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शैशवावस्था (10:४५८५), , , , , , शैशवावस्था का अर्थ एवं परिभाषा, न 0 मी), , साधारणतः शिशु के जन्म के बाद प्रथम 6 वर्ष की आयु उसकी शैशवावस्था कहलाती है। शैशवावस्था, जीवन का सबसे महत्वपूर्ण काल है क्योंकि इसी अवस्था पर मानव जीवन का आधार टिका है । महिला, मनोवैज्ञानिक हरलॉक के अनुसार, "यह जन्म से लेकर दो सप्ताह तक चलती रहती है।', , , , दो सप्ताह बाद बालपन (89७/४०००) आरम्भ होता है और दो वर्ष तक रहता है।, , हरलॉक का दूसरा कथन है, "दो वर्ष बाद प्रारम्भिक बाल्यावस्था आती है और 6 वर्ष तक॑ की.आयु तक, रहती है।", , , , उपर्युक्त विचार शैशव के सम्बन्ध में सूक्ष्म एवं व्यापक अर्थ की ओर संकेत करते हैं।(सामान्य रूप से सभी, मनोवैज्ञानिकों ने जन्म से 5 या 6 वर्ष तक अवस्था को शैशवावस्था माना है।, , एस. ए. कोर्टिस ने लिखा है, "शैशवावस्था औसतन जन्म से पाँच या छ वर्ष तक चलती रहती है जिसमें, इन्द्रियाँ काम करने लगती हैं और बालक रेंगना, चलना और बोलना सीखता है।", , शैशवावस्था के सम्बन्ध में विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने अलग-अलग कथन कहे हैं जो निम्न हैं , , , फ्रायड के अनुसार, "मनुष्य को जो कुछ भी बनना होता है; वह चार-पांच वर्षो में बन जाता है।", , , , फ्रायड का दूसरा कथन है, "शिशु में काम,्रवृत्ति बहुत प्रबल होती है पर वयस्कों की भांति उसकी अभिव्यक्ति, नहीं होती है।", , गुडएनफ के अनुसार, "व्यक्ति का जितना भी मानसिक विकास होता है, उसका आधा तीन वर्ष की आयु तक हो, जाता है।", , स्टैंग के अनुसार, "जीवन के प्रथम दो वर्षों में बालक अपने भावी जीवन का शिलान्यास करता है।", , जे. न्यूमैन के अनुसार, "पाँच वर्ष तक की अवस्था शरीर तथा मस्तिष्क के लिए बड़ी ग्रहणशील रहती है।, थॉर्नडाईक के अनुसार, "तीन से छः वर्ष तक के बालक प्राय: अर्ध-स्वप्नों की दशा में रहते है।", वेलेन्टाइन के अनुसार, "शैशवावस्था सीखने का आदर्शकाल है।", , वाटसन के अनुसार."शैशवावस्था में सीखने की सीमा और तीव्रता, विकास की और किसी अवस्था से बहुत, अधिक होती है।, , ड्राईंडेन के अनुसार, "पहले हम अपनी आदतों का निर्माण करते हैं और फिर हमारी आदतें हमारा निर्माण, करती है।", , 89५- ॥(प्शा1' 107 ५७७४५ ए3861
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शैशवावस्था (10:४५८५), , , , , , रूसो के अनुसार, "बालक के हाथ, पैर और नेत्र उसके प्रारम्भिक शिक्षक है। इन्हीं के द्वारा वह पाँच वर्ष में ही, पहचान सकता है, सोच सकता है और याद कर सकता है।", , क्रो एवं क्रो के अनुसार, “बीसवीं शताब्दी, बालक की शताब्दी है।", , क्रो एवं क्रो का दूसरा कथन है, "पाँच वर्ष का शिशु कहानी सुनते