चिंता व्यक्त की जा रही है ।, आखिर यहाँ सवाल समूची मानव सभ्यता के अस्तित्व का, है । प्रश्न उठता है कि यह ओजोन है क्या? यह कहाँ स्थित, है और उसकी उपयोगिता क्या है? इसका विघटन क्यों और, कैसे हो रहा है? ओजोन विघटन के खतरे क्या-क्या हैं?, और यदि ये खतरे एक हकीकत हैं तो इस दिशा में हम, कितने गंभीर हैं और इससे निपटने के लिए क्या कुछ, एहतियाती कदम उठा रहे हैं?, ओजोन एक गैस है जो आॅक्सीजन के तीन परमाणुओं, से मिलकर बनी होती है । यह गैस नीले रंग की होती है और, प्रकृति में तीक्ष्ण और विषैली होती है । यह मानव स्वास्थ्य, के लिए हानिकारक होती है और श्वसन नलिका में जाने पर, जलन पैदा करती है लेकिन वायुमंडल में मौजूद यही गैस, हमारी रक्षा भी करती है । यह वह ओजोन गैस है जिसकी
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वजह से धरती पर जीवन फल-फूल सका है । धरती पर, जीवन के अस्तित्व का श्रेय एक तरह से ओजोन को ही, जाता है । ओजोन गैस धरती के वायुमंडल में १5 से २०, किलोमीटर की ऊँचाई तक पाई जाती है । वायुमंडल का, यह क्षेत्र स्ट्रेटोस्फियर कहलाता है । ओजोन की सबसे, ज्यादा सांद्रता धरती से २5 किलोमीटर की ऊँचाई पर होती, है । जैसा कि हम जानते हैं कि सौर विकिरण में तमाम तरह, की किरणें होती हैं । इनमें दृश्य प्रकाश, अवरक्त किरणें, और पराबैंगनी किरणें होती हैं । पराबैंगनी किरणें अल्प, तरंगदैर्ध्य की किरणें होती हैं । ये किरणें काफी घातक होती, हैं क्योंकि इनमें ऊर्जा बहुत ज्यादा होती है ।, हमारे वायुमंडल में मौजूद ओजोन बाह्य अंतरिक्ष से, आने वाली पराबैंगनी किरणों को अवशोषित कर लेती है, और उन्हें धरती तक नहीं आने देती । यदि ये किरणें, बेरोक-टोक धरती की सतह तक चली आएँ तो इनसान के, साथ ही जीवमंडल के तमाम दूसरे जीव-जंतुओं को भारी, नुकसान हो सकता है । इन पराबैंगनी किरणों से मनुष्यों में, त्वचा के कैंसर से लेकर दूसरे अनेक तरह के रोग हो सकते, हैं । जिस तरह रोजमर्रा के जीवन में सामान्य छतरी धूप और, बरसात से हमारा बचाव करती है; उसी तरह वायुमंडल में, स्थित ओजोन की परत हमें घातक किरणों से बचाती है ।, इसीलिए प्राय: इसे ‘ओजोन छतरी’ के नाम से भी पुकारते, हैं । सभ्यता के आदिम काल से यह छतरी जीव-जंतुओं, और पेड़-पौधों की रक्षा करती रही है और उसके तले, सभ्यता फलती-फूलती रही है । विकास की अंधी दौड़ में, हमने संसाधनों का अंधाधुंध इस्तेमाल किया है । इस दौरान, हमें इस बात का ध्यान प्राय: कम ही रहा है कि इसका, दुष्प्रभाव क्या हो सकता है ! आज परिणाम हम सबके, सामने हैं । हमारे कारनामों से प्राकृतिक संतुलन चरमरा गया, है । भूमंडल पर शायद ही ऐसी कोई चीज शेष हो जो हमारे, क्रियाकलापों से प्रभावित न हुई हो । स्पष्ट है; ओजोन भी, इसका अपवाद नहीं है ।, आइए, अब देखें कि ओजोन का विघटन क्यों और, कैसे हो रहा है? जैसा कि हम जानते हैं कि दैनिक जीवन में, कीटनाशक, प्रसाधन सामग्री, दवाएँ, रंग-रोगन से लेकर, प्रशीतक (फ्रीज) और एयरकंडिशनिंग वगैरह में प्रशीतन का, अहम स्थान है । सन १९३० से पहले प्रशीतन के लिए, अमोनिया और सल्फर डाइ ऑक्साइड गैसों का इस्तेमाल, , 5२, , पृथ्वी, , बचाओ, , होता था लेकिन उनके इस्तेमाल में अनेक व्यावहारिक, कठिनाइयाँ थीं । उदाहरणार्थ - ये गैसें तीक्ष्ण थीं और मानव, स्वास्थ्य के लिए हानिकारक थीं । अत: वैज्ञानिकों को एक, अरसे से इनके उचित विकल्प की तलाश थी जो इन कमियों, से मुक्त हो । इस क्रम में तीस के दशक में थाॅमस मिडले, द्वारा क्लोरो फ्लोरो कार्बन (सी.एफ.सी.) नामक यौगिक, की खोज प्रशीतन के क्षेत्र में एक क्रांतिकारी उपलब्धि, रही । अध्ययन से पाया गया कि ये रसायन सर्वोत्तम, प्रशीतक हो सकते हैं क्योंकि ये रंगहीन, गंधहीन,, अक्रियाशील होने के साथ-साथ अज्वलनशील भी थे ।, इस तरह ये आदर्श प्रशीतक सिद्ध हुए । इसके बाद तो, प्रशीतन में सी.एफ.सी. का इस्तेमाल चल निकला ।, प्रशीतन उद्य ोग में अमोनिया और सल्फर डाइ ऑक्साइड, की जगह सी.एफ.सी. ने ले ली । इससे प्रशीतन प्रौद्योगिकी, में एक क्रांति-सी आ गई । तदनंतर बड़े पैमाने पर, सी.एफ.सी. यौगिकों का उत्पादन होने लगा और घरेलू, कीटनाशक, प्रसाधन सामग्री, दवाएँ, रंग-रोगन से लेकर, फ्रीज और एयरकंडिशनर में इनका खूब इस्तेमाल होने, लगा ।, सी.एफ.सी. यौगिकों का एक खास गुण है कि ये नष्ट, नहीं होते । इनका न तो आॅक्सीकरण होता है और न ही, अपघटन । ये पानी में भी नहीं घुलते । यहाँ स्वाभाविक रूप, से सवाल उठता है कि इस्तेमाल में आने वाले इन यौगिकों, का आखिर होता क्या है? सबसे पहले एक अमेरिकी, वैज्ञानिक एफ.एस.रोलैंड का ध्यान इस प्रश्न की ओर
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गया । उन्होंने इस दिशा में लगातार कई वर्षों तक अनुसंधान, किया । उनका शोधपत्र जब १९७4 में ‘नेचर’ नामक, प्रतिष्ठित पत्रिका में प्रकाशित हुआ तो पूरी दुनिया में एक, हलचल-सी मच गई । अपने पत्र में रोलैंड ने निष्कर्ष दिया, था कि ये यौगिक धरती की ओजोन परत को नष्ट कर चुके, हैं । शुरू में लोगों ने रोलैंड की बातों को कोई खास अहमियत, नहीं दी । कुछ लोगों ने उन्हें ‘आतंकित पर्यावरणवादी’, कहकर उनका उपहास किया लेकिन कुछ ही साल बाद, १९85 ई. में ब्रिटिश सर्वे टीम के कार्यों से रोलैंड की बात, सही साबित हो गई । टीम ने न केवल ओजोन विघटन की, पुष्टि की बल्कि अध्ययन करके बताया कि दक्षिणी ध्रुव, क्षेत्र में ओजोन की परत काफी छीज चुकी है और उसकी, वजह से वहाँ एक बड़ा छिद्र हो गया है । अमेरिकी उपग्रह, निंबस द्व ारा भेजे गए चित्र से भी रोलैंड की बात की पुष्टि, हुई । ब्रिटिश टीम ने चेताया भी कि यदि बहुत जल्दी ओजोन, विघटन को न रोका गया तो ओजोन परत के छीजने से आने, वाली पराबैंगनी किरणों से धरती के तापमान में वृद्धि होगी, तथा अनेकानेक तरह की त्वचा संबंधी व्याधियाँ, फैलेंगी । त्वचा के कैंसर के रोगियों की संख्या लाखों में, होगी ।, सी.एफ.सी. रसायन चूँकि हवा से हल्के होते हैं;, अत: इस्तेमाल में आने के बाद मुक्त होकर ये सीधे, वातावरण में ऊँचाई पर चले जाते हैं । वायुमंडल में ऊपर, पहुँचने पर ये यौगिक पराबैंगनी किरणों के संपर्क में आते हैं, जहाँ इनका प्रकाश अपघटन (फोटोलिसिस) होता है ।, फोटोलिसिस से क्लोरीनमुक्त मूलक पैदा होते हैं । क्लोरीन, के ये मुक्त मूलक ओजोन से अभिक्रिया करके उसे, आॅक्सीजन में बदल देते हैं । इस तरह ओजोन का ह्रास होने, से ओजोन की परत धीरे-धीरे छीजती जा रही है । वस्तुत:, आज ओजोन छतरी का अस्तित्व ही संकट में पड़ गया है ।, जिस सी.एफ.सी. को हम निष्क्रिय समझते थे; वह इतनी, सक्रिय है कि उससे निकला एक क्लोरीनमुक्त मूलक, ओजोन गैस के एक लाख अणुओं को तोड़कर आॅक्सीजन, में बदल देता है । ऐसा श्रृंखला अभिक्रिया के कारण होता, है । यहाँ गौरतलब है कि सन १९७4 में पूरी दुनिया में, सी.एफ.सी. की खपत ९ लाख टन थी । पिछले कई वर्षों, के शोध से मालूम हुआ है कि दक्षिणी ध्रुव के ऊपर मौजूद, छिद्र आकार में बढ़ता जा रहा है । हाल के वर्षों में उत्तरी, , 5३, , ध्रुव के ऊपर भी ओजोन के विघटन और ओजोन आवरण, में छिद्र पाए जाने की सूचना मिली है जो बेहद चिंतनीय है ।, ओजोन संकट पर विचार करने के लिए दुनिया के, अनेक देशों की पहली बैठक १९85 में विएना में हुई । बाद, में सितंबर १९8७ में कनाडा के शहर मांट्रियल में बैठक हुई, जिसमें दुनिया के 48 देशों ने भाग लिया था । इस बैठक में, जिस मसौदे को अंतिम रूप दिया उसे मांट्रियल प्रोटोकॉल, कहते हैं । इसके तहत यह प्रावधान रखा गया कि सन, १९९5 तक सभी देश सी.एफ.सी. की खपत में 5० प्रतिशत, की कटौती तथा १९९७ तक 85 प्रतिशत की कटौती, करेंगे । मसौदे के कई बिंदुओं पर विकसित और विकासशील, देशों के बीच मतभेद उभरकर सामने आए । मुद्दा था गैर, सी.एफ.सी. प्रौद्योगिकी तथा उसका हस्तांतरण ।, विकासशील देश चाहते थे कि इसपर आने वाला खर्च धनी, देश वहन करें क्योंकि ओजोन विघटन के लिए वे ही, जिम्मेदार हैं । सन १९९० के ताजा आँकड़ों के अनुसार पूरी, दुनिया में सी.एफ.सी. की खपत १२ लाख टन तक पहुँच, गई थी जिसकी ३० प्रतिशत हिस्सेदारी अकेले अमेरिका, की थी । भारत का प्रतिशत मात्र ०.६ था । भारत की तुलना, में अमेरिका की सी.एफ.सी. की खपत 5० गुना ज्यादा, थी । समस्या पर विचार करने के लिए लंदन में एक बैठक, हुई जहाँ नए प्रशीतनों की खोज और पुरानी तकनीक में, विस्थापन के लिए एक कोष बनाने की माँग की गई । यहाँ, विकासशील देशों के दबाव के चलते विकसित देशों को, कई रियायतें देनी पड़ीं । इसके अंतर्गत नई तकनीकों के, हस्तांतरण में मदद के साथ-साथ सी.एफ.सी. के विकल्प, की खोज में दूसरे देशों को धन मुहैया कराना मुख्य है ।, समझौते के तहत यह व्यवस्था है कि सन २०१० तक, विकासशील देश सी.एफ.सी. का इस्तेमाल एकदम बंद कर, देंगे । इस दौरान विकसित देश नए प्रशीतकों की खोज में, विकासशील देशों की आर्थिक मदद करेंगे ।, स्थिति की गंभीरता को देखते हुए दुनिया के सभी देशों, ने इस बारे में विचार करके समुचित कदम उठाने शुरू कर, दिए हैं । ‘ग्रीनहाउस’ के प्रभाव के कारण आज धरती का, तापमान निरंतर बढ़ रहा है । इसमें ओजोन विघटन की भी, अहम भूमिका है । पराबैंगनी किरणें जब धरती तक आती हैं, तो स्थलमंडल में मौजूद वस्तुओं द्वारा अवशोषित कर ली, जाती हैं । ये वस्तुएँ पराबैंगनी के अवशोषण के बाद अवरक्त
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विकिरण उत्सर्जित करती हैं । ये किरणें वापस वायुमंडल के, बाहर नहीं जा पातीं क्योंकि हवा में मौजूद कई गैसें उन्हें, अवशोषित कर लेती हैं । इस तरह से धरती का तापमान, बढ़ता है । तापमान बढ़ने से ध्रुवों पर जमी हुई विशाल बर्फ, राशि के पिघलने के समाचार भी आ रहे हैं । यदि ऐसा होता, रहा तो समुद्र का जलस्तर बढ़ेगा और तमाम तटीय क्षेत्र, पानी में डूब सकते हैं । तापवृद्धि से जलवायु में जबर्दस्त, बदलाव आ सकता है । मानसून में परिवर्तन के साथ कहीं, अतिवृष्टि तो कहीं अकाल जैसी स्थिति आ सकती है । वैसे, विगत एक सदी के दौरान भूमंडल में काफी परिवर्तन पाया, गया है । हाल ही में शोध के बाद पाया गया कि हिमालय में, गंगोत्री स्थित गोमुख हिमनद हर साल १8 मीटर पीछे की, ओर खिसकता जा रहा है । अगर यही हाल रहा तो संभव है, कि इक्कीसवीं सदी के प्रथमार्ध तक यही हिमनद तथा साथ, , सामरिक = युद्ध से संबंधित , विघटन = अलगाव/तोड़ना, प्रशीतक = फ्रीज, यौगिक = दो या अधिक तत्त्वों से बना हुआ, मुहैया = पूर्ति करना, पहुँचाना, , ही हिमालय के दूसरे हिमनद भी गलकर समाप्त हो जाएँ ।, ऐसे में उत्तर भारत में बहने वाली नदियों का अस्तित्व मिट, जाएगा और मैदानों की उपजाऊ भूमि ऊसर में बदल जाने से, कोई रोक नहीं सकेगा । अगर समय रहते स्थिति पर काबू, नहीं पाया गया तो इसके गंभीर परिणामों से इनकार नहीं, किया जा सकता । ओजोन विघटन के व्यापक दुष्प्रभावों के, चलते इनसानी सभ्यता संकटापन्न है । अत: जरूरत है कि, फौरन इससे निपटने के लिए समग्र कदम उठाए जाएँ अन्यथा, कल तक तो शायद बहुत देर हो जाएगी ।, , शब्दार्थ, , 54, , (‘ लोक विज्ञान : समकालीन रचनाएँ ’ संग्रह से), ०, , दोहन = अनियंत्रित उपयोग, सांद्र = घना, स्निग्ध, प्रशीतन = ठंडा करने की प्रक्रिया, छीजना = क्षय होना, घट जाना, ऊसर = बंजर, अनुपजाऊ
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अनूदित साहित्य , ११. कोखजाया, मूल लेखक - श्याम दरिहरे, अनुवादक - बैदय् नाथ झा, लेखक परिचय ः श्याम दरिहरे जी का जन्म १९ फरवरी १९54 को बिहार के मधुबनी जिले में हुआ । आप मैथिली भाषा के, चर्चित रचनाकार माने जाते हैं । मैथिली भाषा में कहानी, उपन्यास तथा कविता में आपने अपनी लेखनी का श्रेष्ठत्व सिद्ध, किया है । आपने ‘कनुप्रिया’ काव्य का मैथिली भाषा में अनुवाद किया है । आपकी समग्र रचनाएँ भारतीय संस्कृति में, आधुनिक भावबोध को परिभाषित करती हैं । परिणामत: आपकी रचनाएँ पुरानी और नई पीढ़ी के बीच सेतु का कार्य करती, हैं । आपका समस्त साहित्य मैथिली भाषा में रचित है तथा संप्रेषणीयता की दृष्टि से भाव एवं बोधगम्य है । आपकी सहज, और सरल मैथिली भाषा पाठकों के मन पर दूर तक प्रभाव छोड़ जाती है । प्रस्तुत कहानी का हिंदी में अनुवाद बैद्यनाथ झा, ने किया है ।, प्रमुख कृतियाँ ः ‘घुरि आउ मान्या’, ‘जगत सब सपना’, ‘न जायते म्रियते वा’ (उपन्यास), ‘सरिसो में भूत’, ‘रक्त संबंध’, (कथा संग्रह), ‘गंगा नहाना बाकी है’, ‘मन का तोरण द्व ार सजा है’ (कविता संग्रह) आदि ।, विधा परिचय ः अनूदित साहित्य का हिंदी साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान है । अनूदित कहानी विधा में जीवन के किसी एक, अंश अथवा प्रसंग का चित्रण मिलता है । ये कहानियाँ प्रारंभ से ही सामाजिक बोध को व्यक्त करती रही हैं । समाज के बदलते, मूल्यों एवं विचार तथा दर्शन ने सामाजिक कहानियों को प्रभावित किया है ।, पाठ परिचय ः वर्तमान मानव समाज के केंद्र में धन, विलासिता, सुख-सुविधाओं को स्थान प्राप्त हो चुका है । पारिवारिक, व्यवस्था में भी बहुत बड़ा बदलाव आ गया है । पैसे ने रिश्तों का रूप धारण कर लिया है तो रिश्ते निरर्थक होते जा रहे हैं ।, यही कारण है कि दिलीप अपने पिता की मृत्यु के पश्चात माँ-पिता का घर बेचकर सारा पैसा अपने नाम कर लेता है और, अपनी माँ को अपने साथ विदेश ले जाने के बदले हवाई अड्ड े पर निराधार हालत में छोड़ जाता है । माँ जो एक आई.ए.एस., अधिकारी की पत्नी हैं; वृदध् ाश्रम में रहने को अभिशप्त हो जाती हैं । शायद यही नियति है... आज के वृद्धों की ! लेखक, के अनुसार मनुष्य की इस प्रवृत्ति को बदलना होगा और रिश्तों को सार्थकता प्रदान करनी होगी ।, वृद्धाश्रम के प्रबंधक का फोन कॉल सुनकर मैं, अवाक्रह गया । मौसी इस तरह अचानक संसार से चली, जाएगी; इसका अनुमान नहीं था । ऑफिस से अनुमति, लेकर तुरंत विदा हो गया । संग में पत्नी और चार सहकर्मी, भी थे । मन बहुत दुखी हो रहा था- ओह ! भगवान भी, कैसी-कैसी परिस्थितियों में लोगों को डालते रहते हैं ।, गाड़ी में बैठे-बैठे मुझे उस दिन की याद हो आई जब, मैं पहली बार वृद्धाश्रम में मौसी से मिलने आया था ।, पूछते-पूछते जब मैं वृद्धाश्रम पहुँचा था तो दिन डूबने को, था । शहर से कुछ हटकर बना वृद्धाश्रम का साधारण-सा, घर देखकर आश्चर्य लगा कि भारत सरकार के पूर्व वित्त, सचिव की विधवा इस वृद्धाश्रम में किस प्रकार गुजारा कर, रही होंगी । संपूर्ण जीवन बड़ी-बड़ी कोठियों-बंगलों में, , रहने वाली मौसी अंतिम समय में शहर से दूर दस-बीस, अनजान, बूढ़ी, अनाथ महिलाओं के साथ किस प्रकार, रहती होंगी । ऐसी जिंदगी की तो उसे कल्पना तक नहीं रही, होगी, मैंने सोचा था ।, सामने एक बोर्ड लगा था जिसपर अंग्रेजी में लिखा, था ‘‘मातेश्वरी महिला वृद्धाश्रम’’ । दीवाल पर एक स्विच, लगा हुआ दीखा । उसको दबाने से लगा कि अंदर कोई घंटी, घनघना उठी । कुछ ही पलों के बाद फाटक का छोटा-सा, भाग खिसकाकर एक व्यक्ति ने पूछा, ‘‘क्या बात है, श्रीमान?’’, ‘‘मुझे मिसेज गंगा मिश्र से मिलना है ।’’ मैंने कहा ।, ‘‘आपका नाम?’’, ‘‘रघुनाथ चौधरी ।’’, , 5७
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‘‘ठीक है । आप यहीं प्रतीक्षा कीजिए । मैं उनसे पूछ, लेता हूँ कि वे आपसे मिलना चाहती हैं या नहीं ।’’ यह, कहकर उस व्यक्ति ने फाटक फिर से बंद कर लिया ।, लगभग दस मिनट तक मैं कार में बैठा प्रतीक्षा करता, रहा तब जाकर वह गेट खुला और मैं कारसहित अंदर, दाखिल हुआ । बाहर से बहुत छोटा दिखने वाला यह, वृद्धाश्रम अंदर से काफी बड़ा था । मन में संतोष हुआ कि, मौसी अनजान लोगों के बीच तो अवश्य पड़ गई हैं परंतु, व्यवस्था बुरी नहीं है । कार पार्क करने के बाद उस व्यक्ति, के साथ विदा हुआ ।, ‘‘मिसेज गंगा मिश्रा जिस दिन से यहाँ आई हैं तबसे, आप प्रथम व्यक्ति हैं जिनसे उन्होंने मिलना स्वीकार किया, है ।’’ वह व्यक्ति चलते-चलते कहने लगा, ‘‘कैसे-कैसे, लोग कई-कई दिनों तक आकर गिड़गिड़ाते रहे और लौट, गए परंतु मैडम टस-से-मस नहीं हुई । अभी जब मैंने, आपका नाम कहा तो वे रोने लगीं । मैं प्रतीक्षा करता खड़ा, था । थोड़ी देर बाद आँसू पोंछकर बोलीं, ‘‘बुला लाइए ।’’, मैंने कोई जवाब नहीं दिया ।, ‘‘वे आपकी कौन होंगी?’’ फिर उसी ने पूछा ।, ‘‘मौसी ।’’, , 58, , ‘‘आप लोग क्या बहुत बड़े लोग हैं?’’, ‘‘बड़े लोगों की माँएँ क्या वृद्धाश्रम में ही अपना, जीवन गुजारती हैं?’’ मैंने दुख से प्रतिप्रश्न किया ।, ‘‘आजकल बड़े लोग ही अपने माँ-बाप को अंतिम, समय में वृद्धाश्रम भेजने लगे हैं । उनके पास समय ही नहीं, होता अपने माँ-बाप के लिए ।’’ वह फिर कहने लगा,, ‘‘गरीब घर के बूढ़े तो कष्ट और अपमान सहकर भी बच्चों, के साथ ही रहने को अभिशप्त हैं । उनकी पहुँच इस तरह के, वृद्धाश्रम तक कहाँ है?’’, मैंने फिर चुप रहना ही उचित समझा ।, वह व्यक्ति मुझे बाग के छोर पर अकेली बैठी एक, महिला की ओर संकेत कर वापस चला गया । मैं वहाँ, जाकर मौसी को देख अति दुखी हो गया । कुछ महीने पूर्व, ही मौसी को बुलंदी पर देखकर गया था लेकिन अभी मौसी, एकदम लस्त-पस्त लग रही थीं । बेटे के विश्वासघात और, अपनी इस दुर्दशा पर व्यथित हो गई थीं ।, मैंने प्रणाम किया तो उसने मेरा माथा सहला दिया, लेकिन मुँह से कुछ नहीं बोलीं । मौसी को इस परिस्थिति में, देखकर मैं सिर झुकाकर रोने लगा था । मेरी मौसी प्रतिभावान, और प्रसिद्ध आई.ए.एस. अधिकारी की पत्नी थीं । मौसा, एक-से-एक बड़े पद पर रहकर भारत सरकार के वित्त, सचिव के पद से रिटायर हुए थे । फिर भी मौसी को कभी, अपने पति के पद और पाॅवर का घमंड नहीं हुआ । वह, सबके काम आईं और आज उनका कोई नहीं । अपना बेटा, ही जब... ।, बहुत देर तक हम दोनों रोते रहे । फिर मौसी ने ही, साहस किया और मुझे भी चुप कराया । उसके बाद मौसी ने, पहली बार सारी घटना मुझे विस्तारपूर्वक बतलाई ।, मैं किसी से नहीं मिली । तुम्हारा मौसेरा भाई (मौसी का, बेटा, दिलीप) भी मिलने और माफी माँगने पहुँचा था परंतु, मैं उससे मिली ही नहीं । अब मेरा शव ही इस गेट से बाहर, जाएगा । तुम्हें जब कभी समय मिले; यहीं आकर मिलते, रहना । कभी-कभी अपनी पत्नी को भी लाना । अब, जाओ, बहुत विलंब हो गया ।’’ गाड़ी में बैठते ही रघुनाथ, अतीत में पहुँच गया ।, मेरी माँ मिलकर दो बहनें ही थीं । मेरा कोई मामा, नहीं था । मेरी माँ बड़ी थीं । मेरे नाना एक खाते-पीते, किसान थे । उन्होंने अपनी दोनों बेटियों का विवाह कॉलेज
