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मधु कांकरिया, , मैंने हैरान होकर देखा-आसमान जैसे उलटा पड़ा, था और सारे तारे बिखरकर नीचे टिमटिमा रहे थे।, दूर...ढलान लेती तराई पर सितारों के गुच्छे रोशनियों, की एक झालर-सी बना रहे थे। क्या था वह?, वह रात में जगमगाता गैंगटॉक शहर था-इतिहास, और वर्तमान के संधि-स्थल पर खड़ा मेहनतकश, बादशाहों का वह एक ऐसा शहर था जिसका सब, : कुछ सुंदर था-सुबह, शाम, रात।, और वह रहस्यमयी सितारों भरी रात मुझमें, सम्मोहन जगा रही थी, कुछ इस कदर कि उन जादू भरे क्षणों में मेश सब कुछ स्थगित, था, अर्थहीन था...मैं, मेरी चेतना, मेरा आस-पास। मेरे भीतर-बाहर सिर्फ़ शून्य था और थी, अतींद्रियता' में डूबी रोशनी की वह जादुई झालर।, , धीरे-धीरे एक उजास' उस शून्य से फूटने लगा...एक प्रार्थना होंठों को छूने लगी..., साना-साना हाथ जोडि, गर्दहु प्रार्थना। हाम्रो जीवन तिम्रो कौसेली (छोटे-छोटे हाथ जोड़कर, प्रार्थना कर रही हूँ कि मेरा सारा जीवन अच्छाइयों को समर्पित हो)। आज सुबह की प्रार्थना, के ये बोल मैंने एक नेपाली युवती से सीखे थे।, , सुबह हमें यूमथांग के लिए निकल पड़ना था, पर आँख खुलते ही मैं बालकनी की, तरफ़ भागी। यहाँ के लोगों ने बताया था कि यदि मौसम साफ़ हो तो बालकनी से भी, 'कंचनजंघा दिखाई देती है। हिमालय की तीसरी सबसे बड़ी चोटी कंचनजंघा! पर मौसम, अच्छा होने के बावजूद आसमान हलके-हलके बादलों से ढका था, पिछले वर्ष की ही, , पट, रकलो से पे. 1. इन्द्रियों से परे 2. प्रकाश, उजाला
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तरह इस बार भी बादलों के कपाट ठाकुर जी के कपाट की तरह बंद ही रहे। कंचनजंघा, न दिखनी थी, न दिखी। पर सामने ही रकम-रकर्मा' के रंग-बिरंगे इतने सारे फूल दिखाई, पड़े कि लगा फूलों के बाग में आ गई हूँ।, , बहरहाल...गैंगटॉक से 149 किलोमीटर की दूरी पर यूमथांग था। “यूमथांग यानी, घाटियाँ...सारे रास्ते हिमालय की गहनतम घाटियाँ और फूलों से लदी वादियाँ मिलेंगी, आपको ” ड्राइवर-कम-गाइड जितेन नागें मुझे बता रहा था। “क्या वहाँ बर्फ़ मिलेगी?” मैं, बचकाने उत्साह से पूछने लगती हूँ।, , चलिए तो...।, , जगह-जगह गदराए पाईन और धूपी के खूबसूरत नुकीले पेड़ों का जायजा लेते हुए हम, पहाड़ी रास्तों पर आगे बढ़ने लगे कि एक जगह दिखाई दीं...एक कतार में लगी, सफ़ेद-सफ़ेद बौद्ध पताकाएँ। किसी ध्वज की तरह लहराती...