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इ छ्तो (7, सामान्य परिचय, , रूसो का जन्म 28 जून, 1712 को जेनेवा में हुआ था। उसके जन्म के साथ, ही उसकी माता का निधन हो गया था इसलिए रूसो लिखता है कि "मेरा जन्म, प्रथम दुर्घटना थी” उसका पिता आवारा और व्यभिचारी था। जब रूसो 10 वर्ष, का था तभी उसका पिता उसे छोड़कर फ्रांस चला गया, क्योंकि रूसो के पिता, पर अपराध का मुकदमा चल रहा था। उसके चाचा ने उसे कार्य पर लगाया, हुआ था, परन्तु रूसो का मालिक उसे निर्दयतापूर्वक पीटता था। इसलिए वह, जिनेवा छोड़कर फ्रांस चला गया। फ्रांस में वह आवारागर्दी और चोरी आदि, करने लगा। इन्हीं दिनों रूसो एक कैथोलिक पादरी के सम्पर्क में आया जिसने, उसके लिए शिक्षा आदि की व्यवस्था की। 1750 ई. में रूसो के जीवन में एक, ऐसी घटना, जिसने रूसो के जीवन को क्रान्तिकारी मोड़ दिया, इस वर्ष द जोन, एकेडमी के निबन्ध प्रतियोगिता में रूसो को प्रथम स्थान प्राप्त हुआ। इस निबन्ध, , का विषय था। कला तथा विज्ञान ने मानव विकास में योगदान दिया अथवा, उसका पतन किया।, , रूसो ने दूसरी निबन्ध प्रतियोगिता में भी भाग लिया परन्तु उसके पूँजीवादी, विरोधी होने के कारण उसे पुरस्कार न मिला। उसके बाद रूसो ने अनेक ग्रन्थ, लिखे। उसके क्रान्तिकारी विचारों से शासकगण उत्तेजित और विश्लुब्ध हो उठे।, इमाइल में व्यक्त विचारों से पादरी लोग उससे नाराज हो गए। फ्रेंच सरकार ने, , भी उसकी गिरफ़्तारी का आदेश दे दिया। 1778 ई. में 66 वर्ष की आयु में रूसो, का निधन हो गया। ।
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!12-78 है.), रूसो के मानव प्रकृति सम्बन्धी विचार, , रूसो की रचनाओं में मनुष्य का चित्रण एक ऐसे तनावग्रस्त व्यक्ति के रूप, में है जिसका तनावमय अतीत एक तनाव मुक्त भविष्य का निर्माण करने की, प्रेरणा देता है। इस तनावग्रस्त व्यक्ति की दो वृत्तियाँ हैं, , स्वार्थ और परमार्थ जो आपसी कशमकश में रहती हैं इस तनाव में से, चेतना का जन्म होता है। रूसो के अनुसार चेतना एक नेत्रहीन इच्छा है जो शुभ, कर्म करना तो चाहती है, परन्तु यह नहीं जानती कि शुभकर्म क्या है? इसलिए, मनुष्य की आत्म सिद्धि के लिए रूसो विवेक (1१८४४०४) का सहारा लेता है।, विवेक अच्छाई और बुराई में अन्तर स्पष्ट करता है। इन तत्वों के आधार फ, रूसो दो प्रकार के व्यक्ति का चित्र प्रस्तुत करता है, 6) अप्राकृतिक व्यक्ति जिसमें स्वार्थ और परमार्थ युद्धरत हैं, जिनकी चेतना, अन्धी है और विवेक पथभ्रष्ट है। ऐसा व्यक्ति लगातार भटकता रहता है, (3) इसके विपरीत, प्राकृतिक मनुष्य वह है जिसमें या तो तनाव पैदा ही न, हुआ हो या जिसने शक्तिशाली विवेक और अड़िग चेतना के द्वारा, आत्महित और परमार्थ में सामंजस्य बिठा लिया हो।, , रूसो के अनुसार आदिम मनुष्य एक ऐसा व्यक्ति था जिसमें यह तनाव, पैदा ही नहीं हुआ था। वह प्रसन्न और सन्तुष्ट था। पेड़-पौधों और पशु-पक्षियों, की तरह वह पैदा होकर प्राकृतिक रूप से ही समाप्त हो जाता था।, , रूसो प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य को स्वाभाविक रूप से अच्छा, सुखी,, सीधा, चिन्तारहित, स्वस्थ, शान्तिप्रेमी और एकान्तप्रिय समझता था। इस विषय में, रूसो का विचार हॉब्स तथा लॉक दोनों से ही भिन्न है। हॉब्स का कहना था कि, प्राकृतिक दशा में रहने वाला मनुष्य न केवल हिंसक और क्रूर था, प्रत्युत कपटी, भी था। दूसरी ओर लॉक ने मनुष्य को प्राकृतिक नियम और ईश्वरीय नियम से, अनुशासित होना कहा। रूसो प्राकृतिक दशा में नैतिकता के ऐसे उच्च विकास, को भी असम्भव मानता है। अत: दोनों के विचारों को गलत मानते हुए रूसो ने, , 8 मनुष्य को पशुतुल्य, निष्पाप, निर्दोष तथा स्वाभाविक रूप से अच्छा, माना है।