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में पढ़ते दो विद्यार्थियों से ही कुछ साल के अंतराल पर, किया था । मेरे पिता जी बी.ए. करने के बाद अपने गाँव में, खेती-बाड़ी सँभालने लगे थे । मौसा पढ़ने में प्रतिभाशाली, थे । वे अंतत: आई.ए.एस. की प्रतियोगिता परीक्षा में सफल, हो गए । मौसा जब गुजरात में जिलाधिकारी थे तो नाना का, देहांत हुआ था । नानी पहले ही जा चुकी थीं । नाना का, श्राद्ध बहुत बड़ा हुआ था । श्राद्ध का पूरा खर्च मौसी ने ही, किया था । मेरी माँ की उसने एक नहीं सुनी थीं । नाना की, संपत्ति का अपना हिस्सा भी मौसी ने मेरी माँ को लिखकर, सौंप दिया था ।, कुछ दिनों के बाद मेरे पिता जी नाना के ही गाँव में, आकर बस गए । अब हम लोगों का गाँव नाना का गाँव ही, है । इसलिए मौसी से संबंध कुछ अधिक ही गाढ़ा है । मेरी, पढ़ाई-लिखाई में भी मौसी का ही योगदान है । मौसी का, बेटा दिलीप हमसे आठ बरस छोटा था । वह अपने माँ-बाप, की इकलौती संतान था । वह पढ़ने में मौसा की तरह ही, काफी प्रतिभावान था ।, मैं पढ़-लिखकर नौकरी करने लगा । मौसी से, भेंट-मुलाकात कम हो गई । दिलीप का एडमिशन जब एम्स, में हुआ था तो मौसा की पोस्टिंग दिल्ली में ही थी । उसने, मेडिकल की पढ़ाई भी पूरे ऐश-ओ-आराम के साथ की, थी । आगे की पढ़ाई के लिए वह लंदन चला गया । एक, बार जो वह लंदन गया तो वहीं का होकर रह गया । जब तक, विवाह नहीं हुआ था तब तक तो आना-जाना प्राय: लगा, रहता था । विवाह के बाद उसकी व्यस्तता बढ़ती गई तो, आना-जाना भी कम हो गया । मौसी भी कभी-कभी लंदन, आती-जाती रहती थीं ।, मौसी जब कभी अपनी ससुराल आती थीं तो नैहर, भी अवश्य आती थीं । एक बार गाँव में अकाल पड़ा था ।, वह अकाल दूसरे वर्ष भी दुहरा गया । पूरे इलाके में हाहाकार, मचा था । मौसी उन लाेगों की हालत देखकर द्रवित हो, गईं । उसने अपनी ससुराल से सारा जमा अन्न मँगवाया और, बाजार से भी आवश्यकतानुसार क्रय करवाया । तीसरे ही, दिन से भंडारा खुल गया । मौसी अपने गाँव की ही नहीं, बल्कि पूरे इलाके की आदर्श बेटी बन गई थीं ।, मैं बर्लिन में ही था कि यहाँ बहुत कुछ घट गया ।, जीवन के सभी समीकरण उलट-पुलट गए । मौसा अचानक, हृदय गति रुक जाने के कारण चल बसे । मौसी का जीवन, , एकाएक ठहर-सा गया । मौसा का अंतिम संस्कार दिलीप, के आने के बाद संपन्न हुआ था । मौसा का श्राद्ध उनके, गाँव में जाकर संपन्न किया गया ।, वे लोग जब गाँव से वापस आए तो दिलीप का, रंग-ढंग बदला हुआ था । वह पहले मौसा की पेंशन मौसी, के नाम से ट्रांसफर करवाने और लंदन ले जाने के लिए वीज़ा, बनवाने के काम में लग गया । उसी के बहाने उसने मौसी से, कई कागजातों पर हस्ताक्षर करवा लिए । मौसी उसके कहे, अनुसार बिना देखे-सुने हस्ताक्षर करती रहीं । उसे भला, अपने ही बेटे पर संदेह करने का कोई कारण भी तो नहीं, था । जब तक वह कुछ समझ पातीं; उसका जमीन, मकान, सब हाथ से निकल चुका था । दिलीप ने धोखे से उस मकान, का सौदा आठ करोड़ रुपये में कर दिया था । मौसी को जब, इसका पता चला तो उसने एक बार विरोध तो किया परंतु, दिलीप ने यह कहकर चुप करा दिया, ‘जब तुम भी मेरे साथ, लंदन में ही रहोगी तो फिर यहाँ इतनी बड़ी संपत्ति रखने का, कोई औचित्य नहीं है ।’, दिलीप ने लंदन यात्रा से पूर्व घर की लिखा-पढ़ी, समाप्त कर ली । घर की सारी संपत्ति औने-पौने दामों में, बेच डाली । मौसी अपनी सारी गृहस्थी नीलाम होते देखती, रहीं । उसकी आँखों से आँसू पोंछने का समय किसी के पास, नहीं था । वे तो रुपये सहेजने में व्यस्त थे । बाप का मरना, दिलीप के लिए लाॅटरी निकलने जैसा था । उसे लंदन में, अपना घर खरीदने में आसानी हो जाने की प्रसन्नता थी ।, वह अपने प्रोजेक्ट पर काम करता रहा और मौसी पल-पल, उजड़ती रहीं ।, फिर लंदन यात्रा की तिथि भी आ गई । सभी लोग, दो टैक्सियों में एअरपोर्ट पहुँचे । अंदर जाने के बाद मौसी को, एक कुर्सी पर बिठाते हुए दिलीप ने कहा, ‘‘तुम यहीं बैठो ।, , 5९
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हम लोग लगेज जाँच और बोर्डिंग कराकर आते हैं ।, इमिग्रेशन के समय सब साथ हो जाएँगे ।’’, जब काफी समय बीत गया तो उसे चिंता होने लगी, कि बेटा-बहू कहाँ चले गए । लगेज में कोई झंझट तो नहीं, हो गया । वह उठकर अंदर के गेट पर तैनात सिक्यूरिटी के, पास जाकर बोलीं, ‘‘मेरा बेटा दिलीप मिश्रा लंदन के, फ्लाइट में बोर्डिंग कराने गया था । मुझे यहीं बैठने बोला, था, परंतु उसे गए बहुत देर हो गई है । वह कहाँ है, इसका, पता कैसे चलेगा?’’, ‘‘आपका टिकट कहाँ है?’’ सिक्यूरिटी ने पूछा ।, ‘‘मेरा भी टिकट उसी के पास है ।’’, ‘‘आपकी फ्लाइट कौन-सी है?’’, ‘‘ब्रिटिश एअरवेज ।’’, ‘‘ठीक है, आप बैठिए । मैं पता लगाकर आता, हूँ ।’’ कहकर वह अफसर बोर्डिंग काउंटर की ओर बढ़, गया । मौसी फिर उसी कुर्सी पर आकर बैठ गईं ।, थोड़ी देर के बाद एक सिपाही आकर मौसी से, बोला, ‘‘मैडम, आपको हमारे सिक्यूरिटी इंचार्ज अफसर ने, आॅफिस में आकर बैठने को बुलाया है ।’’, ‘‘ऐसा क्यों?’’ मौसी ने आश्चर्य से कहा ।, ‘‘मुझे पता नहीं है ।’’ सिपाही बोला ।, मौसी का मन किसी अनहोनी आशंका से अकुला, उठा । वह विदा होने लगीं तो उस सिपाही ने पूछा, ‘‘आपका, लगेज कौन-सा है?’’, अब मौसी की नजर पहली बार बगल में दूसरी ओर, घुमाकर रखी एक ट्राॅली की ओर गई । उसपर मात्र उसका, सामान इस प्रकार रखा था ताकि उसकी नजर सहज रूप से, उसपर नहीं पड़े । वह सिपाही ट्राॅली चलाते हुए मौसी के, साथ चल पड़ा ।, सिक्यूरिटी आॅफिस में सात-आठ अफसर जमा थे ।, सभी चिंतित दिखलाई दे रहे थे । मौसी के प्रवेश करते ही वे, सभी उठकर खड़े हो गए ।, मौसी को बहुत आश्चर्य हुआ कि उन लोगों को मेरा, परिचय कैसे पता चल गया ।, मौसी के बैठने के बाद एक अफसर बोला, ‘‘मैडम,, मैं आपको एक दुख की बात बताने जा रहा हूँ ।’’, ‘‘क्या हुआ?’’ मौसी ने चिंता से अकुलाते हुए, पूछा । ‘‘आपका बेटा आपको यहीं छोड़कर लंदन चला, , ६०, , गया है । उसने आपका टिकट सरैंडर कर दिया है ।’’ वह, अफसर बोला ।, ‘‘इसका क्या अर्थ हुआ?’’ मौसी ने अविश्वास, और आश्चर्य से पूछा ।, ‘‘मैम, आपके बेटे ने आपके साथ धोखा किया है ।, वह आपको यहीं बैठा छोड़कर लंदन चला गया । लंदन के, लिए ब्रिटिश एअरवेज की फ्लाइट को उड़े आधा घंटा हो, चुका है । आज अब और कोई फ्लाइट नहीं है । आपका, टिकट भी सरैंडर हो चुका है ।’’ उस अफसर ने स्पष्ट करते, हुए कहा ।, ‘‘ऐसा कैसे होगा !! ऐसा करने की उसे क्या जरूरत, है ! नहीं-नहीं आप लोगों को अवश्य कोई धोखा हुआ, है । अाप लोग एक बार फिर अच्छी तरह पता लगाइए । मैं, भारत सरकार के पूर्व वित्त सचिव की पत्नी हूँ । आप लोग, इस तरह मुझे गलत सूचना नहीं दे सकते । आप लोग फिर, पता लगाइए । मेरा तो घर भी बेच दिया है मेरे बेटे ने । फिर, मुझे यहाँ कैसे छोड़ सकता है !!’’ मौसी बहुत अप्रत्याशित, व्यवहार करने लगी थीं और हाँफने लगी थीं ।, मौसी कुछ नहीं बोल रही थीं । मौसी को चुप देख वे, लाेग भी फिर चुप हो गए । थोड़ी देर बाद सभी अफसरों को, सतर्क होते देख मौसी समझ गईं कि आई.जी. साहब आ, गए । आई.जी. साहब ने आते ही हाथ जोड़कर मौसी को, प्रणाम किया और बोले, ‘‘मैडम, मेरा नाम है अमित गर्ग ।, मिश्रा सर जब इंडस्ट्री विभाग में थे तो मैं उनके अधीन कार्य, कर चुका हूँ । मिश्रा सर का बहुत उपकार है इस विभाग, पर । मुझे सब कुछ पता चल चुका है । आपका आदेश हो, तो दिलीप को हम लोग लंदन एअरपोर्ट पर ही रोक लेने का, प्रबंध कर सकते हैं ।’’, गर्ग साहब को देखते ही मौसी उन्हें पहचान गई थीं, परंतु चुप ही रहीं । बहुत आग्रह करने पर वह बोलीं, ‘‘मैं, किसी अच्छे वृद्धाश्रम में जाना चाहती हूँ । आप लोग यदि, उसमें मेरी सहायता कर दें तो बड़ा उपकार होगा ।’’, गर्ग साहब ने अपने वचन का पालन किया । उन्होंने, ही मौसी की इस मातेश्वरी वृद्धाश्रम में व्यवस्था करा दी, थी । आई.ए.एस. एसोसिएशन ने भारत से लेकर इंग्लैंड, तक हंगामा खड़ा कर दिया । मीडिया ने भी भारत की स्त्रियों, और वृद्धों की दुर्दशा पर लगातार समाचार प्रसारित किए, तथा बहस करवाई । इतने बड़े पदाधिकारी की विधवा के
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साथ यदि बेटा ऐसा व्यवहार कर सकता है तो दूसरों की, क्या हालत होगी । घर का खरीददार घर वापस करने और, दिलीप सारा मूल्य वापस करने को तैयार हो गया । अंतत:, कुछ भी हो नहीं सका क्योंकि मौसी कुछ करने को तैयार, नहीं हुईं । दिलीप और उसके परिवार का मुँह देखने के लिए, मौसी कदापि तैयार नहीं हुईं । वह बहुत छटपटाया, बहुत, गिड़गिड़ाया परंतु मौसी टस-से-मस नहीं हुईं । उसने मेरे, पास भी बहुत पैरवी की परंतु कोई लाभ नहीं हुआ । दिलीप, को पश्चाताप हुआ कि नहीं; यह तो मैं बता नहीं सकता, परंतु वह लोकलज्जा से ढक अवश्य गया था ।, उसके बाद मैं प्रयास करने लगा कि इतनी बड़ी, घटना के बाद भी मौसी का विश्वास जीवन के प्रति बचा, रहे ।, फिर प्रत्येक रविवार पत्नी के साथ मौसी से मिलने, आने लगा था । प्रत्येक भेंट में मौसी एक सोहर अवश्य, गाती थीं और गाते-गाते रोने लगती थीं ‘‘ललना रे एही लेल होरिला, जनम लेल वंश के तारल रे ।, ललना रे नारी जनम कृतारथ, बाँझी पद छूटल रे ।, ललना रे सासु मोरा उठल नचइते, ननदि गबइते रे ।, ललना रे कोन महाव्रत ठानल, पुत्र हम पाओल रे ।’’, मेरी पत्नी भी मौसी के संग सोहर गाने और रोने में, मौसी का साथ देती थी । मैं भावुक होकर बगीचे की ओर, निकल जाता था ।, आज अब उस अध्याय का अवसान हो गया है ।, मौसी लगभग सात वर्ष इस आश्रम में बिताकर आज संसार, से चली गई हैं । इस अवधि में वह एक दिन भी चहारदीवारी, , अवाक्= चुप, कुछ न बोलना, नैहर = मायका, पीहर, औने-पौने दामों में = कम दामों में, अकुलाना = व्याकुल होना, पैरवी = समर्थन में स्पष्टीकरण देना, , के बाहर नहीं गईं । एक बार जो अंदर आईं तो आज अब, उसका... ।, ट्रस्ट के सचिव ने मुझे एक लिफाफा देते हुए कहा,, ‘‘गंगा मैडम दाह संस्कार करने का अधिकार आपको देकर, गई हैं । शेष आप इस लिफाफे को खोलकर पढ़ लीजिए ।’’, लिफाफे में दो पन्ने का पत्र और एक बिना तिथि का, चेक था । वह चेक मेरे नाम से था जो अपने श्राद्ध खर्च के, लिए उसने दिया था ।, पत्र के अंत में मौसी ने लिखा था, ‘‘अपनी कोख, का जाया बेटा मुझे जिंदा ही मारकर विदेश भाग गया और, तुमने अंत तक मेरा साथ दिया । तुम्हें देखकर सदा मेरा, विश्वास जीवित रहा कि सभी संतानें एक जैसी नहीं होती, हैं । इसी विश्वास के सहारे इस संसार से जा रही हूँ कि जब, तक एक भी सपूत संसार में रहेगा तब तक माँएँ हजार कष्ट, सहकर भी संतान को जन्म देती रहेंगी और संसार चलता, रहेगा । इसका श्रेय माँ और सपूत दोनों को है । तुम्हारे जैसा, पुत्र भगवान सबको दें ।’’, इन पंक्तियों को पढ़कर मैं अपने को और अधिक, नहीं रोक सका । मैं जोर-जोर से रोने लगा । मेरी पत्नी भी, फूट-फूटकर रो पड़ी । वह रोते-रोते गाने भी लगी- ‘ललना, रे एही लेल होरिला, जनम लेल वंश के तारल रे...’, (‘ रक्त संबंध’ कहानी संग्रह से), ०, , शब्दार्थ, , अभिशप्त = शापित, जिसे कोई शाप मिल गया है, क्रय = खरीदना, सहेजना = बटोरना, अच्छी तरह से समेटकर रखना, अप्रत्याशित = अनपेक्षित, आशा के विरुद्ध, होरिला = बेटा, नवजात शिशु, , मुहावरे, टस-से-मस न होना = अपनी बात पर अटल रहना, द्रवित हो जाना = मन में दया/करुणा उत्पन्न होना, , हाहाकार मचना = कोहराम मचना, चल बसना = मृत्यु होना, , ६१
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१३. विशेष अध्ययन हेतु : कनुप्रिया, - डॉ. धर्मवीर भारती, लेखक परिचय ः डॉ. धर्मवीर भारती जी का जन्म, २5 दिसंबर १९२६ को उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में हुआ ।, आपने इलाहाबाद में ही बी.ए. तथा एम.ए. (हिंदी साहित्य), किया । आपने आचार्य धीरेंद्र वर्मा के निर्देशन में ‘सिद्ध, साहित्य’ पर शोध प्रबंध लिखा । यह शोध प्रबंध हिंदी साहित्य, अनुसंधान के इतिहास में विशेेष स्थान रखता है । आपने १९5९, तक अध्यापन कार्य किया । पत्रकारिता की ओर झुकाव होने के, कारण भारती जी ने मुंबई से प्रकाशित होने वाले टाइम्स ऑफ, इंडिया पब्लिकेशन के प्रकाशन ‘धर्मयुग’ का संपादन कार्य वर्षों, तक किया । भारती जी की मृत्यु 4 सितंबर १९९७ को हुई ।, प्रयोगवादी कवि होने के साथ-साथ आप उच्चकोटि के, कथाकार तथा समीक्षक भी हैं । आपकी प्रयोगवादी तथा नयी, कविताओं में लोक जीवन की रूमानियत की झाँकी मिलती, है । आप एक ऐसे प्रगतिशील साहित्यकार कहे जा सकते हैं जो, समाज और मूल्यों को यथार्थपरकता से देखते हैं । एक ऐसे, दुर्लभ, असाधारण लेखकों में आपकी गिनती है जिन्होंने अपनी, सर्वतोमुखी प्रतिभा से साहित्य की हर विधा को एक नया,, अप्रत्याशित मोड़ दिया है । आप अपने साहित्य में एक ताजा, मौलिक दृष्टि लेकर आए । आपने सामाजिक संदर्भों,, असंगतियों, अव्यवस्थाओं को उस दृष्टि से आँका है जो उन असंगतियों और अव्यवस्थाओं को दूर करने की अपेक्षा रखती, है । आपको ‘पद्मश्री’, ‘व्यास सम्मान’ एवं अन्य कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से अलंकृत किया गया है ।, प्रमुख कृतियाँ ः ‘गुनाहों का देवता’, ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ (उपन्यास), ‘सात गीत वर्ष’, ‘ठंडा लोहा’, ‘कनुप्रिया’, (कविता संग्रह), ‘मुर्दों का गाँव’, ‘चाँद और टूटे हुए लोग’, ‘आस्कर वाइल्ड की कहानियाँ’, ‘बंद गली का आखिरी मकान’, (कहानी संग्रह), ‘नदी प्यासी थी’ (एकांकी), ‘अंधा युग’, ‘सृष्टि का आखिरी आदमी’ (काव्य नाटक), ‘सिद्ध साहित्य’, (साहित्यिक समीक्षा), ‘एक समीक्षा’, ‘मानव मूल्य और साहित्य’, ‘कहानी-अकहानी’, ‘पश्यंती’ (निबंध) आदि ।, कृति परिचय ः आधुनिक काल के रचनाकारों में डॉ. धर्मवीर भारती मूर्धन्य साहित्यकार के रूप में प्रतिष्ठित हैं । ‘कनुप्रिया’, भारती जी की अनूठी और अद्भुत कृति है जो कनु (कन्हैया) की प्रिया अर्थात राधा के मन में कृष्ण और महाभारत के पात्रों, को लेकर चलने वाला काव्य है । ‘कनुप्रिया’ कृति हिंदी साहित्य और भारती जी के लिए ‘मील का पत्थर’ सिद्ध हुई है ।, कनुप्रिया पर समीक्षात्मक पुस्तकें लिखी गईं, परिचर्चाएँ भी हुईं परंतु ‘कनुप्रिया’ का काव्य प्रकार अब तक कोई भी समीक्षक, निर्धारित नहीं कर पाया है कि यह महाकाव्य है या खंडकाव्य ! उसे गीतिकाव्य कहें अथवा गीतिनाट्य । परिणामत: ‘कनुप्रिया’, निश्चित रूप से किस काव्यवर्ग के अंतर्गत आती है; यह कहना कठिन हो जाता है ।, कुछ आलोचकों के अनुसार ‘कनुप्रिया’ महाकाव्य नहीं है । वैसे तो ‘कनुप्रिया’ में महाकाव्य के अनेक लक्षण विद्यमान, हैं किंतु उनका स्वरूप परिवर्तित है । इसमें नायक प्रधान न होकर; नायिका प्रधान है । काव्य में सर्गबद्धता है परंतु ‘कनुप्रिया’, आधुनिक मूल्यों की नई कविता होने के कारण इसमें छंद निर्वाह का प्रश्न अप्रासंगिक है । प्रकृति चित्रण अवश्य है परंतु वह, स्वतंत्र विषय नहीं; उपादान बनकर उपस्थित है । संक्षेप में कहना हो तो कनुप्रिया में महाकाव्य के संपूर्ण लक्षण अपने शास्त्रीय, रूप में प्राप्त नहीं हैं ।, , ६९
