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इकाई-9: जेरेमी बेन्थम, नोट, सुखवादी विचारधार किन्हीं भी अर्थों में आधुनिक युग की मौलिक देन नहीं है । इसका प्रारम्भ यूनानी युग में, विशेषतया, सेरेनायक विचारधारा (Cyrenaic School ) के संस्थापक एरिस्टिपस (Aristippus ) की शिक्षाओं से और कुछ-कुछ, एपीक्यूरस (Epicurus) की शिक्षाओं से हुआ था। यद्यपि आधुनिक सुखवाद प्राचीन सुखवाद से बहुत भिन्न है फिर, की प्राप्ति ही दोनों का मुख्य उद्देश्य है । प्राचीन सुखवाद का स्वरूप स्वार्थवादी था जबकि आधुनिक सुखवाद, परोपकारवादी है। आधुनिक युग में हॉब्स को उपयोगितावाद का प्रथम दार्शनिक माना जा सकता है क्योंकि उसके विचार, से राज्य के उद्भव का एक प्रधान कारण उसकी उपयोगिता ही है । इस सिद्धांत को व्यवस्थित और आद्योपान्त बनाने, में जेरेमी बेन्थम और जॉन स्टुअर्ट मिल का नाम उल्लेखनीय है ।, भी, सुख, 9.1 बेन्थम का जीवन परिचय (Life History of Benthem), जेरेमी बेन्थम का जन्म 1748 ई. में लन्दन के एक प्रतिष्ठित वकील परिवार में हुआ था|। उसके पिता और पितामह, उस समय के श्रेष्ठ कानूनविद् थे| उसके पिता जिरमिह बेन्थम की आकांक्षा थी कि उनका पुत्र भी एक नामी वकील, बने। चूंकि बेन्थम अलौकिक प्रतिभा का धनी बालक था इसलिए वह तीन वर्ष की आयु में लैटिन तथा चार वर्ष, की आयु में फ्रेन्च पढ़ने लग गया। उसने तेरह वर्ष की आयु में मैट्रिक तथा पन्द्रह वर्ष की आयु में आक्सफोर्ड, विश्वविद्यालय से स्नातक परीक्षा पास कर ली । इसके बाद उसने 'लिंकन्स इन' में कानूनशास्त्र का अध्ययन करने, के लिए प्रवेश लिया। सन् 1768 में उसे किताबों की एक दुकान में प्रीस्टले की एक पुस्तिका ' शासन पर निबन्ध', मिली जिसमें उसे एक पृष्ठ पर हचेसन की पुस्तक से उद्धृत वाक्याँश ' अधिकतम संख्या का अधिकतम सुख' मिला।, इसे पढ़कर वह आनन्द विभोर हो उठा मानो उसे कोई मणि मिल गयी हो। "बेन्थम खुशी से नाच उठा, मानो उसे, ईश्वर का सन्देश मिल गया या उसने कोई महान खोज कर ली । इस वाक्याँश में जो अर्थ छिपा था वह बेन्थम, की सम्पूर्ण राजनीतिक विचारधारा का आधार एवं आदर्श बना। ", लिंकन्स इन में बेन्थम ने अपना अधिकांश समय विधिशास्त्र के ग्रन्थों के अध्ययन में लगाया। इन्हीं दिनों वह किंग्स, बैंच के प्रधान न्यायाधीश लार्ड मैन्सीफील्ड के न्यायालय में विधि का व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करने जाया करता था।, इसी दौरान उसे प्रचलित कानूनों की दुर्बोधता, अपूर्णता और अनिश्चितता का पता लगा । उसने देखा कि प्रचलित कानून, बड़ा क्रूर और पाशविक था। कानून भंग करने वाले दण्ड पाने से बच जाते थे और निरपराध दण्ड पाते थे बेन्थम, को प्रचलित कानून के खोखलेपन का जितना अधिक ज्ञान हुआ वह उतनी ही अधिक दृढ़ता से इनके सुधार के लिए, संकल्प करने लगा। वकालत करने की अपेक्षा उसने विधियों में संशोधन करने का बीड़ा उठा लिया। जब इंगलैण्ड के, प्रसिद्ध विधिशास्त्री ब्लेकस्टोन ने इंगलिश कानून की टीकाएँ प्रकाशित की तो ब्लेकस्टोन द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों की, धज्जियाँ उड़ाते हुए सन् 1776 में बेन्थम ने 'शासन पर कुछ विचार' (Fragments on Government) ग्रन्थ प्रकाशित, किया जिस पर