समय उससे सम्बश्चित चित्रों को पुस्तक में, देखना पसन्द करता है।", , रॉस- "शिशु कल्पना का नायक है, अतः उसका भली प्रकार निर्देशन अपेक्षित है।", , एडलर के अनुसार, “बालक के जन्म के कुछ माह बाद ही यह निश्चित किया जा सकता है कि/जीवन में उसका, क्या स्थान है।", , गेसल के अनुसार, "बालक प्रथम 6 वर्षो में, बाद के 12 वर्षों का दुगुना सीख लेता हैं।", , ब्रिजेज- "दो वर्ष की उम्र तक बालक में लगभग सभी संवेगों का विकास हो जाता है।", , , , उपर्युक्त विचारों के फलस्वरूप यहाँ पर शैशवावस्था अध्ययन का जन्म से पाँच या छ: वर्ष की आयु तक, , मान कर किया जायेगा।, शैशवावस्था का महत्त्व, 0 जल], , मानव जीवन के विकास की सभी,अवस्थाओं में शैशव का महत्त्व सबसे अधिक है। मनोवैज्ञानिक न्यूमैन, (0. (८५/॥०/) के अनुसार, "पाँच वर्ष तक की अवस्था शरीर तथा मस्तिष्क के लिए बड़ी ग्रहणशील रहती है।", इस समय जो कुछ किया या सिंखाया जाता है उसका प्रभाव तुरन्त (तत्काल) पड़ता है। मनोविश्लेषणवादियों, (75५८४०-१॥१|»550) ने भी शैशवे पर विशेष ध्यान देने के लिए जोर दिया है। फ्रायड का कथन है, "मनुष्य को, जो कुछ बनना होता है[ प्रारम्भ के चार-पाँच वर्षों में ही बन जाता है।", , , , मनोवैज्ञानिकों ने अपने परीक्षणों के आधार पर इस बात को अच्छी तरह सिद्ध कर दिया है। एडलर, (५०॥९॥ नें कहा है, "शैशवावस्था द्वारा जीवन का पूरा क्रम निश्चित होता है।', , बीसेवीं शताब्दी में मनोवैज्ञानिकों ने बालक और उसके विकास की अवस्थाओं का विस्तृत और गम्भीर, अध्ययन किया है। क्रो और क्रो ने कहा है, "बीसवीं शताब्दी को बालक की शताब्दी कहा जाना चाहिए।", , , , मनोवैज्ञानिकों ने इन विचारों के अनुसार इस अवस्था को जीवन का आधार कहा जा सकता है जिस पर, बालक के भावी जीवन निर्माण होता है।, , 89५- ॥(प्शा1' 107 ५७७४५ 29986 2
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शैशवावस्था (1५४/४४८५), , , , , , (6) पर-निर्भरता (0०7०४०९॥०))-जन्म के बाद कुछ समय तक वह बड़ी असहाय स्थिति में रहता है। उसे, भोजन तथा अन्य शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए तथा स्नेह और सहानुभूति प्राप्त करने के लिए दूसरों, पर अश्रित रहना पड़ता है।, , (7) मूल-प्रवृत्यात्मक व्यवहार (॥561८6५९ 8९॥०श०७)-इस समय शिशु का अधिकांश व्यवहार मूल, प्रवृत्तियों पर आधारित होता है। भूख लगने पर वह रोता तथा क्रोधित होता है और जो भी वस्तु उसके पास होती, है उसी को मुँह में डाल लेता है।, , , , (8) मानसिक क्रियाओं में तीव्रता (२०७०0 ॥ /९॥६४३॥ 27०८९५७)-शिशु की मानसिक&क्रियाओं: के, अन्तर्गत ध्यान, स्मृति, कल्पना, संवेदना, प्रत्यक्षीकरण आदि का विकास तेजी से होता है" इस सम्बन्ध में, गुडएनफ का विचार है, "व्यक्ति का जितना भी मानसिक विकास होता है, उसका आधाह्ष्तीन वर्ष की आयु तक, हो जाता है।", , (9) सीखने की प्रक्रिया में तीव्रता (२०[॥