Page 1 :
. कहानी व नाटक की रचना, , (कैसे करें कहानी का नाट्य रूपांतरण व, कैसे बनता है रेडियो नाटक), , इस अध्याय में..., * कहानी, , , , « कहानी का नाट्य रूपांतरण, , « चैप्टर प्रैक्टिस, , कहानी से तात्पर्य, , किसी घटना, पात्र या समस्या की क्रमबद्ध जानकारी, जिसमें परिवेश हो,, दंद्वात्मकता हो, कथा का क्रमिक विकास हो, चरम उत्कर्ष का बिंदु हो,, उसे कहानी कहा जाता है।, , कहानी का इतिहास कहानी का इतिहास उतना ही पुराना है, जितना, मानव का इतिहास, क्योंकि कहानी मानव स्वभाव और प्रकृति का हिस्सा, है। धीरे-धीरे कहानी कहने की आदिम कला का विकास होने लगा।, आरंभ में कथावाचक कहानी सुनाते थे, जिनका विषय किसी घटना का, वर्णन, युद्ध, प्रेम और प्रतिशोध आदि हुआ करता था। सच्ची घटनाओं, पर कहानी सुनाते-सुनाते उनमें कल्पना का समावेश होने लगा।, कथाबाचक सुनने 20% की अपनी कल्पना के माध्यम, से नायक के गुणों का वर्णन करने लगा।, मौखिक कहानी की परंपरा मौखिक कहानी की परंपरा बहुत पुरानी है।, काल में मौखिक कहानियों की लोकप्रियता इसलिए थी, क्योंकि, किलर और बड़ा माध्यम था। इस कारण धर्म-प्रचारकों ने भी अपने, गत विचार लोगों तक पहुँचाने के लिए कहानी का सहारा लिया, शक ! शिक्षा देने के लिए भी कहानी विधा का प्रयोग किया गया; जैसे-की कहानियाँ लिखी गईं, जो विश्वप्रसिद्ध हैं।, , कहानी के तत्त्व, कहानी के प्रपुख तत्त्व निम्नलिखित हैं, , * से अंत तक ही का केंद्रीय बिंदु होता है, जिसमें प्रारंभ, अंत तक कहानी की सभी घटनाओं और पात्रों का उल्लेख होता, , * नाटक, , « रेडियो नाटक..., , है। सरल शब्दों में, कहानी की रचना को 'कथानक' कहा जाता है।, प्रत्येक कहानी के लिए कथावस्तु का होना अनिवार्य है, क्योंकि इसके, अभाव में किसी कहानी की रचना की कल्पना भी नहीं की जा सकती।, कथानक को कहानी का प्रारंभिक नक्शा भी माना जा सकता है। कहानो, का कथानक कहानीकार के मन में किसी घटना, जानकारी, अनुभव या, कल्पना के कारण आता है। कहानीकार एक कल्पना का विकास करते, हुए परिवेश, पात्र और समस्या को आकार देता है। इस प्रकार वह एक, ऐसा काल्पनिक ढाँचा (बनावट) तैयार करता है, जो कोरी कल्पना न, होकर संभावित हो तथा लेखक के उद्देश्य से मिलती हो।, , . इंद्व कहानी में द्वंद्वध के तत्त का होना आवश्यक है। द्वंद्ध कथानक को, , आगे बढ़ाता है तथा कहानी में रोचकता बनाए रखता है। दंद्व दो, विरोधी तत्त्वों का टकराव या किसी की खोज में आने वाली बाधाओं, या अंतर्द्दद्ध के कारण उत्पन्न होता है। कहानी की यह शर्त है कि वह, नाटकीय आकार से अपने उद्देश्य को पूर्ण करते हुए समाप्त हो जाए,, यह द्वंद्र के कारण ही पूर्ण होती है। कहानीकार अपने कथानक में दंद्र, के बिंदुओं की जितनी स्पष्ट झलक रखेगा, कहानी भी उतनी ही, सफलता से आगे बढ़ेगी।, , . देशकाल और बातावरण प्रत्येक घटना, पात्र, समस्या का अपना, , देशकाल और वातावरण होता है। कहान, में वास्तविकता का पुट लाने के, लिए देशकाल और वाताबरण का प्रयोग किया जाता है। कहानी को, प्रामाणिक और रोचक बनाने के लिए इनका प्रयोग अत्यंत आवश्यक है।, , « पात्न एवं चअरित्र-चित्रण कहानी का संचालन उसके पात्रों के द्वारा ही, , होता है। पात्रों के गुण-दोष को उनका चरित्र-चित्रण कहा जाता है।, अत्येक पात्र का अपना स्वरूप, स्वभाव और उद्देश्य होता है। पात्रों का