लेखक का नाम मुद्रित नहीं था बेनाम प्रकाशित बेन्थम की इस रचना ने विधिशास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान, ब्लेकस्टोन की आलोचना करके न्यायिक क्षेत्रों में हलचल मचा दी। यह कल्पना की जाने लगी कि शायद यह, आलोचनात्मक कृति डनिंग, मैन्सफील्ड अथवा लार्ड कैम्डन में से किसी की हो सकती है जो उस समय विधिशास्त्र, के प्रकाण्ड पण्डित थे। मैक्सी के शब्दों में, "इंगलैण्ड की राजनीति का शक्तिशाली व्यक्ति लॉर्ड शैलबर्न बेन्थम की, फ्रेगमेण्ट ऑन गवर्नमेण्ट से इतना अधिक प्रभावित हुआ कि उसने बेन्थम का संरक्षण स्वीकार कर लिया और उसे, बार-बार अपने यहां मेहमान के रूप में आमन्त्रित किया और समाज के अभिजात्य वर्ग से उसका परिचय करवाया।", इस पुस्तक का प्रकाशन बिना लेखकीय नाम के हुआ था, परन्तु इस पुस्तक की ख्याति के कारण बेन्थम का पिता, अपने आपको रोक नहीं सका और उसने घूम-घूम कर बड़े गर्व के साथ इस सत्य का प्रचार किया कि यह पुस्तक, उसके पुत्र द्वारा लिखी गयी थी।, बेन्थम के पिता को अपने पुत्र के अगाध कानूनी ज्ञान पर गर्व हुआ और उन्होंने यह समझ लिया कि, के पेशे से बांधना व्यर्थ है। उन्होंने उसके लिए एक सौ पौण्ड की वार्षिक आय की व्यवस्था कर दी ताकि वह आजीविका, की चिन्ता से मुक्त होकर चिन्तन, सुधार और लेखन के कार्यों में अपने लगा सके।, पुत्र, को वकालत, बेन्थम प्रतिदनि नियमित रूप से लिखने वाला असाधारण व्यक्ति था और ज्ञान-विज्ञान के सभी क्षेत्रों में उसकी निर्बाध, LOVELY PROFESSIONAL UNIVERSITY, 169
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इकाई-9: जेरेमी बेन्थम, स्व-मूल्यांकन (Self Assessment), नोट, 1., सही विकल्प का चुनाव करें (Cho0se the correct options) -, 1. जेरेमी बेन्थम का जन्म कब हुआ था-, (क) सन् 1748 में, (ख) सन् 1750 में, (ग) सन् 1760 में, (घ) सन् 1768 में, 2. जेरेमी बेन्थम की आयु क्या थी जब वह लैटिन और फ्रेंच पढ़ने लगा था-, (क) 10-12 वर्ष, (ख) 8-10 वर्ष, (ग) 6-8 वर्ष, (घ) 3-4 वर्ष, 3. बेन्थम का निधन कब और कहाँ हुआ-, (क) 6 जून, 1832 ई. लंदन, (ख) 10 जून, 1832 ई. फ्रांस, (ग) 16 जून, 1832 ई. अमरीका, (घ) 20 जून, 1832 ई. इटली, 9.2 बेन्थम का उपयोगितावाद, (Benthem's Concept of Utilitarianism), उपयोगितावाद बेन्थम की समूची विचारधारा तथा चिन्तन की आधारशिला है। यह सुखवाद पर आधारित एक, मनोवैज्ञानिक तथा सुधारवादी विचारधारा है जिसका प्रमुख के्द्र इंग्लैण्ड था ।, बेन्थम के उपयोगितावादी विचारों केा निम्नलिखित शीर्षकों में समझा जा सकता है:, उपयोगिता का अर्थ बेन्थम के अनुसार उपयोगिता के सिद्धांत का अर्थ उस सिद्धांत से है जो प्रत्येक कार्यवाही को,, चाहे वह जो भी क्यों न हो ऐसी धारणा के आधार पर स्वीकार या अस्वीकार करता है जिससे ऐसा लगता है कि, वैचारिक पक्ष के हित में या तो अभिवृद्धि कर रहा है या ह्वास का सिद्धांत कह सकते हैं । यह प्रत्येक कृत्य पर लागू, होता है, केवल व्यक्ति के नीजी कृत्यों पर ही नहीं सरकार के क्रियाकलापों पर भी समान रूप से लागू होता है|, उपयोगिता की परिभाषा करते हुए बेन्थम ने लिखा है-"उपयोगिता किसी वस्तु का वह गुण है जिसके द्वारा वह, किसी ऐसे पक्ष के लिए लाभ, सुविधा, सुख, अच्छाई या कल्याण का सृजन करती है अथवा, होने वाले छल, पीड़ा, बुराई या अहित को रोकने का कार्य करती है जिसके हित के बारे में विचार किया जा रहा, है।" यहां यह स्पष्ट कर लेना आवश्यक है कि यदि पक्ष कोई व्यक्ति है तो उपयोगिता का सम्बन्ध व्यक्तिगत हित, होगा और यदि वह कोई समूदाय है तो उपयोगिता सामुदायिक हित से सम्बन्धित होगी।