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कुछ आलोचकों के अनुसार ‘कनुप्रिया’ में भारती जी ने सर्ग के रूप में गीत दिए हैं परंतु इन गीतों को यदि, अलग-अलग रूप में देखें तो ये अपने-आप में पूर्ण लगते हैं । प्रकृति चित्रण भी उपादान के रूप में आता है । इसमें जीवन के, किसी एक पक्ष का उद्घाटन नहीं होता है अपितु राधा के मानसिक संघर्ष के प्रसंग व्यक्त हुए हैं । अत: ‘कनुप्रिया’ को, खंडकाव्य की कोटि में भी नहीं रखा जा सकता ।, कुछ आलोचकों के अनुसार ‘कनुप्रिया’ में प्रगीत काव्य के अनेक गुण अवश्य प्राप्त होते हैं । प्रगीत का आवश्यक तत्त्व, वैयक्तिक अनुभूति भी इसमें व्यक्त हुई है अर्थात राधा के भावाकुल उद्ग ार । आदि से अंत तक राधा अपने ही परिप्रेक्ष्य में कनु, के कार्य व्यापार को देखती है लेकिन ‘कनुप्रिया’ के गीतों में गेयात्मकता नहीं है जिसे महादेवी वर्मा प्रगीत काव्य के, अत्यावश्यक लक्षण के रूप में स्वीकार करती हैं । कनुप्रिया के गीत एक श्रृंखला के गीतों के रूप में ही अर्थ गांभीर्य उपस्थित, करते हैं । अत: ‘कनुप्रिया’ को शुद्ध रूप से ‘प्रगीत काव्य’ की संज्ञा नहीं दी जा सकती ।, कनुप्रिया के रचयिता डॉ. धर्मवीर भारती ने स्वयं ‘कनुप्रिया’ को किस काव्य कोटि में रखना चाहिए; इसपर अपना मंतव्य, व्यक्त नहीं किया है । वे काव्य की साहित्यिक शिल्प की कोई विवेचना भी नहीं करते हैं । अत: उनकी ओर से कनुप्रिया के, काव्य प्रकार का कोई संकेत नहीं मिलता है । कनुप्रिया में भावों की एक धारा बहती है जो एक कड़ी के रूप में है ।, , डॉ. धर्मवीर भारती की महाभारत युद्ध की पृष्ठभूमि, में लिखी ‘कनुप्रिया’ कृति हिंदी साहित्य जगत में अत्यंत, चर्चित रही है । ‘कनुप्रिया’ का प्राणस्वर बहुत ही भिन्न है ।, ‘कनुप्रिया’ आधुनिक मूल्यों का काव्य है । उसकी मूल, संवेदना आधुनिक धरातल पर उत्पन्न हुई है । इसका आधार, मिथक है । यह मिथक राधा और कृष्ण के प्रेम और, महाभारत की कथा से संबद्ध है ।, ‘कनुप्रिया’ अर्थात कन्हैया की प्रिय सखी ‘राधा’ ।, राधा को लगता है कि प्रेम त्यागकर युद्ध का, अवलंब करना निरर्थक बात है । यहाँ कनु उपस्थित नहीं, है । उन्हें जानने का माध्यम है राधा । धर्मवीर भारती का, मानना है कि हम बाह्य जगत को जीते रहते हैं, सहते और, अनुभव करते रहते हैं । चाहे वह युद्ध बाह्य जगत का, हो... चाहे बलिदान का परंतु कुछ क्षण ऐसे भी होते हैं, जब, हमें अनुभूत होता है कि महत्त्व बाह्य घटनाओं के उद्वेग, का नहीं है; महत्त्व है उस चरम तन्मयता के क्षण का..., जिसे हम अपने भीतर साक्षात्कार करते हैं । यह क्षण बाह्य, इतिहास से अधिक मूल्यवान सिद्ध होता है । इस प्रकार, बाह्य स्थितियों की अनुभूति और चरम तन्मयता के क्षण, को एक ही स्तर पर देखना किसी महापुरुष की सामर्थ्य की, बात होती है ।, लेकिन कोई मनुष्य ऐसा भी होता है जिसने बड़े, सहज मन से जीवन जीया है... चरम तन्मयता के क्षणों में, डूबकर जीवन की सार्थकता पाई है । अत: उसका यह, आग्रह होता है कि वह उसी सहज मन की कसौटी पर सभी, घटनाओं, व्यक्तियों को परखेगा... जाँचेगा ।, , ऐसा ही आग्रह कनुप्रिया अर्थात राधा का है अपने, सखा कृष्ण से... तन्मयता के क्षणों को जीना और उन्हीं, क्षणों में अपने सखा कृष्ण की सभी लीलाओं की अनुभूति, करना कनुप्रिया के भावात्मक विकास के चरण हैं । इसीलिए, व्याख्याकार कृष्ण के इतिहास निर्माण को कनुप्रिया इसी, चरम तन्मयता के क्षणों की दृष्टि से देखती है ।, कनुप्रिया भी महाभारत युद्ध की उसी समस्या तक, पहुँचती है; जहाँ दूसरे पात्र भी हैं परंतु कनुप्रिया उस समस्या, , ७०
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तक अपने भावस्तर अथवा तन्मयता के क्षणों द्वारा पहुँचती, है । यह सब उसके अनजाने में होता है क्योंकि कनुप्रिया की, मूलप्रवृत्ति संशय अथवा जिज्ञासा नहीं है अपितु भावोत्कट, तन्मयता है ।, राधा कृष्ण से महाभारत युद्ध को लेकर कई प्रश्न, पूछती है । महाभारत युद्ध में हुई जय-पराजय, कृष्ण की, भूमिका... युद्ध का उद्देश्य... युद्ध की भयानकता,, प्रचंड संहार आदि बातों से संबंधित राधा का कृष्ण से हुआ, संवाद यहाँ उद्धृत है ।, सेतु : मैं, राधा कहती है, हे कान्हा... इतिहास की बदली हुई, इस करवट ने तुम्हें युद्ध का महानायक बना दिया लेकिन हे, कनु ! इसके लिए बलि किसकी चढ़ी? तुम महानायक के, शिखर पर अंतत: मेरे ही सिर पर पैर रखकर आगे बढ़ गए ।, तो क्या कनु ! इस लीला क्षेत्र से उठकर युद्धक्षेत्र, तक पहुँचकर ईश्वरीय स्वरूप धारण करने के बीच जो, अलंघ्य दूरी थी; क्या उसके लिए तुमने मुझे ही सेतु बनाया?, क्या मेरे प्रेम को तुमने साध्य न मानकर साधन माना !, अब इन शिखरों, मृत्यु घाटियों के बीच बना यह पुल, निरर्थक लगता है... कनु के बिना मेरा यह शरीर रूपी पुल, निर्जीव... कंपकंपाता-सा रह गया है । अंतत: जिसको, जाना था... वह तो मुझसे दूर चला गया है ।, अमंगल छाया, इस सर्ग में राधा के दो रूप दिखाई देते हैं । राधा के, अवचेतन मन में बैठी राधा और कृष्ण तथा चेतनावस्था में, स्थित राधा और कृष्ण । यहाँ अवचेतन मन में बैठी राधा, चेतनावस्था में स्थित राधा को संबोधित करती है ।, हे राधा ! घाट से ऊपर आते समय कदंब के नीचे खड़े कनु, को देवता समझ प्रणाम करने के लिए तू जिस रास्ते आती, थी... हे बावरी ! अब तू उस राह से मत आ ।, क्या ये उजड़े कुंज, रौंदी गईं लताएँ, आकाश में उठे, हुए धूल के बगूले तुम्हें नहीं बता रहे हैं कि जिस राह से तू, आती थी... उस रास्ते से महाभारत के युद्ध में भाग लेने के, लिए श्रीकृष्ण की अठारह अक्षौहिणी सेनाएँ जाने वाली हैं ।, आज तू पथ से दूर हट जा... उस लताकुंज की ओट, में जिस कनु के कारण तेरा प्रेम व्यथित और दुखी हुआ है;, उसे छुपा ले... क्योंकि युद्ध के लिए इसी पथ से द्वारिका, की उन्मत्त सेनाएँ जा रही हैं ।, , हे राधा । मैं मानती हूँ कि कनु सब से अधिक तुम्हारा, है... तुम उसके संपूर्ण व्यक्तित्व से परिचित हो... ये सारे, सैनिक कनु के हैं... लेकिन ये तुम्हें नहीं जानते । यहाँ तक, कि कनु भी इस समय तुमसे अनभिज्ञ हो गए हैं । यहीं पर..., तुम्हारे न आने पर सारी शाम आम की डाल का सहारा लिये, कनु वंशी बजा-बजाकर तुम्हें पुकारा करते थे ।, आज वह आम की डाल काट दी जाएगी... कारण, यह है कि कृष्ण के सेनापतियों के तेज गतिवाले रथों की, ऊँची पताकाओं में यह डाल उलझती है... अटकती है ।, यही नहीं; पथ के किनारे खड़ा यह पवित्र अशोक पेड़, खंड-खंड नहीं किया गया तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए..., क्योंकि अब यह युद्ध इतना प्रलयंकारी बन चुका है कि, सेना के स्वागत में यदि ग्रामवासी तोरण नहीं सजाएँगे तो, कदाचित्यह ग्राम भी उजाड़ दिया जाएगा ।, हे कनुप्रिया... कनु के साथ तुमने व्यतीत किए हुए, तन्मयता के गहरे क्षणों को कनु भूल चुके हैं; इस समय, कृष्ण को केवल अपना वर्तमान काल अर्थात महाभारत का, निर्णायक युद्ध ही याद है ।, हे कनुप्रिया... आज यदि कृष्ण युद्ध की इस, हड़बड़ाहट में तुम और तुम्हारे प्यार से अपरिचित होकर, तुमसे दूर चले गए हैं तो तुम्हें उदास नहीं होना चाहिए ।, हे राधे... तुम्हें तो गर्व होना चाहिए क्योंकि किसके, महान प्रेमी के पास अठारह अक्षौहिणी सेनाएँ हैं । वह केवल, तुम हो..., एक प्रश्न, राधा कृष्ण को संबोधित करती है- मेरे महान कनु..., अच्छा मान भी लो... एक क्षण के लिए मैं यह स्वीकार कर, लूँ कि तुम्हें लेकर जो कुछ मैंने सोचा... जीया... वे सब, मेरी तन्मयता के गहरे क्षण थे... तुम मेरे इन क्षणों को, भावावेश कहोगे... मेरी कोमल कल्पनाएँ कहोगे... तुम्हारी, दृष्टि से मेरी तन्मयता के गहरे क्षणों को व्यक्त करने वाले वे, शब्द निरर्थक परंतु आकर्षक शब्द हैं । मान लो... एक क्षण, के लिए मैं यह स्वीकार कर लूँ कि महाभारत का यह युद्ध, पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म, न्याय-दंड, क्षमा-शील के बीच, का युद्ध था । इसलिए इस युद्ध का होना इस युग का, जीवित सत्य था... जिसके नायक तुम थे ।, फिर भी कनु... मैं तुम्हारे इस नायकत्व से परिचित, नहीं हूँ । मैं तो वही तुम्हारी बावरी सखी हूँ... मित्र हूँ । तुमने, , ७१
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मुझे जितना ज्ञान... उपदेश दिया... मैंने उतना ही ज्ञान पाया, है । मैंने सदैव तुमसे स्नेहासिक्त ज्ञान ही पाया ।, प्रेम और साख्यभाव को तुमने जितना मुझे दिया;, वह पूरा-का-पूरा समेटकर, सँजोकर भी मैं तुम्हारे उन, उदात्त और महान कार्यों को समझ नहीं पाई हूँ... उनके, प्रयोजन का बोध मैं कभी कर नहीं पाई हूँ क्योंकि मैंने तुम्हें, सदैव तन्मयता के गहरे क्षणों में जीया है ।, जिस यमुना नदी में मैं स्वयं को निहारा करती थी..., और तुममें खो जाती थी... अब उस नदी में शस्त्रों से लदी, असंख्य नौकाएँ न जाने कहाँ जाती हैं... उसी नदी की धारा, में बहकर आने वाले टूटे रथ और फटी पताकाएँ किसकी, हैं । हे कनु... महाभारत का वह युद्ध जिसका कर्णधार तुम, स्वयं को समझते हो... वह कुरुक्षेत्र... जहाँ एक पक्ष की, सेनाएँ हारीं... दूसरे पक्ष की सेनाएँ जीतीं... जहाँ गगनभेदी, युद्ध घोष होता रहा... जहाँ क्रंदन स्वर गूँजता रहा... जहाँ, अमानवीय और क्रूर घटनाएँ घटित हुईं... और उन घटनाओं, से पलायन किए हुए सैनिक बताते रहे... क्या यह सब, सार्थक है कनु? ये गिद्ध जो चारों दिशाओं से उड़-उड़कर, उत्तर दिशा की ओर जाते हैं; क्या उनको तुम बुलाते हो?, जैसे भटकी हुई गायों को बुलाते थे ।, हे कनु ! मैं जो कुछ समझ पा रही हूँ... उतनी ही, समझ मैंने तुमसे पाई है... उस समझ को बटोरकर भी मैं यह, जान गई हूँ कि और भी बहुत कुछ है तुम्हारे पास... जिसका, कोई भी अर्थ मैं समझ नहीं पाई हूँ । मेरी तन्मयता के गहरे, क्षणों में मैंने उनको अनुभूत ही नहीं किया है । हे कनु ! जिस, तरह तुमने कुरुक्षेत्र के युद्ध मैदान पर अर्जुन को युद्ध का, प्रयोजन समझाया, युद्ध की सार्थकता का पाठ पढ़ाया,, वैसे मुझे भी युद्ध की सार्थकता समझाओ । यदि मेरी, तन्मयता के गहरे क्षण तुम्हारी दृष्टि से अर्थहीन परंतु, आकर्षक थे... तो तुम्हारी दृष्टि से सार्थक क्या है?, शब्द : अर्थहीन, राधा का चेतन मन अवचेतन मन को संबोधित कर, रहा है । कनु, युद्ध की सार्थकता को तुम मुझे कैसे, समझाओगे... सार्थकता को बताने वाले शब्द मेरे लिए, अर्थहीन हैं । मेरे पास बैठकर मेरे रूखे बालों में उँगलियाँ, उलझाए तुम्हारे काँपते होंठों से प्रणय के शब्द निकले थे;, तुम्हें कई स्थानों पर मैंने कर्म, स्वधर्म, निर्णय दायित्व जैसे, शब्दों को बोलते सुना है... मैं नहीं जानती कि अर्जुन ने इन, , शब्दों में क्या पाया है लेकिन मैं इन शब्दों को सुनकर भी, अर्जुन की तरह कुछ पाती नहीं हूँ... मैं राह में रुककर तुम्हारे, उन अधरों की कल्पना करती हूँ... जिन अधरों से तुमने, प्रणय के वे शब्द पहली बार कहे थे जो मेरी तन्मयता के, गहरे क्षणों की साक्ष्य बन गए थे ।, मैं कल्पना करती हूँ कि अर्जुन के स्थान पर मैं हूँ और, मेरे मन में यह मोह उत्पन्न हो गया है । जैसे तुमने अर्जुन को, युद्ध की सार्थकता समझाई है; वैसे मैं भी तुमसे, समझूँ । यद्यपि मैं नहीं जानती कि यह युद्ध कौन-सा है?, किसके बीच हो रहा है? मुझे किसके पक्ष में होना चाहिए?, लेकिन मेरे मन में यह मोह उत्पन्न हुआ है क्योंकि तुम्हारा, समझाया जाना... समझाते हुए बोलना मुझे बहुत अच्छा, लगता है । जब तुम मुझे समझाते हो तो लगता है जैसे..., युद्ध रुक गया है, सेनाएँ स्तब्ध खड़ी रह गई हैं और इतिहास, की गति रुक गई है... और तुम मुझे समझा रहे हो ।, लेकिन कर्म, स्वधर्म, निर्णय, दायित्व जैसे जिन, शब्दों को तुम कहते हो... वे मेरे लिए नितांत अर्थहीन हैं, क्योंकि ये शब्द मेरी तन्मयता के गहरे क्षणों के शब्द नहीं, हैं । इन शब्दों के परे मैं तुम्हें अपनी तन्मयता के गहरे क्षणों, में देखती हूँ कि तुम प्रणय की बातें कर रहे हो; प्रणय के, एक-एक शब्द को तुम समझकर मैं पी रही हूँ । तुम्हारा, संपूर्ण व्यक्तित्व मेरे ऊपर जैसे छा जाता है । आभास होता, है जैसे तुम्हारे जादू भरे होंठों से ये शब्द रजनीगंधा के फूलों, की तरह झर रहे हैं । एक के बाद एक ।, कनु, जिन शब्दों का तुम उच्चारण करते हो... कर्म,, स्वधर्म, निर्णय, दायित्व... ये शब्द मुझ तक आते-आते, बदल जाते हैं... मुझे तो ये शब्द इस तरह सुनाई देते हैं..., राधन्... राधन्. .. राधन् । तुम्हारे द्वारा कहे जाने वाले, शब्द... असंख्य हैं... संख्यातीत हैं... लेकिन उनका एक, ही अर्थ है... मैं... मैं... केवल मैं !, अब बताओ तो कनु । इन शब्दों से तुम मुझे इतिहास, कैसे समझाओगे? मेरी तन्मयता के गहरे क्षणों में जीये गए, वे शब्द ही मुझे सार्थक लगते हैं ।, ०, , ७२
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अकल्पनीय अमानुषिक घटनाएँ युद्ध की, क्या ये सब सार्थक हैं?, चारों दिशाओं से, उत्तर को उड़-उड़कर जाते हुए, गृद्धों को क्या तुम बुलाते हो, (जैसे बुलाते थे भटकी हुई गायों को), जितनी समझ तुमसे अब तक पाई है कनु,, , उतनी बटोरकर भी, कितना कुछ है जिसका, , कोई भी अर्थ मुझे समझ नहीं आता है, अर्जुन की तरह कभी, मुझे भी समझा दो, सार्थकता है क्या बंधु?, मान लो कि मेरी तन्मयता के गहरे क्षण, रँगे हुए, अर्थहीन, आकर्षक शब्द थेतो सार्थक फिर क्या है कनु?, पर इस सार्थकता को तुम मुझे, कैसे समझाओगे कनु?, शब्द : अर्थहीन, , शब्द, शब्द, शब्द, ............., , मेरे लिए सब अर्थहीन हैं, , यदि वे मेरे पास बैठकर, , तुम्हारे काँपते अधरों से नहीं निकलते, , शब्द, शब्द, शब्द, ............., , कर्म, स्वधर्म, निर्णय, दायित्व........, , मैंने भी गली-गली सुने हैं ये शब्द, , अर्जुन ने इनमें चाहे कुछ भी पाया हो, , मैं इन्हें सुनकर कुछ भी नहीं पाती प्रिय,, सिर्फ राह में ठिठककर, , तुम्हारे उन अधरों की कल्पना करती हूँ, जिनसे तुमने ये शब्द पहली बार कहे होंगे, मैं कल्पना करती हूँ कि, अर्जुन की जगह मैं हूँ, और मेरे मन में मोह उत्पन्न हो गया है, और मैं नहीं जानती कि युद्ध कौन-सा है, और मैं किसके पक्ष में हूँ, , ७६
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और समस्या क्या है, और लड़ाई किस बात की है, लेकिन मेरे मन में मोह उत्पन्न हो गया है, क्योंकि तुम्हारे द्वारा समझाया जाना, मुझे बहुत अच्छा लगता है, और सेनाएँ स्तब्ध खड़ी हैं, और इतिहास स्थगित हो गया है, और तुम मुझे समझा रहे हो........, , कर्म, स्वधर्म, निर्णय, दायित्व,, , शब्द, शब्द, शब्द ..............., , मेरे लिए नितांत अर्थहीन हैं , मैं इन सबके परे अपलक तुम्हें देख रही हूँ, , हर शब्द को अँजुरी बनाकर, , बूँद-बूँद तुम्हें पी रही हूँ, , और तुम्हारा तेज, , मेरे जिस्म के एक-एक मूर्च्छित संवेदन को, धधका रहा है, और तुम्हारे जादू भरे होंठों से, रजनीगंधा के फूलों की तरह टप-टप शब्द झर रहे हैं, एक के बाद एक के बाद एक........., , कर्म, स्वधर्म, निर्णय, दायित्व......., , मुझ तक आते-आते सब बदल गए हैं, , मुझे सुन पड़ता है केवल, , राधन, राधन, राधन,, शब्द, शब्द, शब्द,, तुम्हारे शब्द अगणित हैं कनु-संख्यातीत, पर उनका अर्थ मात्र एक है , मैं, , मैं, , केवल मैं !, फिर उन शब्दों से, मुझी को, इतिहास कैसे समझाओगे कनु?, - (‘कनुप्रिया’ से), ०, , ७७
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१4. पल्लवन, - डॉ. दयानंद तिवारी, लेखक परिचय ः डॉ. दयानंद तिवारी जी का जन्म १ अक्तूबर १९६२ को महाराष्ट्र में जिला रायगड के खोपोली गाँव में, हुआ । आप सफल अध्यापक होने के साथ-साथ समाजशास्त्री तथा प्रतिबद्ध साहित्यकार के रूप में भी चर्चित हैं । विविध, विषयों पर किए जाने वाले गहन चिंतन के फलस्वरूप आप आकाशवाणी और दूरदर्शन के राष्ट्रीय चैनलों पर आयोजित, परिचर्चाओं में सम्मिलित होते रहे हैं । महाविद्यालयीन समस्याओं के प्रति आप निरंतर जागरूक रहते हैं । अध्ययन-अध्यापन, आदि शैक्षिक विषयों को लेकर आपका लेखन कार्य निरंतर समाज को दिशानिर्देश करता है । आपने विभिन्न राष्ट्रीय तथा, अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों में समसामयिक विषयों पर मंतव्य रखा है । आपकी भाषा अत्यंत संप्रेषणीय और प्रभावोत्पादक है ।, प्रमुख कृतियाँ ः ‘साहित्य का समाजशास्त्र’, ‘समकालीन हिंदी कहानी-विविध विमर्श’, ‘चित्रा मुद्गल के कथासाहित्य का, समाजशास्त्र’, ‘हिंदी व्याकरण’, ‘हिंदी कहानी के विविध आयाम’ आदि ।, एकांकी ः हिंदी साहित्य में एकांकी का विशिष्ट स्थान है । एकांकी को सरल भाषा में नाटक का लघु रूप कहा जा सकता, है । जीवन के किसी एक अंश, प्रसंग को एक ही अंक में प्रभावशाली ढंग से मंच पर प्रस्तुत करना एकांकी की विशेेषता है ।, अपनी बात को व्यक्त करने हेतु वर्तमान समय में एकांकी को उपयोग में लाना लेखकों के लिए उपयुक्त सिद्ध होता है ।, पाठ परिचय ः यहाँ पल्लवन की प्रस्तुति ‘एकांकी’ विधा में की गई है । साहित्य शास्त्र में पल्लवन लेखन को उत्तम, साहित्यकार का लक्षण माना गया है । प्रस्तुत पाठ में ‘पल्लवन’ अर्थात किसी उद्ध रण, सूक्ति, सुवचन के विस्तारित अर्थ, लेखन को अत्यंत सरल शैली में समझाया गया है । पल्लवन शब्द की अवधारणा का प्रतिपादन और उसका साहित्यशास्त्रीय, विवेचन प्राप्त हुआ है । पल्लवन लेखन के विविध अंगों और नियमों को स्पष्ट करते हुए व्यावहारिक हिंदी के विभिन्न क्षेत्रों, में उसकी उपयोगिता पर प्रकाश डालता है ।, समय, : प्रात: ११ बजे, स्थान, : बारहवीं कक्षा, रंगमंच, : (कक्षा में विद्यार्थी प्रवेश कर रहे हैं ।, कुछ विद्य ार्थी आपस में बातें कर रहे हैं ।, कुछ ऊँचे स्वर में एक-दूसरे को पुकार रहे, हैं । तभी हिंदी शिक्षक कक्षा में प्रवेश, करते हैं ।), सभी विद्य ार्थी : (खड़े होकर) नमस्ते सर...।, अध्यापक, : नमस्ते विद्यार्थियो... बैठ जाइए । हमारा , हिंदी का पाठ्यक्रम पढ़ाना पूर्ण हो गया , है । परीक्षाएँ समीप हैं । अब हमें प्रश्नपत्र, के सभी प्रश्नों का आकलन एवं अध्ययन, करना चाहिए । क्या आपने प्रश्नपत्र का , अवलोकन किया है?, रोशन, : जी सर, प्रश्न पत्र का अध्ययन हमने, भलीभाँति किया है ।, अध्यापक, : तो क्या प्रश्नपत्र की दृष्टि से कोई ऐसा प्रश्न है जो आपको उत्तर लिखने की दृष्टि से कठिन जान पड़ता , है?, , ७९