शांति और अहिंसा की प्रतीक, ये पताकाएँ जिन पर मंत्र लिखे हुए थे। ना्गें ने बताया-यहाँ बुद्ध की बड़ी मान्यता है। जब, भी किसी बुद्धिस्ट की मृत्यु होती है, उसकी आत्मा की शांति के लिए शहर से दूर किसी, भी पवित्र स्थान पर एक सौ आठ श्वेत पताकाएँ फहरा दी जाती हैं। नहीं, इन्हें उतारा नहीं, जाता है, ये धीरे-धीरे अपने आप ही नष्ट हो जाती हैं। कई बार किसी नए कार्य की, शुरुआत में भी ये पताकाएँ लगा दी जाती हैं पर वे रंगीन होती हैं। नारे बोलता जा रहा, था और मेरी नज़र उसकी जीप में लगी दलाई लामा की तसवीर पर टिकी हुई थी। कई, दुकानों पर भी मैंने दलाई लामा की ऐसी ही तसवीर देखी थी।, , हिचकोले खाती हमारी जीप थोड़ी और आगे बढ़ी। अपनी लुभावनी हँसी बिखेरते हुए, जितेन बताने लगा...इस जगह का नाम है कवी-लोंग स्टॉक। यहाँ 'गाइड' फिल्म की शूटिंग, हुई थी। तिब्बत के चीस-खे बम्सन ने लेपचाओं के शोमेन से कुंजतेक के साथ संधि-पत्र, पर यहीं हस्ताक्षर किए थे। एक पत्थर यहाँ स्मारक के रूप में भी है। (लेपचा और भुटिया, सिक्किम की इन दोनों स्थानीय जातियों के बीच चले सुदीर्घ झगड़ों के बाद शांति वार्ता, का शुरुआती स्थल।), , उन्हीं रास्तों पर मैंने देखा-एक कुटिया के भीतर घूमता चक्र। यह क्या? नागें कहने, लगा...“मैडम यह धर्म चक्र है। प्रेयर व्हील। इसको घुमाने से सारे पाप धुल जाते हैं।”, , “क्या?” चाहे मैदान हो या पहाड़, तमाम वैज्ञानिक प्रगतियों के बावजूद इस देश की, आत्मा एक जैसी। लोगों की आस्थाएँ, विश्वास, अंधविश्वास, पाप-पुण्य की अवधारणाएँ, और कल्पनाएँ एक जैसी।, , भर टी 7 हे, भ्मूँ -+ 3. तरह-तरह के
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1), साना साना हाथ जोड़... !, , , , रफ़्ता-रफ़्ता” हम ऊँचाई की ओर बढ़ने लगे। बाज़ार, लोग और बस्तियाँ पीछे छूटने, लगे। अब परिदृश्य से चलते-चलते स्वेटर बुनती नेपाली युवतियाँ और पीठ पर, भारी-भरकम कार्टून ढोते बौने से दिखते बहादुर नेपाली ओझल हो रहे थे। अब नीचे देखने, पर घाटियों में ताश के घरों की तरह पेड्-पौधों के बीच छोटे-छोटे घर दिखाई दे रहे थे।, हिमालय भी अब छोटी-छोटी पहाड़ियों के रूप में नहीं वरन् अपने विराट रूप एवं वैभव, के साथ सामने आने वाला था। न जाने कितने दर्शकों, यात्रियों और तीर्थाटानियों का काम्य, हिमालय। पल-पल परिवर्तित हिमालय!, , और देखते-देखते रास्ते वीरान, सँकरे और जलेबी की तरह घुमावदार होने लगे थे।, हिमालय बड़ा होते-होते विशालकाय होने लगा। घटाएँ गहराती-गहराती पाताल नापने लगीं।, वादियाँ चौड़ी होने लगीं। बीच-बीच में करिश्मे की तरह रंग-बिरंगे फूल शिद्दतः से, मुसकराने लगे। उन भीमकाय पर्वतों के बीच और घाटियों के ऊपर बने संकरे कच्चे, -पक्के रास्तों से गुजरते यूँ लग रहा था जैसे हम किसी सघन हरियाली वाली गुफा के, बीच हिचकोले खाते निकल रहे हों।, , , , पट | कक 5 4. धीरे-धीरे 5. तीब्रता, प्रबलता, अधिकता, , 19
