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*श्रीकांत' चतुर्थ पर्व में कथाशिल्पी शरतूचंद्र चट्टोपाध्याय ने लिखा है,, “सीधा रास्ता छोड़कर वन-जंगलों में से इस-उस रास्ते का चक्कर लगाता हुआ, , स्टेशन जा रहा था...बहुत कुछ उसी तरह जिस तरह बचपन में पाठशाला को ॥, , जाया करता था। चलते-चलते एकाएक ऐसा लगा कि सब रास्ते जैसे पहचाने, , हुए हैं, मानो कितने दिनों तक कितनी बार इन रास्तों से आया-गया हूँ। पहले £, , है वे बड़े थे, अब न जाने क्यों संकीर्ण और छोटे हो गए हैं। अरे यह क्या, यह, है तो खाँ लोगों का हत्यारा बाग है। अरे, यही तो है! और यह तो मैं अपने ही, गाँव के दक्षिण के मुहल्ले के किनारे से जा रहा हूँ! उसने न जाने कब शूल, कौ व्यथा के मारे इस इमली के पेड़ की ऊपर की डाल में रस्सी बाँधकर, , आत्महत्या कर ली थी। की थी या नहीं, नहीं जानता, पर प्राय: और सब गाँवों ६, , की तरह यहाँ भी यह जनश्रुति है। पेड़ रास्ते के किनारे है, बचपन में इस पर, नज़र पड़ते ही शरीर में काँटे उठ आते थे, आँखें बंद करके एक ही दौड़ में, इस स्थान को पार कर जाना पड़ता था।, , पेड़ वैसा ही है। उस वक्त ऐसा लगता था कि इस हत्यारे पेड़ का धड़ मानो #, , पहाड़ की तरह है और माथा आकाश से जाकर टकरा रहा है। परंतु आज देखा कि, उस बेचारे में गर्व करने लायक कुछ नहीं है, और जैसे अन्य इमली के पेड़ होते, हैं वैसा ही है। जनहीन ग्राम के एक ओर एकाकी निःशब्द खड़ा है। शैशव में जिसने, काफ़ी डराया है, आज बहुत वर्षों बाद के प्रथम साक्षात् में उसी ने मानो बंधु की, तरह आँख मिचकाकर मज़ाक किया, 'कहो मेरे बंधु, कैसे हो, डर तो नहीं लगता?', , मैंने पास जाकर परम स्नेह के साथ उसके शरीर पर हाथ फेरा। मन ही मन, , कहा, “अच्छा ही हूँ भाई। डर क्यों लगेगा, तुम तो मेरे बचपन के पड़ोसी हो... ५, , मेरे आत्मीय।', , , , आवारा, मसीहा, , संध्या का प्रकाश बुझता जा रहा था। मैंने विदा लेते हुए कहा, 'भाग्य अच्छा 41 क्, , था जो अचानक मुलाकात हो गई, अब जाता हूँ बंधु!' ”, , यह इन्हीं दिनों का चित्र तो है। केवल “मुंशी लोगों का हत्यारा बाग! 'खाँ,, लोगों का हत्यारा बाग' हो गया है। ये पंक्तियाँ लिखते समय उसका अपना बचपन, जैसे आँखों में जी उठा था।, , 2019-2020
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अंतराल, 70, , , , गल्प गढ़कर सुनाने की उसकी जन्मजात प्रतिभा भी इस समय खूब पल्लवित, हो रही थी। पंद्रह वर्ष की आयु में ही वह इस कला में पारंगत हो चुका था। और, उसकी ख्याति गाँव भर में फैल चुकी थी। इसी कारण शायद स्थानीय ज़मींदार, व गोपालदत्त मुंशी उससे बहुत स्नेह करते थे। इनका पुत्र अतुलचंद्र तब कलकत्ता, में एम.