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प्रतीक, अध्यापक, , : सर प्रश्नपत्र में सारे प्रश्न बड़े ही सरल और आसान हैं ।, : यह तो बड़ी अच्छी बात है । लगता है आप लोगों ने प्रश्नपत्र की या फिर उसके अलग-अलग विभागों, के प्रश्नों को बारीकी से नहीं देखा है ।, शीतल, : सर आपने बिल्कुल सही कहा है । व्यावहारिक हिंदी से संबंधित एक प्रश्न है जिसके उत्तर को लेकर मैं, मन में कठिनाई अनुभव कर रही हूँ ।, अध्यापक, : मुझे लगता ही था कि व्यावहारिक हिंदी विभाग के किसी ना किसी प्रश्न को लेकर आपके मन में शंका, होगी ।, शीतल, : जी सर, मैं ‘पल्लवन’ इस घटक को लेकर दुविधा अनुभव करती हूँ । पल्लवन किसे कहते हैं? इसका, उत्तर कैसे लिखा जाता है और इसकी व्याख्या क्या होती है?, अध्यापक, : विद्यार्थी मित्रों, क्या पल्लवन घटक आप सभी को कठिन नहीं जान पड़ता है?, प्रतीक, रोशन : (एक साथ) जी सर, हमारा ध्यान इस घटक से थोड़ा हट गया था । हम सभी आपसे निवेदन करते हैं कि, आप पल्लवन पर विस्तार में प्रकाश डालिए ।, अध्यापक, : फिर भी रोशन, पल्लवन से क्या तात्पर्य है? तुम इस विभाग के बारे में क्या जानते हो?, रोशन, : हाँ ! मैं इतना जानता हूँ कि पल्लवन लिखना भी एक कला है ।, अध्यापक, : ‘पल्लवन’ बहुत कुछ है; इसे प्रत्येक लेखक, शिक्षक व विद्य ार्थी को जानना चाहिए ।, गौरांश, : इतनी जरूरी क्यों है पल्लवन की जानकारी?, अध्यापक, : ऊपरी तौर पर पल्लवन सहज लगता है परंतु उसकी परिभाषा तथा विशेषताएँ जाने बिना इस कला को, कोई आत्मसात नहीं कर सकता ।, रोशन, : आप इसकी परिभाषा पर प्रकाश डाल सकते हैं सर?, अध्यापक, : हाँ हाँ, क्यों नहीं?, हिंदी में ‘पल्लवन’ शब्द अंग्रेजी 'Expansion' शब्द के प्रतिशब्द के रूप में आता है । ‘पल्लवन’ का अर्थ, है - विस्तार अथवा फैलाव । यह संक्षेपण का विरुद्धार्थी शब्द है । जब किसी शब्द, सूक्ति, उद्धरण,, लोकोक्ति, गद्य, काव्य पंक्ति आदि का अर्थ स्पष्ट करते हुए उसका दृष्टांतों, उदाहरणों अथवा, काल्पनिक उड़ानों द्वारा २००-३०० शब्दों में विस्तार करते हैं तो उसे ‘पल्लवन’ कहते हैं । अर्थात, विषय का विस्तार करना ‘पल्लवन’ है ।, रिदिम, : तो क्या पल्लवन का मतलब सिर्फ विषय का विस्तार करना है?, अध्यापक, : नहीं-नहीं, सिर्फ विस्तार नहीं ! उसकी और भी कुछ विशेषताएँ और नियम होते हैं ।, गौरांश, : मैं कुछ समझा नहीं?, अध्यापक, : आइए, मैं समझाता हूँ । हर भाषा में कुछ ऐसे लेखक होते हैं जो अपने विचारों को सूक्ष्म और संक्षिप्त रूप, में रखते हैं । उन्हें समझ पाना हर किसी के लिए आसान नहीं होता । ऐसे समय में पल्लवन के माध्यम से, उसे समझाया जा सकता है ।, रोशन, : तो क्या पल्लवन से तात्पर्य ‘निबंध’ है?, अध्यापक, : नहीं ! कई लोग निबंध और पल्लवन को एक मानने की गलती करते हैं । वास्तव में इन दोनों में अंतर, है । निबंध में किसी एक विचार को विस्तार से लिखने के लिए कल्पना, प्रतिभा और मौलिकता का, आधार लिया जाता है । पल्लवन में भी विषय का विस्तार होता है परंतु पल्लवन में विषय का विस्तार, एक निश्चित सीमा के अंतर्गत किया जाता है ।, रिदिम, : सर, पल्लवन में क्या विचार के साथ-साथ भाषा विस्तार पर भी ध्यान देना होता है?, अध्यापक, : हाँ, बिलकुल सही प्रश्न पूछा ! मैं इसपर आ ही रहा था । वैसे भी भाषा का विस्तार करना एक कला, , 8०
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है । इसके लिए भाषा के ज्ञान के अलावा विश्लेषण, संश्लेषण, तार्किक क्षमता के साथ-साथ, अभिव्यक्तिगत कौशल की आवश्यकता होती है । इसमें भी आख्याता के प्रत्येक अंश को विषयवस्तु, की गरिमा के अनुकूल विस्तारित करना होता है । भाव विस्तार को भी पल्लवन कहा जाता है ।, तन्वी, : सर जी, क्या पल्लवन में भाव विस्तार के साथ-साथ चिंतन भी होता है?, अध्यापक, : अच्छा प्रश्न पूछा तुमने, पल्लवन में भाव विस्तार के साथ चिंतन का स्थान भी महत्त्वपूर्ण होता है । संसार, में जितने महान चिंतक, साहित्यिक, विचारक हैं; उनके गहन चिंतन के क्षणों में जिन विचारों और, अनुभूतियों का जन्म होता है; उसमें सूत्रात्मकता आ जाती है । सरसरी दृष्टि से पढ़ने पर उसका सामान्य, अर्थ ही समझ में आता है, किंतु उसके सम्यक अर्थबोध एवं अर्थ विस्तार को समझने के लिए हमें उसकी, गहराई में उतरना पड़ता है ! ज्यों-ज्यों हम उस गंभीर भाववाले वाक्यखंड, वाक्य या वाक्य समूह में गोता, लगाते हैं, त्यों-त्यों हम उसके मर्मस्पर्शी भावों को समझने लगते हैं । अर्थात छोटे-छोटे वाक्यों या वाक्य, खंडों में बंद विचारों को खोल देना, फैला देना, विस्तृत कर देना ही पल्लवन है ।, रोशन, : हम जैसे विद्य ार्थियों के लिए पल्लवन कला को आत्मसात करने की क्या आवश्यकता है? हम तो, साहित्यकार नहीं हैं । इस संदर्भ में जानकारी दीजिए न सर !, अध्यापक, : रोशन ! तुम अच्छे-अच्छे प्रश्न करते हो । यह जिज्ञासा सराहनीय है । इसपर चर्चा होनी ही चाहिए ।, रोशन, : जी सर ! हमें इस विषय की भी जानकारी चाहिए ।, अध्यापक, : वर्तमान युग विज्ञान का युग है । आज के बच्चे वैज्ञानिक युग में पल रहे हैं । हमारे साहित्य में लेखक,, विचारक, कवि अपने मौलिक विचारों को व्यक्त करते हैं । हम उनके विचारों को समझ नहीं सकते, तब, पल्लवन हमारी सहायता करता है । परंतु बच्चो ! केवल विषयगत ज्ञान होना अनिवार्य नहीं होता है, अपितु आज के युवाओं के लिए अनेक क्षेत्रों का प्रवेश द्वार तैयार हो जाता है । पल्लवन व्यक्तित्व, निर्माण में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका तैयार कर सकता है ।, तन्वी, : वह कैसे?, अध्यापक, : अब गौर से सुनो, शारीरिक विकास के साथ-साथ बौद्धिक विकास भी आवश्यक होता है । केवल, शिक्षा तथा साहित्य में ही पल्लवन का महत्त्व नहीं है बल्कि उत्कृष्ट वक्ता, पत्रकार, नेता, प्रोफेसर,, वकील आदि पद प्राप्त करने के लिए इस कला से अवगत होना आवश्यक है । इतना ही नहीं;, कहानी लेखन, संवाद-लेखन, विज्ञापन, समाचार, राजनीति तथा अनेक व्यवसायों में भी पल्लवन का, उपयोग होता है । हमारे कैरियर की दृष्टि से भी पल्लवन उपयुक्त है ।, मितवा, : सर जी, कितनी अच्छी और महत्त्वपूर्ण जानकारी आप दे रहे हैं लेकिन मेरे मन में प्रश्न उठ रहा है कि, पल्लवन की विशेषताएँ क्या होती हैं?, अध्यापक, : बताता हूँ । इन्हें अपनी काॅपी में लिख सकते हैं । चलिए, मैं पल्लवन की विशेषताएँ बोर्ड पर लिखता, हूँ । पल्लवन की विशेषताएँ : (१) कल्पनाशीलता (२) मौलिकता (३) सर्जनात्मकता (4) प्रवाहमयता, (5) भाषाशैली (६) शब्दचयन (७) सहजता (8) स्पष्टता (९) क्रमबद्धता, लड़की, : सर जी, क्या पल्लवन लिखने की कोई अलग शैली होती है?, अध्यापक, : हाँ, पल्लवन लिखने की निम्न शैलियाँ प्रचलित हैं (१) इसमें विषय प्रवर्तन प्रथम वाक्य से ही प्रारंभ हो जाता है । इसमें इधर-उधर बहकने एवं लंबी-चौड़ी, भूमिका बनाने की कोई आवश्यकता नहीं होती । प्रथम वाक्य से ही श्रृंखलाबद्ध रोचकतापूर्ण एवं, उत्सुकता भरे वाक्य लिखने चाहिए ।, (२) कुछ विद्वान ऐसा मानते हैं कि प्रारंभिक दो-तीन वाक्यों की भूमिका बनानी चाहिए, मध्य के, दस-बारह वाक्यों में विषय प्रतिपादित करें तथा अंतिम दो-तीन वाक्यों में उपसंहार प्रस्तुत करें ।, , 8१
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रोशन, अध्यापक, , : सर, क्या पल्लवन की प्रक्रिया भी अलग होती है? इस संदर्भ में भी संक्षिप्त में जानकारी दीजिए न !, : वैसे पल्लवन की जानकारी लेते-लेते उसकी प्रक्रिया पर भी हमारी चर्चा हुई है । फिर से थोड़ा स्पष्ट, करता हूँ ।, , (१) विषय को भली-भाँति पढ़ना, समझना, ध्यान केंद्रित करना, अर्थ स्पष्ट होने पर पुन: सोचना ।, (२) विषय की संक्षिप्त रूपरेखा बनाना, उसके पक्ष-विपक्ष में सोचना, फिर विपक्षी तर्कों को काटने हेतु, तर्कसंगत विचार करना । उसके बाद तर्कसंगत तथा सम्मत विचारों को संयोजित करना तथा असंगत, विचारों को हटाकर अनुच्छेद तैयार करना ।, (३) शब्द पर ध्यान देकर शब्दसीमा के अनुसार पल्लवन करना और अंत में लिखित रूप को पुन: ध्यान, देकर पढ़ना । और एक बात विद्य ार्थियों ! पल्लवित किए जा रहे कथन को परोक्ष कथन और भूतकालिक, क्रिया के माध्यम से अन्य पुरुष में कहना चाहिए । उत्तम तथा मध्यम पुरुष का प्रयोग पल्लवन में नहीं, होना चाहिए ।, रोशन, : सर जी ! अब तो हम पल्लवन लिख सकते हैं । आप हमें पंक्तियाँ दीजिए, हम पल्लवन तैयार करेंगे ।, अध्यापक, : अरे रोशन, इतनी जल्दी मत करो । पहले उदाहरण के लिए मैं आपको एक-दो पल्लवन बनाकर देता, हूँ । ठीक है न !, विद्यार्थी, : (एक साथ) जी सर !, अध्यापक, : एक-एक करके आपको जो कविता, दोहे, चौपाई,....... जो भी याद है, उसे कहिए । मैं उनका, पल्लवन तैयार करके दिखाता हूँ ।, (कुछ क्षणों के पश्चात), क्या हुआ? नहीं सूझ रहा है? चलिए, पहला उदाहरण मैं आपको बताता हूँ । जैसे - निम्न पंक्ति का, पल्लवन करते हैं- ‘‘नर हो, न निराश करो मन को’’, , पल्लवन : यह सार्वभौमिक सत्य है कि मनुष्य संसार का सबसे अधिक गुणवान और बुद्धिसंपन्न प्राणी, है । वह अपनी अद्भ ुत बुद्धि एवं अपने कौशल के बल पर इस संसार में महान से महान कार्य कर अपने, साहस और सामर्थ्य का परिचय दे चुका है । शांति, सद्भाव और समानता की स्थापना के लिए वह, प्रयासरत रहा । इन सबके पीछे उसका आंतरिक, मानसिक बल ही था । चूँकि मनुष्य विधाता की, सर्वोत्कृष्ट एवं सर्वाधिक गुणसंपन्न कृति है । अत: उसे अपने जीवन में कभी निराश नहीं होना चाहिए ।, यह तो मनुष्य का जीवन है कि जहाँ उसके जीवन में सुख है, वहाँ दु:ख भी है, लाभ है तो हानि भी है,, सफलताएँ हैं तो असफलताएँ भी हैं । यदि उसका मन ही पराजित हो जाएगा, थक जाएगा तो इस धरा, को स्वर्ग-सा कैसे बना पाएगा? उसके मन की इसी संकल्प-विकल्पमयी, साहसिक शक्ति को उसका, मनोबल कहा जाता है । जो उसे हर समय श्रेष्ठ बनने हेतु कर्म के लिए प्रेरित करता है ।, गीत, : जी सर, अब हमें समझ में आ गया है । सर, मैं एक सूक्ति जानता हूँ । क्या आप उसका पल्लवन करके, दिखाएँगे? ‘‘अविवेक आपदाओं का घर है ।’’, अध्यापक, : पल्लवन : विवेक, बुद्धि और ज्ञान मानव की बौद्धिक संपदा है । मानव जब कोई निर्णय लेता है तो उसे, सद्-असद्कारिणी बुद्धि की आवश्यकता होती है । विचारशून्य किए गए कार्य कष्टदायक होते हैं ।, मानव की सफलता के पीछे उसका विवेक कार्य करता है । हमें सोच-विचारकर ही कोई कार्य करना, चाहिए । बिना विचारे किया गया कार्य पश्चाताप का कारण बनता है । इसलिए हमें जो भी कहना है, उसका मनन करें, चिंतन करें । जो कुछ भी कहें, उसे सोच-समझकर विवेक की कसौटी पर कसकर ही, कहें क्योंकि जीवन का आनंद विवेक से चलने में है । अविवेकी मूर्खतापूर्ण कार्य करता हुआ अपने जीवन, को स्वयं आपत्तियों से भर लेता है ।, , 8२
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तन्वी, : सर, मैं भी एक पंक्ति बताती हूँ । कृपया उसका भी पल्लवन कीजिए ‘‘सेवा तीर्थयात्रा से बढ़कर है ।’’, अध्यापक, : ‘सेवा परमोधर्म है ।’ इस भावना को कौन नहीं स्वीकारता किंतु जब इस भाव की अवहेलना की जाती, है, तब समाज में स्वार्थ और तनाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है । लोग सेवा को भूलकर तीर्थयात्रा के, लिए इस उद्देश्य के साथ निकल पड़ते हैं कि इससे उन्हें मोक्ष मिलेगा । लोग भूल जाते हैं कि सेवा का, भाव ही संपूर्ण मानवता को चिरकाल तक सुरक्षित कर सकेगा । सेवा समाज के प्रति कृतज्ञ लोगों का, आभूषण है । मानव सेवा एवं प्राणिमात्र की सेवा संपूर्ण तीर्थयात्राओं का फल देने वाली होती है । सेवा, के पात्र हमारे आस-पास ही मिल जाते हैं । तीर्थयात्रा का फल कब मिलेगा? क्या होगा? लेकिन सेवा, सद्यफल दामिनी है । ‘‘सेवा करे सो मेवा पावै ।’’ अत: सेवा धर्म अपनाएँ ।, अध्यापक, : मुझे विश्वास है, आप लोगों ने पल्लवन को अच्छी तरह से समझ लिया है । अभी अच्छी तरह से चर्चा, हो रही है हमारी, अब आप यह समझ ही गए कि पल्लवन मतलब जैसे बीज से पेड़, पेड़ से पल्लव,, पल्लव से डालियाँ विकसित होती हैं । उसी प्रकार भाषा में भी पल्लवन होता है ।, आपने पल्लवन के लिए अच्छे उदाहरण दिए लेकिन भक्तिकालीन निर्गुण विचारधारा के संत, कबीरदास को आप भूल गए । मैं उनके दोहे पर एक पल्लवन तैयार करूँगा । आप ध्यान से सुनिए ।, विद्यार्थी, : जी सर, कबीरदास जी के दोहे का पल्लवन सुनने में हमें आनंद ही मिलेगा ।, अध्यापक, : सुनिए, ‘‘जो तोको काँटा बुवै, ताहि बोइ तू फूल ।’’, संसार में शुभचिंतक कम होते हैं; अहित करने वाले या हानि पहुँचाने वाले अधिक । ऐसे व्यक्तियों के, प्रति क्रोध आना एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है । साधारण व्यक्ति यही करते हैं । अहित करने वाले का, हित सोचना, काँटे बिछाने वाले के लिए फूल बिछाना, मारने वाले को क्षमा करना एक महान मानवीय, विचार है । इसके पीछे अहिंसा की भावना छिपी हुई है । सबके प्रति मैत्रीभाव की साधना है । प्रकृति भी, हमें यही शिक्षा प्रदान करती है । इसके अनेक उदाहरण मिलते हैं । वृक्ष को ही देखिए - पत्थर मारने वाले, को वृक्ष फल देता है । निष्पीड़न करने वाले को सरसों उपयोगी तेल देती है । पत्थर पर घिसा जाने वाला, चंदन सुगंध और शीतलता देता है । शत्रु को मित्र बनाने, विरोधियों का हृदय परिवर्तन करके उन्हें अनुकूल, बनाने का यही सर्वोत्तम और स्थायी उपचार है कि हम उत्पीड़क को क्षमा करें । जो हमारा अपकार करता, है, हम उसका भला करें । उसके मार्ग को निष्कंटक बनाएँ । उसमें फूल बिछा दें । फूल बिछाने वाला, सदैव लाभ में रहता है । काँटा बिछाने वाला स्वयं भी उसमें उलझकर घायल हो सकता, है । महान पुरुषों का भी यही मत है । अत: हम अपकारी के साथ उपकार करें ।, रोशन, : सर जी, पल्लवन तो बड़ा रोचक होता है ।, लड़की, : हाँ, आज तक पल्लवन से डर ही लगता था पर आज तो सारा डर निकल गया । अब हम अच्छी तरह से, पल्लवन कर सकते हैं ।, गीत, : जी सर, आपका बहुत बहुत धन्यवाद । फिर से ‘पल्लवन’ विषय का सविस्तर पुनरावर्तन करा कर विषय, से संबंधित सारी आशंकाओं को आपने दूर किया ।, शीतल, : जी सर, मैं पूर्ण प्रश्न पत्र को आसानी से लिखकर अच्छे अंक प्राप्त कर सकती हूँ; यह आत्मविश्वास, अब मुझे प्राप्त हो गया है ।, अध्यापक, : मुझे भी खुशी हुई कि आपने पल्लवन के संदर्भ में इतने सारे प्रश्न किए । चलो ! आज बहुत जानकारी, मिली है आपको । साहित्य की ऐसी ही रोचक जानकारी हम लेते रहेंगे । अब हम अपनी इस चर्चा को, विराम देते हैं ।, ०, , 8३