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कृतिका, , , , इस बिखरी असीम सुंदरता का मन पर यह प्रभाव पड़ा कि सभी सैलानी झूम-झूमकर, गाने लगे-“सुहाना सफ़र और ये मौसम हँसी...।”, , पर मैं मौन थी। किसी ऋषि की तरह शांत थी। मैं चाहती थी कि इस सारे परिदृश्य, को अपने भीतर भर लूँ। पर मेरे भीतर कुछ बूँद-बूँद पिघलने लगा था। जीप की खिड़की, से मुंडकी' निकाल-निकाल मैं कभी आसमान को छूते पर्वतों के शिखर देखती तो कभी, ऊपर से दूध की धार की तरह झर-झर गिरते जल-प्रपातों को। तो कभी नीचे, चिकने-चिकने गुलाबी पत्थरों के बीच इठला-इठला कर बहती, चाँदी की तरह कौंध, मारती बनी-ठनी तिस्ता नदी को। सिलीगुड़ी से ही हमारे साथ थी यह तिस्ता नदी। पर यहाँ, उसका सौंदर्य पराकाष्ठा पर था। इतनी खूबसूरत नदी मैंने पहली बार देखी थी। मैं रोमांचित, थी। पुलकित थी। चिड़िया के पंखों की तरह हलकी थी।, , “मेरे नगपति मेरे विशाल”-मैंने हिमालय को सलामी देनी चाही कि तभी जीप एक, जगह रुकी...खूब ऊँचाई से पूरे वेग के साथ ऊपर शिखरों के भी शिखर से गिरता फेन, उगलता झरना। इसका नाम था-'सेवन सिस्टर्स वॉटर फॉल।' फ़्लैश चमकने लगे। सभी, सैलानी इन खूबसूरत लम्हों की रंगत को कैमरे में कैद करने में मशगूल' थे।, , आदिम युग की किसी अभिशप्त* राजकुमारी-सी मैं भी नीचे बिखरे भारी-भरकम, पत्थरों पर बैठ झरने के संगीत के साथ ही आत्मा का संगीत सुनने लगी। थोड़ी देर बाद, ही बहती जलधारा में पाँव डुबोया तो भीतर तक भीग गई। मन काव्यमय हो उठा। सत्य, और सौंदर्य को छूने लगा।, , जीवन की अनंतता का प्रतीक वह झरना...उन अद्भुत-अनूठे क्षणों में मुझमें जीवन, की शक्ति का अहसास हो रहा था। इस कदर प्रतीत हुआ कि जैसे मैं स्वयं भी देश और, काल की सरहदों? से दूर बहती धारा बन बहने लगी हूँ। भीतर की सारी तामसिकताएँ"और, दुष्ट वासनाएँ" इस निर्मल धारा में बह गईं। मन हुआ कि अनंत समय तक ऐसे ही बहती, रहूँ...सुनती रहूँ इस झरने की पुकार को। पर जितेन मुझे ठेलने लगा...आगे इससे भी सुंदर, नज़ारे मिलेंगे।, , अनमनी-सी मैं उठी। थोड़ी देर बाद ही फिर वही नज़ारे-आँखों और आत्मा को सुख, देने वाले। कहीं चटक हरे रंग का मोटा कालीन ओढे तो कहीं हलका पीलापन लिए, तो, कहीं पलस्तर उखड़ी दीवार की तरह पथरीला और देखते ही देखते परिदृश्य से सब, छू-मंतर...जैसे किसी ने जादू की छड़ी घुमा दी हो। सब पर बादलों की एक मोटी चादर।, सब कुछ बादलमय।, , , , ः 6. सिर 7. व्यस्त 8. शापित, अभियुक्त 9. सीमा 10. तमोगुण से युक्त, कुटिल 11. बुरी इच्छाएँ, , डक
