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प्रश्न--मुहावरे और लोकोक्ति को परिभाषित करते हुए इनका अर्थ ,महत्व ,स्वरूप, विशेषताएं स्पष्ट करके मुहावरे और लोकोक्ति में अंतर बताएं।, उत्तर--मुहावरे और लोकोक्तियां भारतीय लोक साहित्य में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। यह दोनों लोक साहित्य के प्राण है और साहित्य इन के माध्यम से प्राचीन समय से ही अपनी पहचान और अस्तित्व कायम रखे हुए हैं। इनका प्रारंभ मानव जनजीवन के प्रारंभिक काल से माना गया है। आम जनजीवन में इनका स्थान नीति शास्त्र के सदृश है। इसलिए हिंदी भाषा और हिंदी व्याकरण के निरंतर विकास में इन दोनों तत्वों की अति महत्वपूर्ण भूमिका रही है जिसका अध्ययन निम्नलिखित तथ्यों के आधार पर किया जाएगा।, मुहावरे का शाब्दिक अर्थ एवं स्वरूप, मुहावरा मूलत अरबी भाषा का शब्द है। अरबी भाषा का मुहावर: शब्द हिंदी में मुहावरा हो गया है। इसका अर्थ अभ्यास या आपसी बातचीत है। इंग्लिश में इसे idom कहते हैं यह शब्द फ्रेंच और ग्रीक भाषा से आया है। हिंदी में मुहावरा एक पारिभाषिक शब्द बन गया है जिसका अर्थ वाग्बंध है। इसका व्यापक और गहरा अर्थ है। इसके अर्थ की सिद्धि लक्षणा और व्यंजना शक्तियों पर निर्भर है। जब कोई वाक्य या वाक्यांश अपने साधारण अर्थ को छोड़कर उनसे विलक्षण अर्थों को प्रकट करते हैं तो उसे मुहावरा कहते हैं।, मुहावरा किसी भाषा अथवा बोली में प्रयोग होने वाला वह वाक्य खंड है जो अपनी उपस्थिति से समस्त वाक्य को सजीव रोचक और चुस्त बना देता है। विश्व में मनुष्य ने अपने लोक व्यवहार में जिन जिन वस्तुओं और विचारों को बड़ी उत्सुकता से देखा है समझा है और दोबारा दोबारा उनका अनुभव किया हुआ है उनको सार्थक शब्दों में बांध दिया है वही मुहावरे कहलाते हैं।, लोक साहित्य में मुहावरों का बहुत अधिक प्रयोग किया जाता है। ग्रामीण लोग मुहावरों की भाषा में ही बात करते हैं। हिंदी की विभिन्न बोलियों जैसे ब्रज अवधी भोजपुरी खड़ी बोली हरियाणवी राजस्थानी आदि में मुहावरों का अक्षय भंडार उपलब्ध होता है। यदि इन मुहावरों का ग्रहण हिंदी भाषा में किया जाए तो हमारी राष्ट्रभाषा का सहित बहुत विशाल और समृद्ध हो जाएगा। मुहावरों का प्रयोग मानव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आजकल बहू व्यापक रूप से हो रहा है और यह मुहावरे आज मानव जीवन की रोजमर्रा जिंदगी के अभिन्न हिस्सा बन गए हैं।, परिभाषा, "किसी भाषा विशेष में प्रचलित मुहावरा ऐसा प्रयोग है ऐसे शब्दों का समूह है जिसका लक्ष्यार्थ या व्यंग्यार्थ लिया जाता है।"--भाषा विज्ञान कोश, "मुहावरा उस गढ़े हुए वाक्यांश को कहते हैं जिससे कुछ लाक्षणिक अर्थ निकलता हो"--रामचंद्र वर्मा, "मुहावरा वाक्य के बाहर कभी नहीं जाता और अपना असली रूप कभी नहीं बदलता"---रामनरेश त्रिपाठी, "मुहावरा ऐसे संगठित समूह का नाम है जो अपना साधारण अर्थ नहीं अपितु एक विशेष अर्थ प्रकट करता है--शंकर लाल यादव, महत्व, मुहावरों का प्रयोग बहुत व्यापक है हमारे जीवन का ऐसा कोई भी कार्य नहीं जो मुहावरों के बिना प्रयोग होता है। मुहावरों का प्रयोग बार-बार होने से वह मनुष्य को गति देते हुए घर गिरस्ती के कामकाज प्रकृति के विभिन्न तत्वों का मा दिन-रात पशु-पक्षी पेड़-पौधे जीव जंतु आदि से गहरा नाता रखते हैं और घनिष्ठ भाव से जुड़े हैं और साथ ही सामाजिक जीवन की रूढ़ियों परंपराओं का उल्लेख इन में रहता है। देश की आर्थिक स्थिति राजनीति इतिहास और संस्कृति का व्यापक चित्रण मुहावरों में मिलता है इसलिए इस बात की आवश्यकता है कि इनका संपादन और संकलन वैज्ञानिक विधि से किया जाए। वास्तव में मुहावरे किसी भाषा की यथार्थ संपत्ति होते हैं। इन के माध्यम से स्थानीय जीवन और समाज की विभिन्न परंपराओं और विश्वासों का पता चलता है। इनका महत्व साहित्य और ज्ञान के क्षेत्र में भी है।