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एक पत्ती के नोट्स, , जिन लोगों के जीवन में प्रेम और विवाह अकस्मात्, अनायास आते हैं उन्हें, उसके निर्वाह में उतनी ही सायास मेहनत करनी पड़ती है, जितनी उन लोगों, को जिनके विवाह अखबारों के इश्तहार तय करते हैं अथवा रिश्तेदार। यह, बात जितनी कविता के लिए सच थी उतनी ही संदीप के लिए भी। लेकिन, संदीप किसी बात को इतनी सहजता से स्वीकार कर ले, यह कैसे हो सकता, था?, , संदीप एक प्रबुद्ध व्यक्ति था। उसके पिता प्रसिद्ध साहित्यकार थे। होश, सँभालते ही उसने अपने घर में बेशुमार किताबें देखीं। बल्कि यह कहना ठीक, होगा कि उसने किताबों के रास्ते जीवन के सब फैसले किए थे। एम० ए० में, विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान पाने पर वह लेक्चरर भी बन सकता था, पर, लेखक पिता की हार्दिक इच्छा थी कि वह सिविल सर्विसेज़ प्रतियोगिता में, अपनी प्रतिभा परखे। बिना किसी विशेष श्रम के पहली बार ही संदीप, आई०ए० एस» में भी उत्तीर्ण हो गया। पिता को बड़ा संतोष और गर्व हुआ, पर, उसकी नियुक्ति से पहले ही उन्हें दिल का दौरा पड़ा और वे चल बसे।, विरासत में संदीप के लिए वे पुस्तकों की अपार संपदा छोड़ गए और अपनी, आकांक्षाएँ। संदीप ने दोनों का सम्मान किया। उसने एक तरफ लोक-प्रशासन, के पेच और पहलू समझे तो दूसरी तरफ विश्व के महान् साहित्यकारों की, रचनाओं का अध्ययन कर डाला। संदीप अगर प्राध्यापक बनता तो एक, विशिष्ट बुद्धिजीवी के रूप में सम्मान पाता, किंतु दिवंगत पिता की इच्छा की, खातिर उसने अफसरी अपना ली।, , धीरे-धीरे उसकी टेबल पर पुस्तकों की जगह फाइलों ने ले ली। उसके, दिमाग में कंप्यूटर की सी तेज़ी थी। इसका अंदाज़ उसके विभाग को थोड़ाथोड़ा तब हुआ जब यह पाया गया कि कहीं भी फोन करने के लिए संदीप, डायरेक्टरी का इस्तेमाल नहीं करता। उसे दो हज़ार से भी ज़्यादा टेलीफोन, नंबर मौखिक याद थे। किसी भी विभाग का काम समझने में उसे मुश्किल से
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विश »»घऋघ७घ७७२, , 8 / एक पतली के नोट्स न एक पली के नोट्स / 9, , ही विभाग की गड़बड़ रग पर उँगली रख देता। वह हो रहा था। तभी उसने देखा, वही लड़की रिक्शा स्टैंड पर कुछ-कुछ परेशान,, कुछ घंटे दकापहोते। बह नि को थी चुलकर सहित्य-वर्चहा... कुछ-कुछ कलंत खड़ी है। खंड पए एक भी रिक्शा नह था। गाया, उपना मनोरंजन कर लेता। उसकी पी० ए० एक मूर्ख किस्म कौ फैशनेबल | उसने कार रोक दी और अत्यंत शिष्टता कहा, “मैं आपसे परिचित तो नहीं,, लड़की थी। वह शालीन भंगिमा में अपने बॉस के उदगार सुनती रहती और अपरिचित भी नहीं हूँ। मैं भी विश्वविद्यालय की तरफ जा रहा था। आपको, बोर होती। अंत में एक गहरी साँस लेकर वह पर्स से काला चश्मा निकाल मेरी शालीनता पर यकीन हो तो साथ चल सकती हैं।