, पक्ष के विरुद्ध, नैतिकता की परम्परागत धारणाओं का खण्डन -बेन्थम ने तत्कालीन समय में प्रचलित नैतिकता की सभी धारणाओं, का खण्डन किया और उपयोगिता को नैतिकता तथा मानवीय जीवन का आधार बनाया। बेन्थम के समय में नैतिकता, के विषय में विभिन्न विचार प्रचलित थे। प्राय: लोग ईश्वर की इच्छा को नैतिकता का आधार मानते थे और उनका, कहना था कि धर्मशास्त्रों से ईश्वर की इच्छा का ज्ञान होता है। इसलिए उनका कहना था कि जो कुछ ईश्वर की इच्छा, अर्थात् धर्मशास्त्रों के अनुकूल है, वह नैतिक है और जसे कुछ उसके विपरीत है, वह अनैतिक और पापमूलक है ।, इसके अतिरिक्त नैतिकता के सम्बन्ध में प्राकृतिक विधि की धारणा प्रचलित थी और दार्शनिक मनुष्य के अन्तःकरण, को नैतिकता का स्त्रोत मानते थे। बेन्थम इन सभी को अस्वीकार करते हुए कहता है कि "ईश्वरीय इच्छा, प्राकृतिक, विधि और अन्तः करण ये कुछ वैयक्तिक या आत्मगत (Subjective) कल्पनाएँ मात्र हैं और मनुष्य को जो कुछ अच्छा, लगता है, उसी को ईश्वरीय इच्छा, प्राकृतिक विधि या अन्तरात्मा के सम्बन्ध में प्रामाणिक रूप से हमारे द्वारा कुछ, भी नहीं कहा जा सकता, इसलिए धारणाएँ निरर्थक हैं।" नैतिकता की परम्परागत धारणाओं के स्थान पर बेन्थम सुखवाद, (Hedonism) में विश्वास करता है और यह मानता है कि सुख तथा दुःख अथवा प्रसन्नता और पीड़ा मनुष्य के दो, सवसार्वभौम शासक हैं।, प्रकृति ने मनुष्य को दो सत्ताधारी स्वामियों के अधीन रखा है- बेन्थम के अनुसार प्रकृति ने मनुष्य को आनन्द, और पीड़ा नामक दो सर्वोच्च प्रभुओं के शासन में रखा है । हम जो कुछ भी करते हैं, जो कुछ भी कहते हैं और जो, कुछ भी सोचते हैं सबमें हमें इनके अधीन हैं ।, LOVELY PROFESSIONAL UNIVERSITY, 171
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पाश्चात्य राजनीति विचार, नोट, नोट्स बेन्थम के शब्दों में, "प्रकृति ने मानव समाज को दो सर्वाधिकार सम्पन्न स्वामियों-सुख, आधिपत्य में रख दिया है। इन स्वामियों का ही यह कर्तव्य है कि वे हमें बताएँ कि हमें क्या करना, चाहिए तथा निर्णय करें कि हम क्या कर सकते हैं ।", और, दुःख, के, उपयोगिता का सिद्धांत सुख की प्राप्ति और दु:ख के निवारण का सिद्धांत है- बेन्थम के उपयोगितावाद की, आधारशिला, सुख, और, दु:ख, की, मात्रा के ऊपर है। बेन्थम के मत में जो वस्तु सुख की अनुभूति देती है वह अच्छी, है, ठीक और उपयोगी है। जिस कार्य में मानव सुख में वृद्धि होती है वही कार्य उपयोगी और उचित है और जिस कार्य, से मानव को दु:ख प्राप्त होता है वह कार्य अनुपयोगी और अनुचित है। मानव के समस्त कार्यों की कसौटी उपयोगिता, है। बेन्थम के शब्दों में, "उपयोगिता के सिद्धांत से हमारा आशय उस सिद्धांत से है जिससे सम्बन्धित व्यक्ति की प्रसन्नता, में वृद्धि या कमी होती है ओर जिसके आधार पर वह प्रत्येक कार्य को या तो उचित ठहराता है या अनुचित या दूसरे, शब्दों में जिससे सुख मिलता है या सुख नष्ट होता है । मैं यह बात हर कार्य के लिए कहता हूं और इसलिए मेरी यह, बात किसी एक व्यक्ति पर नहीं बल्कि हर सरकारी कार्य पर लागू होती है ।" इस प्रकार बेन्थम के अनुसार किसी वस्तु, की उपयोगिता का एकमात्र मापदण्ड यह है कि वह कहां तक सुख की वृद्धि करती है और कहां तक दु:ख को कम, करती है।