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१5. फीचर लेखन, - डॉ. बीना शर्मा, लेखक परिचय ः डॉ. बीना शर्मा जी का जन्म २० अक्तूबर १९5९ को उत्तर प्रदेश के आगरा जिले में हुआ । आप लेखिका, एवं कवयित्री के रूप में चर्चित हैं । हिंदी शिक्षा में हिंदीतर और विदेशी विद्यार्थियों के लिए आपके द्व ारा किया गया कार्य, उल्लेखनीय माना जाता है । आपका लेखन शिक्षा क्षेत्र और भारतीय संस्कृति से प्रेरित है । स्त्री विमर्श तथा समसामयिक विषय, पर आपका लेखन विशेष परिचित है । भारतीय संस्कारों और जीवनमूल्यों के प्रति आपका साहित्य आग्रही रहा है । लेखन, कार्य के साथ-साथ आप सामाजिक कर्तव्यों के प्रति भी जागरूकता का निर्वाह करती हैं । वर्तमान में आप केंद्रीय हिंदी, संस्थान, आगरा में आचार्य एवं कुलसचिव के पद पर आसीन हैं ।, प्रमुख कृतियाँ ः ‘हिंदी शिक्षण-अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य’, ‘भारतीय सांस्कृतिक प्रतीक’ आदि ।, कहानी ः कहानी में संश्लिष्टता तत्त्व होने के कारण पढ़ने में शिथिलता नहीं आती । जीवन के अनुभव संक्षेप में अवगत हो, जाते हैं । कम पात्रों द्वारा जीवन का बृहत पट रखना कहानी की विशेेषता है । ‘गागर में सागर भरना’ वाली कहावत कहानी, पर चरितार्थ होती है । कहानी में जीवन के किसी एक प्रसंग अथवा अंश का उद्घ ाटन रहता है ।, पाठ परिचय ः यहाँ फीचर लेखन की प्रस्तुति ‘कहानी’ के माध्यम से की गई है । फीचर लेखन पत्रकारिता क्षेत्र का मुख्य, आधार स्तंभ बन गया है । फीचर का मुख्य कार्य किसी विषय का सजीव वर्णन पाठक के सम्मुख करना होता है । प्रस्तुत पाठ, में फीचर लेखिका स्नेहा के माध्यम से फीचर लेखन का स्वरूप, उसकी विशेषताएँ, प्रकार आदि पर प्रकाश डाला गया है ।, साथ ही लेखिका ने इस तथ्य को हमारे सामने रखा है कि फीचर लेखन का क्षेत्र रोजगार का माध्यम बन सकता है तथा समाज, के सम्मुख सच्चाई का दर्पण रख सकता है ।, आज स्नेहा बहुत आनंदित थी । उसका पूरा परिवार, गर्व की भावना से भरा हुआ था । उन सबकी आँखों से, स्नेहा के लिए स्नेह का भाव झर रहा था ।, पत्रकारिता क्षेत्र में फीचर लेखन के लिए दिए जाने, वाले ‘सर्वश्रेष्ठ फीचर लेखन’ के राष्ट्रीय पुरस्कार से उसे, सम्मानित किया गया था । आज उसके परिवार द्वारा इसी, के उपलक्ष्य में छोटी-सी पार्टी दी जा रही थी । स्नेहा के, पति, उसकी बेटी-प्रिया, बेटा-नैतिक और उसके, सास-ससुर उसे बधाई दे रहे थे । इतना सारा आदर-स्नेह, पाकर स्नेहा की आँखें छलछला आईं... आँसुओं की, छलछलाहट में उसके फीचर लेखन की पूरी यात्रा झलक, आई थी ।, बी.ए. कर लेने के पश्चात पिता जी ने स्नेहा से पूछा, था, ‘‘अब आगे क्या करना चाहती हो? मैंने तो लड़का, देखना शुरू किया है ।’’, स्नेहा ने हँसकर उत्तर दिया, ‘‘पापा, मैं पत्रकारिता, का कोर्स करना चाहती हूँ । मुझे न्यूज चैनल देखना अच्छा, लगता है ।’’ माँ ने भी स्नेहा की इस इच्छा का समर्थन किया, था । स्नेहा ने पत्रकारिता का कोर्स ज्वाइन कर लिया ।, , पत्रकारिता की कक्षा का प्रथम दिवस... स्नेहा कक्षा, में पहुँच गई । अन्य विद्यार्थी भी कक्षा में बैठे हुए थे । सबसे, जान-पहचान हुई । वह सबके साथ घुल-मिल गई ।, पहला लेक्चर प्रारंभ हुआ । प्रोफेसर ने पत्रकारिता, पाठ्य क्रम का पहला पेपर पढ़ाना प्रारंभ किया । विषय थाफीचर लेखन । सबसे पहले उन्होंने फीचर लेखन की, विभिन्न परिभाषाओं को समझाते हुए कहा, ‘‘जेम्स डेविस, फीचर लेखन क्षेत्र में एक चर्चित नाम है । वे कहते हैं,, ‘‘फीचर समाचारों को नया आयाम देता है, उनका परीक्षण, , 85
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करता है, विश्लेषण करता है तथा उनपर नया प्रकाश, डालता है ।’’, स्नेहा की पत्रकारिता और विशेष रूप में फीचर, लेखन में बहुत रुचि थी । इसलिए उसने कहा, ‘‘सर !, पी.डी. टंडन ने भी फीचर लेखन को परिभाषित किया है ।’’, ‘‘हाँ... पी.डी. टंडन कहते हैं- ‘‘फीचर किसी, गद्य गीत की भाँति होता है; जो बहुत लंबा, नीरस और, गंभीर नहीं होना चाहिए । अर्थात फीचर किसी विषय का, मनोरंजक शैली में विस्तृत विवेचन है ।’’ स्नेहा इन, परिभाषाओं को रटते-रटते समझ गई थी कि फीचर, समाचारपत्र का प्राणतत्त्व होता है । पाठक की प्यास, बुझाने, घटना की मनोरंजनात्मक अभिव्यक्ति करने की, कला का नाम ही फीचर है ।, ‘‘मम्मी... चलिए न ! हॉल में सभी आपकी प्रतीक्षा, कर रहे हैं ।’’ प्रिया के इन शब्दों से स्नेहा अपने में लौटी ।, बेटी प्रिया उसे चलने के लिए कह रही थी ।, ‘‘अरे हाँ प्रिया ! चल रही हूँ ।’’ कहती हुई स्नेहा, अपने घर के हॉल में प्रविष्ट हुई । हॉल में स्नेहा के पति,, बेटा, सास-ससुर, करीबी रिश्तेदार तथा पत्रकार मित्र, उपस्थित थे । तभी हॉल में प्रविष्ट होते एक व्यक्ति को, देखकर स्नेहा की आँखें फटी-की-फटी रह गईं । वह, व्यक्ति देश के विख्यात समाचारपत्र के संपादक थे ।, ‘‘सर आप और यहाँ?’’ स्नेहा के मुँह से बरबस, निकला ।, ‘‘क्यों? मैं नहीं आ सकता इस अवसर पर ?’’, ‘‘ऐसी बात नहीं है... अचानक आपको...’’, ‘‘स्नेहा, बहुत-बहुत बधाई ! आज तुमने फीचर, लेखन में शीर्ष स्थान पा लिया है ।’’ स्नेहा की बात काटकर, संपादक ने बधाई दी । सभी ने एक स्वर में कहा, ‘‘बधाई, हो ।’’ इन शब्दों को सुनते ही स्नेहा दस वर्ष पूर्व की दुनिया, में चली गई । पत्रकारिता कोर्स के बीतते दिन-महीने..., फीचर लेखन के संबंध में सुने हुए लेक्चर्स... प्रोफेसरों से, की गईं चर्चाएँ... अध्ययन, परीक्षा... फीचर लेखन का, प्रारंभ... फीचर लेखन की सिद्धहस्त लेखिका बनना ही, उसका एकमात्र सपना था ।, उसकी यादों में वह दिन तैर गया... जब उसे, पत्रकारिता कोर्स में फीचर लेखन पर व्याख्यान देने के लिए, बुलाया गया था । हॉल विद्य ार्थियों से खचाखच भरा हुआ, , था । आज उसे अपने परिश्रम सार्थक होते नजर आ रहे, थे । फीचर लेखन पर स्नेहा ने बोलना प्रारंभ किया । रोचक, प्रसंगों के साथ स्नेहा विद्य ार्थियों को फीचर लेखन की, विशेषताएँ बताने लगी, ‘‘अच्छा फीचर नवीनतम जानकारी, से परिपूर्ण होता है । किसी घटना की सत्यता अथवा तथ्यता, फीचर का मुख्य तत्त्व है । फीचर लेखन में राष्ट्रीय स्तर के, तथा अन्य महत्त्वपूर्ण विषयों का समावेश होना चाहिए, क्योंकि समाचारपत्र दूर-दूर तक जाते हैं । इतना ही नहीं;, फीचर का विषय समसामयिक होना चाहिए ।, फीचर लेखन में भावप्रधानता होनी चाहिए क्योंकि, नीरस फीचर कोई नहीं पढ़ना चाहता । फीचर के विषय से, संबंधित तथ्यों का आधार दिया जाना चाहिए ।’’ स्नेहा, आगे बोलती जा रही थी, ‘‘विश्वसनीयता के लिए फीचर, में विषय की तार्किकता को देना आवश्यक होता है ।, तार्किकता के बिना फीचर अविश्वसनीय बन जाता है ।, फीचर में विषय की नवीनता का होना आवश्यक है क्योंकि, उसके अभाव में फीचर अपठनीय बन जाता है । फीचर में, किसी व्यक्ति अथवा घटना विशेष का उदाहरण दिया गया, हो तो उसकी संक्षिप्त जानकारी भी देनी चाहिए ।, पाठक की मानसिक योग्यता और शैक्षिक पृष्ठभूमि, को ध्यान में रखकर फीचर लेखन किया जाना चाहिए । उसे, प्रभावी बनाने हेतु प्रसिद्ध व्यक्तियों के कथनों, उद्ध रणों,, लोकोक्तियों और मुहावरों का प्रयोग फीचर में चार चाँद, लगा देता है ।, फीचर लेखक को निष्पक्ष रूप से अपना मत व्यक्त, करना चाहिए जिससे पाठक उसके विचारों से सहमत हो, सके । इसके लेखन में शब्दों के चयन का अत्यंत महत्त्व, है । अत: लेखन की भाषा सहज, संप्रेषणीयता से पूर्ण होनी, चाहिए । फीचर के विषयानुकूल चित्रों, कार्टूनों अथवा, फोटो का उपयोग किया जाए तो फीचर अधिक, परिणामकारक बनता है ।’’, आरंभ, , मध्य, , चरम, , फीचर लेखन के, महत्त्वपूर्ण बिंदु, , भाषाशैली, , 8६, , निष्कर्ष, , समापन
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स्नेहा अपनी रौ में बोलती जा रही थी तभी एक, विद्यार्थी ने अपना हाथ ऊपर उठाते हुए कहा, ‘‘मैडम,, आपने बहुत ही सुंदर तरीके से फीचर लेखन की विशेषताओं, पर प्रकाश डाला है ।’’, ‘‘अच्छा ! तो आप लोगों को अब पता चला ।, आपका और कोई प्रश्न है?’’ स्नेहा ने उसे आश्वस्त करते, हुए पूछा ।, ‘‘मैडम ! मेरा प्रश्न यह है कि फीचर किन-किन, विषयों पर लिखा जाता है और फीचर के कितने प्रकार, हैं?’’ ‘‘बहुत अच्छा, देखिए फीचर किसी विशेष घटना,, व्यक्ति, जीव-जंतु, तीज-त्योहार, दिन, स्थान,, प्रकृति-परिवेश से संबंधित व्यक्तिगत अनुभूतियों पर, आधारित आलेख होता है । इस आलेख को कल्पनाशीलता,, सृजनात्मक कौशल के साथ मनोरंजक और आकर्षक शैली, में प्रस्तुत किया जाता है ।’’, स्नेहा ने सभी पर दृष्टि घुमाई । एक क्षण के लिए, रुकी । फिर बोलने लगी, ‘‘फीचर के अनेक प्रकार हैं ।, उनमें मुख्य रूप से निम्नलिखित हैं :’’, • व्यक्तिपरक फीचर • सूचनात्मक फीचर, • विवरणात्मक फीचर • विश्लेषणात्मक फीचर, • साक्षात्कार फीचर • विज्ञापन फीचर, ‘‘मैडम ! हम जानना चाहते हैं कि फीचर लेखन, करते समय कौन-सी सावधानियाँ बरतनी चाहिए?’’ उसी, विद्यार्थी ने जिज्ञासावश प्रश्न किया ।, ‘‘बड़ा ही सटीक और तर्कसंगत प्रश्न पूछा है, आपने ।’’ अब स्नेहा ने इस विषय पर बोलना प्रारंभ, किया • ‘‘फीचर लेखन में मिथ्या आरोप-प्रत्यारोप करने से, बचना चाहिए ।, • अति क्लिष्ट और आलंकारिक भाषा का प्रयोग, बिलकुल भी न करें ।, • झूठे तथ्यात्मक आँकड़े, प्रसंग अथवा घटनाओं का, उल्लेख करना उचित नहीं ।, • फीचर अति नाटकीयता से परिपूर्ण नहीं होना, चाहिए ।, • फीचर लेखन में अति कल्पनाओं और हवाई बातों को, स्थान देने से बचना चाहिए ।’’, ‘‘इन सभी सावधानियों को ध्यान में रखेंगे तो, , आपका फीचर लेखन अधिकाधिक विश्वसनीय और, प्रभावी बन सकता है । आपमें से किसी विद्य ार्थी को फीचर, के विषय में कुछ और पूछना है?’’ स्नेहा ने पूरी कक्षा पर, नजर डाली । तभी एक विद्य ार्थिनी ने अपना हाथ ऊपर, उठाया । स्नेहा ने उससे प्रश्न पूछने के लिए कहा ।, ‘‘मैडम ! क्या आप फीचर लेखन की प्रक्रिया पर, प्रकाश डालेंगी?’’, ‘‘हाँ ! हाँ ! क्यों नहीं? फीचर लेखन की प्रक्रिया के, मुख्य तीन अंग हैं (१) विषय का चयन :- फीचर लेखन में विषय का चयन, करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि विषय, रोचक, ज्ञानवद्र्धक और उत्प्रेरित करने वाला होना, चाहिए । अत: फीचर का विषय समयानुकूल, समसामयिक, होना चाहिए । विषय जिज्ञासा उत्पन्न करने वाला हो ।, (२) सामग्री का संकलन :- फीचर लेखन में विषय संबंधी, सामग्री का संकलन करना महत्त्वपूर्ण अंग है । उचित, जानकारी और अनुभव के अभाव में लिखा गया फीचर, नीरस सिद्ध हो सकता है । विषय से संबंधित उपलब्ध, पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं से सामग्री जुटाने के अलावा, बहुत-सी सामग्री लोगों से मिलकर, कई स्थानों पर जाकर, जुटानी पड़ती है ।, (३) फीचर योजना :- फीचर लिखने से पहले फीचर का, एक योजनाबद्ध ढाँचा बनाना चाहिए ।’’, अपने इस मंतव्य के साथ स्नेहा विद्यार्थियों की, जिज्ञासा देखना चाह रही थी, तभी एक विद्य ार्थी का ऊपर, उठा हुआ हाथ स्नेहा को दिखाई दिया । स्नेहा ने उसे प्रश्न, पूछने के लिए कहा ।, ‘‘फीचर लेखन के कितने सोपान अथवा चरण होते, हैं; जिनके आधार पर फीचर लिखा जाता है ।’’ विद्य ार्थी, ने प्रश्न किया ।, ‘‘अरे वाह ! कितनी रुचि रखते हैं आप लोग फीचर, में । चलिए, मुझे लगता है, आपका यह प्रश्न भी विषय की, दृष्टि से बहुत महत्त्व रखता है ।’’ स्नेहा ने फीचर लेखन के, चरणों पर बोलना शुरू किया - ‘‘निम्न चार सोपानों अथवा, चरणों के आधार पर फीचर लिखा जाता है ।’’, (१) प्रस्तावना : प्रस्तावना में फीचर के विषय का संक्षिप्त, परिचय होता है । यह परिचय आकर्षक और विषयानुकूल, होना चाहिए । इससे पाठकों के मन में फीचर पढ़ने की, , 8७
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जिज्ञासा जाग्रत होती है और पाठक अंत तक फीचर से जुड़ा, रहता है ।, (२) विवरण अथवा मुख्य कलेवर : फीचर में विवरण का, महत्त्वपूर्ण स्थान है । फीचर में लेखक स्वयं के अनुभव,, लोगों से प्राप्त जानकारी और विषय की क्रमबद्धता,, रोचकता के साथ-साथ संतुलित तथा आकर्षक शब्दों में, पिरोकर उसे पाठकों के सम्मुख रखता है जिससे फीचर पढ़ने, वाले को ज्ञान और अनुभव से संपन्न कर दे ।, (३) उपसंहार : यह अनुच्छेद संपूर्ण फीचर का सार अथवा, निचोड़ होता है । इसमें फीचर लेखक फीचर का निष्कर्ष भी, प्रस्तुत कर सकता है अथवा कुछ अनुत्तरित प्रश्न पाठकों, के ऊपर भी छोड़ सकता है । उपसंहार ऐसा होना चाहिए, जिससे विषय से संबंधित पाठक को ज्ञान भी मिल जाए और, उसकी जिज्ञासा भी बनी रहे ।, (4) शीर्षक : विषय का औचित्यपूर्ण शीर्षक फीचर की, आत्मा है । शीर्षक संक्षिप्त, रोचक और जिज्ञासावर्धक, होना चाहिए । नवीनता, आकर्षकता और ज्ञानवृद्धि उत्तम, शीर्षक के गुण हैं ।, ‘‘आपने फीचर पर मेरा व्याख्यान ध्यानपूर्वक सुना ।, मुझे लगता है, आपकी शंकाओं का समाधान हो गया, , होगा । इसलिए मैं आप सभी को हृदय से धन्यवाद देती, हूँ ।’’ कहकर स्नेहा कुर्सी में बैठ गई । हॉल विद्य ार्थियों की, तालियों से गूँज उठा ।, ‘‘मैडम ! कहाँ खो गई हैं आप?’’ एक पत्रकार ने, स्नेहा की ओर गुलदस्ता बढ़ाते हुए कहा ।, ‘‘जी !’’ स्नेहा चौंक उठी । देखा तो सामने एक, जाना-माना पत्रकार था । उसका भी फीचर लेखन क्षेत्र में, एक नाम था । ‘‘अरे... आप भी तो एक विख्यात फीचर, लेखक हैं ।’’ स्नेहा ने गुलदस्ता स्वीकारते हुए कहा ।, ‘‘मेरे विख्यात फीचर लेखक होने में आपका बहुत, बड़ा योगदान है ।’’ पत्रकार ने कहा ।, ‘‘मेरा योगदान ! वह कैसे?’’ स्नेहा ने कुतूहल से, पूछा ।, ‘‘मैडम ! आपने दस वर्ष पूर्व फीचर लेखन पर जो, व्याख्यान दिया था; उसमें दो महत्त्वपूर्ण प्रश्न पूछने वाला, विद्यार्थी मैं ही था ।’’ उस पत्रकार की आँखों में कृतज्ञता, का भाव था । स्नेहा अवाक्- सी खड़ी थी और हॉल में, तालियों की गूँज बढ़ती जा रही थी ।, ०, , अच्छे फीचर लेखन की विशेषताएँ, मनोरंजकता, , ज्ञानवर्धकता, , तर्कसंगतता, , मानवीय, रुचि पर, आधारित, , कल्पनाशीलता, , रोचकता, , गतिशीलता, , 88, , भावात्मकता, , चित्रात्मकता, भाषाशैली
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, , फीचर लेखन , ...प्लेयर के एवार्ड ने बना दिया चैंपियन, , नागपुर (महाराष्ट्र) की महिमा पांडे ने हाल ही में, टेनिस में सोनाली बत्रा सबा को ३.० से हराकर जूनियर, चैंपियनशिप पर कब्जा बना लिया । इसके साथ ही वह, जूनियर चैंपियनशिप जीतने वाली पहली टेनिस महिला, खिलाड़ी बन गई है । उनका कहना था कि असफलता, सफलता की पहली सीढ़ी है । अत: उदास न होकर, जी-जान से कोशिश करने से सफलता प्राप्त होती है । वे, बताती हैं- ‘‘इससे पहले अंतर्राज्यीय चैंपियनशिप में मिली, पराजय ने मुझे पागल प्लेयर का एवार्ड मिला । इसी एवार्ड, ने मुझे बेहतर खेलने के लिए प्रेरित किया, और आज मैं यह चैंपियनशिप जीत पाई, हूँ ।’’, वस्तुत: खेलकूद हमारे जीवन का, एक अहम हिस्सा है । जो माता-पिता, अपने बच्चों को दिन भर बस पढ़ाई के, लिए दबाव डालते रहते हैं, उनसे मेरा, निवेदन है कि वे अपने बच्चों को, खेलकूद के लिए भी प्रेरित करें । ‘स्वस्थ, शरीर में स्वस्थ मन का निवास होता है’,, इस सूक्ति के अनुसार बच्चे दिन भर, खेल-कूदकर घर आएँगे तो शरीर भी स्वस्थ रहेगा । आखिर, बच्चे बाल्यावस्था में खेलकूद नहीं करेंगे तो कब करेंगे !, बचपन में मम्मी-पापा जब भी हमें खेलते देखते तो, एक ही बात बोलते, ‘‘पढ़ोगे, लिखोगे, बनोगे नवाब;, खेलोगे, कूदोगे, बनोगे खराब ।’’ लेकिन बड़े होने के बाद, हम उन्हें प्रसिद्ध क्रिकेट खिलाड़ी, हॉकी खिलाड़ी,, फुटबॉल खिलाड़ी, लॉन टेनिस खिलाड़ियों की तस्वीरें, दिखाकर यही कहते थे कि देखो, ये खिलाड़ी खेलकर ही, आज इस मुकाम पर पहुँचे हैं ।, देखा जाए तो खेलकूद आज सफल कैरियर के रूप, में सामने आ रहे हैं, जिनमें नाम भी है और दाम भी ।, कबड्ड ी भले ही टाँग खींचने वाला खेल है पर आज इस, खेल ने भी एशियन खेलों में अपनी जगह बना ली है । खेल, चाहे जो हो व्यक्ति को स्फूर्ति प्रदान करता है । मेरी भाँजी, , रिया का कद छोटा था । डॉक्टरों ने भी उसे बैडमिंटन और, बास्केट बॉल खेलने की सलाह दी थी ।, बॉक्सिंग, एथलिट्स, रग्बी तो हैं ही, इनडोअर गेम्स, में शतरंज और टेबल टेनिस भी ऐसे खेल हैं जिनमें नाम और, दाम दोनों कमाए जा सकते हैं ।, आज महिला घर के सारे काम तो करती ही है,, साथ-ही-साथ समाज, राजनीति, चिकित्सा, कृषि यहाँ, तक कि रक्षा क्षेत्र में भी अपनी पहचान निर्माण कर रही है ।, हमारे सामने कई ऐसे उदाहरण हैं जिनमें पुरुषों ने ही नहीं, बल्कि महिलाओं ने भी आरंभिक, असफलताओं के बावजूद बिना हिम्मत, हारे, बिना निराश हुए खेलों की दुनिया में, अपना स्थान बना लिया है । ओलंपिक, में बॉक्सिंग चैंपियनशिप जीतने वाली, रिया बताती है कि स्टेट चैंपियनशिप में, हारने पर मुझे लूजर बॉक्सर का खिताब, मिला । बस ! मैंने ठान लिया कि अब तो, चैंपियन बनकर ही रहना है और मैं बनी ।, खेलकूद अनजाने में ही जीवन के कई, नियमों से हमें परिचित करवा देते हैं ।, जैसे- अनुशासन, समय की पाबंदी तथा महत्त्व,, समयसूचकता,, मैत्री, भावना,, टीम, वर्क, आदि ।, सारा दिन किताबों में सिर खपाते या मोबाइल में, गेम्स खेलते बच्चों से भी कहना चाहूँगी कि खेलकूद को, अपने जीवन का हिस्सा बनाओ क्योंकि जो ऊर्जा और, चुस्ती-फुर्ती खेलों से मिलती है, वह अच्छे-से-अच्छे, ‘जिम’ में जाने से भी नहीं मिलती । मोटापा कम करने के, साथ अनेक बीमारियों से हमें बचाते हैं ये खेल !, इसलिए खेल जगत में भारत का नाम रोशन करने,, ओलंपिक, एशियाई खेलों में स्वर्ण-रजत पदकों की संख्या, बढ़ाने के लिए आवश्यक है कि अन्य देशों की तरह हम भी, खेलों को उचित महत्त्व दें ।, ०, , 8९