, लेती और घर जाते-जाते मन ही मन अपने अनोखे अफसर को इस विलंब किसी नवयुवक से इतनी साफ- सुथरी जुबान कविता ने पहली बार सुनी, के लिए क्षमा भी कर देती। । थी। न जाने वह रिक्शा न मिलने की परेशानी थी या कोई रूहानी खिंचाव,, , संदीप का दिल-दिमाग हर समय साहित्य से आंदोलित रहता। उसकी । वह कार में बैठ गई। संदीप ने निःशब्द उसे गंतव्य तक पहुँचा दिया और, निजी लाइब्रेरी में प्राचीन, समकालीन सभी प्रकार की पुस्तकें थीं। सही मौके कविता के उतरने के पहले बड़े सलीके से अपनी गहन आवाज़ में बोला, “मैं, पर सटीक उद्धरण देना उसकी विशेषता थी। हाज़िरजवाबी, सांस्कृतिक सूझ- आपका नाम इसलिए नहीं जानना चाहता, क्योंकि आप अजनबी-सी हैं, मगर, बूझ, शायराना तबीयत और साहित्यिक रुचियों के कारण वह शहर में गैर नहीं लगती हैं। सिर्फ एक छोटा-सा शेर सुनती जाइए :, लोकप्रिय हो गया। मंत्रिमंडल से लेकर मित्र-मंडली तक में उसका स्वागत | किसलिए जलाए हैं अब दिए किनारों पर,, होने लगा। इन स्थितियों में वह अपने को बेहद प्रतिभाशाली, भाग्यशाली और | अब तो डूबने वाला डूब भी चुका होगा ।”, प्रबुद्ध समझने के लिए बाध्य हो गया। । दशक, , मार्च के एक सुहाने दिन, जब सड़कें अनाम फूलों से सजी-सँवरी थीं, । लड़की अंदर तक झनझना गई। उसके कानों में वंशी से लेकर शहनाई, हवा में हलकी खुनकी शेष थी और दफ्तर के वित्त वर्ष का काम उसके काबू] तक सभी वाद्य बज उठे। एक क्षण रुककर संदीप ने कार का दरवाज़ा खोल, , दिया।, , में था, वह प्रेम में पड़ गया। दरअसल उस लड़की को एक अरसे से वह, आते-जाते देख “चुका था। लगता था, संदीप का दफ्तर जाने का वक्त और, लड़की का विश्वविद्यालय जाने का वक्त एक ही था। एक खास मोड़ पर उसे, वह लड़की हाथ में डायरी लिए कलात्मक कदमों से रिक्शा स्टैंड तक आती, , कविता उतर गई। दरवाज़ा बंद करते हुए बोली, '' थैंक्यू फॉर एवरीथिंग, मिस्टर सिंह!!!, , अब चौंकने की बारी संदीप की थी, “आप मुझे जानती हैं?'', “आपको कौन नहीं जानता? मेरा नाम कविता है।'!, , दिखाई देती। यद्द इतना नियमित साक्षात्कार था कि अगर किसी दिन वह उसे |, , न दिखाई देती, तो वह वहीं गुलमोहर के नीचे कार रोक देता। जैसे ही दूर । कविता चली गई।, , से वह लड़की उसे आती दिखाई देती, वह झटके से कार मोड़कर दूसरी दिशा | संदीप के कानों में कविता की अस्फुट आवाज़ सारे दिन गूँजती रही,, से दफ्तर चला जाता। वह अभी न उसका नाम जानता था, न पता, पर उसे । “आपको कौन नहीं जानता, आपको, , उस लड़को का अकेलापन बहुत आकर्षित करता था। वह लंबे, भरे-भरे | आत्मविश्वास संदीप के अंदर पहले ही कूट-कूटकर भरा था, इस बात, जिस्म वाली लड़की थी, जो चौड़े-चौड़े बॉर्डर की बँगला साड़ियाँ पहनती थी। | से उसका अहं इतना प्रसन्न और प्रफुल्लित हुआ कि उसे लगा, उसकी तलाश, उसकी आँखें बड़ी-बड़ी थीं, विस्फारित-सी, जैसे प्रतिदिन उसे जीवन एक... खत्म हुई। इस लड़की के इतने संक्षिप्त सानिध्य से उसे कई स्तरों पर आहाद, चमत्कार दिखाई देता हो। संदीप को उसका निष्पलक भोलापन बरबस खींचता /* ५ हुआ। एक तो यही कि कविता के बारे में उसके सभी अनुमान सही निकले।, , वह साहित्य की छात्रा थी। उसके पिता निम्न-मध्य वर्ग के अवकाश-प्राप्त, हैडमास्टर थे। वह चार बहनों में सबसे बड़ी थी, भाई उससे बड़ा था और, विवाहित । जीवन के बारे में उसका दृष्टिकोण बेहद आदर्शवादी और आस्थापूर्ण, था। ये सारी स्थितियाँ संदीप के उस भाव का भी पोषण करती थीं, जिसके, , था। उस लड़की के व्यक्तित्व में एक संत की सी सहजता और सादगी थी,, जो कौमार्य की गरिमा के साथ कुछ इस तरह रच-बस गई थी वि चेहरे, पर एक खास तेजस्विता बनी रहती थी। ४७७७७, , मार्च के उस दिन संदीप मस्ती में था। उसका मन अतिरिक्त काव्यात्मक