ए, में पढ़ता था। वह भी शरत् की गल्प गढ़ने की कला से बहुत प्रसन्न, था और उसे छोटे भाई की तरह प्यार करता था। कभी-कभी वह उसे थिएटर, दिखाने के लिए कलकत्ता ले जाता और कहता, “तुम ऐसी कहानियाँ लिखा करो,, तब मैं तुम्हें थिएटर दिखाने ले जाऊँगा।", , दिखाने के बाद कहता, “अच्छा, तुम इसकी कहानी लिख सकते हो?”, , शरत् ऐसी बढ़िया कहानी लिखता कि अतुल चकित रह जाता।, , इसी तरह लिखते-लिखते एक दिन उसने मौलिक कहानी लिखनी शुरू कर, , है दी। वह कौन सा दिन था, किस समय और कहाँ बैठकर उसने लिखना शुरू, ॥ किया, कोई नहीं जानता, पर उस कहानी का नाम था 'काशीनाथ'। काशीनाथ, उसका गुरुभाई था, उसी को नायक बनाकर उसने यह कहानी शुरू की थी।, , लेकिन वह नाम का ही नायक है। शायद काशीनाथ का रूप-रंग भी वैसा रहा, होगा, पर घर जँवाई कैसा होता है यह उसने पिता को सुसराल में रहते देखकर, , ॥ जाना था। शेष कथानक का आधार भी कोई देखी या पढ़ी हुई घटना हो सकती, , है। उस समय वह छोटी-सी कहानी थी। बाद में भागलपुर में उसने उसे फिर से, लिखा। 'काकबासा' और 'कोरेल ग्राम' दो और कहानियाँ इसी समय' उसके, मस्तिष्क में उभरी थीं। कुछ और कहानियाँ भी उसने लिखी होंगी, पर यही कुछ, , 2 नाम काल की क्रूर दृष्टि से बचे रह सके।, , सूक्ष्म पर्यवेक्षण की प्रवृत्ति उसमें बचपन से ही थी। जो कुछ भी देखता, , || उसकी गहराई में जाने का प्रयल करता। और यही अभिज्ञता उसकी प्रेरणा बन, 1 जाती। गाँव में एक ब्राह्मण की बेटी थी, बाल विधवा, नाम था उसका नीरू।, , बत्तीस साल की उमर तक कोई कलंक उसके चरित्र को छू भी नहीं पाया था।, , सुशीला, परोपकारिणी, धर्मशीला और कर्मठ होने के नाते वह प्रसिद्ध थी। रोग में, , 1. सन् 1893 ई., , 2019-2020
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सेवा, दुख में सांत्वना, अभाव में सहायता, आवश्यकता पड़ने पर महरी का काम, भी करने में वह संकोच नहीं करती थी। गाँव में एक भी घर ऐसा नहीं था जिसने, , उससे किसी न किसी रूप में सहायता न पाई हो। शरत् उसे 'दीदी' कहकर £, पुकारता था। दीदी भी उसे बहुत प्यार करती थी। दोनों एक ही पर दुख-कातर #, , जाति के व्यक्ति थे न।, , इसी दीदी का 32 वर्ष की उमर में अचानक एक बार पदस्खलन हुआ। गाँव, के स्टेशन का परदेसी मास्टर उसके जीवन को कलंकित करके न जाने कहाँ भाग, खड़ा हुआ। उस समय गाँव वाले उसके सारे उपकार, सेवा-टहल, सब कुछ भूल, गए। उन हृदयहीन लोगों ने उसका बहिष्कार कर दिया। उससे बोलना-चालना तक, , बंद कर दिया। बेचारी एकदम असहाय हो उठी। स्वास्थ्य दिन पर दिन गिरने लगा, (६, , यहाँ तक कि वह मरणासन्न हो गई। इस हालत में भी कोई उसके मुँह में एक, बूँद पानी डालने के लिए नहीं आया। किसी ने उसके दरवाज़े पर जाकर झाँका, तक नहीं, जैसे वह कभी थी ही नहीं।