४०४0/ ॥1 ॥९७४४४४७ ?/०८९5७)-इसे समय सीखने की गति बहुत तेज, होती है। गेसेल (5०५९॥) का कथन है, "बालक प्रथम छ: वर्षों में बारह वर्षों का ज्ञान सीख लेता है।", , (10) सजीव कल्पना (11५४७ ॥79917190०1)-इस समय शिशु-में कल्षना की मात्रा अधिक पाई जाती है और, वह कल्पना-जगत् में विचरण करने लगता है। थार्नडाइक#का विचार है कि "3 से 6 वर्ष तक के बालक प्रायः, अर्द्ध-स्वप्नों की हालत में रहते हैं।" वे सत्य-असत्य में अन्तर नहीं कर पाते। फलस्वरूप कल्पना की अधिकता के, कारण वे झूठ बोला करते हैं। रॉस ने कहा है कि"शिशु कल्पना में स्वयं नायक बन जाता है और कल्पना के, द्वारा ही वह जीवन की कठोरता को दूर करता है।, , , , , , (11) दोहराने की प्रवृत्ति (६६४४प०७९ ० ९०९०४४०४)-इस अवस्था में शिशु में किसी क्रिया या शब्दों को, दोहराने की विशेष प्रवृत्ति होती*है।:ऐसा करने से उसे आनन्द मिलता है। इसी आधार पर किण्डरगार्टन तथा, मान्टेसरी स्कूलों के बच्चों से गीत रचना की आवृत्ति कराई जाती है।, , (12) प्रबल जिज्ञासा (४0८०७ ८०७४०५७)-शिशुओं में जिज्ञासा की मात्रा अन्य अवस्थाओं से अधिक पायी, जाती है। उसका कारण यह है कि उनके लिए संसार की हर वस्तु और घटना अपरिचित होती है, उन सबसे वे, परिचय चांहते हैं। अपने बड़ों से इसीलिए वे हर चीज के विषय में क्यों? और कैसे? आदि प्रश्न पूछते हैं।, , , , (13) अनुकरण द्वारा सीखने की प्रवृत्ति (६६४६घ०९ ० 1९३४४४9)-शिशु सबसे अधिक और जल्दी, अनुकरण विधि से सीखते हैं। परिवार में माता-पिता, भाई-बहनों तथा अन्य सदस्यों के व्यवहार का वह अनुकरण, करता है और सीखता है।, , , , (14) प्रत्यक्षात्मक अनुभव द्वारा सीखना ((एकता19 9५ ?शटशएपव &९०7४1९॥८९)-मानसिक ख्पसे, परिपक्व न होने के कारण वह प्रत्यक्ष और स्थूल वस्तुओं के सहारे सीखता है। किण्डरगार्टन तथा मान्टेसरी, प्रणाली में उपहारों तथा शिक्षा-उपकरणों का प्रयोग किया जाता है। इनका निरीक्षण वह करता है और ज्ञानेद्धियों, द्वारा अनुभव प्राप्त करता है।, , , , 89५- ॥(प्शा1' 107 ५७७४५ 998९4
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शैशवावस्था (1५४/४४८५), , , , , , (15) संवेगों का प्रदर्शन (६000714। ६३(०/९५५०॥)-शिशु जन्म से ही संवेगात्मक व्यवहार का प्रदर्शन करता, है। रोना-चिल्लाना, हाथ पैर पटकना आदि क्रियाएँ संवेगपूर्ण ही होती हैं। बाल मनोवैज्ञानिकों के अनुसार आरम्भ, में शिशु में मुख्य रूप से चार संवेग पाए जाते हैं- भय, क्रोध, प्रेम और पीड़ा।, , (16) स्व-प्रेम की भावना (:2९॥