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12 / एक पली के नोट्स, , हुई थी। बेहद डरते-डरते वह संदीप के साथ कहीं बाहर निकलती, फिर, घबराकर वक्त से पहले ही घर वापस चलने की ज़िद करती।, , संदीप पूछता, “किसके ? अपने या तुम्हारे ?'', , कविता कहती, ''अपने-अपने।'!, , एक-दो बार जब संदीप ने उठने में देर लगाई, उसे रोकने का मनुहार, किया, वह उतावली में खुद रिक्शा करके अकेले घर चली गई। उसके ज़ेहन, में यकायक सिंड्रैला जैसी कोई घंटी बज उठती और वह ऐन उस क्षण उठ, जाती, जब संदीप का दिल, दिमाग, देह उसे पूरी तरह ढाँप लेना चाहता था।, ऐसे समय स्टियरिंग पर माथा टेक संदीप अवश कह उठता :, , “दूरी हुम दूर नहीँ; मेरी पुकार ही अक्षम है,, कोई विस्तार-दृष्टि मुझमें ही कम है ।””, , कुछ दिनों के लिए संदीप को अपने सारे दोस्त भूल गए। वैसे भी, वह, जो भी काम करता, पूरी तल््लीनता से। इस वक्त अपनी चेतना और स्फूर्ति का, सर्वश्रेष्ठ भाग उसने कविता को सौंप दिया था। विचारों की उड़ान में कभी उसे, , घर पर संदीप के लिए एक से एक समृद्ध परिवारों की लड़कियों के, रिश्ते आ रहे थे। सभी लड़कियाँ घोषित रूप से सुंदर, सुशील, सुशिक्षित और, गृहकार्य में दक्ष थीं। सभी के पिता संपन्न थे और आई० ए० एस० दामाद, , दो, , प्रणय से लेकर परिणय तक संदीप ने उस प्रेम-संबंध को इतनी ऊष्मा दी थी, कि विवाह के बाद वह यकायक अपने को फुर्सत में पाने लगा। उसके पास, ढेर-सा खाली वक्त बच रहा। प्रथमोल्लास की तीव्रता और तन््मयता अब, आसानी से कमरे के अंदर संपन्न की जा सकती थी। उसके लिए गोमती के, अँधेरे तट पर बौराए घूमने की ज़रूरत नहीं बची थी। कहाँ तो कविता का मात्र, स्पर्श करने के लिए घंटों संघर्ष करना पड़ता था, कहाँ समूची कविता उसे, उपलब्ध हो गई--हर क्षण, हर दिन। इस तरह संघर्ष नाम के खलनायक के, हटते ही संदीप कुछ हतप्रभ-सा हो गया। बाधाओं को पार करते हुए मिलने, में जो तरंग थी, यकायक गायब होने लगी। संदीप को लगा, उसकी कोई निजी, पूँजी चोरी हो गई है।, अब संदीप ने दफ्तर की तरफ ध्यान देना शुरू किया। वह अपना काम, शाम सात बजे तक करता रहता। एक योग्य अफसर की तरह वह अकसर देर, से घर पहुँचता। इस बीच कविता टी० वी० देख-देखकर पथराई अपनी आँखों, को उस पर टिकाकर शिकायत करती, “देखो, आज भी देर कर दी तुमने ?'”, संदीप कोट हैंगर में लटकाते हुए कहता :, “मुझसे पहली-सी मुहब्बत मेरे महबूब न माँय ।, लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीज॑,, अब भी दिलकश है तेरा हुस्त मयर क्या कीजे।, और भी दु:ख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा, राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा।, मुल्लसे प्हली-सी मुहब्बत मेरे महबूब न माँग /”, कविता उसकी इस काव्यात्मकता से आहत हो जाती। वह अपने जीवन, की कल्पना सुख-चैन की सामान्य दैनिकता में करना चाहती थी। साहित्य एक, , पेचीदगी बनकर जीवन से जुड़ जाएगा, यह उसने कभी नहीं सोचा था। संदीप, के लिए जीवन का हर क्षण एक साहित्यिक पृष्ठ था। फर्क सिर्फ इतना था
