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सम्भाषण, कुशलता, मनुष्य के पास जाते हैं वही हमें घृणा की दृष्टि से देखता है । फल, यह होता है कि कोई भी मनुष्य हमारे दुःख का साथी नहीं होता:, बल्कि हमारे दुःख से दूसरों को सुख होता है, इसलिए कम से कम, स्वार्थ की दृष्टि से तो हुमेंअवश्य ही सच बोलने का अभ्यास करना, चाहिए।, समय और समाज की आवश्यकताओं के प्रतिकूल कभी कुछ,, नहीं बोलना चाहिए । प्रचलित विषय पर कुछ बोलना था उसको, मनोयोगपूर्वक सुनना श्रेचस्कर है । जब किसी विषय पर बातचीत हो, रही है तब उसके समाप्त हुए बिना एक नये विषय को जबर्टस्ती नहीं, शुरू कर देना चाहिए । डरसी तरह यदि भाषा को सरल न रखका, उत्तरोत्तर अलंकारपूर्ण बनाने की चेष्टा की जायेगी तो भावों का, रसीलापन चला जायगा और तुम्हारे वाक्यों में केवल विधवा को, की च्यक दमक नजर औविता । आनंद-वर्धक भाषण्शली का प्रयोग, करना भी अत्यंतु अविश्वक है । इस तरह की बातें भी नहीं करनी., चाहिए जिससे दूसरे अपनी तुच्छता माने और जिससे दूसरों के दिल, में चोट पहुंचे । प्राय देखा नाता है कि कोई मनुष्य सदर रोगों, टुःख, और संसार असारता की ही बाते किया कर्ता है अर्थवा अपने वृथा, वागाडबर के नशे में टूरों की निदा कर बैठता है.। परंतु सच पूछा, जाय तो हमें ईश्वर के घर से यह अधिकार प्राप्त नहीं हैआ है कि हाए, किसी मनुष्य के धंद दो घट के आरम के समय की शोकजनक, बातों से मलिन कर दें। अंतएव जिहा की लगाम को सदैव अपने, हाथ में रखना चाहिए जिसमें के वह जंगली जानवर की नाई भड्य, न उठे । लगाम ढीली होने से जंगली जानवर को वश में कर लेना, असंभव हो जायेगा, काय में सवसे बड़ा अवपुण, यां की देशा ठोक उस पागल भतु, हमे ऊपर कई गये, फर्निंदा करमा है।