, वाक्यों में प्रयोग होने पर मुहावरों में प्रयुक्त क्रिया लिंग वचन काल कार्य के अनुसार अपना रूप बदल लेती है। मुहावरों के प्रयोग से भाषा में लाक्षणिकता ,विशिष्टता, सहजता ,प्रभावशीलता ,चमत्कार की क्षमता बढ़ जाती है वास्तव में मुहावरा वाक्य में प्रयोग होता है लेकिन अपने आप में संपूर्ण वाक्य नहीं होता।, मुहावरे की विशेषताएं, मुहावरे की विशेषताएं इस प्रकार हैं------, 1. मुहावरे का अर्थ बिना उसको वाक्यों में प्रयोग किए बिना स्पष्ट नहीं होता।, 2.. मुहावरे शब्दार्थ को छोड़कर हमेशा किसी विशेष अर्थ को स्पष्ट करते हैं।, 3.. मुहावरे का प्रयोग प्रसंग विशेष में ही किया जाता है।, 4. मुहावरा वाक्य का अनिवार्य अंग बनकर रहता है इसकी कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है, 5.. मुहावरा अपने मूल रूप में ही प्रयोग होता है यदि इसमें पर्यायवाची शब्द का प्रयोग किया जाए तो मुहावरा नष्ट हो जाता है जैसे कमर टूटना एक प्रसिद्ध मुहावरा है यदि इसके स्थान पर इसके पर्यायवाची शब्द जैसे कटि भंग होना लिखा जाए तो वह उसके विशेष अर्थ को स्पष्ट नहीं कर पाएगा।, 6.. मुहावरे में जो शब्द जिस रूप में प्रयोग होता है उसको बदला नहीं जा सकता जैसे आंख का पानी मर जाना मुहावरा है तो पानी की जगह जल मर जाना नहीं लिख सकते भले ही जल पानी का पर्यायवाची है।, 7. मुहावरे में शब्द आगे पीछे नहीं किए जा सकते इससे अर्थ का अनर्थ हो सकता है जैसे घड़ों पानी पड़ना के स्थान पर बाल्टी पानी पड़ना नहीं हो सकता। दाल गल ना की जगह चने गलना नहीं लिख सकते अर्थात मुहावरे में शब्दों का रूप और वाक्य का गठन रुढ़ और निश्चित रहता है।, 8.. मुहावरे के अर्थ पर प्रसंग के अनुसार बदलते रहते हैं जैसे आंख लगना के अनेक अर्थ है जैसे नींद आ जाना किसी वस्तु पर दिल आ जाना और प्यार हो जाना मुहावरे वाक्य के बीच में प्रयोग किए जाते हैं।, 9.. मुहावरे का लोकोक्ति की भांति अमिता से विशेष संबंध नहीं होता अपितु लक्षणा के द्वारा ही अर्थ की व्यंजना की जाती है जैसे नौ दो ग्यारह होना हिंदी का मुहावरा है जिसका अर्थ है अपने स्थान से भाग जाना। यह अर्थ लाक्षणिक है अर्थात प्रत्यक्ष के भीतर छिपा हुआ अप्रत्यक्ष अर्थ है। जबकि सामने दिखाई देता अर्थ यह है 9 प्लस 2 अर्थात 11 जो संख्या का सूचक है जबकि लाक्षणिक अर्थ है भाग जाना।, इकाई वन----पत्र लेखन, प्रश्न ---पत्र लेखन या पत्राचार से क्या अभिप्राय है। इसका अर्थ स्वरूप और महत्व स्पष्ट करें। पत्र कितने प्रकार के होते हैं और अच्छे पत्र लेखन के क्या-क्या गुण होने चाहिए?, उत्तर---पत्र लेखन का अभिप्राय अर्थ और स्वरूप, आधुनिक युग सबसे अधिक व्यस्ततम और व्यवसायिक भौतिक गतिविधियों का योग है। सामान्य जन परस्पर संपर्कों को महत्व देते हुए एक दूसरे से भलीभांति परिचित होना चाहते हैं। भिन्न भिन्न प्रकार की संस्थाओं से जुड़कर अपनी सक्रियता और कर्मठता को प्रदर्शित करना चाहते हैं। क्योंकि भारत एक व्यवस्थित और लोकतांत्रिक ढांचे पर आधारित है इसलिए अधिकांश क्रियाकलाप सामान्य जन के आपसी सहयोग तथा मैत्री भाव से संपन्न हो सकते हैं। इसके लिए आपसी विचार विनिमय की तीव्र आवश्यकता होती है और एक दूसरे से विचारों के आदान प्रदान करने के लिए लिखित रूप में पत्र लेखन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका रही है।