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14 / एक पली के नोट्स, , कभी कोई परिचित उसकी इस क्षता पर आरचर्व प्रकट करत; तो वह कहता,, कि ग्रेश है दीवाने को ।'', आप माहइ मा बहा हो लोगो से दिलाने लियटने चोट, संदीप ने इस साहित्यिक प्रवृत्ति री, पहुँचाने और मरहम लगाने का माध्यम भी बना रखा था। मित्रों के बीच, अकस्मात् वह विद्वतता का प्रदर्शन शुरू कर देता। कभी डॉ० जिवागो के पाँचपाँच पृष्ठ सुना डालता, कभी जायसी का पद्मावती-रूप-वर्णन। संदीप की, जगह अगर किसी और दोस्त की बात पर ठहाका लग जाता, तो संदीप जैसे, प्रतिस्पर्धा में आ जाता। फिर वह तब तक महफिल न छोड़ता, जब तक उसकी, श्रेष्ठता पूरी तौर पर स्थापित न हो जाती। अपने प्रतिट्ठंद्वी को शून्य बनाकर, छोड़ने में उसे कतई संकोच न था। दरअसल लोगों की निश्चिंतता से उसे बेहद, चिढ़ थी। अपने परिचितों के घरों को उसने दो खंडों में रखा हुआ था। जहाँजहाँ वह पति-पत्नी के बीच ज़रा-सा भी प्रतिवाद देख चुका था, उन्हें वह, कलहकुल कहता और जहाँ अमन-चैन देखता, उन्हें सुलहकुल। किंतु, सुलहकुल परिवारों की महिलाएँ उसे निरीह और कारुणिक लगतीं। उन पर, चोट करना उसका प्रिय शगल था। अपने एक मित्र की कलाकार पत्नी से एक, दिन. उसने कहा, “अपने चित्रों में तो आप बेहद प्रखर व संवेदनशील नज़र, आती हैं, पर वास्तविक जीवन में आप एक ठस्स किस्म की औरत हैं | दरअसल, आप निम्न-मध्यवर्ग की औसत गृहिणी के अलावा कुछ भी नहीं हैं।'', संदीप हमेशा ऐसे व्यक्ति पर आघात करता था, जिसे सपने में भी, आधात की कल्पना न हो। साथ ही उसे मौका चुनना भी आता था। वह तो, हँसकर हमला कर डालता, पर घायल आदमी का समूचा आत्मविश्वास, अहं, और व्यक्तित्व कुछ देर के लिए क्षत-विक्षत हो जाता। अकसर जब चह चोट, का 2 कार को यहां लगता कि यह उसकी चुहलबाज़ी है, पर अगले ही, जग वह जुमला अपना जुल्म दिखाने लगता और जब तक शिकार को इल्म, , ५ च७४४ं४७०७, , एक पत्नी के नोट्स / 15, , होता कि उसे मारा गया है, संदीप एक ठहाके के साथ यह जा और वह जा।, एक दोस्त की बीवी उसे बहुत पसंद थी। उससे वह हमेशा बड़ी नफीस, उर्दू बोलता और अकसर दूसरों के शेर अपने नाम से सुना डालता। वह बहुत, , |. सुंदर और सुसंस्कृत महिला थी। कई बार संदीप ने उसे कार में लिफ्ट दी, पर, | महिला ने संदीप को लिफ्ट नहीं दी। कुछ अरसे पहले वह उसे ऐसे शेर सुनाता, , 1, | था:, , ““आह, संगमरमर-सा यह रेशमी शफ्फ़ाक बदन, देखने वाले तुझे ताजमहल कहते हैं।”, या, “पहलू में कोई चीज जल रही है,, वुम हो कि मेरी जान जल रही है।””, लेकिन बाद में वह चिढ़कर उसे ऐसे शेर सुनाने लगा :, /“जेहन में मेरे घुस के आप बैठे हैं,, राम जाने किस जनम के पाप बैठे हैं।””, न सिर्फ यह, उसने उसे यह भी बता दिया कि शेर-ओ-शायरी में सबसे, बड़ी खामी यह है कि ये ओवर-कम्युनिकेट करते हैं। उर्दू शायरी अतिसंप्रेषण, की शिकार है। संदीप ने कहा, “अब मुझे ही लें। मैं आपकी कुछ कम तारीफ,, , आपसे कुछ कम मुहब्बत अर्ज़ करना चाहूँ, तो ढूँढ़े से ऐसा शेर न मिलेगा।'', कविता से उसका प्रेम अपनी जगह था--निश्चित, नियमित, नियत।, , | कविता की मुहब्बत को वह प्यार का घरेलू संस्करण मानता था। उसकी, | अभिलाषा थी कि शहर कौ हर सुंदर स्त्री उस पर फिदा हो जाए। जब भी, | कोई सुंदर महिला उसके संपर्क में आती, वह कहता :, , साँप के हाथ में बीन है।”, ऐसे संपर्क को वह मुहब्बत का डीलक्स संस्करण कहता। सरिता, | कोहली ने एक पार्टी में उससे कहा, ''देवताओं में जो शिव का स्थान है, वही, |. अफसरों में आपका।'!, संदीप हो-हो कर हँस पड़ा। फिर उसने 'कुमारसंभव' से शिव-पार्वती, , |, 1