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1.3.1 लिंग, , हिंदी भाषा में संज्ञा शब्दों के लिंग का प्रभाव उनके विशेषणों तथा क्रियाओं पर पडता है।, अतः: भाषा के शुद्ध प्रयोग के लिए संज्ञा शब्दों के लिंग-ज्ञान का होना अत्यावश्यक होता है।, , किंग” का शाब्दिक अर्थ. प्रतीक या चिहन अथवा निशान होता है। संज्ञाओं के जिस रूप से, , उसकी पुरुष जाति या स्त्री-जाति का पता चलता है, उसे ही किंग, कहा जाता है..., लिंग के दो प्रकार होते हैं- लौकिक और व्याकरणिक। इसमें छौकिक लिंग तीन हैं- नर,, मादा तथा निर्जीव या निलिंग। इसे ही पुल्लिंग, खीलिंग तथा नपुंसक लिंग कहा जाता है। अत: संसार, में सभी नर जीव पुल्लिंग, मादा जीव स्त्री किंग और शेष निर्जीव या निलिंग हैं। डॉ. माधव सोनटक्के, दूवारा लिखित 'प्रयोजनमूलक हिंदी' के आधार पर लिंग-निर्धारण पर सामान्य विवेचन किया जा, , सकता है।, , लिंग-निर्धारण के साधन , संज्ञा के जिस रूप से उसके स्त्रीवाची ग्रा पुरुषवाची होने का बोध हो, उसे लिंग कहते हैं।, प्राणिवाचक .संज्ञा के लिंग-निर्धारण में प्राकृतिक लिंग के आधार पर उसका लिंग-निर्धारण किया जा, सकता है। दूसरी ओर अप्राणिवाचक शब्दों के लिंग बहुत कुछ माने हुए होते हैं। उसका अधिकतर, निर्धारण लोक व्यवहार से किया जाता है। साथ ही इसके लिए कुछ साधन भी है। आ. देवेंद्रनाथ, शर्मा ने अपनी पुस्तक में प्रमुख चार साधन बताए हैं- 1) अर्थ, 2) रूप, 3) सादृश्य और 4), साहचर्य। जिसका विवेचन इस प्रकार है, 1. अर्थ , अर्थ के आधार पर लिंग-निर्धारण वहाँ होता है, ज़हाँ स्पष्टता पुरुष या स्त्री का ज्ञान हो।, जैसे- पुरुष (पु.), नारी (स्त्री)। ऐसे ही पति-पत्ली, बैलं-गाय आदि के निर्णय में कोई कठिनाई, नहीं आती है। किंतु किसी भी भाषा के सभी शब्द प्राणिवाचक ही नहीं होते हैं और प्राणिवाचक, में भी सर्वत्र इस नियम का पालन नहीं होता है। जैसे- हिंदी में 'कोयल' शब्द का व्यवहार हमेशा, स्त्रीलिंग में होता है, परंतु उसमें भी नर और मादा दोनों हुआ करते हैं।, , , , , , , , , , , 2. ४रूप , व्याकरणिक लिंग-निर्धारण के लिए शब्दों के रूपों की पहचान अधिक सहायक होती हैं।, व्याकरणिक लिंग का निर्धारण शब्दों में लगे प्रत्ययों से होता है, अर्थात् शब्दों के रूप प्रंत्यय से ..
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हँ & ० जे, हा होते हैं। एक प्रत्यय से निष्पनन सभी शब्द के एक रूप होते हैं। इसलिए प्रत्येक भांषा हिंग-निर्धारण में रूपों की सहायता लेती है। जैसे- संस्कृत-में नियम है कि, 'धज्' प्रत्यय से बने, सभी शब्द पुल्लिंग होंगे। हिंदी में आ' प्रत्यय से बने शब्द पुल्लिंग हैं तथा- ईः प्रत्यय से बने शब्द, स्त्रीलिग। जैसे कि, लड़का > लडकी, घोड़ा > घोडी, बकरा > बकरी। फिर भी सभी शब्दों का, , लिंग-निर्धारण मात्र रूपों के आधार पर नहीं होता है। जैसे कि पति-पत्नी दोनों के अंत में इ, है, लेकिन दोनों अहग-अलग लिंगी शब्द है। * >, , 3. सादृश्य , बहुत सारे शब्दों का लिंग दूसरे शब्दों के अर्थगत् या रूपगत् सादृश्य के कारण निर्धारित होता “, , है। जैसे- पूँछः शब्द के रूपगत सादृश्य के आधार पर 'मूँछ' भी स्त्रीलिंगी रूप में प्रयुक्त होता, , है। इसमें अरबी-फारसी शब्दों का प्रभाव दृष्टिगत होता है। आचार्य देवेंद्रनाथ शर्मा के शब्दों में, इस असंगति पर विचार करने के बाद में इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि इन शब्दों में लिंग-विपर्यय, , में फारसी-अरबी के तदर्थबोधक शब्दों का प्रभाव हैं। एक भाषा बोलने का