, पत्र माध्यम निर्विवाद सबसे शक्तिशाली और वैचारिक माध्यम है। इस माध्यम से आमजन आपस में संदेश और मंतव्य सरलता और सहजता के साथ एक दूसरे के तक प्रेषित कर सकते हैं। लेखक के व्यक्तित्व की छाप अपने आप पत्र के माध्यम से झलक जाती है विशेष रूप से व्यक्तिगत पत्रों के पाटन से हम सहजदा से अपने परिचित व्यक्ति के अच्छे और बुरे स्वभाव और मनोवृति का परिचय पा सकते हैं। पत्र वास्तव में एक पुल या सेतु के समान है जो संभाजी या विषम भाषी जनों के मनोभावों को परस्पर जोड़ती है। सैकड़ों मील दूर बैठे किसी भी आत्मीय जन से संपर्क स्थापित करके हम पत्र के माध्यम से उसकी भावनाओं से परिचित हो सकते हैं और आपस के सुख दुख बांट सकते हैं और आवश्यकता पड़ने पर एक दूसरे का मार्गदर्शन करते हुए उचित परामर्श दे सकते हैं।, वास्तव में पत्र लेखन का मूल प्रयोजन आपसे विचारों और भावनाओं का लेनदेन रहता है। अच्छा और सफल पत्र लेखन वही है जहां शब्दों की सरलता और सहजता हो और आपस में लिखी हुई बातों को आसानी से संप्रेषित और समझाया जा सके। पत्र लेखन एक कला है और यह कला निरंतर अभ्यास के साथ निखरती है संवरती है। हम शब्दों की कलाबाजी यों से एक दूसरे को प्रभावित कर सकते हैं। आज के अत्याधुनिक तकनीक के विस्तार के बावजूद जो संवेदनशीलता भावुकता अपनापन और लगाव पत्रों के शब्दों से झलकता है वैसा किसी अन्य तकनीकी प्रयोग से नहीं।, पत्र लेखन एक सजीव कला है जिसके द्वारा हम अपने लेखन की पूर्ण कार्य क्षमता और परिपक्वता को बखूबी दर्शाते हैं वास्तव में पत्र किसी भी मानव के व्यक्तित्व का जीवंत आईना है। पत्र हमारे रोजमर्रा की जिंदगी का अनिवार्य हिस्सा है। बचपन में जहां व्यक्तिगत पत्रों के द्वारा सगे संबंधियों मित्रों और सहेलियों के भावों का आदान प्रदान करते हुए कुशल क्षेम पूछी जाती है वही व्यस्क होने पर पत्रों का दायरा बहुत व्यापक हो जाता है। व्यवसायिक जीवन से जुड़ने पर विभिन्न कार्यालयों संस्थाओं सभाओं समितियों और विभागों से वास्ता पड़ने पर हमें पत्र लिखने की जरूरत पड़ती है। बचपन में लिखे पत्रों में भावुकता और कच्चा पान होता है लेकिन जैसे जैसे विचार विकसित होते हैं वैसे वैसे पत्रों में औपचारिकता रूखापन और भाषागत प्रौढ़ता का समावेश होने लगता है। इसके अतिरिक्त जन्मोत्सव विवाह समारोह आदि अवसरों पर निमंत्रण पत्र तथा नव वर्ष और त्योहारों आदि पर शुभकामनाओं के पत्र भेजे जाते हैं किसी की मृत्यु होने पर शोक सूचक पत्र भेजने की परंपरा है। इस प्रकार पत्र लेखन की जरूरत जिंदगी में उपलब्ध अनेक शुभ और अशुभ अवसरों के अनुकूल बनी हुई है। इसके महत्व को हम नकार नहीं सकते और ना ही उपेक्षित कर सकते हैं इसलिए हमें आधुनिक तकनीकों के बावजूद आज के दौर में पत्र लेखन की प्राचीन परंपरा को जीवित बनाए रखना है और इसका उपयोग क्षमता अनुसार करते जाना है।, पत्र लेखन की विशेषताएं, पत्र लेखन के समय हमें निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए, 1. पत्र लेखन का उद्देश्य स्पष्ट होना चाहिए।, 2. इधर उधर की बातें ना लिखें और बातों को दोहराया ना जाए, 3.. भाव एकदम स्पष्ट होने चाहिए।, 4. भाषा सरल और स्पष्ट हो तथा कठिन शब्दावली से बचें, 5. दोनों अलंकारों कविता और कहावतों का प्रयोग यथास्थल किया जाए क्योंकि इससे संप्रेषण में बाधा आती है।, 6. पत्र समाप्ति के बाद यदि कुछ लिखना रह गया हो तो पुनश्च कहकर अपनी बात कही जाए।, 7.. सरकारी और सार्वजनिक पत्रों का प्रधान गुण संक्षिप्त होता है इसका यथा स्थल प्रयोग किया जाए।, 8. औपचारिक पत्र में विषय अवश्य लिखें।, 9. अपनों से बड़ों का नाम संबोधन में ना लिखें।