Page 2 :
अध्यन करना कहानी की एक बहुत, , रा त महत्त्वपूर्ण और बुनियादी, , है। कशनीकार के सामने पात्रों का स्वरूप जितना स्पष्ट होगा तभी, , हे ड्से खान का चरित्र-चित्रण करने और उसके संवाद, , लिखने में हों जिन करने के लिए पात्रों के गुणों, बखान (वर्णन) कहानीकार द्वारा तथा पात्रों पं, , ब गत (वर का दूसरे पात्रों के संवाद के, , संधाद कहानी के पात्रों के द्वारा किए गए उनके बिचारों की, कु. को सब या कथोपकथन कहते हैं। कहानी में संवाद का, महत्त्व होता है। संवाद ही कहानी तथा पात्र को स्थापित ण्वं, विकसित कर कह गा गति का आगे बढ़ाते हैं, जो घटना या, होती हुई नहीं दिखा सकता उन्हें वह संवादों, पेय के शाता है। ता उन्हें वह संवादों के, अरमोत्कर्ष जब कहानी पढ़ते-पढ़ते पाठक कौतूहल (जिज्ञासा, , * (शक्ाष्ठा (चरम सीमा) पर पहुँच जाए, तब उसे कहानी का शी, , या कि स्थिति कहते हैं। कथानक के अनृगाए कटनी, , ( ) की ओर बढ़ती है। कहानी का चरम उत्कष, चाठक को स्वयं सोचने और लेखकीय पक्षधर की ओर आने के लिए, ररित करे। पाठक को यह भी लगे कि उसे स्वतंत्रता दी गई है और, उसने जो निष्कर्ष निकाले हैं वह उसके अपने हैं।, , ग. भाषा-शैली कहानीकार के द्वारा कहानी के प्रस्तुतीकरण के ढंग, (रूप) को उसकी भाषा-शैली कहा जाता है। कहानी की भाषा ऐसी, होनी चाहिए जो पाठक को अपनी ओर आकर्षित करे। अत: कहानी, की भाषा सरल, सहज तथा प्रभावमयी होनी चाहिए।, , & उद्देश्य प्रत्येक कहानी किसी-न-किसी उद्देश्य को लेकर लिखी, जाती है। कहानी की रचना बिना किसी उद्देश्य के नहीं हो सकती।, अतः उद्देश्य कहानी का एक अनिवार्य तत्त्व है।, , . कहानी लेखन हेतु ध्यान..., रखने योग्य बातें |, , | » कहानी का आरंभ आकर्षक होना चाहिए। कहानी का शीर्षक उपयुक्त तथा ।, आकर्षक होना चाहिए।, , « कहानी में विभिन्न घटनाओं और प्रसंगों को संतुलित विस्तार देनाचाहिए। |, , | किसी प्रसंग को न तो अत्यंत संक्षिप्त लिखें और न ही अनावश्यक रूप से |, |... विस्तृत (बढ़ाएँ) करें। |, |. « कहानी की भाषा सरल, स्वाभाविक तथा प्रभावमयी होनी चाहिए। उसमें क्लिष्ट |, । शब्द तथा लंबे वाक्य नहीं होने चाहिए। |, « संवाद पात्रों के स्वभाव एवं पृष्ठभूमि के अनुकूल होने चाहिए। |, | « कहानी के संवाद छोटे, स्वाभाविक और उद्देश्य के प्रति सीधे लक्षित होने चाहिए। |, | » कहानी का अंत सहज ढंग से होना चाहिए। |, , , , | नाटक से तात्पर्य, , | अठ्क साहित्य की वह सर्वोत्तम विधा है जिसे पढ़ने, सुनने के साथ देखा, ! भेजा सकता है। नाटक शब्द की उत्पत्ति नद्' धातु से मानी जाती है।