जैसा अभ्यास रहता है, , दूसरी भाषा बोलते समय उसका प्रभाव अनायास पड़ जाता है। जैसे- हिंदी में बहुत सारे परिवर्तन, , . विशेषकर वाक्यों में, अंग्रेजी के प्रभावस्वरूप न हैं। अत: यह परिवर्तन सादृश्य के प्रभाव स्वरूप, स्पष्ट होता है। , , , , , , , , «. साहचर्य , साहचर्य से कुछ शब्दों के लिंगों में परिवर्तन होता रहां है। जैसे- धूप-छाँह' इस शब्द में, धूप” शब्द मूलतः पुल्लिंग है, लेकिन 'छाँह' शब्द के साहचर्य के कारण उसका प्रयोग. स्त्रीलिंग में, होने लगा है।, , संक्षेप में, किसी भी भाषा की लिंग-व्यवस्था ऋतु-रेखा में चलनेवाली वस्तु नहीं होती है।, +. वह कई प्रकार से प्रभावित होकर परिवर्तित भी होती रहती है। अतः उसके लिए अपवादहीन नियम, 1 नहीं बनाए जा सकते हैं। इस दृष्टि से डॉ. हरदेव बाहरी व्याकरंणिक लिंग-निर्धारण में छोक-व्यवहार, को ही महत्त्वपूर्ण स्थान देते, , , , हंदी लिंग-व्यवस्था : ऐतिहासिक संदर्भ, , उसमें जहाँ अपना वैशिष्ट्य है, वहाँ संस्कृत, विकास संस्कृत से हुआ है। इसलिए उस, गा समन्वय भी है । जैसे कि, बेटी अपनी माँ से, भिन्न होती हुई भी वह बहुत सारी, , “वैशिष्ट्य का समन
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७2%, , , , , , रहा है। ि, , हे, , ४, , विशेषताएँ लेकर, , 1], , फ्, उत्पन्न होती है। वह अपने समय और अपनी +, है। लिंग-व्यवस्था के थरातल पर भी संस्कृत और हिंद श, , ही, बनाती, , 1, व्यक्तित्व को बना हि, , कह, छः, ढ़, , _/ल्लें, , भाषा का विकास कठिन से सरल की ओर होता है। इसी नियम के तहत संस्य, हिंदी तक आते-आते भाषा में क्लिष्टता को छोड़कर सरलता को अपनाने का प्रयास दिखाई देता, है। फिर भी इसी प्रयास में कभी, कुछ क्लिष्टता आ ही जाती है। साथ ही लिंग-व्यवस्था में, अनियमितता भी दिखाई देती है। यह बात संस्कृत तथा आर्य भाषाओं से स्पष्ट होती है। इसो, , परिप्रेक्ष्य में अपभ्रेशों से विकसित आधुनिक आर्य भाषाओं के लिंग के आधार पर तीन वर्ग बनाएं, जा सकते, , 1) प्रथम वर्ग पश्चिमोत्तरी है, जिसमें हिंदी, पंजाबी, सिंधी, राजस्थानी आदि हैं। यह वर्ग बिना, किसी प्रभाव के अपभ्रंश का सहज विकास है।, , 2) दूसरा वर्ग बंगला-असमी-उड़िया तथा अंशत: बिहारी का है। इस पूर्वी वर्ग पर तिब्बती- बर्मी एवं कोल भाषाओं का प्रभाव पड़ा है। इसी कारण इसमें लिंग-भेद बहुत ही कम, है। ह हु जे, 3) तीसरा वर्ग दक्षिणी है, जिसमें मराठी, गुजराती है। यह द्रविड़ भाषाओं से प्रभावित है। , इसीकारण अभी तक इन भाषाओं में तीन लिंग हैं। पुरानी पश्चिमी राजस्थानी तथा ._, मारवाडी भी इसी वर्ग में आती है। रे 3, अत: हिंदी प्रथम वर्ग की भाषा है। इसमे पुल्लिंग और स्त्रीलिंग दो ही -लिंग हैं। सम्धिकालीन रू, हिंदी में नपुंसक लिंग के अवशेष दीख पड़ते हैं, लेकिन आधुनिक हिंदी में केवल कुछ प्रयोगों में, , नपुंसक लिंग का प्रयोग मिलता है। अधिकांश रूप में नपुंसक लिंग. लुप्त-सा है। इसी तरह हिंदी 5, , की प्राचीन भाषाओं की तुलना में एक लिंग कम हुआ है। अत; पूर्ववर्ती नपु.' शब्द हिंदी में पुल्लिंग, , या स्त्रीलिंग में अन्तर्भूत हो गए हैं।, , , , हिंदी शब्दों के लिंग-निर्णय : कुछ नियम , हिंदी की लिंग-व्यवस्था संस्कृत-लिंग-व्यवस्था के कुछ विधान से या कुछ अपने नये-विधान .. |, से बनी है। यद्यपि शब्दों के लिंग-निर्धारण के विशेषकर अप्राणिवाचक संज्ञाओं के कोई व्यापक, और सिद्ध नियम नहीं है। अधिकांश रूप में उसका निर्धारण लोक-व्यवहार से किया.जाता है। इसी जप, परिप्रेक्ष्य मे लिंग-निर्णय के कुछ निग्रम इस प्रकार हैं