, पत्रों के प्रकार, विभिन्न अवसरों पर विभिन्न मनोवृति वाले जनों को पत्र लिखने की तरीका और शैली भी भिन्न-भिन्न होती है। इस दृष्टि से पत्र को मुख्य रूप से दो भागों में बांट सकते हैं---, 1.. अनौपचारिक पत्र, 2.. औपचारिक पत्र, अनौपचारिक पत्र, अनौपचारिक पत्र के द्वारा हम अपने संबंधियों और मित्रों को लिखे गए पत्र से कुशलता का समाचार पूछते हैं और अन्य प्रकार के समाचार लिखे जाते हैं। इन पत्रों की भाषा बहुत सरल और सहज होती है तथा इनमें अपनापन और गहरा लगाव झलकता है क्योंकि इसमें भावनाओं का प्रवाहा निरंतर बना रहता है। किसी किस्म का दौरा व्यापार यहां नहीं होता हम ऐसे सीधे-सीधे वाक्य लिखते हैं जैसे प्रश्न पर बातचीत कर रहे हो। इन पत्रों में आत्मीयता और स्नेह का अभाव प्रस्फुटित होता है। पारिवारिक पत्र, सामाजिक पत्र, व्यक्तिगत पत्र इसी कोटि के होते हैं।, औपचारिक पत्र, और चारिक पत्र सरकारी कार्यालय और व्यवसायिक स्तर पर लिखे जाते हैं। ऐसे पत्र प्राया उन लोगों को लिखे जाते हैं जिनसे हमारा व्यक्तिगत संबंध नहीं होता इन पत्रों में हम केवल आवश्यक बातों का वर्णन करते हैं। संबंधों की दूरी होने के कारण इन पत्रों की भाषा मर्यादित अनुशासित और परंपरागत होती है। कार्यालयों से जुड़े पत्र, व्यापारिक पत्र और सार्वजनिक पत्र इसी कोटि में आते हैं।, कार्यालयी पत्र, कार्यालयों में विभिन्न कार्यों का संचालन सुचारू रूप से हो इसके लिए पत्रों का आपस में आदान-प्रदान किया जाता है।, व्यापारिक पत्र, व्यापारिक जरूरतों के अनुसार माल के खरीदारों और ग्राहकों के बीच तथा थोक विक्रेताओं और परचून विक्रेताओं के मध्य लेनदेन के लिए पत्र व्यवहार करना जरूरी हो जाता है।, सामाजिक और सार्वजनिक पत्र, सार्वजनिक रूप से विख्यात और उच्च पद पर आसीन विभिन्न अधिकारियों नेताओं तथा अन्य समाजसेवियों से असंख्य बार आमजन को पत्र व्यवहार करना पड़ता है। इसमें निजी स्वार्थ हित तो कभी-कभी औपचारिकता की भूमिका रहती है। इन में व्यक्तिगत संबंध नहीं होता।, अच्छे पत्र के गुण और विशेषताएं, पत्र आपस में विचारों को सांझा करने का एक मजबूत माध्यम है। प्राप्तकर्ता यदि पत्र पढ़कर पत्र लिखने वाले का उद्देश्य और मंतव्य समझ लेता है तो वह सर्वश्रेष्ठ पत्र माना जाता है। अच्छे पत्र की भाषा सरल और बहुत गम में होनी चाहिए ताकि पत्र लेखक के विचारों को समझा जा सके। और इसके साथ पत्र पढ़ने वाले पर वांछित प्रभाव भी डाल सके। पत्र निबंध की भांति लंबे चौड़े नहीं लिखे जाते इनमें कम से कम शब्दों में अधिक बातें लिखी जाती हैं। एक अच्छे पत्र के निम्नलिखित गुण होने चाहिए।, संक्षिप्तता, अपनी बात कहने के लिए आवश्यक शब्दों का ही प्रयोग करना चाहिए। यही एक पत्र की संक्षिप्त था कहलाती है। अनावश्यक और अर्थहीन शब्दों से बचें क्योंकि हो सकता है इससे पत्र पढ़ने वाला आपकी बात को भलीभांति समझ ना पाए पूर्णविराम संक्षिप्त का से अर्थ पत्र के आकार का छोटा या बड़ा होना नहीं है अपितु यह उस में आया हुआ एक विवरण है। आप ने 2 पृष्ठों का पत्र लिखा लेकिन काम की बात केवल दो ही वाक्यों में है तो ऐसे पत्र का क्या औचित्य रहेगा। यह पत्र तभी संक्षिप्त माना जाएगा जब उसमें लिखा एक भी शब्द अनावश्यक ना हो इसलिए प्रति सोच समझ कर लिखना चाहिए और जो भी बात लिखी जाए वह 90 तोले शब्दों में होनी चाहिए। पूछी गई बात का सीधा और स्पष्ट उत्तर देना ही उचित है। अनावश्यक स्पष्टीकरण से बचा जाए तो बेहतर रहेगा।, सरलता, पत्र में सरलता से तात्पर्य भाषा की सरलता से है पत्र की भाषा ऐसी हो कि पत्र पढ़ने वाला लिखी हुई बात को शीघ्र ही अच्छी तरह समझ जाए। बड़े-बड़े शब्दों का मोह छोड़कर छोटे-छोटे बोद्ध गम में तथा दैनिक जीवन में काम आने वाले शब्दों का प्रयोग करना ही उचित रहता है। वाक्य छोटे और सरल हो और क्रम उनका इस प्रकार से हो की बात यहां विचार समझने में पत्र पाने वाले को किसी तरह की कठिनाई ना हो।