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रूसो के प्राकृतिक अवस्था सम्बन्धी विचार, , रूसो ने अपनी पुस्तक 'डिस्कोर्सेज ऑन द ऑरिजिन ऑफ इन इक्वैलिटि', (1755) में हॉब्स और लॉक की भाँति प्राकृतिक अवस्था सम्बन्धी विचार की, स्पष्ट व्याख्या की। रूसो के प्राकृतिक अवस्था सम्बन्धी विचारों पर हॉब्स और, लॉक दोनों का प्रभाव दिखाई देता है। रूसो प्राकृतिक अवस्था के तीन चरण, बताता है रूसो के अनुसार प्राकृतिक अवस्था के प्रथम चरण एक आदर्श, बर्बर, या ग्राम्यसुषुमा की अवस्था थी। जिसमें स्वतन्त्रता, समानता और भाईचारे की, भावना पाई जाती है। इस अवस्था में सम्पत्ति सबकी साझी थी।, , प्राकृतिक अवस्था के द्वितीय अवस्था में कला एवं विज्ञान के विकास के, कारण अनेक उपकरणों यथा पहिया, चाकू, मछली का काटा आदि का, आविष्कार हुआ, जिसके कारण ईर्ष्या व द्वेष की कुछ भावना फैली। इस अवस्था, के बारे में रूसो लिखते हैं कि फिर भी यह अवस्था ठीक-ठाक थी क्योंकि, स्वतन्त्रता, समानता व भाईचारे की भावना व्याप्त थी।, , प्राकृतिक अवस्था के तृतीय चरण में हल के आविष्कार व निजी सम्पत्ति, के उद्भव के साथ प्राकृतिक अवस्था के तृतीय चरण में असमानता का उद्भव, हुआ और स्वतन्त्रता, समानता और भाईचारे की अवस्था समाप्त हो जाती है।
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रूसो के अनुसार जनसंख्या के विस्तार के कारण पुन: प्राकृतिक अवस्था, के प्रथम चरण में पहुंचना सम्भव नहीं है अत: सभी व्यक्ति सामान्य उपाय, आधारित सामाजिक समझौते के माध्यम से नागरिक समाज या राज्य की स्थापना, , करते है, रूसो का सामाजिक समझौते का सिद्धान्त, , रूसो अपनी पुस्तक 80०४| 001५/४०४ (1769) में सामाजिक समझौते के, सिद्धान्त का विस्तृत वर्णन करता है। रूसो के अनुसार प्राकृतिक अवस्था के, , चरण में सभ्यता और सम्पत्ति के उद्भव के कारण मनुष्य की स्वतन्त्रता, परतन्त्रता में परिवर्तित हो गई। इसी सन्दर्भ में रूमो का कथन है कि “मनुष्य, स्वतन्त्र उत्पन्न हुआ है किन्तु सर्वत्र बेड़ियों से जकड़ा हुआ है।'” रूसो के, अनुसार सभ्यता की वृद्धि के साथ-साथ दरिद्रता, शोषण, बीमारी बढ़ती चली, गई। युद्ध और तनाव ने मनुष्य को हिंसक बना दिया जिससे समाज की वह दशा, हो गई जो हॉब्स की प्राकृतिक अवस्था में थी।, , रूसो का स्पष्ट मत है कि मनुष्यों ने स्वयं ही अपनी खुशियों का, समानता, , का, स्वतन्त्रता का गला घोटा है। परन्तु इन्हें दोबारा प्राप्त करना अपरिहार्य है,, क्योंकि स्वतन्त्रता, समानता और प्रसन्नता के बिना जीवन व्यर्थ था। रूसो का, , उत्तर था--प्रकृति की ओर लौट चलो। वह कहता था कि हमें हमारा अज्ञान,, हमारा भोलापन, हमारी गरीबी लौटा दो, हम स्वतन्त्र हो जाएँगे।, , परन्तु रूसो को इस बात का निश्चय हो चुका था कि नागरिक समाज से, प्राकृतक अवस्था की ओर लौटना असम्भव है। अतः अब वह प्रकृति की ओर, लौट चलने का आह्वान नहीं देता। मैक्सी के शब्दों में “अब उसकी दिशा आगे, की ओर है न की पीछे की ओर”” अब रूसो के सामने समस्या थी--'क्या यह, सम्भव है कि ऐसे समाज की स्थापना की जाए जो अपने सदस्यों के जन-धन, की पूर्ण शक्ति के साथ रक्षा करे, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति दूसरों के साथ एक होते, हुए भी केवल अपने आदेशानुसार आचरण कर सके और लहरों की भाँति, स्वतन्त्र रहे”” इस समस्या का समाधान था-- ५, , 'सामाजिक समझौता” जिसे हॉब्स, लॉक आदि दार्शनिक पहले ही, प्रतिपादित कर चुके थे।, , युद्ध और संघर्ष के वातावरण का अन्त करने के लिए रूसो एक सामाजिक, समझौते की कल्पना करता है। सभी व्यक्ति एक स्थान पर एकत्रित हुए और, उनके द्वारा सम्पूर्ण किया गया, किन्तु अधिकारों का यह समर्पण किसी व्यक्ति, विशेष के लिए नही वरन् सम्पूर्ण समाज के लिए किया गया।, , रूसो के अनुसार मनुष्यों ने आपस में एक समझौता किया। इस समझौते में, सभी व्यक्तियों ने भाग लिया। प्रत्येक व्यक्ति अपने अधिकारों को किसी व्यक्ति, विशेष को अर्पित न कर सम्पूर्ण समाज को अर्पित करता है। इस प्रकार यह, समझौता लोगों के निजी स्वरूप और सामूहिक स्वरूप के मध्य हुआ। रूसो को, कल्पना के अनुसार “हम में से प्रत्येक अपने व्यक्तित्व और सभी शशि, सामान्य रूप से सार्वजनिक इच्छा के सर्वोच्च निर्देशन के अन्तर्गत रखता है हे, हम संयुक्त रूप से सार्वजनिक इच्छा के सर्वोच्च निर्देशन के अन्तर्गत हु, हि हम संयुक्त रूप से प्रत्येक सदस्य को सम्पूर्ण संगठन के अखण्ड के रूप, । पाते हैं।” । नई "5 पा! 5८, , की अल जि 773