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१६. मैं उद्घोषक, - आनंद सिंह, लेखक परिचय ः आनंद प्रकाश सिंह जी का जन्म २१ जुलाई १९58 को असम राज्य के धुबरी नामक स्थान पर, हुआ । आपकी शिक्षा-दीक्षा उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ एवं इलाहाबाद में हुई । आपकी रुचियों और वृत्तियों ने आपको, कविता, लेख, फिल्म, नाट्य और कला समीक्षा का हस्ताक्षर बना दिया । श्रेष्ठ उद्घ ोषक तथा सफल मंच संचालक के रूप, में आपकी विशेष पहचान है । आकाशवाणी मुंबई में २९ वर्ष उद्घोषक के रूप में अपनी सेवाएँ देकर आप अवकाश ग्रहण, कर चुके हैं । आपने आकाशवाणी के लिए आवश्यक संवाद लेखन करते हुए संवाद तथा संप्रेषण क्षेत्र में अपनी विशेष पहचान, बनाई है । आपने विभिन्न समसामयिक विषयों पर लेखन करते हुए हिंदी भाषा की सेवा की है ।, प्रमुख कृतियाँ ः पत्र-पत्रिकाओं में विभिन्न विषयों पर लेख, समीक्षाएँ, कहानियाँ, कविताएँ आदि प्रकाशित ।, अात्मकथा ः आत्मकथा लेखन हिंदी साहित्य में रोचक और पठनीय लेखन माना जाता है । अपने अनुभवों, व्यक्तिगत प्रसंगों, को पूरी निष्ठा से बताना आत्मकथा की पहली शर्त है । इसमें लेखक की तटस्थता, घटनाओं के प्रति निरपेक्षता का निर्वाह, आत्मकथा को विश्वसनीय बना देता है । आत्मकथा ‘मैं’ इस उत्तम पुरुषवाचक सर्वनाम में लिखना आवश्यक है ।, पाठ परिचय ः यहाँ सूत्र संचालन की प्रस्तुति ‘आत्मकथा’ के रूप में की गई है । प्रस्तुत पाठ में लेखक ने सफल उद्घ ोषक, अथवा मंच संचालक बनने के लिए आवश्यक गुणों का उल्लेख किया है । लेखक का मानना है कि कार्यक्रम की सफलता, मंच संचालक के आकर्षक और उत्तम संचालन पर निर्भर करती है । संचालक की सूझ-बूझ, समयसूचकता, हाजिरजवाबी, और भाषा प्रभुत्व समारोह को नये आयाम प्रदान करते हैं । वर्तमान काल में मंच अथवा सूत्र संचालन कार्य अपने-आप में, महत्त्वपूर्ण कार्य के रूप में प्रसिद्ध हो गया है ।, मैं उद्घोषक हूँ । उद्घोषक के पर्यायवाची शब्द के, रूप में ‘मंच संचालक’ और अंग्रेजी में कहें तो एंकर हूँ । मंच, संचालक श्रोता और वक्ता को जोड़ने वाली कड़ी है ।, मैं उसी कड़ी का काम करता हूँ । इसके लिए मेरी कई, नामचीन व्यक्तियों द्वारा भूरि-भूरि प्रशंसा की गई है ।, भारत रत्न पं. भीमसेन जोशी जैसी हस्तियों के मुँह से यह, सुनना कि बहुत अच्छा बोलते हो, अच्छे उद्घ ोषक हो या, ‘मैं तो तुम्हारा फैन हो गया’ तो सचमुच स्वयं को गौरवान्वित, अनुभव करता हूँ ।, किसी भी कार्यक्रम में मंच संचालक की बहुत अहम, भूमिका होती है । वही सभा की शुरुआत करता है ।, आयोजकों को तथा अतिथियों को वही मंच पर आमंत्रित, करता है, वही अपनी आवाज, सहज और हास्य प्रसंगों, तथा काव्य पंक्तियों से कार्यक्रम की सफलता निर्धारित, करता है । मैंने कई बार इस महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह, अत्यंत सफलतापूर्वक किया है लेकिन यह सब यों अचानक, नहीं हो गया । मैंने भी इसके लिए बहुत पापड़ बेले हैं ।, आरंभिक दिनों में मैं भी मंच पर जाते घबराता था । माइक, मुझे साँप के फन की तरह नजर आता था । दिल जोर-जोर, , 91, , से धड़कने लगता था ।, मुझे याद है - तब मैं, नौवीं कक्षा का छात्र, था । विद्यालय के, प्रांगण में गांधी जयंती, का आयोजन किया, गया था । मुझे भी, भाषण देने के लिए चुना, गया । मंच पर जाते ही हाथ-पैर थरथराने लगे । जो कुछ, याद किया था, लगा, सब भूल गया हूँ । कुछ पल के लिए, जैसे होश ही खो बैठा हूँ पर फिर खुद को सँभाला । महान, व्यक्तियों के आरंभिक जीवन के प्रसंगों को याद किया कि, किस तरह कुछ नेता हकलाते थे, कुछ काँपते थे पर बाद में, वे कुशल वक्ता बने । ये बातें याद आते ही हिम्मत जुटाकर, मैंने बोलना शुरू किया और बोलता ही गया । भाषण, समाप्त हुआ । खूब तालियाँ बजीं । खूब वाह-वाही, मिली । कहने का मतलब यह कि थोड़ी-सी हिम्मत और, आत्मविश्वास ने मुझे भविष्य की राह दिखा दी और मैं एक, सफल सूत्र संचालक के रूप में प्रसिद्ध हो गया ।
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सूत्र संचालन के मुख्यत: निम्न प्रकार हैं • शासकीय कार्यक्रम का सूत्र संचालन • दूरदर्शन हेतु सूत्र, संचालन • रेडियो हेतु सूत्र संचालन • राजनीतिक,, सामाजिक तथा सांस्कृतिक कार्यक्रमों का सूत्र संचालन, • शासकीय एवं राजनीतिक कार्यक्रम का सूत्र संचालन :, शासकीय एवं राजनीतिक समारोह के सूत्र संचालन में, प्रोटोकॉल का बहुत ध्यान रखना पड़ता है । पदों के अनुसार, नामों की सूची बनानी पड़ती है । किसका-किसके हाथों, सत्कार करना है; इसकी योजना बनानी पड़ती है । इस, प्रकार का सूत्र संचालन करते समय अति आलंकारिक, भाषा के प्रयोग से बचना चाहिए ।, • दूरदर्शन तथा रेडियो कार्यक्रम का सूत्र संचालन :, दूरदर्शन अथवा रेडियो पर प्रसारित किए जाने वाले, कार्यक्रम/समारोह की संपूर्ण जानकारी होनी चाहिए ।, कार्यक्रम की संहिता लिखकर तैयार करनी चाहिए । उसके, पश्चात कार्यक्रम प्रारंभ करना चाहिए और धीरे-धीरे उसका, विकास करते जाना चाहिए । भाषा का प्रयोग कार्यक्रम और, प्रसंगानुसार किया जाना चाहिए । रोचकता और विभिन्न, संदर्भों का समावेश कार्यक्रम में चार चाँद लगा देते हैं ।, स्मरण रहे- सूत्र संचालक मंच और श्रोताओं के, बीच सेतु का कार्य करता है । सूत्र संचालन करते समय, रोचकता, रंजकता, विविध प्रसंगों का उल्लेख करना, आवश्यक होता है । कार्यक्रम/समारोह में निखार लाना, सूत्र संचालक का महत्त्वपूर्ण कार्य होता है । कार्यक्रम के, अनुसार सूत्र संचालक को अपनी भाषा और शैली में, परिवर्तन करना चाहिए; जैसे- गीतों अथवा मुशायरे का, कार्यक्रम हो तो भावपूर्ण एवं सरल भाषा का प्रयोग अपेक्षित, है तो व्याख्यान अथवा वैचारिक कार्यक्रम में संदर्भ के साथ, सटीक शब्दों का प्रयोग आवश्यक है । सूत्र संचालन करते, समय उसके सामने सुनने वाले कौन हैं; इसका भी ध्यान, रखना चाहिए ।, अच्छे मंच संचालक के लिए आवश्यक है - अच्छी, तैयारी । वर्तमान समय में संगीत संध्या, बर्थ डे पार्टी या, अन्य मंचीय कार्यक्रमों के लिए मंच संचालन आवश्यक हो, गया है । मैंने भी इस तरह के अनेक कार्यक्रमों के लिए, सूत्र संचालन किया है । जिस तरह का कार्यक्रम हो, तैयारी, भी उसी के अनुसार करनी होती है । मैं भी सर्वप्रथम यह, देखता हूँ कि कार्यक्रम का स्वरूप क्या है? सामाजिक,, , शैक्षिक, राजनीतिक, कवि सम्मेलन, मुशायरा या, सांस्कृतिक कार्यक्रम ! फिर उसी रूप में मैं कार्यक्रम का, संहिता लेखन करता हूँ । इसके लिए कड़ी साधना व सतत, प्रयास आवश्यक है । कार्यक्रम की सफलता सूत्र संचालक, के हाथ में होती है । वह दो व्यक्तियों, दो घटनाओं के बीच, कड़ी जोड़ने का काम करता है । इसलिए संचालक को, चाहिए कि वह संचालन के लिए आवश्यक तत्त्वों का, अध्ययन करे । सूत्र संचालक के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण गुणों, का होना आवश्यक है । हँसमुख, हाजिरजवाबी, विविध, विषयों का ज्ञाता होने के साथ-साथ उसका भाषा पर प्रभुत्व, होना आवश्यक है । कभी-कभी किसी कार्यक्रम में ऐन, वक्त पर परिवर्तन होने की संभावना रहती है । यहाँ सूत्र, संचालक के भाषा प्रभुत्व की परीक्षा होती है । पूर्व निर्धारित, अतिथियों का न आना, यदि आ भी जाए तो उनकी दिनभर, की कार्य व्यस्तता का विचार करते हुए कार्यक्रम पत्रिका में, संशोधन/सुधार करना पड़ता है । आयोजकों की ओर से, अचानक मिली सूचना के अनुसार संहिता में परिवर्तन कर, संचालन करते हुए कार्यक्रम को सफल बनाना ही सूत्र, संचालक की विशेषता होती है ।, सूत्र संचालक का मिलनसार होना भी आवश्यक, होता है । उसका यह मिलनसार व्यक्तित्व संचालन में चार, चाँद लगाता है । सूत्र संचालक को विविध विषयों का ज्ञाता, होना भी आवश्यक है । यदि सूत्र संचालक भौतिकीय, विज्ञान, परमाणु विज्ञान जैसे विषयों और विभिन्न राष्ट्रीयअंतर्राष्ट्रीय नेताओं के सामने कार्यक्रम का संचालन करता, , सूत्र संचालन, , सूत्र संचालन के चरण/बिंदु, श्रोतागण वंदन, स्वयं का परिचय, स्वागत, मंच पर उपस्थित महानुभावों का आदरपूर्वक सम्मान, सकारात्मक अभिप्राय, सहज, उत्स्फूर्त, संचालन, आवाज में उतार-चढाव, श्रोताओं से संवाद, समय सूचकता, हाजिरजवाबीपन, गलती पर तुरंत माफी, कार्यक्रम के अनुसार भाषाशैली में परिवर्तन, , ९२
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हो तो संबंधित राष्ट्र तथा विषयों का ज्ञाता होना आवश्यक, है । कड़ी साधना, गहराई से अध्ययन करते हुए विषय का, ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं । आकाशवाणी और सार्वजनिक, कार्यक्रमों के मंचों पर संचालन कार्य ने मेरे व्यक्तित्व को नई, ऊँचाई प्रदान की है । इस विषय में मेरी सफलता का प्रमुख, कारण है मेरा प्रस्तुतीकरण क्योंकि मंच संचालन की, सफलता संचालक के प्रस्तुतीकरण पर ही निर्भर करती है ।, मैं इस बात का ध्यान रखता हूँ कि कार्यक्रम कोई भी, हो, मंच की गरिमा बनी रहे । मंचीय आयोजन में मंच पर, आने वाला पहला व्यक्ति संचालक ही होता है । एंकर, (उद्घोषक) का व्यक्तित्व दर्शकों की पहली नजर में ही, सामने आता है । अतएव उसका परिधान, वेशभूषा, केश, सज्जा इत्यादि सहज व गरिमामयी होनी चाहिए । उद्घोषक, या एंकर के रूप में जब वह मंच पर होता है तो उसका, व्यक्तित्व और उसका आत्मविश्वास ही उसके शब्दों में, उतरकर श्रोता तक पहुँचता है । सतर्कता, सहजता और, उत्साहवर्धन उसके मुख्य गुण हैं । मेरे कार्यक्रम का आरंभ, जिज्ञासाभरा होता है । बीच-बीच में प्रसंगानुसार कोई, रोचक दृष्टांत, शेर-ओ-शायरी या कविताओं के अंश का, प्रयोग करता हूँ । जैसे- एक कार्यक्रम में वक्ता महिलाओं, की तुलना गुलाब से करते हुए कह रहे थे कि महिलाएँ, बोलती भी ज्यादा हैं और हँसती भी ज्यादा हैं । बिलकुल, खिले गुलाबों की तरह वगैरह...। जब उनका वक्तव्य खत्म, हुआ तो मैंने उन्हें धन्यवाद देते हुए कहा कि सर आपने कहा, कि महिलाएँ हँसती-बोलती बहुत ज्यादा हैं तो इसपर मैं, महिलाओं की तरफ से कहना चाहूँगा,, , ‘हर शब्द में अर्थ छुपा होता है । हर अर्थ में फर्क छुपा होता है ।, लोग कहते हैं कि हम हँसते और बोलते बहुत ज्यादा हैं ।, पर ज्यादा हँसने वालों के दिल में भी दर्द छुपा होता है ।’, , मेरी इस बात पर इतनी तालियाँ बजीं कि बस !, महिलाएँ तो मेरी प्रशंसक हो गईं । कार्यक्रम के बाद उन, वक्ताओं ने मेरी पीठ थपथपाते हुए कहा, ‘बहुत बढ़िया, बोलते हो ।’ संक्षेप में; कभी कोई सहज, हास्य से भरा, चुटकुला या कोई प्रसंग सुना देता हूँ तो कार्यक्रम बोझिल, नहीं होता तथा उसकी रोचकता बनी रहती है । विभिन्न, विषयों का ज्ञान होना जरूरी है । कार्यक्रम कोई भी हो;, भाषा का समयानुकूल प्रयोग कार्यक्रम की गरिमा बढ़ा देता, है । इसके लिए आपका निरंतर पढ़ते रहना आवश्यक है ।, , मैं भी जब छोटा था तो रोज शाम के समय नगर, वाचनालय में जाता था । ‘चंपक’, ‘नंदन’, ‘बालभारती’, और ‘चंदामामा’ जैसी पत्रिकाएँ पढ़ता था । बाद में, ‘धर्मयुग’, ‘हिंदुस्तान’, ‘दिनमान’, ‘कादंबिनी’, ‘सारिका’,, ‘नवनीत’, ‘रीडर्स डाइजेस्ट’ जैसी मासिक-पाक्षिक, पत्रिकाएँ पढ़ने लगा । रेडियो के विविध कार्यक्रमों को सुनना, बेहद पसंद था । ये सारी बातें कहीं-न-कहीं प्रेरणादायक, रहीं तथा सूत्र संचालन का आधारस्तंभ बनीं ।, मैं उद्घोषक/मंच संचालक की भूमिका पूरी निष्ठा, से निभाता रहा हूँ और श्रोताओं ने मुझे अपार स्नेह और यश, से समृद्ध किया है । किंग ऑफ वाॅईस, संस्कृति शिरोमणि,, अखिल आकाशवाणी जैसे अनेक पुरस्कारों से सम्मानित, किया गया हूँ । मैंने भी विज्ञापन देखकर रेडियो उद्घोषक, पद हेतु आवेदन किया था । २९ वर्ष तक मैंने वहाँ अपनी, सेवाएँ प्रदान कीं; इसका मुझे गर्व है ।, मैं उद्घ ोषक हूँ । शब्दों की दुनिया में रहता हूँ । जब, रेडियो से बोलता हूँ तो हर घर, सड़क-दर-सड़क,, गली-गली में सुनाई पड़ता हूँ, तब मेरी कोई सूरत नहीं, होती । मेरा कोई चेहरा भी नहीं होता लेकिन मैं हवाओं की, पालकी पर सवार दूर गाँवों तक पहुँच जाता हूँ । जब एंकर, बन जाता हूँ तो अपने दर्शकों के दिलों को छू लेता, हूँ । आप मुझे आवाज के परदे पर देखते हैं । मैं उद्घोषक, हूँ । मैं एंकर हूँ ।, रोजगार के अवसर, इस क्षेत्र में भी रोजगार की भरपूर संभावनाएँ हैं ।, इसमें आप नाम-दाम दोनों कमा सकते हैं । मुझे भाषा का, गहराई से अध्ययन करना पड़ा है । लोग भले ही कहें कि, भाषा का अध्ययन क्यों करें? क्या इससे रोजगार मिलता, है? पर मैं आज तक के अपने अनुभवों से कहना चाहता हूँ, कि भाषा का विद्यार्थी कभी बेकार नहीं रहता । सूत्र, संचालन में भी भाषा की महत्त्वपूर्ण भूमिका है । भाषा की, शुद्धता, शब्दों का चयन, उनका उचित प्रयोग, किसी, प्रख्यात साहित्यकार या व्यक्तित्व के कथन का उल्लेख, कार्यक्रम को प्रभावशाली एवं हृदयस्पर्शी बना देता है ।, विभिन्न कार्यक्रमों के साथ आप रेडियो या टी.वी. उद्घोषक, के रूप में रोजगार पा सकते हैं ।, ०, , ९३
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स्वाध्याय, पाठ पर आधारित, (१) ‘सूत्र संचालक के कारण कार्यक्रम में चार चाँद लगते हैं ’, इसे स्पष्ट कीजिए ।, (२) उत्तम मंच संचालक बनने के लिए आवश्यक गुण विस्तार से लिखिए ।, (३) सूत्र संचालन के विविध प्रकारों पर प्रकाश डालिए ।, , व्यावहारिक प्रयोग, (१) अपने कनिष्ठ महाविद्यालय में मनाए जाने वाले ‘हिंदी दिवस समारोह’ का सूत्र संचालन कीजिए ।, (२) शहर के प्रसिद्ध संगीत महोत्सव का मंच संचालन कीजिए ।, , सूत्र, , वाचन, आकर्षक व्यक्तित्व, , संचालन, , कार्यक्रम पत्रिका, , की, , भाषाशैली का विकास, , तैयारी, , उच्चारण में शुद्धता, समयसूचकता, , ९4
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१७. ब्लॉग लेखन, - प्रवीण बर्दापूरकर, लेखक परिचय ः ब्लॉग लेखन के सफलतम लेखक प्रवीण बर्दापूरकर का जन्म ३ सितंबर १९55 को गुलबर्गा में हुआ ।, मराठी पत्रकारिता में आपको सम्मान का स्थान प्राप्त है । राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक क्षेत्रों का गहराई, से अध्ययन करने वाले तथा उन्हें समझने वाले निर्भीक पत्रकार के रूप में आप सुपरिचित हैं । आपने पत्रकारिता क्षेत्र में ब्लॉग, लेखन को बहुत ही लोकप्रिय बनाया है । आपने अपने ब्लॉग द्व ारा बदलते सामाजिक विषयों को परिभाषित करते हुए, जनमानस की विचारधारा को नयी दिशा देने का प्रयास किया है । आपके ब्लॉग धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण की पुष्टि करते हैं ।, सीधी-सादी, रोचक और संप्रेषणीय मराठी और हिंदी भाषा आपके ब्लॉग की विशेषता है ।, प्रमुख कृतियाँ ः ‘डायरी’, ‘नोंदी डायरीनंतरच्या’, ‘दिवस असे की’, ‘आई’, ‘ग्रेस नावाचं गारूड’ आदि ।, आलेख ः वर्तमान समय में आलेख लेखन को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ है । समाचारपत्रों में छपने वाले विभिन्न आलेख, विज्ञान, राजनीति, समसामयिक विषयों की विस्तृत, उपयोगी एवं ज्ञानवर्द्धक जानकारी देते हैं । फलस्वरूप पाठकों एवं, रचनाकारों में आलेख लेखन के प्रति पठन एवं लेखन का भाव जाग्रत हो गया है ।, पाठ परिचय ः आधुनिक समय में पत्रकारिता का क्षेत्र बड़ी तेजी से फैलता जा रहा है । समाचारपत्र हों अथवा टेलीविजन के, समाचार चैनल हों... पत्रकारिता अछूती नहीं रही है । पत्रकारिता क्षेत्र में ब्लॉग लेखन का प्रचलन भी लोकप्रिय बनता जा रहा, है । प्रस्तुत पाठ में लेखक ने ब्लॉग लिखने के नियम, ब्लॉग का स्वरूप और उसके वैज्ञानिक पक्ष की चर्चा करते हुए उसके, महत्त्व को स्पष्ट किया है । ब्लॉग लेखन जहाँ एक ओर सामाजिक जागरण का माध्यम बन चुका है; वहीं पत्रकारिता के, जीवित तत्त्व के रूप में भी स्वीकृत हुआ है तथा बड़ा ही लोकप्रिय माध्यम बन चुका है ।, ब्लाॅग लेखन से तात्पर्य :, ‘ब्लॉग’ अपना विचार, अपना मत व्यक्त करने का, एक डिजिटल माध्यम है । ब्लॉग के माध्यम से हमें जो, कहना है; उसके लिए किसी की अनुमति लेने की, आवश्यकता नहीं होती । ब्लॉग लेखन में शब्दसंख्या का, बंधन नहीं होता । अत: हम अपनी बात को विस्तार से रख, सकते हैं । ब्लॉग, वेबसाइट, पोर्टल आदि डिजिटल माध्यम, हैं । अखबार, पत्रिका या पुस्तक हाथ में लेकर पढ़ने की, बजाय उसे कंप्यूटर, टैब या सेलफोन से परदे पर पढ़ना, डिजिटल माध्यम कहलाता है । इस प्रकार का वाचन करने, वाली पीढ़ी इंटरनेट के महाजाल के कारण निर्माण हुई है ।, इसके कारण लेखक और पत्रकार भी ग्लोबल हो गए हैं ।, नवीन वाचकों की संख्या मुद्रित माध्यम के वाचकों से बहुत, अधिक है । इस वर्ग में युवा वर्ग अधिक संख्या में है ।, दुनिया की कोई भी जानकारी एक क्षण में ही परदे पर, उपलब्ध हो जाती है ।, ब्लॉग की खोज :, ब्लॉग की खोज के संदर्भ में निश्चित रूप से कोई, डॉक्युमेंटेशन उपलब्ध नहीं है पर जो जानकारी उपलब्ध है, , उसके अनुसार जस्टीन हॉल ने सन १९९4 में सबसे पहले, इस शब्द का प्रयोग किया । जॉन बर्गर ने इसके लिए वेब्लॉग, (Weblog) शब्द का प्रयोग किया था । माना जाता है कि, सन १९९९ में पीटर मेरहोल्स ने ‘ब्लॉग’ शब्द को प्रस्थापित, कर उसे व्यवहार में लाया । भारत में २००२ के बाद, ‘ब्लॉग लेखन’ आरंभ हुआ और देखते-देखते यह माध्यम, , ९5