, , शरत् को भी यह आज्ञा थी कि वह वहाँ नहीं जाए, लेकिन उसने क्या कभी, , कोई आज्ञा मानी थी। रात के समय छिपकर वह उसे देखने जाता। उसके हाथ-पैर कै, , सहला दिया करता। कहीं से एक-दो फल लाकर खिला आया करता। अपने गाँव, के लोगों के हाथों इस प्रकार पैशाचिक दंड पाकर भी नीरू दीदी ने कभी किसी, के खिलाफ़ कोई शिकवा-शिकायत नहीं कीौ। उसकी अपनी लज्जा का कोई पार, नहीं था। वह अपने को अपराधी मानती थी और उस दंड को उसने इसीलिए, हँसते-हँसते स्वीकार किया था। उसकी दृष्टि में वही न्याय था।, , शरतू का चिंतातुर मन इस बात को समझ गया था कि अपने अपराध का दंड ६, , , , आवारा, , मसीहा, , या, , उसने स्वयं ही अपने को दिया था। गाँव के लोग तो उपलक्ष्य मात्र थे। उसने इन्हें 4, , माफ़ कर दिया था, लेकिन अपने को नहीं किया था।, जब वह मरी तो किसी भी व्यक्ति ने उसकी लाश को नहीं छुआ। डोम उसे, उठाकर जंगल में फेंक आए। सियार-कुत्तों ने उसे नोच-नोचकर खा लिया।, और यहीं पर उसने 'विलासी' कहानी के कायस्थ मृत्युंजय को सँपेरा बनते, देखा था। वह उसके ही स्कूल में पढ़ता था, पर तीसरी कक्षा से आगे नहीं, , 2019-2020
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बढ़ सका। एक चाचा के अतिरिक्त उसका और कोई नहीं था। लेकिन वह, चाचा ही उसका परम शत्रु था। उसके बड़े बाग पर उसकी दृष्टि थी। चाहता, था मरे तो पाप कटे, इसीलिए रोगी हो जाने पर उसने मृत्युंजज की ज़रा भी, खोज-खबर नहीं ली। तड़प-तड़पकर मर जाता बेचारा, यदि एक बूढ़ा ओझा, और उसकी लड़की सेवा करके उसे बचा न लेते। इस लड़की का नाम था, विलासी। इस सेवा-टहल के बीच वह उसके बहुत पास आ गई। इतनी कि, उसने उसे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया। पर समाज के ठेकेदार, यह सब कैसे सह सकते थे। उन्होंने मृत्युंजज को समाज से बाहर निकाल, दिया। लेकिन मृत्युंजय ने इसकी चिंता नहीं की। उसे अपमानित किया गया,, पीटा गया, परंतु न तो उसने प्रायश्चित ही किया, न विलासी को घर से, ॥ निकाला। उसे लेकर वह दूर जंगल में जाकर रहने लगा। वहीं रहकर वह साँप, # पकड़॒ता और जीविका चलाता। सिर पर गेरुए रंग की पगड़ी, बड़े-बड़े बाल,, ॥ मूँछ-दाढी, गले में रुद्राक्ष और काँच की मालाएँ। उसे देखकर कौन कह सकता, ॥ था कि वह कायस्थ कुल का मृत्युंजय है।, , शरत् छिप-छिपकर उसके पास जाता। उसने साँप पकड़ना, ज़हर उतारने का, मंत्र, सभी कुछ उससे सीखा। एक दिन एक ज़हरीला नाग पकड़े हुए मृत्युंजय, ॥ चूक गया। नाग ने उसे डस लिया। उसको बचाने के सारे प्रयल बेकार हो गए।, सात दिन मौन रहने के बाद विलासी ने आत्महत्या कर ली।