, प्रभावशीलता, अच्छे पत्र में प्रभावशीलता उत्पन्न करना बहुत आवश्यक है। पत्र की भाषा ऐसी हो कि वह पत्र प्राप्त करता को भलीभांति प्रभावित कर सके। शब्दावली इतनी शक्तिशाली हो कि पढ़ कर ही मन में सजीव चित्र का बिंब प्रस्तुत कर दें। पत्र को प्रभावित पदक बनाने के लिए मुहावरेदार भाषा का प्रयोग यथा स्थल किया जा सकता है जैसे मुझे विश्वास है इस कार्य में आप अवश्य ही सफल होंगे इस वाक्य को इस प्रकार से लिखा जाए तो ज्यादा प्रभावशाली बनेगा जैसे मुझे विश्वास है सफलता आपके कदम चूमेगी यहां दीदी वाक्य अधिक प्रभावशाली बन पड़ा है इसीलिए शब्दों का चुनाव पाठकों की भावनाओं का स्पर्श करने वाला हो तो पत्र पढ़ने से पूर्व उसके प्रति जिज्ञासा बनी रहेगी और वह अवश्य ही प्रभावी बनेगा, स्वाभाविकता, सहजता का अर्थ है स्वाभाविक था अर्थात जैसे आपसी बातचीत में हम बहुत सहज और आमजन भाषा का प्रयोग करते हैं उसी प्रकार भाषा में ऐसी ही शब्दावली का प्रयोग करना चाहिए। पत्र में यदि वार्तालाप जैसी शैली आ जाए तो भाषा समझने में सुविधा रहती है। पत्र में अपनेपन की झलक देने के लिए आवश्यकतानुसार आप तुम्हें हम भी हमारा आदि शब्दों का प्रयोग संबंधित व्यक्ति के प्रति निकटता और आत्मीयता की भावना पैदा करते हैं। अनौपचारिक पत्र में यह गुण होना बहुत आवश्यक है।, आज वर्तमान में सभी पत्र चाहे औपचारिक हो या अनौपचारिक केवल और केवल बाई और लिखे जाते हैं।, पत्र भेजने वाला प्रेक्षक कहलाता है, पत्र प्राप्त करने वाला प्रेषण कहलाता है, एक पत्र का नमूना देखें, पिताजी से राशि मंगवाने के लिए पत्र, कमरा नंबर 106, सरस्वती छात्रावास, राजकीय महाविद्यालय, शिमला, दिनांक 22 अक्टूबर 2021, आदरणीय पिताजी, सादर प्रणाम, आशा है परिवार में सभी सदस्य सकुशल और आनंद पूर्वक होंगे। छुट्टियों में मैं आपके पास घर आया था और निश्चय ही हम सब ने सामूहिक रूप से बहुत अच्छा समय साथ साथ बिताया। इस समय की बहुमूल्य यादों को मन में संजोए हुए मैं सकुशल अपने छात्रावास में पहुंच गया हूं। मार्ग में वर्षा होने से और ठंड लगने से मैं थोड़ा और अस्वस्थ हो गया था। लेकिन दवाई लेने और परहेज करने से अब मैं आपके आशीर्वाद से पूर्ण रूप से स्वस्थ हूं। मेरी पढ़ाई भी बहुत अच्छी चल रही है। परीक्षाएं अब निकट आ गई है और मैं इन परीक्षाओं में कड़ी मेहनत करके अच्छे अंक प्राप्त करने का प्रयास कर रहा हूं। मेरा आपसे यही निवेदन है कि आगे नई कक्षा में प्रवेश शुल्क और छात्रावास के कमरे का किराया लगभग ₹3000 के आसपास है। मेरे पास आपके दिए हुए ₹1000 सुरक्षित रखे हुए हैं इसलिए मेरा आग्रह रहेगा कि शीघ्र अति शीघ्र ₹2000 मुझे लौटती डाक से भेज दें ताकि मैं समय पर अपनी राशि जमा करवा सकूं।, मां को सादर प्रणाम, शैलजा दीदी को मेरा नमस्कार और अनुज राकेश को ढेर सारा स्नेह।, आपका आज्ञाकारी पुत्र, दीपक कुमार, अध्याय --6 देवनागरी लिपि, प्रश्न--लिपि का अर्थ प्रकार बताते हुए देवनागरी लिपि का परिचय दें और इसके नामकरण उद्भव और विकास पर संक्षिप्त नोट लिखें, उत्तर--लिपि का अर्थ और अभिप्राय, मनुष्य ने लिखना कैसे सीखा , इसकी कहानी अत्यंत मनोरंजक है। लिखने की कला का आविष्कार मनुष्य की महान खोजों में से एक है। सताब्दी और तक मनुष्य भाषा के माध्यम द्वारा अपने विचारों की अभिव्यक्ति करता रहा लेकिन उसके संरक्षण का उसके पास कोई साधन नहीं था। इसलिए अनेक जातियां अपनी भाषाओं के साथ विश्व रंगमंच पर आई और विलीन हो गई और आज हम इनका नाम तक नहीं जानते हैं। जब भाषा को लिखने की कला का माध्यम प्राप्त हुआ तब एक नवीन सृष्टि का जन्म हुआ। तभी से मनुष्य अपने ज्ञान विज्ञान के संरक्षण के लिए व्यस्त हो गया जिससे सभ्यता और संस्कृति का बहुत अधिक विकास हुआ। वास्तव में भाषा और लिखने की कला दो अलग-अलग वस्तुएं हैं जो मनुष्य को पशुओं से पृथक करती हैं और उन्नति के मार्ग पर ले कर जाती हैं।