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लोकप्रिय हुआ तथा इसे अभिव्यक्ति के नये माध्यम के रूप, में मान्यता भी प्राप्त हुई ।, ब्लॉग लेखन शुरू करने की प्रक्रिया :, यह एक टेक्निकल अर्थात तकनीकी प्रक्रिया है ।, इसके लिए डोमेन (Domain) अर्थात ब्लॉग के शीर्षक को, रजिस्टर्ड कराना होता है । उसके बाद वह किसी सर्वर से, जोड़ना पड़ता है । उसमें अपनी विषय सामग्री समाविष्ट कर, हम इस माध्यम का उपयोग कर सकते हैं । इस संदर्भ में, विस्तृत जानकारी ‘गूगल’ पर उपलब्ध है । कुछ विशेषज्ञ, इस संदर्भ में सशुल्क सेवाएँ देते हैं ।, ब्लॉग लेखक के लिए आवश्यक गुण :, ब्लॉग लेखक के पास लोगों से संवाद स्थापित करने, के लिए बहुत-से विषय होने चाहिए । विपुल पठन, चिंतन, तथा भाषा का समुचित ज्ञान होना आवश्यक है । भाषा, सहज, प्रवाहमयी हो तो ही पाठक उसे पढ़ेगा । साथ ही, लेखक के पास विषय से संबंधित संदर्भ, घटनाएँ और यादें, हों तो ब्लॉग पठनीय होगा । जिस क्षेत्र या जिस विख्यात, व्यक्ति के संदर्भ में आप लिख रहे हैं, उस व्यक्ति से आपका, संबंध कैसे बना? किसी विशेष भेंट के दौरान उस व्यक्ति ने, आपको कैसे प्रभावित किया? यदि वह व्यक्ति आपके, निकटस्थ परिचितों में है तो उसकी सहृदयता, मानवता, आदि से संबंधित कौन-सा पहलू आपकी स्मृतियों में रहा?, ऐसे अनेक विषय हैं जिन्हें आप शब्दांकित कर अपने, पाठकों का विश्वास प्राप्त कर सकते हैं ।, यहाँ इस बात का ध्यान रहे कि विषय में आशय की, गहराई हो । प्रवाही कथन शैली भी इसका एक महत्त्वपूर्ण, मापदंड है । क्लिष्ट शब्दों के उपयोग से बचते हुए, सीधी-सादी, सहज भाषा का प्रयोग किया जाए तो पाठक, विषय सामग्री से बहुत जल्दी एकरूप हो जाता है । सटीक, विशेषणों के प्रयोग से भाषा को सौष्ठव प्राप्त होता है और, पाठक इसकी ओर आकर्षित होता है । भाषा शब्दों या, अक्षरों का समूह नहीं होता है । प्रत्येक शब्द का विशिष्ट, अर्थ के साथ जन्म होता है तथा उस अर्थ में भावनाएँ निहित, होती हैं । सहज-सरल होने के साथ भाषा का बाँकपन, ब्लॉग लेखन की गरिमा को बढ़ाता है । ‘शैली’ एक दिन में, नहीं बनती । यह सतत लेखन से ही संभव है । जिस प्रकार, गायक प्रतिदिन रियाज कर राग और बंदिश का निर्माण करने, में निपुण बनता है, उसी प्रकार निरंतर लेखन से लेखक की, , शैली विकसित होती है और पाठकों को प्रभावित करती, है ।, ब्लॉग लेखन में आवश्यक सावधानियाँ :, ब्लॉग लेखन में इस बात का ध्यान रखना पड़ता है कि, उसमें मानक भाषा का प्रयोग हो । व्याकरणिक अशुद्धियाँ, ना हों; लेखन की स्वतंत्रता से तात्पर्य कुछ भी लिखने का, अनुमतिपत्र नहीं मिल जाता है । आक्रामकता का अर्थ, गाली-गलौज अथवा अश्लील शब्दों का प्रयोग करना नहीं, है । पाठक ऐसी भाषा को पसंद नहीं करते । किसी की निंदा, करना, किसी पर गलत टिप्पणी करना, समाज में तनाव की, स्थिति उत्पन्न करना आदि बातों से ब्लॉग लेखक को दूर, रहना चाहिए । बिना सबूत के किसी पर कोई आरोप करना, एक गंभीर अपराध है । ऐसा करने से पाठक आपकी कोई, भी बात गंभीरता से नहीं पढ़ते और ब्लॉग की आयु अल्प, हो जाती है । लेखन करते समय छोटी-छोटी बातों का, ध्यान रखा जाए तो पाठक ही हमारे ब्लॉग के प्रचारक बन, जाते हैं । एक पाठक दूसरे से सिफारिश करता है, दूसरा, तीसरे से और यह श्रृंखला बढ़ती चली जाती है ।, ब्लॉग लेखन का प्रसार :, ब्लॉग लेखक अपने ब्लॉग का प्रचार-प्रसार स्वयं कर, सकता है । विज्ञापन, फेसबुक, वाॅट्स एेप, एसएमएस आदि, द्वारा इसका प्रचार होता है । आकर्षक चित्रों-छायाचित्रों, के साथ विषय सामग्री यदि रोचक हो तो पाठक ब्लॉग की, प्रतीक्षा करता है और उसका नियमित पाठक बन जाता है ।, ब्लॉग लेखन से आर्थिक लाभ :, ब्लॉग लेखन से आर्थिक लाभ भी होता है । विशेष, रूप से हिंदी और अंग्रेजी ब्लॉग लेखन का व्यापक पाठक, वर्ग होने से इसमें अच्छी कमाई होती है । विद्यार्थी अपने, अनुभव तथा विचार ब्लॉग लेखन द्व ारा साझा कर सकते, हैं । प्रत्येक विद्यार्थी की अपनी जीवनशैली, अपना संघर्ष,, अपनी सफलताएँ विभिन्न रूपों में अभिव्यक्त हो सकती, हैं । राजनीतिक विषयों के लिए अच्छा प्रतिसाद मिलता, है । इसके अतिरिक्त जीवनशैली तथा शिक्षा विषयक ब्लॉग, पढ़ने वाला पाठक वर्ग भी विपुल मात्रा में है । यात्रा वर्णन,, आत्मकथात्मक तथा अपने अनुभव विश्व से जुड़े जीवन, की प्रेरणा देने वाले विषय भी बड़े चाव से पढ़े जाते हैं ।, ०, , ९६
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, , ब्लॉग लेखन , महात्मा गांधी - जीने की प्रेरणा देने वाला महामानव, , महात्मा गांधीजी के संबंध में सोचता हूँ तो मुझे ‘हाथी, और सात अंधों की कहानी’ याद आती है । जिस तरह उन, सात अंधों को उनके स्पर्श से हाथी अलग-अलग रूप में, अनुभव हुआ वही बात महात्मा गांधी के संदर्भ में होती है ।, यह वर्ष महात्मा गांधी का १5० वाँ जयंती वर्ष है ।, आज भी हम गांधीजी, उनके विचार और कार्य को पूर्णत:, समझ नहीं सके । किसी को उनका रहन-सहन, किसी को, उनके विचार, किसी को उनका स्वाधीनता संग्राम का, नेतृत्व, किसी को इस संग्राम में उनका अभूतपूर्व, लोकसहभाग, अहिंसा और शांति के संदर्भ में उनके विचार,, किसी को उनके भीतर बसा पत्रकार, किसी को उनके भीतर, का अध्यात्मवादी रूप, किसी को गाँव की ओर चलने का, उनका संदेश भाया तो किसी को खादी का समर्थन करने, वाले, स्वयंपूर्ण ग्राम की संकल्पना प्रस्तुत करने वाले, गांधीजी भाते हैं ।, कोई उनकी निडरता से परिचित है तो किसी को उनका, संगठक का रूप प्रभावित करता है । इतना ही नहीं; किसी, को उनके व्यक्तित्व से समाजकार्य की प्रेरणा मिलती है तो, कुछ उन्हें ‘जीने की शिक्षा देने वाले शिक्षक’ मानते हैं ।, अनेकों के लिए तो महात्मा गांधीजी जीने के लिए आवश्यक, ऑक्सीजन है । बहुत-से लोग उनके शोषणरहित समाज के, विचार पसंद करते हैं ।, व्यक्तिगत जीवन में मूल्यों के प्रति समर्पित होने वाले, गांधीजी भी अनेक लोगों को प्रभावित करते हैं । कोई उनका, ‘विरोधियों को शस्त्र से नहीं, प्यार से जीता जा सकता है’, वाला विचार पसंद करते हैं । संक्षेप में; महात्मा गांधी किसी, एक की सोच में समा सकने वाला व्यक्तित्व नहीं है ।, महात्मा गांधी नाम का एक विशाल वृक्ष है जो किसी, एक व्यक्ति के आकलन के दायरे में समा नहीं सकता ।, महात्मा गांधी का एक अन्य रूप भी है । सभी धर्मों, तथा जातियों के बच्चों-बड़ों को, धनवानों-निर्धनों को,, नगरीय तथा ग्रामीण सभी को महात्मा गांधी अपने लगते, हैं । दिहाड़ी मजदूरी करने वाले अति निर्धन व्यक्ति को भी, , गांधीजी अपने में से, एक लगते हैं तथा वे, महात्मा गांधी को पिता, के लिए प्रयुक्त किए, जाने वाले आदरसूचक, ‘मेरे बापू’ शब्द से, संबोधित करते हैं ।, किसी मामूली फकीर, की तरह जीवन जीने, वाले महात्मा गांधी के सम्मुख बड़े-से-बड़े धनवान भी, शीश नवाते हैं । इसीलिए धनवान हो या निर्धन; सभी के, लिए महात्मा गांधी वंदनीय हैं ।, महात्मा गांधी का एकमात्र धर्म था ‘मानवता’ । वे, पूर्णत: धर्मनिरपेक्ष थे । राजनीति के संदर्भ में भी उनकी यही, भूमिका थी । अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी मात्र भारत के, लिए ही नहीं बल्कि विश्व के लिए वंदनीय हैं । आज भी, विश्व के कई देशों में गांधी जयंती के अवसर पर उनके, जीवन दर्शन को याद किया जाता है ।, उनके विचारों को हम प्रत्यक्ष में उतार नहीं सके ।, इसीलिए हमारे देश का प्रत्येक शहर नगरीय समस्याओं से, ग्रस्त है । ‘हरिजन’ पत्रिका के माध्यम से महात्मा गांधी ने, शोषणविरहित समाज का विचार प्रस्तुत करने के लिए, आदर्श ग्राम की संकल्पना प्रस्तुत की । जुलाई १९4२ के, ‘हरिजन’ अंक में महात्मा गांधी ने यही संकल्पना प्रस्तुत, करते हुए ‘गाँव की ओर चलो’ का विचार लोगों के सम्मुख, रखा । साथ ही उन्होंने ‘गाँव को स्वयंपूर्ण होना चाहिए’;, यह संदेश भी दिया । उनका कहना था कि गाँव के लोगों को, अपनी आवश्यकताएँ स्वयं पूर्ण करने का प्रयत्न करना, चाहिए । इतना ही नहीं; अपनी जरूरतों को पूरा करने के, साथ-साथ एक-दूसरे को सहयोग भी करना चाहिए ।, इसके लिए वे सुझाव देते हैं कि कपास की फसल लेते हुए, उससे सूत कातें तथा स्वयं चरखा चलाते हुए कपड़ों की, आवश्यकताओं को पूर्ण करें । महिलाओं से भी उनका, , ९७
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कहना था कि सूत कताई कर कपड़े बनाएँ, गाँव के लोगों, को बेचें और अर्थार्जन कर अपने पैरों पर खड़े रहें । गांधीजी, के शिक्षा के संदर्भ में भी विचार महत्त्वपूर्ण रहे हैं । गाँव में, प्राथमिक शिक्षा को भी उन्होंने अनिवार्य माना है ।, वर्धा जिले के सेवाग्राम तथा अहमदाबाद की, साबरमती नदी के किनारे बने आश्रम में महात्मा गांधी बहुत, समय तक रहे । उस समय ये दोनों आश्रम शहरी क्षेत्र में नहीं, थे । मिट्टी से जुड़ना गांधीजी को अपेक्षित था । आज भी, असंख्य लोगों के लिए ये दोनों आश्रम मानवतावादी जीवन, जीने के प्रेरणास्रोत हैं । जिस तरह महात्मा गांधी ने शांति, और अहिंसा का समर्थन किया, उसी तरह वे निर्भय बने, रहने के प्रति आग्रही थे । निर्भय होने का अर्थ स्वयंसिद्ध, अथवा स्वयं तैयार रहना है । इस बात को बिना किसी, भ्रांति-भ्रम के समझ लेना आवश्यक है । महात्मा गांधी का, अहिंसा का मूलमंत्र विश्व को मोहित करने वाला सिद्ध, हुआ है । आज भी संसार में कहीं हिंसा या क्रूरता की, ज्वालाएँ धधक उठती हैं तो लोग महात्मा गांधी को याद, करते हैं । आज भी उनका मानवता का दर्शन तथा मनुष्य के, परस्पर द्वेष न करने के संदेश का स्मरण हो जाता है ।, पत्रकारिता के क्षेत्र में काम करते हुए मैं लगभग, २5 वर्ष नागपुर में रहा । नागपुर से डेढ़ घंटे की दूरी पर वर्धा, जिला है । इसी जिले में महात्मा गांधी के चरणकमलों से, पुनीत हुआ सेवाग्राम आश्रम है । साल भर में दो-तीन बार, वहाँ जाकर पेड़ के नीचे एक-दो घंटे शांति से बैठकर पढ़ने, में आनंद और प्रेरणा की अनुभूति मिलती है । यह मेरा, अनुभव रहा है । विभिन्न सेवा प्रतियोगिता परीक्षाओं में, सम्मिलित होने वाले विद्यार्थी विविध विषयों पर संवाद, स्थापित करने हेतु मेरे पास आते थे । उन युवाओं को लेकर, मैं विविध विषयों पर चर्चा करने इस आश्रम में जाया, करता । सेवाग्राम की जमीन, वहाँ की मिट्टी का प्रत्येक, कण गांधीजी के पदस्पर्श से पुनीत हुआ है । इस पुण्यभूमि, में होने वाली इन चर्चाओं को मानो गांधीजी सुन रहे हैं; इस, भावना से हम अभिभूत हुआ करते थे ।, पत्रकारिता के बहाने देश-विदेश में मेरा भ्रमण चलता, रहा । किसी भी देश के विश्वविद्य ालय या सामाजिक, संस्था में जाता हूँ तो मैं अपना परिचय देते हुए यह कहता हूँ, कि मैं महात्मा गांधी और आचार्य विनोबा भावे के सेवाग्राम, तथा पवनार की भूमि से आया हूँ । ऐसा परिचय होने पर मेरा, , स्वागत और आतिथ्य अत्यंत सम्मानपूर्वक हुआ ।, मैं जिन-जिन देशों में गया हूँ, हर जगह महात्मा गांधी के, प्रति उनकी आत्मीयता तथा स्नेह मुझे प्रतीत हुआ ।, जर्मनी की एक यात्रा के बीच अमानवीय अत्याचारों, के जो यातनाघर हैं; उन्हें देखने का अनुभव आपको बताना, चाहता हूँ । यहूदी (ज्यू) लोगों को जहाँ क्रूर और अमानवीय, यातनाएँ दी गईं, वे यातनाघर उनकी यातनाओं के स्मारक, हैं । उन यातनाघरों में दी गई यातनाओं और अत्याचारों की, कहानियाँ क्रूरता की परिसीमा को भी लाँघ जाती हैं । उन, यातनाघरों को देखते समय हम अंतर-बाह्य टूट जाते हैं ।, ऐसे ही एक यातनाघर को देखते समय हमारे आगे चलने, वाली एक जर्मन महिला की आँखों में आँसू आ गए थे ।, जैसे उसके ही किसी रिश्तेदार को इन अत्याचारों का शिकार, होना पड़ा था । चलते-चलते हमारे बीच की दूरी कम हो, गई थी ।, मैं अपने साथी के साथ हिंदी में वार्तालाप कर रहा, था । उसे सुनकर उस महिला ने मुझसे पूछा- आप भारतीय, हैं? मेरे ‘हाँ’ कहने पर वह कहने लगी, ‘‘इसका मतलब, आप महात्मा गांधी के देश से आए हैं ।’’ सेवाग्राम आश्रम, का संदर्भ देते हुए मैंने कहा- ‘‘जी हाँ ।’’ ‘‘सच?’’, आश्चर्यचकित होकर उसने मेरा हाथ अपने हाथ में लिया, और गद्गद् होकर कहने लगी- ‘‘लगता है जैसे मैंने उस, भूमि को स्पर्श कर लिया है ।’’ इसके बाद हम आपस में, बातचीत करते रहे । उसके दादा जी तथा माँ को उन, अत्याचारों का शिकार होना पड़ा था । परिणामत: वह, बचपन में ही बेघर, अनाथ हो गई थी । उस महिला ने, महात्मा गांधी को पढ़ा था । लुई फिशर द्व ारा लिखित, गांधीजी की जीवनी उसके व्यक्तिगत पुस्तकालय में थी ।, अंत में विदाई के दौरान उसने कहा, ‘‘आपके देश में, महात्मा गांधी जैसे महामानव अवतीर्ण हुए इसलिए आपके, माता-पिता ऐसी क्रूरता से बच गए ।’’ उस समय गांधीजी, के विचारों से अभिभूत वास्तविक मानवता के दर्शन हुए, और महात्मा गांधी जैसे महामानव के सम्मुख मैं नतमस्तक, हो गया । इसीलिए मैं लिखता हूँ और कहता भी हूँ कि, मानवता के पुजारी महात्मा गांधी के भारत में जन्म लेने पर, मुझे गर्व है ।, ०, , ९8
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, , शोधपरक लेख , १8. प्रकाश उत्पन्न करने वाले जीव, - डॉ. परशुराम शुक्ल, , लेखक परिचय ः डॉ. परशुराम शुक्ल जी का जन्म ६ जून १९4७ काे उत्तर प्रदेश के कानपुर में हुआ । आप बाल साहित्य, लेखन में जितने सिद्ध हस्त हैं; उतने ही पशु जगत का विश्लेषण करने में भी सिद्धहस्त माने जाते हैं । आपके बाल साहित्य, में बालकों के मनोविज्ञान और कार्यव्यापार का बड़ी सूक्ष्मता से अंकन हुआ है तो भारतीय वन्य जीवों का अनुसंधानपरक, अध्ययन और लेखन आपके लेखों और पुस्तकों द्व ारा प्रकट होता है । आपकी अनेक कृतियों का अंग्रेजी, उर्दू, पंजाबी,, सिंधी आदि भाषाओं में अनुवाद हुआ है । विषय के अनुसार भाषा का प्रयाेग आपकी भाषा की विशेषता है । आपको राष्ट्रीय, स्तर के अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है ।, प्रमुख कृतियाँ ः ‘जासूस परमचंद के कारनामे’ (बाल धारावाहिक), ‘नन्हा जासूस’ (बाल कहानी संग्रह), ‘सुनहरी परी और, राजकुमार’ (बाल उपन्यास), ‘नंदनवन’, ‘आओ बच्चो, गाओ बच्चो’, ‘मंगल ग्रह जाएँगे’ (बाल कविता संग्रह) आदि ।, लेख ः लेख लिखने की परंपरा हमारे यहाँ बहुत पहले से चली आ रही है । लेख में वस्तुनिष्ठता, ज्ञानपरकता, शोधपरकता, जैसे तत्त्वों का समावेशकता रहता है । लेख समाज विज्ञान, राजनीति, इतिहास जैसे विषयों पर ज्ञानवर्द्धन करने के, साथ-साथ जानकारी का नवीनीकरण भी करते हैं । लेख में उदाहरणों का समावेश लेख को रोचकता प्रदान करता है ।, पाठ परिचय ः प्रस्तुत पाठ में प्रकाश उत्पन्न करने वाले जीव जैसे विषय पर प्रकाश डाला गया है । जुगनू को छोड़कर ऐसे, असंख्य जीव हैं जो प्रकाश उत्पन्न करते हैंे; इस तथ्य से शायद हम परिचित न हों परंतु लेखक की शोधपरक दृष्टि इस सत्य, को विश्लेषित करती है और हम इस वैज्ञानिक सत्य से अवगत होकर विस्मित हो जाते हैं । लेखक कहना चाहते हैं कि हमें, विज्ञान की आँखों से अपने आस-पास की दुनिया को देखने की आवश्यकता है । संसार में व्याप्त असंख्य अज्ञात तथ्यों की, जानकारी हमें प्राप्त होती है ।, , १००
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मानव सहित विश्व के अधिकांश जीवों के जीवन में, प्रकाश का बहुत महत्त्व है । विश्व में ऐसे बहुत-से जीव, पाए जाते हैं, जिनके आँखें नहीं होतीं । इनके लिए प्रकाश, का कोई महत्त्व नहीं हाेता । मोती बनाने वाला समुद्री घोंघा, मुक्ताशुक्ति (Pearl Oyster) का सर्वोत्तम उदाहरण है ।, इसी प्रकार विश्व में ऐसे बहुत-से जीव पाए जाते हैं,, जो अपना रास्ता मालूम करने के लिए तथा इसी प्रकार के, अन्य कार्य करने के लिए अपनी दृष्टि का उपयोग करते हैं ।, प्रकाश के अभाव में अपने कार्य करना बहुत कठिन हो, जाता है । इस समस्या को दूर करने के लिए मानव टार्च,, बल्ब एवं इसी प्रकार की अन्य कृत्रिम वस्तुओं का, आविष्कार करता है । पशु-पक्षी इस प्रकार के कृत्रिम, आविष्कार नहीं कर सकते । अत: प्रकृति ने उन्हें विभिन्न, प्रकार की सुविधाएँ प्रदान की हैं । उदाहरण के लिए उल्लू, की आँखें बड़ी होती हैं, जिससे वह रात के अँधेरे में सरलता, से देख सकता है । रात में शिकार करने वाले जीवों-बाघ,, सिंह, तेंदुआ आदि की आँखों की संरचना इस प्रकार की, होती है कि वे रात के अँधेरे में अपने शिकार की खोज कर, सकते हैं । अर्थात पूर्ण अंधकार की स्थिति में विश्व का, कोई भी जीव कुछ भी नहीं देख सकता ।, विश्व में ऐसे भी अनेक जीव पाए जाते हैं, जिन्होंने, अपने शरीर पर प्रकाश उत्पन्न करने वाले अंग विकसित कर, लिए हैं तथा अपनी आवश्यकतानुसार इन अंगों से प्रकाश, उत्पन्न करते हैं । इस प्रकार के जीवों को प्रकाश उत्पन्न, करने वाले (Bioluminiscent) जीव कहते हैं ।, प्रकाश उत्पन्न करने वाले जीव अपने प्रकाश का, उपयोग ठीक उसी प्रकार करते हैं, जिस प्रकार मानव टाॅर्च,, बल्ब आदि का उपयोग करता है, किंतु मानव और प्रकाश, उत्पन्न करने वाले जीवों के प्रकाश में बहुत अंतर होता है ।, मानव द्वारा तैयार किए गए प्रकाश उत्पन्न करने वाले बल्ब, जैसे उपकरणों में तंतु (Filament) को इतना गर्म करते हैं कि, वह प्रकाश उत्पन्न करने लगता है । इस प्रकार के उपकरणों, में प्रकाश के साथ ही ऊष्मा (Heat) भी उत्पन्न होती है ।, अत: इसे गर्म प्रकाश (Hot Light) कहा जा सकता है ।, प्रकाश उत्पन्न करने वाले जीव जीवाणुओं द्वारा, अथवा अपने शरीर से उत्पन्न रसायनों की पारस्परिक क्रिया, द्वारा प्रकाश उत्पन्न करते हैं । इस प्रकार प्रकाश उत्पन्न, करने में ऊष्मा उत्पन्न नहीं होती । प्रकाश उत्पन्न करने वाले, , जीवों के प्रकाश उत्पन्न करने की प्रक्रिया को ल्यूमिनिसेंस, (Luminiscence) कहते हैं । इस प्रक्रिया द्व, ारा प्रकाश, उत्पन्न करने में प्रकाश तो उत्पन्न होता है किंतु इसमें ऊष्मा, नहीं होती । अत: इसे शीतल प्रकाश अथवा ठंडा प्रकाश, कहा जाता है ।, प्रकाश उत्पन्न करने वाले जीव विश्व में सभी स्थानों, पर पाए जाते हैं । इस प्रकार के जीवों में जनसामान्य जुगनू, (Firefly) से परिचित हैं । जुगनू कीट वर्ग का जीव है और, पूरे वर्ष प्रकाश उत्पन्न करता है ।, विश्व में कवक (Fungus) की कुछ ऐसी जातियाँ, पाई जाती हैं, जो रात में प्रकाश उत्पन्न करती हैं । इन्हें, कवक की चमकने वाली जातियाँ (Glowing Species of, Fungus) कहते हैं । कवक की प्रकाश उत्पन्न करने वाली, जातियों द्वारा उत्पन्न किए गए प्रकाश को फॉक्स फायर, (Fox Fire) कहते हैं । इसी प्रकार मशरूम की कुछ जातियाँ, रात में प्रकाश उत्पन्न करती हैं ।, प्रकाश उत्पन्न करने वाले जीव थल की अपेक्षा, सागरों और महासागरों में अधिक हैं । ये मुख्य रूप से २२०, मीटर से लेकर ११०० मीटर की गहराईवाले भागों में अधिक, पाए जाते हैं । इस भाग में जेलीफिश, स्क्विड, क्रिल,, विभिन्न जातियों के झींगे आदि रहते हैं तथा प्रकाश उत्पन्न, करते हैं ।, प्रकाश उत्पन्न करने वाले जीव प्राय: नदियों, झीलों,, तालाबों आदि ताजा पानी के स्रोतों में नहीं पाए जाते हैं । ये, समुद्र के खारे पानी में अधिक मिलते हैं क्योंकि समुद्र में, अधिक गहराई पर हल्का अथवा घना अँधेरा रहता है । यह, अँधेरा गहराई के साथ बढ़ता जाता है । इसके विपरीत, नदियों, तालाबों, झीलों आदि में पानी के तल तक सूर्य की, किरणें पहुँच जाती हैं । अत: वहाँ प्रकाश रहता है ।, प्रकाश उत्पन्न करने वाले जीव दो प्रकार से प्रकाश, उत्पन्न करते हैं(१) जीवाणुओं द्व ारा और, (२) रासायनिक पदार्थों की पारस्परिक क्रिया द्व ारा ।, जीवाणुओं द्वारा प्रकाश उत्पन्न करने वाले जीवों, के शरीर पर ऐसे जीवाणु रहते हैं, जो प्रकाश उत्पन्न करते, हैं । इन्हीं जीवाणुओं की सहायता से ये प्रकाश उत्पन्न करने, वाले जीव बने हैं । वास्तव में ये जीव प्रकाश उत्पन्न नहीं, करते हैं बल्कि इनके शरीर पर रहने वाले जीवाणु प्रकाश, , १०१
