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(116 0९ए९]०फाशा।, , , , , , (3) इस अवस्था में मुख्यतः शारीरिक विकास ही होता है।, (4) समस्त शरीर रचना, भार, आकार तथा आकृतियों का निर्माण इसी अवस्था में होता है।, गर्भावस्था को तीन अवस्थाओं में विभाजित किया जाता है :, 1. डिम्बावस्था- गर्भधारण से 2 सप्ताह, , 2. पिण्डावस्था- 2 सप्ताह से 5 सप्ताह, , 3. भ्रूणावस्था-9 सप्ताह से जन्म तक, 1. डिम्बावस्था :, इस अवस्था की अवधि 14 दिन या 2 सप्ताह की होती है। इस अवस्था को बीजावस्था भी कहा जाता है।, , इस समय डिम्ब का आकार पिन के हेड के ( या एक चौथाई होता है। इस अवस्था में प्राणी अण्डे की आकार का, होता है। जिसे गर्भधारित अण्डा या जायगोट कहते है' इस वक्त यह अपना भोजन डिग्ब केन्द्र से प्राप्त करता है।, कोशिका विभाजन की क्रिया जायगोट के अंदर चलती रहती है परंतु बाहर से इसमें कोई परिवर्तन नहीं दिखाई देता, है। डिम्ब के फोलोपियन ट्यब्व द्वारा गर्भाशय में आने के पूर्व गर्भाशय में अनेक महत्वपूर्ण परिवर्तन होते है। गर्भाशय, की आंतरिक दीवार डिंब को स्वीकार करने की तैयारी कर चुकी होती है। डिम्ब गर्भाशय में पहुंचकर एक सप्ताह तक, तैरता है। दस दिनों पश्चात् गर्भाशय की दीवार से चिपक जाता है। इसे रोपण क्रिया कहते है। इस क्रिया के बाद, डिम्ब अपनी मां के आहार से पोषण प्राप्त करने लग जाता है। गर्भावस्था में, विकासशील प्राणी स्वतंत्रता से तैरता रहता है। उसका संबंध गर्भनाल से, केवल नाभिनाल तक होता है। नाभिनाल एक जीवन नालिका की तरह, कार्य करती है क्योंकि नाभिनाल की नई बनी हुई धमनियां तथा शिरा में, माता एवं विकसित होने वाले बालक के बीच पोषण का आदान-प्रदान, करती है। नाभिनाल की नालिकाओं के माध्यम से वयस्क व्यक्ति के समस्त, , संस्थानों का गर्भनाल से अप्रत्यक्ष संबंध जुड़ जाता है। पोषक पदार्थ,, , , , ऑक्सीजन, कुछ जीवन सत्व, दवायें, टीके तथा कुछ रोग जनित जीवाणु विकासशील बालक को इसी नाभिनाल, के माध्यम से प्राप्त होते है। व्यर्थ पदार्थ दूसरी दिशा को निकल जाते है। पिंड की संरचना को देखा जाएं तो यह तीन, परतों से होता दिखाई देता है, , 2. पिण्डावस्था :, पिण्डावस्था कि अवधि दो सप्ताह से दो माह तक होती है इस अवस्था में पिण्ड में महत्वपूर्ण परिवर्तन होते है', इसी अवस्था में पिण्ड प्रारम्भिक मानव की आकृति को धारण कर लेता है। पिण्ड की संरचना से देखा जाए तो यह, तीन पर्तो' से होता दिखाई देता है।, , , , , , छए- ॥ताएपा (एएगत्रा' त9ए 7986 2
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(116 0९ए९]०फाशा।, , , , , , 1. बाहरी परत (82006७॥॥) :- इसमें शरीर के सबसे आवश्यक भाग स्नायु-मण्डल, ग्रन्थियां, नाखून, बाल, दांत, एवं संपूर्ण बाहरी त्वचा का निर्माण होता है।, 2. मध्य परत :-इसमें जीवनयापी संस्थानों, रक्त संस्थान, श्वसन संस्थान, विसर्जन संस्थान, मांसपेशियाँ एवं आंतरिक, त्वचा का निर्माण होता है।, 3. आंतरिक परत (01006277) :- इसमें शरीर के पाचन संस्थानों के अवयवों, श्वसन क्रिया के अवयवों, गल, ग्रथियों व शरीर के अन्य अवयवों का निर्माण होता है।