, *ऋ् शब्द का अर्थ अभिनय है, जो अभिनेता से जुड़ा हुआ है। इसे, 'पक' भी कहा जाता है। भारतीय परंपरा में नाटक, , ऐैंता दी गई है।, , , , नाटक और अन्य विधाओं में अंतर तप, साहित्य की अन्य विधाएँ अपने लिखित रूप में ही निश्चित और अंतिम, रूप को प्राप्त कर लेती हैं, किंतु नाटक लिखित रूप में एक आयामी, होता है। मंचन के पश्चात् ही उसमें संपूर्णता आती है। अतः साहित्य की, अन्य विधाएँ पढ़ने या सुनने तक की यात्रा तय करती हैं, परंतु नाटक हे, पढ़ने, सुनने के साथ-साथ देखने के तत्व को भी अपने में समेटे हुए हैं।, , नाटक के अंग, नाटक के मुख्य अंग निम्नलिखित हैं, 1. समय का बंधन नाटक का प्रथम अंग समय का बंधन है। समय का, यह बंधन नाटक की रचना पर अपना पूरा प्रभाव डालता है, इसलिए, नाटक को शुरुआत से लेकर अंत तक एक निश्चित समय-सीमा के, अंदर ही पूरा होना होता है। रे, एटक का विषय भूतकाल हो या *विष्यकाल, इन दोनों ही स्थितियों, | बत॑मान काल संयोजित होता है। यही कारण है कि नाटक के मंच, व निर्देश हमेशा वर्तमान काल में लिखे जाते हैं। चाहे काल कोई भी, हो उसे एक समय में, एक स्थान विशेष पर वर्तमान काल में ही, घटित होना होता है।, समय को लेकर एक और तथ्य यह है कि साहित्य की अन्य विधाओं;, जैसे-- कहानी, उपन्यास, कविता को हम कभी भी पढ़ते तथा सुनते, हुए बीच में रोक सकते हैं और कुछ समय बाद फिर वहीं से पढ़ना या, सुनना शुरू कर सकते हैं, परंतु नाटक के साथ ऐसा संभव नहीं है।, 2. शब्द नाटक का दूसरा महत्त्वपूर्ण अंग शब्द है। नाटक में शब्द, अपनी एक नई, निजी और अलग अस्मिता ग्रहण करता है। शब्द को, “नाटक का शरीर” कहा गया है।, , नाटक के तत्त्व, नाटक के प्रमुख तत्त्व निम्नलिखित हैं, , 1. कथ्य या कथानक नाटक के लिए उसका कथ्य जरूरी होता है।, नाटक में किसी कहानी के रूप को किसी शिल्प या संरचना के, अंदर उसे पिरोना होता है। इसके लिए नाटककार को शिल्प या, संरचना की पूरी समझ, जानकारी व अनुभव होना चाहिए। इसके, लिए पहले घटनाओं, स्थितियों या दृश्यों का चुनाव कर उन्हें क्रम में, रखें ताकि कथा का विकास शून्य से शिखर की ओर हो।, , 2. संवाद नाटक का सबसे महत्त्वपूर्ण और सशक्त माध्यम उसके, संवाद हैं। संवाद ही वह तत्त्व है, जो एक सशक्त नाटक को अन्य, कमजोर नाटकों से अलग करत। है। संवाद जितने सहज और, स्वाभाविक होंगे, उतना ही वे दर्शक के मर्म को छुएँगे।, , 3. भाषा भाषा नाटक का प्राण तत्त्व है। एक अच्छा नाटककार अत्यंत, संक्षिप्त तथा सांकेतिक भाषा का प्रयोग करता है। नाटक वर्णित न, होकर क्रियात्मक अधिक होना चाहिए। एक अच्छा नाटक वही होता, है, जो लिखे गए शब्दों से ज्यादा वह ध्वनित (प्रकट) करे, जो, लिखा नहीं गया है।, , 4. चरित्र नाटक को सशक्त बनाने में चरित्र का विशेष योगदान होता है।, अत: नाटक लिखते समय यह अत्यंत आवश्यक है कि नाटक के पात्र, , व उनके चरित्र सपाट और सतही न होकर क्रियाओं- प्रतिक्रियाओं को, व्यक्त करने वाले हों।