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उत्पन्न करते हैं । इस प्रकार के जीव प्रकाश उत्पन्न करने, वाले जीवाणुओं के साथ सहजीवी संबंध (Symbitic, Relationship) स्थापित कर लेते हैं तथा जीवाणुओं के, प्रकाश का अपनी इच्छा एवं आवश्यकता के अनुसार, उपयोग करते हैं ।, जीवाणुओं के प्रकाश का उपयोग करने वाले जीवों, के पूरे शरीर पर प्रकाश उत्पन्न करने वाले जीवाणु रहते हैं, तथा निरंतर प्रकाश उत्पन्न करते हैं । जीव इस प्रकाश का, दो प्रकार से उपयोग करते हैं- (१) शरीर का भाग भीतर, खींचकर और (२) प्रकाश उत्पन्न करने वाले भाग को, ढककर ।, जीवाणुओं के प्रकाश का उपयोग करने वाले कुछ, जीवों में यह क्षमता होती है कि ये अपने शरीर का कोई भी, भाग शरीर के भीतर खींच सकते हैं । इस प्रकार के जीवों को, अपने शरीर के जिस भाग से प्रकाश समाप्त करना होता है;, उसे वे अपने शरीर के भीतर खींच लेते हैं । इससे प्रकाश, उत्पन्न करने वाले जीवाणु उस जीव के शरीर के भीतर पहुँच, जाते हैं । अत: उस स्थान का प्रकाश समाप्त हो जाता है ।, इस भाग को पुन: प्रकाशित करने के लिए जीव अपने शरीर, के भीतर से जीवाणुवाले भाग को बाहर निकाल देते हैं ।, इससे बंद भाग पुन: प्रकाशित हो जाता है ।, जिन जीवों में यह क्षमता नहीं होती; वे अपने शरीर, पर रहने वाले जीवाणुओं के प्रकाश को दूसरे ढंग से नियंत्रित, करते हैं । ये जीव अपने शरीर के उस भाग को ढक देते हैं, जहाँ प्रकाश की आवश्यकता नहीं होती । शरीर के उस भाग, को ढकने से वहाँ के जीवाणु भी ढक जाते हैं । अत: वहाँ, का प्रकाश समाप्त हो जाता है । इस प्रकार के जीव अपने, शरीर का कोई एक भाग अथवा एक से अधिक भाग अपनी, इच्छा के अनुसार जब चाहे ढक सकते हैं और जब चाहे, खोल सकते हैं ।, प्रकाश उत्पन्न करने वाले कुछ जीव रसायनों की, सहायता से प्रकाश उत्पन्न करते हैं । इसके लिए ल्यूसीफेरिन, (Luciferin) और ल्यूसीफेरैस (Lucifrease) नामक, रसायनों की आवश्यकता होती है । ये दोनों रसायन प्रकाश, उत्पन्न करने वाले जीवों के शरीर में रहते हैं तथा इन्हीं दोनों, रसायनों की सहायता से प्रकाश उत्पन्न करने वाले जीव, प्रकाश उत्पन्न करते हैं । इनमें ल्यूसीफेरिन प्रकाश उत्पन्न, करने का कार्य करता है । दूसरा रसायन ल्यूसीफैरेस प्रकाश, , उत्पन्न करने की क्रिया को तेज कर देता है । क्रिया में, ऑक्सीजन की भी आवश्यकता होती है ।, सागर में पाए जाने वाले प्रकाश उत्पादक जीवों के, लिए पानी आवश्यक होता है । ये जीव पानी के बाहर, प्रकाश नहीं उत्पन्न कर सकते हैं ।, अधिकांश जीव जीवाणुओं द्व ारा अथवा रासायनिक, क्रिया द्व ारा प्रकाश उत्पन्न करते हैं । कुछ ऐसे भी जीव हैं,, जिनके शरीर पर न तो प्रकाश उत्पन्न करने वाले जीवाणु, रहते हैं और न ही इनके शरीर पर रसायन उत्पन्न करने वाले, अंग होते हैं; फिर भी ये प्रकाश उत्पन्न करते हैं । इस प्रकार, के जीवों के शरीर में एक विशेष प्रकार की ग्रंथि होती है,, जिससे एक विशेेष प्रकार का द्रव पदार्थ निकलता है । यह, द्रव पदार्थ पानी के संपर्क में आते ही प्रकाश उत्पन्न करने, लगता है ।, जीववैज्ञानिकों द्व ारा लंबे समय तक किए गए, अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि जमीन और पानी के सभी जीव, अलग-अलग उद्देश्यों की पूर्ति के लिए प्रकाश उत्पन्न, करते हैं । यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि एक जीव, द्वारा उत्पन्न किया गया प्रकाश दूसरे जीव द्वारा उत्पन्न, किए गए प्रकाश से पूरी तरह भिन्न होता है अर्थात् सभी, जीव अलग-अलग तरह का प्रकाश उत्पन्न करते हैं ।, प्रकाश उत्पन्न करने वाले जीवों द्व ारा प्रकाश, उत्पन्न करने के निम्न उद्देश्य होते हैं :• साथी की खोज और संकेतों का आदान-प्रदान ।, • शिकार की खोज और शिकार को आकर्षित करना ।, • कामाफ्लास उत्पन्न करना ।, • आत्मरक्षा ।, गहरे सागरों के अनेक जीव शिकार की खोज के, लिए अपने शरीर से प्रकाश उत्पन्न करते हैं । एंगलर ऐसी ही, मछली है । सागरों और महासागरों के बहुत-से जीव विशेष, रूप से मछलियाँ कामाफ्लास के लिए प्रकाश उत्पन्न करती, हैं । कामाफ्लास किसी जीव की वह स्थिति होती है, जिसमें, वह अपने परिवेश से इतना घुल-मिल जाता है कि सरलता, से दिखाई नहीं देता । इससे उसे शिकार करने और सुरक्षित, रहने में सुविधा होती है ।, सागरों और महासागरों में पाए जाने वाले कुछ जीव, आत्मरक्षा के लिए अपने प्रकाश उत्पादक अंगों से प्रकाश, उत्पन्न करते हैं । ये स्क्विड के समान अपने शरीर से एक, , १०२
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विशेष प्रकार का तरल रसायन छोड़ते हैं, जो पानी से, मिलकर नमकीला प्रकाश-सा उत्पन्न करता है । इससे, इनका शत्रु इन्हें देख नहीं पाता है और ये भागने में सफल हो, जाते हैं । इसी प्रकार प्लैंक्टन के जीव छोटी मछलियों से, बचने के लिए प्रकाश उत्पन्न करते हैं ।, वैज्ञानिक अध्ययन की दृष्टि से प्रकाश उत्पन्न करने, वाले जीवों की जानकारी जीववैज्ञानिकों को प्राचीन काल, से है । इनका वैज्ञानिक अध्ययन सन १६०० के आस-पास, आरंभ हुआ । जीववैज्ञानिक यह जानना चाहते थे कि कुछ, जीव प्रकाश क्यों उत्पन्न करते हैं? कैसे प्रकाश उत्पन्न, करते हैं? अपने प्रकाश पर किस प्रकार नियंत्रण करते हैं?, आदि ।, सन १७९4 तक जीववैज्ञानिक यह समझते रहे कि, समुद्री जीव फास्फोरस की सहायता से प्रकाश उत्पन्न करते, हैं, किंतु फास्फोरस विषैला पदार्थ होता है । यह जीवित, कोशिकाओं में नहीं रह सकता । अत: इस मत को मान्यता, नहीं मिल सकी ।, सर्वप्रथम सन १७९4 में इटली के एक वैज्ञानिक, स्पैलेंजानी ने यह सिद्ध किया कि समुद्री जीवों के शरीर से, उत्पन्न होने वाला प्रकाश ऑक्सीकरण के कारण उत्पन्न, होता है तथा इसके लिए पानी आवश्यक है । इस प्रकार, स्पैलेंजानी ने यह सिद्ध कर दिया कि जीवों द्वारा प्रकाश, उत्पन्न करने की क्रिया एक साधारण रासायनिक क्रिया है ।, इस खोज के एक लंबे समय बाद सन १88७ में, फ्रांसिसी वैज्ञानिक थिबाइस (Thibais) ने रासायनिक, विश्लेषण करके वह मालूम किया कि प्रकाश उत्पन्न करने, वाले जीव दो पदार्थों ल्यूसीफेरिन और ल्यूसीफेरैस की, सहायता से प्रकाश उत्पन्न करते हैं । विज्ञान के क्षेत्र में इस, उपलब्धि को अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना गया ।, सन १8९4 में प्रोफेसर अलिरक डाहलगैट ने प्रकाश, उत्पन्न करने वाले जीवों के प्रकाश उत्पादक अंगों का सूक्ष्म, अध्ययन किया । उन्होंने यह स्पष्ट किया कि जीव के, प्रत्येक प्रकाश उत्पादक अंग में एक लैंस होता है जो प्रकाश, को बाहर फेंकता है ।, जीववैज्ञानिकों द्वारा प्रकाश उत्पन्न करने वाले, जीवों के प्रकाश से संबंधित खोजों ने प्रकाश उत्पन्न करने, वाले नये-नये जीवों के खोजकार्य को प्रोत्साहन दिया ।, अत: इस प्रकार के अनेक जीवों की खोज हुई । डच ईस्ट, , इंडीज के पास सागर में प्रकाश उत्पन्न करने वाली दो, विशिष्ट मछलियाँ पाई जाती हैं । इनके शरीर पर प्याले के, स्वरूप के कुछ अवयव होते हैं, जिनमें एक विशेष जाति के, प्रकाश उत्पन्न करने वाले जीवाणु रहते हैं । इन्हें न तो, मछली के शरीर से अलग किया जा सकता है, न ही इन्हें, प्रयोगशाला में संवर्धित (Enlarged or Magnified) कर, सकते हैं, जबकि प्रकाश उत्पन्न करने वाले अन्य जीवाणुओं, को प्रयोगशाला में संवर्धित किया जा सकता है ।, सागर की सतह पर कभी-कभी किलोमीटर के क्षेत्र, में प्रकाश दिखाई देता है । इस प्रकाश के संबंध में अनेक, मत प्रचलित थे । सर्वप्रथम सन १९१० में मैक कार्टनीम ने, यह खोज की । यह प्रकाश प्लैंक्टन के अत्यंत छोटे-छोटे, जीवों द्व ारा उत्पन्न किया जाता है ।, जीववैज्ञानिकों ने कुछ समय पूर्व जापान के सागर, तटों पर पाए जाने वाले एक स्क्विड (Firefly Squid) की, खोज की है । इसे जापानी भाषा में ‘होटारूइका’ कहते हैं ।, इसकी संस्पर्शिकाओं (Tentacles) के सिरों पर प्रकाश, उत्पादक अंग होते हैं । यह रोचक तथ्य है । इसी प्रकार, इटली के सागर तटों पर तल में हिटेरोट्यूथिम नामक प्रकाश, उत्पन्न करने वाला जीव पाया जाता है, जिसके प्रकाश, उत्पादक अंग नहीं होते । यह अपने शरीर से एक द्रव पदार्थ, छोड़ता है, जो पानी के संपर्क में आते ही प्रकाश में बदल, जाता है और चमकने लगता है ।, धरती पर पाए जाने वाले प्रकाश उत्पादक जीवों की, संख्या बहुत है । इनमें आक्टोपस, एंगलर मछलियाँ,, कटलफिश, कनखजूरा, कार्डिनल मछली, क्रिल,, कोपपाड, क्लाम, जुगनू, जेलीफिश, टोड मछली, धनुर्धारी, मछली, नलिका कृमि, पिडाक, वाम्बेडक मछली,, ब्रिसलमाउथ, भंगुरतारा, मूँगा, लालटेल मछली, वाइपर, मछली, शंबुक, शल्ककृमि, समुद्री कासनी, समुद्री स्लग,, समुद्री स्क्विर्ट, स्क्विड, व्हेल मछली आदि प्रमुख हैं । जीव, वैज्ञानिक अभी भी प्रकाश उत्पन्न करने वाले नये-नये जीवों, की खोज कर रहे हैं तथा इनके द्व ारा उत्पन्न किए जाने, वाले प्रकाश पर शोध कार्य कर रहे हैं । इससे आशा है कि, इस प्रकार के जीवों और इनके द्व ारा उत्पन्न किए जाने, वाले प्रकाश के संबंध में शीघ्र ही नई-नई रोचक जानकारियाँ, प्राप्त होंगी ।, , १०३, , ०
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परिशिष्ट, मुहावरे, * मुहावरा वह वाक्यांश जो सामान्य अर्थ को छोड़कर किसी विशेष अर्थ में प्रयुक्त होता है; मुहावरे में उसके लाक्षणिक, और व्यंजनात्मक अर्थ को ही स्वीकार किया जाता है । वाक्य में प्रयुक्त किए जाने पर ही मुहावरा सार्थक प्रतीत होता है ।, * अपना उल्लू सीधा करना, - अपना स्वार्थ सिद्ध करना ।, * दिन दूना रात चौगुना बढ़ना, - दिन-प्रतिदिन अधिक उन्नति करना ।, * अक्ल पर पत्थर पड़ना, - बुद्धि काम न करना ।, * आँखों में धूल झोंकना, - धोखा देना ।, * आँखें बिछाना, - अति उत्साह से स्वागत करना ।, * कान में कौड़ी डालना, - गुलाम बनाना ।, * कंगाली में आटा गीला होना, - विपत्ति में और अधिक विपत्ति आना ।, * कुएँ में बाँस डालना, - जगह-जगह खोज करना ।, * गुड़ गोबर करना, - बने काम को बिगाड़ देना ।, * गड़े मुर्दे उखाड़ना, - पुरानी कटु बातों को याद करना ।, * कटे पर नमक छिड़कना, - दुखी को और दुखी बनाना ।, * एक और एक ग्यारह, - एकता में शक्ति होना, * घर फूँक तमाशा देखना, - अपनी ही हानि करके प्रसन्न होना ।, * घाट-घाट का पानी पिया होना, - हर प्रकार के अनुभव से परिपूर्ण होना ।, * चाँदी काटना, - बहुत लाभ कमाना ।, * जहर का घूँट पीना, - अपमान काे चुपचाप सह लेना ।, * जी-जान से काम करना, - पूरी क्षमता के साथ काम करना ।, * तिल का ताड़ बनाना, - छोटी बात को बढ़ा-चढ़ाकर कहना ।, * पत्थर की लकीर होना, - पक्की बात ।, * पेट में दाढ़ी होना, - छोटी आयु में बुद्धिमान होना ।, * फूँक-फूँककर पाँव रखना, - अति सावधानी बरतना ।, * मुट्ठी गर्म करना, - रिश्वत देना ।, * रंग में भंग होना, - प्रसन्नता के वातावरण में विघ्न पड़ना ।, * शक्ल पर बारह बजना, - बड़ा उदास रहना ।, * सितारा चमकना, - भाग्योदय होना, * आठ-आठ आँसू रोना, - बहुत अधिक रोना ।, * आँखें चार होना, - प्रेम होना ।, * अगर-मगर करना, - टाल-मटोल करना ।, * अपना ही राग अलापना, - अपनी ही बातें करते रहना ।, * आसमान पर थूकना, - अशोभनीय कार्य करना ।, * उल्टी गंगा बहाना, - उल्टा काम करना ।, , १०5
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भावार्थ : पाठ्यपुस्तक पृष्ठ क्रमांक २३, २4 : कविता - गुरुबानी - गुरु नानक, * जो लोग गुरु से लापरवाही बरतते हैं और अपने आपको ही ज्ञानी समझते हैं; वे व्यर्थ ही उगने वाले तिल की झाड़ियों के, समान हैं । दुनिया के लोग उनसे किनारा कर लेते हैं । इधर से वे फलते-फूलते दिखाई देते हैं पर उनके भीतर झाँककर देखो तो, गंदगी और मैल के सिवा कुछ दिखाई नहीं देगा ।। १ ।।, * मोह को जलाकर उसे घिसकर स्याही बनाओ । बुद्धि को श्रेष्ठ कागज समझो ! प्रेमभाव की कलम बनाओ । चित्त को, लेखक और गुरु से पूछकर लिखो- नाम की स्तुति । और यह भी लिखो कि उस प्रभु का न कोई अंत है और न कोई, सीमा ।। २ ।।, * हे मन ! तू दिन-रात भगवान के गुणों का स्मरण कर जिन्हें एक क्षण के लिए भी नहीं भूलता । संसार में ऐसे लोग विरले ही, होते हैं । अपना ध्यान उसी में लगाओ और उसकी ज्योति से तुम भी प्रकाशित हो जाओ । जब तक तुझमें अहंभाव या ‘मैं, मेरा,, मेरी’ की भावना रहेगी तब तक तुझे प्रभु के दर्शन नहीं हो सकते । जिसने हृदय में भगवान के नाम की माला पहन ली है; उसे ही, प्रभु के दर्शन होते हैं ।। ३ ।।, * हे प्रभो ! अपनी शक्ति के सब रहस्यों को केवल तुम्हीं जानते हो । उनकी व्याख्या कोई दूसरा कैसे कर सकता है? तुम प्रकट, रूप भी हो, अप्रकट रूप भी हो । तुम्हारे अनेक रंग हैं । अनगिनत भक्त, सिद्ध, गुरु और शिष्य तुम्हें ढूँढ़ते-फिरते हैं ।, हे प्रभु ! जिन्होंने नामस्मरण किया, उनको प्रसाद में (भिक्षा में) तुम्हारे दर्शन की प्राप्ति हुई है । तुम्हारे इस संसार के खेल को, केवल कोई गुरुमुख ही समझ सकता है । तुम्हारे इस संसार में तुम्हीं युग-युग में विद्यमान रहते हो और कोई नहीं ।। 4 ।।, * हे पंडित ! संसार में दिन-रात महान आरती हो रही है । आकाश की थाली में सूर्य और चाँद के दीपक जल रहे हैं । हजारों, तारे-सितारे मोती बने हैं । मलय की खुशबूदार हवा का धूप महक रहा है । वायु चँवर से हवा कर रही है । जंगल के सभी वृक्ष, फूल चढ़ा रहे हैं । हृदय में अनहद नाद का ढोल बज रहा है । हे मनुष्य ! इस महान आरती के होते हुए तेरी आरती की क्या, आवश्यकता है, क्या महत्त्व है? अर्थात, भगवान की असली आरती तो मन से उतारी जाती है और श्रद्धा ही भक्त की सबसे, बड़ी भेंट है । फिर आप लोग थालियों में ये थोड़े-थोड़े फल-फूल लेकर मूर्ति पर क्यों चढ़ाते हैं? क्या उसके पास थालियों की, कमी है? अरे ! आकाश ही उसका नीलम थाल है ! सूर्य और चंद्रमा की ओर देखो । वे भगवान की आरती में रखे हुए दीपक, हैं । ये तारे ही उसके मोती हैं और हवा उसे दिन-रात चँवर झुला रही है ।। 5 ।।, , भावार्थ : पाठ्यपुस्तक पृष्ठ क्रमांक २७, २8 : कविता - वृंद के दोहे, * माँ सरस्वती के ज्ञान भंडार की बात बड़ी ही अनूठी और अपूर्व है । यह ज्ञान भंडार जितना खर्च किया जाए, उतना बढ़ता, जाता है और खर्च न करने पर वह घटता जाता है अर्थात ज्ञान देने से बढ़ता है और अपने पास रखने पर नष्ट हो जाता है, ।। १ ।।, * आँखे ही मन की सारी अच्छी-बुरी बातों को व्यस्त कर देती हैं... जैसे स्वच्छ आईना अच्छे-बुरे को बता देता है ।। २ ।।, * अपनी पहुँच, क्षमता को पहचानकर ही कोई भी कार्य कीजिए । जैसे- हमें उतने ही पाँव फैलाने चाहिए जितनी हमारी चादर, हो ।। ३ ।।, * यदि आप व्यापार करते हैं तो व्यापार में छल-कपट का सहारा न लें । छल-कपट से किया गया व्यवहार ग्राहक को आपसे, दूर ले जाता है । जैसे- लकड़ी (काठ) की हाँडी आग पर एक ही बार चढ़ती है, बार-बार नहीं क्योंकि लकड़ी पहली बार, में ही जल जाती है ।। 4 ।।, * ऊँचे स्थान पर बैठने से बिना गुणोंवाला कोई भी व्यक्ति बड़ा नहीं बन जाता । ठीक वैसे ही जैसे मंदिर के शिखर पर बैठने से, कौआ गरूड़ नहीं बन जाता ।। 5 ।।, , १०७