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प्राक्कथन, समय-समय पर सामाजिक बदलाव और उसके अनुरूप आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए शिक्षा-प्रणाली तथा पाठ्यक्रमों, में भी संशोधन एवं युगानुरूप परिवर्तन करने की आवश्यकता शिक्षा-विदों द्वारा अनुभव किया जाना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। इसी के, अन्तर्गत राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 तथा शिक्षक-शिक्षा की राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2009 के आलोक में उत्तर, प्रदेश में प्राथमिक कक्षाओं के शिक्षकों हेतु सेवापूर्व प्रशिक्षण की केन्द्र पुरोनिधानित शिक्षक-शिक्षा योजना लागू की गयी है । इसके, अन्तर्गत बी0टी०सी0 के दो वर्षीय पाठ्यचर्या का पुनरीक्षण कर समावेशी विभिन्न विषयों के पाठ्यक्रमों को समुन्नत किया गया है तथा, प्रशिक्षु शिक्षकों से यह अपेक्षा की गयी है कि वे बिना किसी भय के शिक्षार्थियों के ज्ञानार्जन में उनकी सहायता कर सकें। नवीन, पाठ्यचर्या एवं पाठ्यक्रमों के सन्निहित उद्देश्यों को दृष्टिगत कर राज्य विज्ञान शिक्षा संस्थान, उ०प्र0 , इलाहाबाद द्वारा विज्ञान एवं गणित, विषयों की पाठ्यपुस्तकों का सृजन किया गया है।, पाठ्यपुस्तकों की संरचना करते समय इस बात को विशेष महत्व देते हुए भरपूर प्रयास किया गया है कि प्रशिक्षित शिक्षक की, ओजभरी वाणी में इतना आकर्षण एवं शाक्ति हो कि वह शिक्षाग्रहण करने वाले प्रशिक्षणार्थियों के मन की समस्त दुविधाओं को दूर कर, उनकी बुद्धि का पूरा लाभ उन्हें प्रदान कर सके तथा वह गुरूजनों को अपने माता-पिता के समान अपना सच्चा मार्गदर्शक समझकर, उनके द्वारा प्रदत्त ज्ञान को प्राप्त कर सके।, विज्ञान और गणित विषय ही समाज को मानव जीवन को जीवन्त बनाने, उसे सब प्रकार के भौतिक सुखों से आप्लावित करने,, भविष्य की सुखद योजनाओं की संकल्पना करने, उसका ब्लू-प्रिंट तैयार कर उसे कार्यान्वित करने का सार्थक स्वप्न दिखाते हैं। इन, स्वप्नों को साकार करने के बीज जब प्राथमिक और उच्च प्राथमिक स्तर पर बच्चों के उर्वर मन में बो दिया जाता है तथा शिक्षक की वाणी, की ज्ञान गंगा जब उन्हें निरन्तर सींचती रहती है, तो उसी में से एक दिन रमन, जगदीश चन्द्रबोस जैसे महान वैज्ञानिक तथा रामानुजन,, शकुन्तला जैसे महान गणितज्ञ पैदा होते हैं। यह मानकर चलिए कि हमारे विद्या मन्दिर के प्रत्येक बालक-बालिका के उर में एक, वैज्ञानिक, एक गणितज्ञ सोया हुआ है, बस आवश्यकता है कि उसे कैसे जगायें, कैसे ऊर्जा स्थित करें और कैसे सृजनात्मकता के पाठ, पढ़ाये, और कैसे उसे ज्ञान, बोध, अनुप्रयोग और कौशल के सारे गुर सिखायें कि वह आगे चलकर अपनी अद्भुत प्रतिभा से राष्ट्र को, समुन्नत करने का बीड़ा उठा सके।, सीमित समयान्तर्गत गणित विषय की पाठ्यपुस्तक को आकर्षक कलेवर प्रदान करने में हमें श्री सर्वेनद्र विक्रम बहादुर सिंह, निदेशक, राज्य शैक्षिक अनुसन्धान और प्रशिक्षण परिषद्, उत्तर प्रदेश, लखनऊ का समय-समय पर जो अत्यंत उपयोगी मार्ग दर्शन, प्राप्त हुआ है, उसके लिए मैं उनके प्रति हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करती हूँ। पाठ्य-पुस्तक के प्रणयन में लेखक मण्डल के सभी सदस्यों, के अमूल्य सहयोग के लिए भी मैं उनके प्रति अपना आभार व्यक्त करती हूँ। शिक्षाविद् परामर्शदाताओं के सतत सहयोग से इस, पाठ्यपुस्तक को निखारने में हमे जो सहयोग मिला है, उसके लिए भी मैं उन्हें धन्यवाद देती हूँ। मैं अपने संस्थान के सभी विद्वान, सहयोगियों को भी हृदय से धन्यवाद देती हूँ जिनके अहन्निश परिश्रम के बल पर ही यह पाठ्यपुस्तक अन्तिम स्वरूप को ग्रहण कर सकी, है।