, , इस अवधि में पिण्ड का भार 2 ग्राम और लम्बाई 2 इंच हो जाती है। इसमें सबसे अधिक विकास सिर और, चेहरे के अवयवों जैसे आंख,नाक, कान, मुंह का होता है। हृदय की रचना पूर्ण हो जाती है और दिल धड़कने की, क्रिया शुरू हो जाती है।, इस अवस्था में गर्भ के गिरने व आकृति बिगडने के कारण हो सकते है :1. मां का स्वास्थ्य खराब होना या मां की बीमारियां, 2, कुपोषण, 3. अधिक गर्भ होना, 4. संवेदात्मक आघात, 5. नशीली दवाईयों का सेवन, 6. गर्भाशय पर भारी चोट, गर्भनाल का महत्व :- पिण्डावस्था में गर्भनाल का विकास जारी रहता है। यह, पिण्ड से लगी रहती है 6 माह में आधा गर्भाशय ढक लेती है यह पिंड तथा भ्रूण की, रक्षा करती है, जब संचालन का कार्य करती है तथा माता के रक्त से आक्सीजन,, , खाद्य सामग्री, पानी और पोषक तत्वों का जीव तक पहुंचना तथा दूषित पदार्थों को, , , , माता के रक्त द्वारा बाहर निकालती है। माता के रक्त तथा गर्भ में विकसित जीव के, रक्त में कोई भी सीधा संबंध नहीं होता है।, , 3. भ्रूणावस्था :, मां के गर्भ में पूर्ण विकसित बालक- यह अवस्था 2 माह १११९0), , से जन्म तक होती है। इस अवस्था में जीव में कोई नया अंग ९, , नही बनता है बल्कि उन अंगों की वृद्धि होती है जो पहली ता पण 6, अवस्थाओं में बन चुके होते है। गर्भस्थ शिशु में होने वाले ग, , विभिन्न क्षेत्रों का विकास भिन्न है। गिलबर्ट ने भ्रूण अवस्था की सौग. रक ओोग . होता, , , , , , , , छए- ॥ताएपा (एएगत्रा' त9ए 79863
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(116 0९ए९]०फाशा।, , , , , , , , , , , , , , , , , , , , वृद्धि को निम्न तालिका द्वारा बताया है।, भार एवं लम्बाई का विकास, भ्रूण की आयु भ्रूण का भार भ्रूण की लम्बाई, 3 माह 3 से 4 औंस 3 इंच, 5 माह 9 से 10 औंस लगभग 10 इंच, 8 माह 4 से 5 पौंड 16 से 18 इंच, 9 माह 6 से 7 पौंड लगभग 20 इंच, , , , , , , , : गर्भकालीन विकास को प्रभावित करने वाले कारक, , , , 1. मां का आहार : - गर्भावस्था में शिशु अपना आहार मां से गर्भनाल (9180९11६9) से प्राप्त करता है। मां का आहार, संतुलित और पोषक तत्वों से परिपूर्ण होता है। मां के आहार में प्रोटीन, फैट्स और कार्बोहाइड्रेट्स उपयुक्त मात्रा में, हो। प्रोटीन से टिशूज़ (11550८७) का निर्माण होता है। फैट्स शरीर में ईंधन का कार्य करते है' तथा कार्बोहाइड्रेट्स, शरीर को - शक्ति प्रदान करते है। यदि आहार संतुलित नहीं होता है तो शिशु में कई विकृतियां हो जाती है।, , 2. मां का स्वास्थ्य :- गर्भवती स्त्रियों की बीमारियां भी गर्भस्थ शिशु के शारीरिक विकास को महत्वपूर्ण ढंग से, प्रभावित करती है। शिशुओं में विकलांगता (शारीरिक व मानसिक) आ जाती है। गर्भपात हो जाता है। अधिक समय, तक दवाईयां लेने पर भी शिशु को हानि हो जाती है।, , 3. नशीली वस्तुओं का सेवन :- गर्भवती स्त्रियां शराब व तम्बाकू का सेवन करती है तो इसका प्रभाव भी गर्भस्थ, शिशु पर पड़ता है तथा उसके हृदय की धड़कने बढ़ जाती है। गर्भस्था शिशु पूर्ण रूप से परिपक्व होने के पहले ही जन्म, ले लेता है।