, भाषा के विकास के बाद ही लिपि का विकास माना जाता है। भाषा का उच्चारण मौखिक रूप से होता है और मुख से निकली हुई वाणी यों को सुरक्षित रखना उतना ही अनिवार्य हो जाता है। वास्तव में मानव के मुख से निकली हुई ध्वनि लहर एक व्यक्ति के कान से दूसरे व्यक्ति के कान तक पहुंचकर शून्य में विलीन हो जाती है। ध्वनि का प्रभाव पहले पहल मनुष्य की स्मृति में सुरक्षित रहता है लेकिन धीरे-धीरे इसके बाद नष्ट होने लगता है इसलिए ज्ञान विज्ञान और साहित्य से जुड़े हुए भावों और विचारों को किताबों में सुरक्षित रखना और अन्य व्यक्तियों तक संप्रेषित करने के लिए जिन ध्वनि चिन्हों का आविष्कार किया गया उन्हें लिपटी कहा जाता है, लिपि की परिभाषा, 1.. जैसे व्यक्त ध्वनियां भाषा कहलाती है उसी प्रकार भावों को जब रेखाओं चित्रों और प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त किया जाता है तब उसे लिपि कहा जाता है।, 2.. लिपि का अर्थ है लिखावट, लिखना, लीपना, लिखारी ,अक्षर अर्थात लिखे हुए सभी अक्षर लिपि होते हैं।, 3.. लिपि में अलग-अलग संकेतिक चिन्ह और रेखाचित्र होते हैं जो प्रत्येक भाषा में अपने अपने तरीके से दर्शाए जाते हैं।, 4.. लिपि लेखन पद्धती की ऐसी व्यवस्था है जिसके द्वारा भाषा को स्थायित्व प्रदान किया जाता है और ध्वनियों को सुरक्षित रखा जाता है।, लिपि के प्रकार, लिपि का जन्म भाषा के पश्चात हुआ इस सच्चाई का प्रमाण यह है कि आज संसार में ऐसी अनेक जातियां हैं जो भाषा का प्रयोग तो करती हैं लेकिन लिपि का नहीं इसलिए लिपि भाषा के पीछे पीछे चलती है ।, लिपि के विकास का क्रमिक सोपान इस प्रकार है--चित्र लिपि, सूत्र लिपि, प्रतीकात्मक लिपि ,भावमूलक लिपि और ध्वनिमूलक लिपि।, प्रारंभ में भावों को अभिव्यक्त करने के लिए चित्रों का प्रयोग किया गया जिन्हें चित्र लिपि कहा जाता है। इस लिपि द्वारा किसी वस्तु का ज्ञान कराने हेतु उसका चित्र बनाया जाता है जैसे प्रातः काल को दिखाने के लिए उगते हुए सूरज का चित्र बनाना आदि। धीरे-धीरे इन चित्रों का अर्थ विस्तार में होता गया और वस्तुओं से संबंधित भावों को दर्शाया जाने लगा। जैसे किसी पशु का ज्ञान कराने के लिए संपूर्ण शरीर का चित्र बनाना आवश्यक नहीं केवल उसके सिर के चित्र मात्र से ही उसकी अभिव्यक्ति हो जाती है।, धीरे-धीरे चित्र संक्षिप्त होते गए और अक्षर के रूप में ढलते चले गए । यह अक्षर ध्वनि विशेष को अभिव्यक्त करने लगे और इस प्रकार ध्वनिमूलक लिपि का विकास हुआ। ध्वनि मुल्क लिपि भाषा के लिखित और मौखिक रूप को अभिव्यक्त करती है। भाषा के लिखित रूपों को सुरक्षित रखने के लिए ध्वनि और संकेतों का आविष्कार किया गया। प्रतीक चिन्ह एक ही ध्वनि को व्यक्त करता है। देवनागरी लिपि, फारसी लिपि, रोमन लिपि ध्वनिमूलक लिपियां है।, ध्वनिमूलक लिपि के दो रूप हैं----, 1.. अक्षरात्मक लिपि, 2.. वर्णात्मक लिपि, जिस ध्वनिमूलक लिपि के सभी अक्षर एक सुर में बोले जाने वाली ध्वनियों के प्रतीक होते हैं उसे अक्षरात्मक लिपि कहते हैं। इस लिपि में चिन्ह अक्षर को व्यक्त करता है। देवनागरी लिपि इसका सर्वोत्तम उदाहरण है। जैसे व्यंजन ध्वनि में क+अ दो ध्वनियां शामिल है। इन ध्वनियों में पहली ध्वनि व्यंजन और दूसरी ध्वनि स्वर है।