Page 2 :
रहीम, (जन्म : सन् 1556; मृत्यु : सन् 1626), इनका पूरा नाम अब्दुर्रहीम खानखाना था। ये प्रसिद्ध मुगले सम्राट अकबर के, सेनापति और अभिभावक बैरमखान के पुत्र थे । रहीम कई भाषाएँ जानते थे ।, 'रहीम' इनका उपनाम था। तुलसीदास, केशवदास आदि समकालीन कवियों से, इनका अच्छा परिचय शा। मुसलमान होते हुए भी आपने अपनी काव्य रचना, हिन्दी में करके जो उदार हृदय का परिचय दिया है, वह प्रशंसनीय है। जाति-पाँति, के भेदभाव से दूर रहकर भक्ति, नीति और प्रेम विषयों पर रचनाएँ की हैं । उनके, दोहों और बरवै छन्दों में जनसामान्य का दुख-दर्द, प्यार, उदासी झलकती है। रहीम, के दोहों की अभिव्यक्तियाँ दरअसल उनके अपने निजी जीवन से सम्बन्धित हैं, उनकी पत्नी और उनके तीन पुत्रों का देहावसान उनके सामने ही हो गया था ।, बाद में जहाँगीर के शासनकाल में उन्हें बादशाह का कोपभाजन भी बनना पड़ा।, इन सभी के परिणामस्वरूप उनकी कविताओं में एक खास तरह की उदासी और, व्यंग्य के दर्शन जगह-जगह होते हैं । 'बरवै नायिका भेद' और 'रहीम रतसई, उनकी प्रसिद्ध पुस्तकें हैं ।, सुख-दुख की अनेक परिस्थितियों का उन्हें व्यक्तिगत अनुभव था । इस, प्रकार जीवन और जगत के यथार्थ का उन्हें गहरा अनुभव था। रहीम ने अपने, विचारों को सीधे-सादे ढंग से व्यक्त किया है। काव्य कौशल दिखाने का प्रयास, नहीं किया। इनके काव्य में आत्मसम्मान, अयाचकता, परोपकार, दया, गुणी का, आदर, संयम, सहनशीलता, दुख, निराशा, भाग्यवाद आदि अनेक विषयों पर, विचार किया गया है। राजनीति, समाजनीति, परिवारनीति और भक्ति सम्बन्धी, रचना भी इन्होंने की है। प्रधानता नीति को ही है।, 1., 1.
Page 4 :
विषय-भोग में लिप्त रहना भी भक्ति में बड़ी बाधा है। इसके संबंध में रहीम कहते हैं कि 'सांसारिक विषय, भोगों में लिपटा आसक्त मानव श्रीराम को उसीप्रकार अपने हृदय में धारण नहीं करता, जिस प्रकार पशु घास-, फूस, को स्वाद लेकर खाता है। परंतु गुड़ को बलपूर्वक ढूँसने पर ही खाता है । इसी प्रकार विषय-भोगी मनुष्य, विषयों का भोग तो सहर्ष करता रहता है । परंतु श्रीराम की भक्ति विवश होकर ही करता है।, 2. दर्शन (जीवन की क्षणभंगुरता तथा जीवन की नश्वरता ) ( दोहा क्र. 3, 4) :, कविता चिंतनपरक होती है अतः उसमें दर्शन की अभिव्यक्ति सहज स्वाभाविक है | रहीम के दोहों में, भी दर्शन-सिद्धांतों संबंधित अनेक भावों की अभिव्यक्ति हुई है। सभी दार्शनिकों ने जीवन की क्षणभंगुरता के, सिद्धांत को निर्विवाद रूप से स्वीकार किया है। कवियों ने भी अनेक शैलियों में इसकी अभिव्यक्ति की है।, रहीम ने जीवन की क्षणभंगुरता का नगारे के रूपक में अभिव्यक्ति की है । जीवन की क्षणभंगुरता का वर्णन करते, हुए रहीम कहते हैं कि, 'संसार में आठों प्रहर अर्थात हरसमय जाने का नगारा बजता रहता है। अर्थात् हर समय, w., मानव की मृत्यु होती रहती है। कोई भी मनुष्य इस जग में आकर स्थायी रुप से निवास नहीं करता।, रहीम ने जीवन की क्षणभंगुरता को व्यक्त करते बतलाया है कि, मानव किसी भी समय काल-, हो सकता है इसीलिए जीवन में हमेशा अच्छे कर्म करते रहने चाहिए। रहीम कहते हैं कि, 'सुनो! यदि तुम्हें, कोई सत्कार्यरुपी सौदा करना है तो इसी बाजार-रूपी जीवन में करता चल, नहीं तो तुझे फिर सौदा करने का, अवसर नहीं मिलेगा, क्योंकि तुझे फिर मृत्यु रूपी मार्ग पर दूर चले जाना है ।, 3. नीति कथन (दोहा क्र. 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10) :, रहीम का जीवन संघर्षशील रहा है। उन्होंने सम्मान से लेकर अपमान तक और श्रेष्ठ पदों से विभूषित होने, से वंचित करा देने के सभी जीवनानुभव भोगे हैं। उनका नीति-कथन उनकी स्वानुभूतियों का ही परिपाक है। रहीम, ने जीवन के विविध पक्षों का उद्घाटन करते हुए नीतिवचन कहे हैं।, रहीम ने अपने जीवन में कई उतार-चढाव देखे हैं इसलिए रहीम किसी भी परिस्थिति में गर्व ना करने की, बात कहते हैं, 'विपत्ति काल में मनुष्य के पास का धन लुट जाता है। किसी के पास चाहे लाख, करोड़ रुपये, क्यों न हो लेकिन विपत्ति आनेपर वह धन ऐसे लुट जाता है जैसे भोर होने के बाद आकाश के अनगिनत तारों, में से एक भी तारा दिखाई नहीं देता, सभी तारे छिप जाते हैं।, 6., संगति-कुसंगति संबंधी रहीम के दोहे विशेष प्रभावोत्पादक हैं । जो व्यक्ति जैसी संगति पाएगा, उसे वैसा, ही फल मिलेगा। इस भाव को स्पष्ट करने के लिए रहीम ने स्वाति --, उदाहरण दिया है। रहीम कहते हैं 'बूँद तो एक होती है मगर उसके गिरनेपर संगति के अनुरूप उसके तीन रूप, होते हैं। यदि वह केले पर गिरती है तो कपूर बन जाती है, यदि वह सीपी में गिरती है तो मोती बन जाती है, और यदि वह साँप के मुख में गिर जाती है तो वह विष बन जाती है।' अर्थात् संगति के, नक्षत्र में बादलों से गिरनेवाली बूँद का, अनुरूप फल मिलता है।, मनुष्य को अपना आत्मसम्मान बहुत प्रिय होता है, जहाँ उसके घटने की संभावना नजर आती है वहाँ, 29