, , वर्षों बाद कथाशिल्पी शरतूचंद्र ने लिखा, “विलासी का जिन लोगों ने मज़ाक, उड़ाया था, मैं जानता हूँ, वे सभी साधु, गृहस्थ और साध्वी गृहणियाँ थीं। अक्षय, स्वर्ग और सती लोक उन्हें मिलेगा, यह भी मैं जानता हूँ। पर वह सँपेरे की लड़की, , 11 जब एक पीड़ित और शैयागत रोगी को तिल-तिल कर जीत रही थी, उसके उस, 1० समय के गौरव का एक कण भी शायद आज तक उनमें से किसी ने आँखों से, 2 नहीं देखा। मृत्युजय हो सकता है कि एक बहुत तुच्छ आदमी हो किंतु उसके, , , , 4 हृदय को जीत कर उस पर कब्ज़ा करने का आनंद तुच्छ नहीं था। उसकी वह, संपदा तो मामूली नहीं थी। ...शास्त्रों के अनुसार वह निश्चय ही नरक गई है, परंतु, वह कहीं भी जाए जब मेरा अपना जाने का समय आएगा तब इतना तो मैं कह, , 2019-2020
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सकता हूँ कि वैसे ही किसी एक नरक में जाने के प्रस्ताव से मैं पीछे नहीं, हदूँगा। क्र, , इन दृश्यों का कोई अंत नहीं था। इन्हीं को देखकर उसने सोचा कि मनुष्य $, में जो देवता है उसका इतना तिरस्कार मनुष्य अपने ही हाथों से कैसे करता है?, इन्हीं प्रश्नों ने उसकी पर्यवेक्षण शक्ति को तीव्रता दी, और दिया संवेदन! इसी &, संवेदन ने उसे कहानीकार बना दिया। आवारा, , कहानी लिखने की प्रेरणा उसे एक और मार्ग से मिली। चोरी-चोरी उसने. मसीहा, अपने पिता की टूटी हुई अलमारी खोलकर 'हरिदास की गुप्त बातें! और 'भवानी. 73, पाठ' जैसी पुस्तकें कभी की पढ़ डाली थीं। ये स्कूल की पाठ्यपुस्तकें नहीं थीं।, बुरे लड़कों के योग्य, अपाठ्य पुस्तकें थीं, यही उसको बताया गया था। इसीलिए, उसे चोरी का आश्रय लेना पड़ा। वह केवल स्वयं ही उसको नहीं पढ़ता था, अपने, साथियों को पढ़कर सुनाता भी था। फिर मन ही मन नए कथानक गढ़ता था।, , इसी टूटी हुई अलमारी में से उसने अपने पिता की लिखी हुई अधूरी, कहानियाँ भी खोज निकालीं। वह उत्सुक होकर पढ़ना शुरू करता परंतु अंत तक, पहुँचने का कोई मार्ग ही पिता ने नहीं छोड़ा था। परेशान होकर वह उठता, “बाबा,, इसे पूरा क्यों नहीं करते? करते तो कैसा होता?", , तब मन ही मन उसने अंत की कल्पना की और सोचा-'काश, मैं इस कहानी, को लिख पाता।', , पिता का यह अधूरापन भी उसकी प्रेरक शक्ति बन गया।, , अभिज्ञता प्राप्त करने के मार्गों की उसके लिए कोई कमी नहीं थी। घर का, घोर दारिद्रय बार-बार उसे भाग जाने के लिए प्रेरित करता रहता। यात्रा दल के, अतिरिक्त कभी-कभी वह यूँ ही घर से निकल पड़ता। एक दिन सुप्रसिद्ध 411४, सॉलीसीटर गणेशचंद्र कहीं से कलकत्ता लौट रहे थे। देखा, उनके डिब्बे में एक < 1, तेरह-चौदह वर्ष का लड़का चढ़ आया है। पहनावे से अत्यंत दरिद्र घर का मालूम, होता है। बड़े स्नेह से उन्होंने उसे अपने पास बुलाया। बातें करने लगे। पता लगा, कि वह लड़का उनके एक मित्र का नाती है। क्रांतिकारी बिपिनबिहारी गांगुली के, , 1. शरतू साहित्य, भाग-5, पृष्ठ 121 (विलासी गल्प), , , , , , , , , , , , , , , 2019-2020