, वर्णनात्मक लिपि में प्रत्येक चिन्ह एक ही ध्वनि को व्यक्त करता है। प्रत्येक वर्ण की स्थिति अलग अलग होती है। रोमन लिपि का सर्वोत्तम उदाहरण है। यह अंग्रेजी भाषा की लिपि है।, देवनागरी लिपि का अर्थ और परिचय, उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट हुआ कि लिपि वर्णो के, अक्षरों के लिखने की ऐसी प्रणाली है जिससे हमारा साहित्य इतिहास के रूप में हमेशा हमेशा के लिए जीवित रह सकता है। विश्व की प्रत्येक भाषा के लेखन की कोई ना कोई लिपि अवश्य होती है। हमारी हिंदी भाषा की लिपि देवनागरी लिपि है। देवनागरी लिपि संस्कृत प्राकृत अपभ्रंश तथा अन्य लोक भाषाओं जैसे मराठी बिहारी मैथिली भोजपुरी राजस्थानी पहाड़ी के साथ-साथ नेपाली भाषा की भी लिपि है। इसी प्रकार अंग्रेजी भाषा की लिपि रोमन उर्दू भाषा की लिपि फारसी तथा पंजाबी भाषा की लिपि गुरमुखी है।।, देवनागरी लिपि का नामकरण तथा उद्भव एवं विकास, देवनागरी लिपि का जन्म ब्रह्मी लिपि की उत्तरी शैली के रूप नागरी लिपि से हुआ है। ईसा पूर्व पांचवी शताब्दी से 350 ईसवी तक ब्रह्मी लिपि एक राष्ट्रीय लिपि मानी जाती थी आगे चलकर ब्रह्मी लिपि दो शाखाओं में बंट गई उत्तरी ब्रह्म और दक्षिणी ब्रह्मी ।, इन दो लिपियों से भारत की अनेक प्राचीन और नवीन लिपियों का विकास हुआ जैसे उत्तरी शैली से विकसित पांच प्राचीन लिपियां है गुप्त लिपि ,कुटिल लिपि ,प्राचीन नागरी लिपि, शारदा लिपि और बांग्ला लिपि। विवेचित नागरी लिपि को देवनागरी लिपि भी कहा जाता है। उत्तरी भारत में इसका प्रचार नौवीं शताब्दी के अंत में प्राप्त होता है लेकिन इसके प्राचीन अभिलेख आठवीं सदी से सोलवीं सदी तक दक्षिण भारत में पाए जाते हैं और दक्षिण में देवनागरी लिपि को नंदी नागरी नाम से जाना जाता है।, देवनागरी लिपि का नामकरण, देवनागरी लिपि के नामकरण को लेकर विद्वानों में अनेक मतभेद हैं प्रत्येक विद्वान ने अपने अपने दृष्टिकोण से इस लिपि को नामकरण दिया है। कुछ महत्वपूर्ण विचारधारा इस प्रकार है, 1. कुछ विद्वानों के अनुसार गुजरात के नागर ब्राह्मणों द्वारा विशेष रूप से इस लिपि का प्रयोग किया गया इसलिए इसका नाम देवनागरी लिपि पड़ गया, 2.. कुछ विद्वान कहते हैं कि देववाणी संस्कृत इसी लिपि में लिखी जाती थी इसलिए इसका नाम देवनागरी पड़ा।, 3.. एक अन्य विचार के अनुसार यह लिपि प्रारंभ में विशेष नगरों में प्रचलित थी इसलिए नगरों की लिपि होने के कारण इसका नाम देवनागरी लिपि पड़ा।, 4. कुछ विद्वान बौद्ध ग्रंथ ललित विस्तर में वर्णित की गई नागरी लिपि से इसका संबंध मानते हैं।, 5. एकमत और प्रचलित है कि पाटलिपुत्र को देवनगर और चंद्रगुप्त को देव कहा जाता था इसलिए उन्हीं के नाम पर इस लिपि का नाम देवनागरी लिपि, 6.. कुछ विद्वान कहते हैं कि काशी को पहले देवनगर कहा जाता था और काशी में इसका प्रचार सबसे अधिक होने के कारण उसी के नाम के आधार पर इस लिपि का नाम देवनागरी पड़ा।, 7.. डॉक्टर धीरेंद्र वर्मा कहते हैं कि मध्य युग के स्थापत्य की एक शैली का नाम नगर था जिसमें चकोर आकृतियां होती थी और दूसरी और नागरी लिपि के अधिकांश अक्षर भी चौकोर हैं इसी आधार पर इसे देवनागरी लिपि कहा जाता है।, उपर्युक्त सभी मतों में कौन सा मत अधिक तर्कसंगत है इसे स्पष्ट रूप से कह पाना कठिन सा लगता है लेकिन इतना निष्कर्ष अवश्य निकलता है कि जिस प्रकार सर्व श्रेष्ठ साहित्य वाली भाषा संस्कृत को परिमार्जित और विश्व युद्ध होने के कारण देवानी कहा जाता है उसी प्रकार संस्कृत साहित्य लिपिबद्ध करने के कारण इस नागरी लिपि को देवनागरी लिपि नाम दिया गया जो बिल्कुल उपयुक्त है।