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साना साना हाथ जोडि,, , , , चित्रलिखित-सी मैं 'माया' और “छाया' के इस अनूठे खेल को भर-भर आँखों देखती, जा रही थी। प्रकृति जैसे मुझे सयानी” बनाने के लिए जीवन रहस्यों का उद्घाटन करने, पर तुली हुई थी।, , धीरे-धीरे धुंध की चादर थोड़ी छँटी। अब वहाँ पहाड़ नहीं, दो विपरीत दिशाओं से, आते छाया-पहाड़ थे और थोड़ी देर बाद ही वे छाया-पहाड़ अपने श्रेष्ठतम रूप में मेरे, सामने थे। जीप थोड़ी देर के लिए रुकवा दी गई थी। मैंने गर्दन घुमाई...सब ओर जैसे, जन्नत” बिखरी पड़ी थी। नज़रों के छोर तक खूबसूरती ही खूबसूरती। अपने को निरंतर, दे देने की अनुभूति कराते पर्वत, झरने, फूलों, घाटियों और वादियों के दुर्लभ नज़ारे! वहीं, कहीं लिखा था...'थिंक ग्रीन।', , आश्चर्य! पलभर में ब्रह्मांड में कितना कुछ घटित हो रहा था। सतत प्रवाहमान झरने,, नीचे वेग से बहती तिस्ता नदी। सामने उठती धुंध। ऊपर मँडराते आवारा बादल।, मद्धिम-मद्धिम हवा में हिलोरे लेते प्रियुता और रूडोडेंड्रो के फूल। सब अपनी-अपनी लय, तान और प्रवाह में बहते हुए। चैरवेति-चैरवेति|घ। और समय के इसी सतत प्रवाह में, तिनके-सा बहता हमारा वज़ूद”।, , पहली बार अहसास हुआ...जीवन का आनंद है यही चलायमान सौंदर्य।, , संपूर्णता के उन क्षणों में मन इस बिखरे सौंदर्य से इस कदर एकात्म हो रहा था कि, भीतर-बाहर की रेखा मिट गई थी, आत्मा की सारी खिड़कियाँ खुलने लगी थीं...मैं सचमुच, ईश्वर के निकट थी। सुबह सीखी प्रार्थना फिर होठों को छूने लगी थी...साना-साना हाथ, जोडि...कि तभी वह अतींद्रिय संसार खंड-खंड हो गया! वह महाभाव सूखी टहनी-सा, टूट गया।, , दरअसल मंत्रमुग्ध-सी मैं तंद्रिल अवस्था में ही थोड़ी दूर तक निकल आई थी कि, अचानक पाँवों पर ब्रेक सी लगी...जेसे समाधिस्थ भाव में नृत्य करती किसी आत्मलीन, नृत्यांगनगा के नुपूर अचानक टूट गए हों। मैंने देखा इस अद्वितीय सौंदर्य से निरपेक्ष कुछ, पहाड़ी औरतें पत्थरों पर बैठीं पत्थर तोड़ रही थीं। गुँथे आटे-सी कोमल काया पर हाथों, में कुदाल और हथौड़े! कईयों की पीठ पर बँधी डोको (बड़ी टोकरी) में उनके बच्चे भी, बँधे हुए थे। कुछ कुदाल को भरपूर ताकत के साथ ज़मीन पर मार रही थीं।, , इतने स्वर्गीय सौंदर्य, नदी, फूलों, वादियों और झरनों के बीच भूख, मौत, दैन्य और, ज़िंदा रहने की यह जंग! मातृत्व और श्रम साधना साथ-साथ। वहीं पर खड़े बी.आर.ओ., (बोर्ड रोड आर्गेनाइजेशन) के एक कर्मचारी से पूछा मैंने, “यह क्या हो रहा है? उसने, , , , 4, ऊ गे डर रु, बिल 12. समझदार, चतुर 13. स्वर्ग 14. चलते रहो, चलते रहो 15. अस्तित्व