79 ० 5९/-1०४९)-शैशवावस्था में शिशु में आत्म-प्रेम की भावना बहुत प्रबल, होती है। इस समय वह यह चाहता है कि केवल उसे ही माता-पिता और भाई-बहनों का पूर्ण ख्रेह मिले। ऐसा न, होने पर वह अन्य भाई-बहनों से ईर्ष्या करता है, जो वस्तु या खिलौना उसे दिया जाता है उसे वह दूसरों को न, देकर अपने पास रखना चाहता है।, , , , (17) काम-प्रवृत्ति (5७-॥६४८0-फ्रायड तथा अन्य मनोविश्लेषणवादियों का कहना है कि इस अवस्था में, शिशु की प्रेम भावना, काम-प्रवृत्ति (5०-॥1६४॥४०0) पर आधारित होती है और यह प्रवृत्ति बड़ी प्रबल होती है, किन्तु उसका प्रकाशन वयस्कों के भाँति नहीं होता है। शिशु का अपने अंगों से प्रेम"करना,.माता का स्तन-पान, करना, हाथ-पैर का अंगूठा चूसना आदि काम-प्रवृत्ति के सूचक हैं।, , (18) नैतिक भावना का अभाव (४७५९॥८९ ० |४००३। 7९९॥४०५)-इस समये शिशु का नैतिक विकास नहीं हो, पाता है। उसे अच्छी, बुरी, उचित और अनुचित बातों का ज्ञान नहीं होता है। वह वही कार्य करता है जिसमें उसे, आनन्द आता है, भले ही वह नैतिक रूप से अवांछनीय हो। जिन कार्यों से उसे दुःख होता है उन्हें वह छोड़ देता, है। रॉस ने कहा है, "आगे चलकर सामाजिक वातावरण इस आनन्द एवं दु:ख प्रेरक प्रवृत्ति को कुछ-कुछ, व्यवस्थित रूप से, पारितोषिक और दण्ड देकर पुनःबल देता है।", , , , , , (19) अकेले व साथ खेलने की प्रवृत्ति (६६घत९ ७ 91909 ॥1 41०1९ १10 6/०५०)-यदि हम शिशु के, व्यवहार का भली-भाँति निरीक्षण करें,तो हम यह देख सकते हैं कि उसमें पहले अकेले एकान्त में खेलने और, फिर बाद में दूसरों के साथ खेलने की प्रवृत्ति होती है। इस प्रवृत्ति का को और को ने इस प्रकार वर्णन किया है,, "बहुत ही छोटा शिशु अकेले खैंलता है। धीरे-धीरे वह दूसरे बालकों के समीप खेलने की अवस्था में से गुजरता, है। अन्त में वह अपनी आयु के बालकों के साथ खेलने में महान् आनन्द का अनुभव करता है।", , (20) सामाजिक भावना का विकास (0९४९७०७४॥९॥६ ० 5०८१ 7९९॥॥५)- शैशवावस्था के अन्तिम वर्षों, में सामाजिक भावना का विकास होता है। वेलेन्टाइन (५३॥९॥॥॥९) का विचार है, "चार या पाँच वर्ष के बालकों में, अपने छोटे भाई बहनों या साथियों की रक्षा करने की प्रवृत्ति होती हैं। वह दो से पाँच वर्ष तक के बच्चों के साथ, खेलना पसन्द करता है, वह अपनी वस्तुओं में दूसरों को साझीदार बनाता है, वह दूसरे. बच्चों के अधिकारों की, रक्षा करेता है और दु:ख में उनको सांत्वना देने का प्रयास करता है।", , शैशवावस्था में शारीरिक विकास, 3 ० 11 0], , शिशु का शारीरिक विकास जन्म से पूर्व गर्भावस्था से ही आरम्भ हो जाता है। इस समय माता के स्वास्थ्य, एवं खान-पान का प्रभाव शिशु पर पड़ता है। जन्म के बाद शैशवावस्था में विकास के दो सोपान होते हैं, , , , , 89५- ॥(प्शा1' 107 ५७७४५ 3865