, सुधार और संशोधन की कोई सीमा नहीं होती है। मैं शिक्षा जगत के सभी सुधीजनों से अपेक्षा करती हूँ कि वे अपने सकारात्मक, सुझावों से हमें अवश्य अवगत करायेंगे जिससे पाठ्य पुस्तक के अगले संस्करण को और अधिक ऊर्जावान एवं सार्थक बनाया जा सके ।, श्रीमती नीना श्रीवास्तव, निदेशक, राज्य विज्ञान शिक्षा संस्थान, उ०प्रo, इलाहाबाद
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इकाई-1, संख्या तथा संख्यांक का बोध, अंको का ज्ञान तथा स्थानीय मान, इस इकाई के अध्ययन से निम्नलिखित बिन्दुओं की जानकारी प्राप्त करेंगे ।, संख्या तथा संख्यांक का बोध, अंको का ज्ञान, शून्य अंक का ज्ञान, अंकों के स्थानीय मान का ज्ञान, गणित के विकास में संख्याओं का सबसे महत्वपूर्ण स्थान है सच तो यह है कि संख्याओं के बिना गणित की संकल्पना ही, नहीं की जा सकती है संख्याओं के विकास के सम्बन्ध में विचार करें तो देखते हैं कि मूलरूप से संख्याओं का विकास उत्तरोत्तर मानव, अनुसार हुआ है। प्रारम्भ में सभ्यता के विकास में गिनती की संख्याओं जिन्हें प्राकृतिक संख्याएँ कहते हैं का, विकास हुआ फिर पूर्ण संख्याओं का विकास हुआ। इस इकाई में हम संख्या तथा संख्यांक का बोध, अंकों का ज्ञान, शून्य अंक, का ज्ञान तथा अंकों के स्थानीयमान पर विचार करेंगे। सभ्यता के विकास के साथ ही प्रकृति में पायी जाने वाली वस्तुओं को, की आवश्यकता, गिनने की आवश्यकता पड़ी। अंक-संकेतों अथवा संख्याओं को लिखने में प्रयुक्त अंकों का विकास हमारी अंगुलियों की ही सहायता से, हुआ।, संख्या - जिन शब्दों से वस्तुओं की गिनती का बोध होता है उसे संख्या कहते हैं।, संख्यांक- संख्याओं को जिन संकेतों द्वारा व्यक्त किया जाता है। उन्हें संख्यांक कहते हैं। संख्यांक का अर्थ है, कि संख्या को लिखने के, लिये प्रयुक्त अंक । निम्नांकित सारणी में एक से नौ तक की संख्याओं को संकेतों द्वारा विभिन्न लिपियों में प्रदर्शित किया गया है ।, देवनागरी, रोमन, १, २, ४, ५, ६, ७, ८, ९, II, II, IV, V, VI, VII| VIII, IX, अरबी, अन्तर्राष्ट्रीय, 1, 3, 4, 7, 9., बाद में भारतीयों ने शून्य (0) का आविष्कार किया तो इसकी सहायता से छोटी बड़ी हर प्रकार की संख्या को लिखना सम्भव, हो सका।, संख्यांक संख्या को निरुपित करने वाला संकेत ही होता है ।, रोमन संख्यांक-, अभी तक हम हिन्दी अरेबिक संख्यांको की पद्धति का ही प्रयोग करते रहे हैं। यह एक मात्र संख्यांक पद्धति नहीं है । संख्यांक, लिखने की पुरानी पद्धतियों में से एक पद्धति रोमन संख्यांकों की पद्धति है | यह पद्धति अभी भी अनेक स्थानों पर प्रयोग की जाती है।, जैसे हम घड़ियों में रोमन संख्यांको का प्रयोग देख सकते हैं । इनका प्रयोग स्कूल की समय-सारणी में कक्षाओं के लिए भी किया जाता, है।, XII, XI, I, X, II, IX, II, VIII, IV, VII, VI, V, घड़ी, =, -