, , 4. माता-पिता की आयु :- माता पिता की आयु अगर बहुत छोटी हो उदाहरण के तौर पर पत्नी की आयु 18 से कम, तथा पति की 21 से कम अथवा बहुत अधिक हो जैसे कि माता कि आयु 35 वर्ष अधिक ऐसी स्थिति में बच्चे के, , सामान्य होने की सम्भावनाएं कम रहती है।, , 5. मां की संवेगात्मक अनुभूतियां :- गर्भवती स्त्री की संवेगात्मक अनुभूतियों का गर्भस्थ शिशु के विकास पर, महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। जो स्त्रियां गर्भधारण से प्रसन्न नहीं रहती है तो अप्रसन्नता के कारण उल्टियां तथा जी, , मचलाता रहता है। यदि मां गर्भकाल में चिन्तित तथा भयभीत रहेगी, तो उसका बुरा प्रभाव आने वाले बालक पर, , , , , , छए- ॥ताएपा (एएगत्रा' त9ए एग९९4
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(116 0९ए९]०फाशा।, , , , , , पड़ता है इसलिए मां को सदा प्रसन्न रहना चाहिए। परिवार के सभी सदस्यों का भी कर्तव्य है कि गर्भिणी के साथ, उनका व्यवहार स्नेहपूर्ण तथा सहानुभुतिपूर्ण होना चाहिए।, , कसा में विकास के वर | में विकास के चरण ._, दूसरा सप्ताह- भ्रूण स्वयं गर्भाशय के अस्तर से जुड़ जाता है, और तेजी से विकसित होने लगता है।, तीसरा सप्ताह- भ्रूण आकार लेना शुरू कर देता है, अग्रिम और पीछे का हिस्सा बनना, शुरूआती धड़कन आ जाती है।, , चौथा सप्ताह-इस सप्ताह में मुंड के भाग बनना, आंतों का बनना तथा यकृत का बनना शुरू हो जाता है, हृदय तेजी से, , विकास करने लगता है तथा सिर और दिमाग पृथक रुप से स्पष्ट होने लगता है।, , छठवाँ सप्ताह-हाथ तथा पैर विकसित होना शुरू हो जाते है', परंतु बांह अभी बहुत छोटी होती है, यकृत में रक्त, कोशिकाएं बनना शुरू हो जाती है।, , आठवाँ सप्ताह-अब भ्रूण 1 इंच लंबा हो जाता है। चेहरा, मुंह, आंखे तथा कान ने एक सम्पूर्ण परिभाषित रूप लेना शुरू, कर देते है। मांसपेशियों का तथा नरम हड्डियों का विकास शुरू हो जाता है।, , बारहवाँ सप्ताह- भ्रूण अब 3 इंच लंबा हो चुका होता है और यह मानव रूप लेने के लिए तैयार होना शुरू हो जाता है,, सिर का भाग बड़ा होता है। चेहरा शिशु के समान होता है, आंखों की पलके और नाखून बनना शुरू हो जाते है,, लिंग का पता आसानी से चल जाता है। तंत्रिका तंत्र अभी भी शुरूआती होता है, , सोलहवाँ सप्ताह-भ्रूण 4 इंच लंबा होता है, मां शिशु की आंतरिक क्रियाओं को महसूस्र कर पाती है, हाथ-पांव, तथा, आंतरिक अंग तेजी स्रे विकसित होने लगते है। शरीर के अधिकतम भाग शिशु की तरह होने लगते है।, , पांचवाँ महीना- गर्भावस्था आधी पूर्ण हो जाती है। किट्स 6 इंच लंबा हो जाता है जब वह सुनने और तुरंत हलचल, कले में स्वतंत्र हो जाता है। हाथ और पांव पूर्ण रूप से बन जाते है।, , छठवाँ महीना -भ्रूण अब 10 इंच लंबा हो चुका है। आखें पूर्ण रूप से बन गई है। स्वाद ग्रंथिया, जिहा पर आ चुकी है।, किट्स सांसे अंदर लेने और बाहर छोड़ने में समर्थ हो चुका है और वह विकसित होने से पहले जन्म लेने पर रोना, सीख चुका है।, , सातवाँ महीना -यह महत्वपूर्ण अवस्था होती है यदि वह समय से पहले जन्म लेता है तो वह आसानी से जीवित रह, सकता है। सांस लेने की प्रक्रिया धीमी या असामान्य होती है।, , , , , , छए- ॥ताएपा (एएगत्रा' त9ए एग्2९5