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महाराजा रणजीत सिंह (७७॥॥७॥२५७)४ 1१५।५॥1 5॥५७6॥), , महाराजा रणजीत सिंह का जन्म 2 नवम्बर, 1780 को शुकरचकिया, मिसल के मुखिया महासिंह के घर हुआ., , 1760 के बाद से पंजाब में सिख मिसलों (बराबर के लोगों का संगठन) का, प्रभाव बढ़ने लगा., , किन्तु अठारहवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में सिख मिसलें विघटित होने लगी., रणजीत सिंह ने इस स्थिति का लाभ उठाया और शीघ्र ही तलवार के बल, पर मध्य पंजाब में एक शक्तिशाली राज्य स्थापित कर लिया., , 1799 में रणजीत सिंह ने लाहौर पर अधिकार कर लिया., , 1805 में उसने अमृतसर पर भी अधिकार कर लिया., , इस प्रकार वह सिखों का सबसे महत्वपूर्ण सरदार बन गया., , उसने शीघ्र ही झेलम नदी से सतलुज नदी तक का समस्त प्रदेश अपने, अधिकार में कर लिया।, , गेगरों ऑर नेप्रात्रियों से सम्बन्ध, , जिस समय महाराजा रणजीत सिंह पंजाब के मैदानी भागों पर अपना, प्रभुत्व स्थापित कर रहा था उस समय कांगड़ा का डोगरा सरदार राजा, संसार चन्द कटोच भी आस-पास के पहाड़ी क्षेत्रों में अपने प्रभुत्व का, विस्तार कर रहा था., , 1804 में संसार चन्द ने मैदानी भाग पर अपना ध्यान दिया तथा बजवाड़ा, और होशियारपुर पर आक्रमण किया किन्तु रणजीत सिंह के हाथों पराजय, स्वीकार की., , कुछ समय बाद नेपाल के गोरखा सरदार अमरसिंह थापा ने कांगड़ा को घेर, लिया., , संसार चन्द गोरखों का सामना करने में सक्षम न था अतः उसने रणजीत, सिंह से सहायता की याचना की., , इस सहायता के बदले संसार चन्द ने उसे कांगडा का दुर्ग देने की भी, पेशकश की.
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रणजीत सिंह की सेना ने शीघ्र ही गोरखों की सेना को कांगड़ा से भगा, दिया., , इस प्रकार कांगडा पर रणजीत सिंह का अधिकार हो गया और संसार, चन्द रणजीत सिंह की सुरक्षा में आ गया., , अफगानों से संबंध, , 1773 में अहमद शाह अब्दाली की मृत्यु के बाद अफगान सरदारों के मध्य, झगड़े प्रारंभ हो गए., , अब्दाली के पुत्र शाहशुजा ने काबुल का राज्य प्राप्त करने के लिए रणजीत, सिंह से सहायता की याचना की किन्तु रणजीत सिंह सहायता के संबंध में, कोई निश्चित आश्वासन न दे सका., , अत: शाहशुजा ने कम्पनी का संरक्षण प्राप्त कर लिया., , 1831 में शाहसुजा ने पुनः रणजीत सिंह से सहायता मांगी किन्तु रणजीत, सिंह ने बहुत कठोर शर्ते उसके सम्मुख पेश की., , 1834 में रणजीत सिंह ने पेशावर पर अधिकार कर लिया., संबंध, , रणजीत सिंह पंजाब के समस्त भू-भाग पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना, चाहता था., , अतः उसने सतलुज के पार के प्रदेशों पर अधिकार करना शुरू किया., 1806 के अपने अभियान से उसे दौलधी नगर, पटियाला, लुधियाना, डक्खा,, रायकोट, जगराओं और घुघराना आदि प्रदेश प्राप्त हुए., , अगले वर्ष पुनः उसने सतलुज पार के प्रदेशों पर आक्रमण किया., , इस बार इन प्रदेशों ने अंग्रेजों से सहायता प्राप्त करने में सफलता प्राप्त कर, ली थी., , अंग्रेज गवर्नर मैठकाफ ने रणजीत सिंह को सल्राह दी कि वह सतल्रुज पार, के प्रदेशों पर अपना अधिकार छोड़ दे., , किन्तु 1808 में रणजीत सिंह ने मैटकाफ की सलाह को धत्ता बताते हुए, पुनः सतलुज पार किया तथा फरीदकोट मालेरकोटला और अम्बाला पर, अधिकार कर लिया.