Page 3 :
कसम तत्त्व रंगमंचीयता है।, रंगमंचीयता नाटक, ठ. न लिखे जाते, नाटक रंगमंच के लिए ही, नाटक न मंचन, , में स्वीकार एव, , नोट जीवंत माध्यम है। नाटक में कोई भी दो चरित्र जब आपस, मे मिलते है. तो विचारों के आदान-प्रदान में टकराहट होना स्वाभाविक, है। यही कारण है कि रंगमंच प्रतिरोध का सबसे सशक्त माध्यम है।, वह कभी भी यथास्थिति को स्वीकार नहीं करता। ः, , इस कारण उसमें अस्वीकार की स्थिति भी बराबर बनी रहती है, जिस, नाटक में असंतुष्टि, छटपटाहट, प्रतिरोध और अस्वीकार जैसे, नकारात्मक तत्त्वों की जितनी ज्यादा उपस्थिति होगी, वह उतना ही, , सशक्त नाटक सिद्ध होगा।, , कहानी का नाट्य रूपांतरण, , किसी भी कहानी का नाटक में रूपांतरण करने के लिए हमें सबसे पहले, कहानी और नाटक की विविधताओं व समानताओं को समझना होगा। जहाँ, कहानी का संबंध केवल लेखक और नाटक से होता है, वहीं नाटक के, द्वारा लेखक, निर्देशक, पात्र. दर्शक तथा श्रोता एक-दूसरे से जुड़ते हैं।, , कहानी कहीं भी किसी के भी द्वारा पढ़ी और कही जा सकती है, परंतु, नाटक को मंच के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है। वैसे तो कहानी में, भी नाटक की तरह ही एक कहानी होती है, पात्र होते हैं, परिवेश होता, है, संवाद होते हैं, ढंद्ध होता है, परंतु नाटक को मंच पर संगीत, सज्जा,, प्रकाश व्यवस्था के साथ-साथ अभिनय द्वारा प्रस्तुत किया जाता है।, , कथानक का दृश्यों में विभाजन, कहानी को नाटक में रूपांतरित करने के लिए पहले कहानी के, कथानक (कथावस्तु) को समय तथा स्थान के आधार पर विभाजित, करते हैं। कथानक से चुनकर निकाली गई घटनाओं के आधार पर दृश्य, बनाया जाता है। एक ही समय-स्थान पर घटी घटना को एक दृश्य, माना जाता है।, अत: कथानक को समय तथा स्थान के आघार पर विभाजन करके, दृश्यों को लिखा जाता है। दृश्य लिखते समय कथानक के अनावश्यक, हिस्से को निकाल दिया जाता है, क्योंकि इससे नाटक की गति बाधित, होती है। अत: प्रत्येक दृश्य का कथा के अनुसार तार्किक विकास किया, जाता है। इसकी सुनिश्चितता के लिए दृश्य विशेष के उद्देश्य व, उसकी संरचना पर विचार करना चाहिए। प्रत्येक दृश्य का अंत ऐसा, होना चाहिए, जो अगले दृश्य से संबंधित हो। अत: दृश्य का पूर्ण, विवरण तैयार करना चाहिए, जिससे कोई आवश्यक जानकारी न रह, जाए और साथ ही वह क्रमानुसार भी हो।, , नाटक के दृश्यों के संवादों तथा अभिनेयता की महत्ता, अत: नाटक ही नहीं, बल्कि नाटक का प्रत्येक दृश्य प्रारंभ, मध्य व, अंत में बँटा होता है, जो कथानक को तो आगे बढ़ाता ही है, बल्कि, चात्रों और परिवेश को संवादों के माध्यम से भी प्रतिष्ठित करता है, साथ ही अगले दृश्य की भूमिका भी बनाता है। नाटक में संवाद छोटे,, , अ्रभावशाली व स्थानीय (बोलचाल की) भाषा में होने चाहिए। संवाद, को नाटक में प्रभावशाली अभिनय बनाता हैं। पात्र अपनी, , ८898 7०71 ॥ | हिंदी केंद्रिक ५, ॥, , भाव-भंगिमाओं व तौर-तरीकों से संवाद व नाटक दोनों को प्रभावी बना, मंच की साज-सज्जा, ध्वनि व प्रकाश भी पात्र का चरित्र-चित्रण करने, सहायक होते हैं। मुख्यतः यह कार्य निर्देशक का होता है।, , रेडियो नाटक, , रेडियो नाटक में प्रसिद्ध साहित्यकार की भूमिका, , पहले साहित्यकार रेडियो स्टेशनों के लिए नाटक भी लिखा करते थ। उमर, समय रेडियो नाटक काफी प्रचलित थे। हिंदी के बहुत-से नाटक जो मंत्र कर, सफल हुए, मूल रूप से वे रेडियो के लिए ही लिखे गए थे। भार्तेद् हरिश्क, कृत “अँधेर नगरी”, धर्मबीर भारती कृत “अंध्रा युग! और मोहन गकेश कुत, 'आषाढ़ का एक दिन! आदि नाटक रेडियो नाटक के श्रष्ठ उदाहरण हैं।, , रेडियो नाटकों का लेखन व संवादों का महत्त्व, , सिनेमा और रंगमंच की तरह ही रेडियो नाटक में भी चरित्र होते हैं। उनके, आपसी संवाद होते हैं और इन्हीं संवादों के माध्यम से कहानी आगे बढ़ती ई, रेडियो नाटक पूर्ण रूप से श्रव्य होते हैं, इसलिए इनका लेखन रंगमंच व, सिनेमा के लेखन की अपेक्षा मुश्किल व अलग होता है। रेडियो नाटक में मब, कुछ संवादों व ध्वनि प्रभावों के माध्यम से ही संप्रेषित करना होता है।, , इन नाटकों में मंचसज्जा, वस्त्र सज्जा, चेहरे की भाव-भंगिमाएँ आदि को, जरूरत नहीं पड़ती, केवल संवाद से ही पात्रों के अंतर्ढृद्ध, परिचय व ममाघार, की जानकारी मिलती है। अत: रेडियो नाटक की सफलता व असफलता, केवल 'आवाज' पर ही आश्रित होती है; जैसे-चोट लगने पर 'आह' या, “ओह' की आवाज तथा किसी को दूर से बुलाने के लिए तेज आवाज का, प्रयोग करना होता है।, , रेडियो नाटक के लिए कहानी का चयन, , रेडियो नाटक के लिए कहानी का चुनाव बड़ा ही सोच-समझकर करना, चाहिए। उसमें बहुत अधिक गतिविधियाँ या एक्शन नहीं होने चाहिए। यह हम, भली-भाँति जानते हैं कि रेडियो नाटक केवल श्रव्य माध्यम हैं, इसलिए 1, कहानी का चुनाव उसी के अनुसार करना चाहिए। मुख्यतः रेडियो नाटक को, अवधि 15 से 30 मिनट होती है और इसी समय में श्रोता को बाँधकर रखते, के लिए कहानी में संवादों के माध्यम से रोचकता बनी रहनी चाहिए। लंबी, कहानी को एक ही समय पर प्रसारित करने के बदले उसे 15 या 30 मिनट, की धारावाहिक कड़ी के रूप में प्रतिदिन पेश किया जाना चाहिए।, , रेडियो नाटक में पात्रों की संख्या, , अत: यह निश्चित है कि रेडियो नाटक की अवधि सीमित होती है, इसलिए, उसमें पात्रों की संख्या भी सीमित ही रखनी चाहिए; जैसे-5 या 61 इससे, अधिक पात्रों के होने पर श्रोता भ्रमित हो सकता है, जिससे उसका मन नाटक, से ऊब सकता है। अत: रेडियो नाटक के लिए कहानी का चुनाव करते समय, हमें तीन मुख्य बातों को ध्यान रखना आवश्यक है, , (6) कहानी केवल घटना प्रधान न हो, , (४) उसकी अवधि, बहुत अधिक न हो, 61) पात्रों की संख्या सीमित हो।, , ी | देता है|, ञ