, सुख-दुःख का वर्गीकरण-सुख दुःख के स्वरूप को समझाने के लिए बेन्थम उन्हें दो भागों-सामान्य और जटिल, में विभाजित करता है। उसने सामान्य सुख के 14 और सामान्य दु:ख के 12 भेद बताये हैं, जो इस प्रकार हैं-, सामान्य सुख-1. इन्द्रिय सुख, 2. वैभव सुख, 3. कौशल का सुख, 4. मित्रता का सुख, 5. यश का सुख, 6. शक्ति, या सत्ता का सुख, 7. कल्पना का सुख, 8. धार्मिक सुख, 9. दया का सुख, 10. निर्दयता का सुख, 11. स्मृति सुख,, 12. आशा का सुख, 13. सम्पर्क या मिलन सुख व 14. सहायता का सुख।, सामान्य दुःख-1. दरिद्रता, 2. भावना, 3. हिचकिचाहट, 4. शत्रुता, 5. अपयश, 6. धार्मिकता, 7. दया, 8. निर्दयता,, 9. स्मृति, 10. कल्पना, 11. आशा व 12. सम्पर्क।, सामान्य सुख-दुःखों के इस वर्गीकरण की प्रस्तुत करने के पश्चात् बेन्थम यह भी कहता है कि इनके सम्मिश्रण से, विविध प्रकर के जटिल सुख-दुःख पैदा होते हैं।, 'के निर्धारक तत्व - बेन्थम के अनुसार मनुष्य एक भावनात्मक प्राणी होता है । अतः प्रत्येक मनुष्य की भावना, सुख-दुःख, जितनी सघन होती है उतनी ही सुख या दुःख को ग्रहण तथा अनुभव करने की उसकी क्षमता होती है अर्थात् हर मनुष्य, की सुख-दुःख अनुभव करने की सामर्थ्य भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है। वस्तुत: किसी व्यक्ति समूह द्वारा अनुभव की, जाने वाली सुख-दु:ख की मात्रा इनके ग्रहण या अनुभव करने की सामर्थ्य को निश्चित करने वाले तत्वों पर निर्भर है ।, ये 32 तत्व हैं, इनमें प्रमुख हैं- स्वास्थ्य, शक्ति, कठोरता, शारीरिक कमजोरी, मन की चंचलता, मनोवृत्ति, अनुभव ग्रहण, करने की शक्ति, नैतिक पक्षपात, धार्मिक पक्षपात, लिंग, शिक्षा जलवायु. वंश आदि। बेन्थम के अनुसार सुख-दुःख, की मात्रा की गणना करते हुए इन्हें ध्यान में रखना चाहिए।, सुख-दुःख के स्त्रोत-बेन्थम सुख-दु:ख प्राप्ति के चार स्त्रोत बतलाता है। ये चार स्त्रोत हैं-भौतिक, नैतिक राजनीतिक, तथा धार्मिक। प्रकृति से प्राप्त होने वाले सुख भौतिक सुख कहलाते हैं । जब कोई सुख या दु:ख नैतिक दृष्टि राज्य के, सम्पर्क अथवा कानून के कारण मिलता है तो यह राजनीतिक सुख-दुःख कहलाता है धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, या विरुद्ध काम करने पर जो सुख-दुःख मिलता है उसका स्त्रोत धर्म होता है सुख-दु:ख के इन चार स्त्रोतों का मकान, का उदाहरण देते हुए बेन्थम इस प्रकार समझाता है-"अगर किरस मनुष्य का मकान अपनी असावधानी से जलता है, तो वह राजनीतिक दण्ड है। अगर वह आग लगने पर सहायता न देने वाले साथियों और पड़ोसियों की दुर्भावना से जलता, है तो यह जनमत का दण्ड है और अगर वह किसी दैवी प्रकोप से भस्म हुआ है तो इसे धार्मिक दण्ड माना जायेगा।", सुख की गणना-सुखवादी मापक यन्त्र (Hedonistic Calculus) - उपयोगिता का निर्धारण करने में बेन्थम, 172, LOVELY PROFESSIONAL UNIVERSITY