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सपनों के-से दिन!!, लेखक:गुरदयाल सिंह
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पाठ प्रवेश.., बचपन में भले ही सभी सोचते हों की काश हम बड़े होते तो, कितना अच्छा होता। परन्तु जब सच में बड़े हो जाते हैं, तो उसी, बचपन की यादों को याद कर-करके खुश हो जाते हैं। बचपन में, बहुत सी ऐसी बातें होती हैं जो उस समय समझ में नहीं आती, क्योंकि उस समय सोच का दायरा सिमित होता है। और ऐसा भी, कई बार होता है कि जो बातें बचपन में बुरी लगती है वही बातें, समझ आ जाने के बाद सही साबित होती हैं।प्रस्तुत पाठ में भी, लेखक अपने बचपन की यादों का जिक्र कर रहा है कि किस, तरह से वह और उसके साथी स्कूल के दिनों में मस्ती करते थे, और वे अपने अध्यापकों से कितना इरते थे। बचपन में लेखक, अपने अध्यापक के व्यवहार को नहीं समझ पाया था उसी का, वर्णन लेखक ने इस पाठ में किया है।
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क्या आपने किसी, बच्चे को स्कूल के, नाम से इरकर, भागते हुए देखा है ?, यदि हाँ, तो उसके, बारे में बताइए ।
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पाठ सार!!, लेखक कहते है कि उसके, बचपन में उसके साथ, खेलने वाले बच्चों का हाल, भी उसी की तरह होता था।, सभी के पाँव नंगे, फटी-, मैली सी कच्छी और कई, जगह से फटे कृर्ते, जिनके, बटन टूटे हुए होते थे और, सभी के बाल बिखरे हुए, होते थे।
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जब सभी खेल कर, धूल से लिपटे हुए, कई जगह, से पाँव में छाले लिए, घुटने और टैँखने के बीच, का टाँग के पीछे माँस वाले भाग पर खून के, ऊपर जमी हुई रेत-मिट्टी से लथपथ पिंडलियाँ ले, कर अपने-अपने घर जाते तो सभी की माँ-बहनें, उन पर तरस नहीं खाती बल्कि उल्टा और ज्यादा, पीट देतीं। कई बच्चों के पिता तो इतने गुस्से, वाले होते कि जब बच्चे को पीटना शुरू करते तो, यह भी ध्यान नहीं रखते कि छोटे बच्चे के नाक-, मुँह से लहू बहने लगा है और ये भी नहीं पूछते, कि उसे चौट कहाँ लगी है। परन्तु इतनी बुरी, पिटाई होने पर भी दूसरे दिन सभी बच्चे फिर से, खेलने के लिए चले आते। लेखक कहते है कि यह, बात लेखक को तब समझ आई जब लेखक स्कूल, अध्यापक बनने के लिए प्रशिक्षण ले रहा था।, वहाँ लेखक ने बच्चों के मन के विज्ञान का विषय, पढ़ा था।