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« किन्तु 1809 में अमृतसर की संधि के बाद रणजीत सिंह यह स्वीकार करने, के लिए बाध्य हो गया कि सतलुज पार के प्रदेशों पर अंग्रेजों का अधिकार, है., , « इस संधि के बाद यद्यपि महाराजा को पश्चिम में अपने राज्य का विस्तार, करने के लिए खुली छूट मिल गई और उसने 1818 में मुल्तान, 1819 में, कश्मीर और 1834 में पेशावर पर अधिकार कर लिया किन्तु इस संधि ने, परोक्ष रूप से यह भी सिद्ध कर दिया कि रणजीत सिंह अग्रेजों का सामना, करने में समर्थ नहीं है., , *« आगे चलकर सिंध और फिरोजपुर के संबंध में भी उसने अपनी असमर्थता, ही प्रकट की।, , रणजीत सिह का प्रशासन, *« रणजीत सिंह ने एक केन्द्रोन्मुखी प्रशासन की स्थापना की., « उसके प्रशासन में महाराजा ही समस्त प्रशासनिक और राजनीतिक शक्तियों, का केन्द्र था., « वह अपने आप को खालसा का सेवक मानता था., « उसने अपनी सरकार को सरकार-ए-खात्रसा जी का नाम दिया., « महाराज की सहायता के लिए एक मंत्रिपरिषद् भी थी., « उसने अपने राज्य को प्रान्तों में बांट रखा था., « प्रत्येक प्रान््त एक नाज़िम के अधीन होता था., « प्रान्तों को जिलों में बांटा गया था., « प्रत्येक जिला एक कारदार के अधीन होता था., « गांवों में पंचायतें कार्य करती थीं।, , भूमि कर व्यवस्था, « भूमिकर सरकार की आय का प्रमुख स्रोत था., « भूमिकर के रूप में सरकार उत्पादन का 33 प्रतिशत से 40 प्रतिशत तक, लेती थी., « यह भूमि की उर्वरता पर निर्भर था।
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न्याय व्यवस्था, , रणजीत सिंह की न्याय व्यवस्था में न्याय एक स्थानीय प्रश्न था न कि, देश का., , स्थानीय प्रशासक स्थानीय परम्पराओं के अनुसार न्याय करते थे., , लाहौर में एक “अदालत-ए-आला” (उच्चतम न्यायालय) की स्थापना की गई, थी., , इस न्यायात्रय में प्रान्तीय और जिला न्यायालयों के निर्णय के विरुद्ध, अपील की जा सकती थी., , दण्ड के रूप में अपराधियों पर बड़े-बड़े जुर्माने किए जाते थे., , इस प्रकार न्याय सरकार की आय का एक बड़ा साधन भी था।, , सैन्य प्रणात्री, , रणजीत ने सर्वाधिक ध्यान अपनी सैन्य व्यवस्था पर दिया., , उसने अपनी सेना का संगठन कम्पनी के नमूने पर किया., , उसने मुख्यत: फ्रांसीसी कमाण्डरों की सहायता से अपनी सेना के गठन, ड्रिल, और अनुशासन का प्रबंध किया., , उसने तोपखाने पर भी समुचित ध्यान दिया., , लाहौर और अमृतसर में तोपें, गोला एवं बारूद बनाने के कारखाने स्थापित, किए गए., , रणजीत सिंह ने सेना में मासिक वेतन देने की प्रणाली आरंभ की., , इस प्रणाली को “माहदारी” कहा जाता था., , 1822 में जनरल वन्तुरा और अलार्ड ने एक विशेष आदर्श सेना का गठन, किया., , इसे 'फौज-ए-खास' कहते थे., , इस सेना का एक विशेष चिन्ह होता था।, , भारत के इतिहास में रणजीत सिंह का उल्लेखनीय महत्व है.
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एक शासक के रूप में उसने सदैव जनहित पर ध्यान दिया., , उसने तलवार के बल पर पंजाब के मध्य भाग में अपने राज्य की स्थापना, की परन्तु रणजीत सिंह को एक रचनात्मक और कुशल राजनीतिज्ञ नहीं, कहा का सकता., , उसने अपने कठिन परिश्रम के बाद जो राज्य बनाया था वह उसकी मृत्यु, के बाद 10 वर्ष के भीतर ही समाप्त हो गया., , इसका प्रमुख कारण यह था कि उसने शासन की समस्त शक्तियाँ अपने में, इतनी अधिक केन्द्रित कर ली थी कि उसकी मृत्यु के बाद इस केन्द्रीकृत, व्यवस्था को कोई संभाल न सका।, , रणजीत सिह के उत्तराधिकार, , रणजीत सिंह पंजाब में एक स्थायी सिख राज्य की स्थापना न कर सका., जून, 1839 में उसकी मृत्यु के बाद राज्य में अराजकता फैल गई और, वास्तविक शक्ति खालसा सेना के हाथ में चली गई., , रणजीत सिंह के बाद उसके अयोग्य पुत्र खड़गसिंह को गद्दी पर बीठाया, गया., , ध्यानसिंह को उसका वज़ीर बनाया गया., , अक्टूबर-नवम्बर, 1839 में ध्यानसिंह ने खड़गसिंह के विरुद्ध विद्रोह कर, दिया., , खड़गसिंह को बन्दी बना लिया गया और उसके पुत्र नौनिहाल सिंह को, गदू्दी पर बिठाया गया., , ध्यान सिंह अब नौनिहाल सिंह का वजीर बन गया., , जनवरी, 1841 में पुनः राजा के विरुद्ध विद्रोह किया गया और महाराजा, रणजीत सिंह के एक अन्य पुत्र शेरसिंह को गद्दी पर बिठाया गया., सितम्बर, 1843 में अजीत सिंह सन्धावाल्रिया ने शेरसिंह की हत्या कर दी., सितम्बर, 1843 में ही महाराजा राणजीत सिंह के एक अन्य अल्पवयस्क, पुत्र दलीपसिंह को गद्दी पर बिठाया गया।