, देवनागरी लिपि का इतिहास और विकास, इस सच्चाई से सभी विद्वान सहमत हैं कि देवनागरी लिपि का विकास ब्राह्मी लिपि से हुआ है। 9 वीं शताब्दी से लेकर आज तक नागरी लिपि के बारे में कोई भी वैज्ञानिक कार्य नहीं हुआ है फिर भी ब्रह्मी लिपि में देवनागरी के कुछ लक्षण देखे जा सकते हैं। देवनागरी लिपि की मुख्य विशेषता यही है कि यह गुप्त काल की लिपि थी और इससे गुप्त लिपि का नाम भी मिला। इसके बाद कुटिलिटी आई जिसमें लिपि संकेतों का आपस में अंतर कम होने लगा इसी कुटिलिटी से देवनागरी लिपि का उद्भव हुआ, इस लिपि का उद्भव चाहे उत्तरी भारत में हुआ हो लेकिन इसके प्राचीनतम उदाहरण दक्षिण भारत में मिले हैं अर्थात देवनागरी अपने प्रारंभिक काल में उतरी भारत से दक्षिण भारत तक फैली हुई थी इसका विकास इस प्रकार है, 1. इस लिपि का सर्वप्रथम प्रयोग गुजरात के गुर्जर वंशी राजा जय भट्ट के दान पत्र में देखा जा सकता है। यह दक्षिणी शैली की पश्चिमी लिपि में भी है वहां दान पत्र पर राजा जय भट्ट ने नागरी लिपि में हस्ताक्षर किए हुए हैं।, 2. आठवीं शताब्दी में राष्ट्रकूट वंश के राजाओं ने अपने-अपने दान पत्रों में इस लिपि का प्रचार प्रसार किया राष्ट्रकूट नरेश का 700 श्रिंजय सुई का एक दान पत्र प्राप्त हुआ है जो नागरी लिपि में लिखा हुआ है और इसके बाद सभी राष्ट्रकूट राजाओं ने दान पत्रों में नागरी लिपि का प्रयोग किया, 3.. देवनागरी के यादव और विजयनगर के राजाओं ने इस लिपि में अपने-अपने दान पत्र लिखे हैं।, 4.. दक्षिण में यह लिपि नंदी नागरी लिपि नाम से जानी जाती है और वहां के लगभग सभी संस्कृत ग्रंथ इसी लिपि में लिखे गए, 5.. महाराष्ट्र में इस लिपि को बालबोध कहा गया और बालबोध लिपि के अनेक वर्ण आज भी देवनागरी लिपि में देखे जा सकते हैं।, 6.. ईसा की आठवीं शताब्दी से लेकर 18 वीं शताब्दी तक देवनागरी लिपि मेवाड़ के गुहेल वंश राजा ,मारवाड़ के परिहार राजा, मध्य प्रदेश के हैहय वंशी राजा ,कन्नौज के गहरवार राजा ,गुजरात के सोलंकी वंश के राजाओं में यह लिपि बहुत अधिक लोकप्रिय हुई। 1000 ईसवी के आसपास देवनागरी लिपि का बहुत अधिक प्रचार-प्रसार हो चुका था।, 7. कन्नौज के प्रति हार वंशी राजा महेंद्र पाल प्रथम के 898 ईसवी के दानपात्र में देवनागरी लिपि का प्रयोग हुआ है। 10 वीं शताब्दी तक आते-आते इस लिपि पर कुटिल लिपि का प्रभाव पड़ने लगा था। यही कारण है 10 वीं शताब्दी की देवनागरी लिपि के कुछ अक्षर आज की देवनागरी लिपि के अनेक अक्षरों से मिलते हैं। जैसे देवनागरी लिपि के अ,आ,स और म की शिरोरेखाएं कुटिल लिपि के अक्षरों के समान दो भागों में बंटी हुई थी लेकिन 11 वीं शताब्दी तक आते-आते इन सभी वर्णों की शिरोरेखाएं मिलकर एक हो गई और इसके बाद 12 वीं शताब्दी तक इस लिपि का वर्तमान स्वरूप स्थिर हो गया था।, निष्कर्ष, निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि वर्तमान देवनागरी लिपि का विकास 10 वीं शताब्दी की प्राचीन नागरी लिपि से ही हुआ है। जिस प्रकार संस्कृत भाषा से हिंदी भाषा का क्रमिक विकास हुआ उसी प्रकार ब्रह्मी लिपि से नागरी लिपि का क्रमिक विकास होता चला गया। जिस प्रकार संस्कृत से प्राकृत और अपभ्रंश दो भाषाएं विकसित हुई और अपभ्रंश से हिंदी भाषा का विकास हुआ उसी प्रकार ब्रह्मी लिपि से गुप्त और कुटिल प्रमुख लिपियां विकसित हुई और इनसे देवनागरी लिपि का विकास होता गया। देवनागरी लिपि के विकास चरण को चार भागों में बांटा जा सकता है---, 1. ब्रह्मी लिपि--ईसा पूर्व 500 से 350 ईसवी तक, 2.. गुप्त लिपि--350 ईस्वी से 500 ईसवी तक, 3. कुटिल लिपि-500 ईस्वी से 900 ईसवी तक, 4.. देवनागरी लिपि--900 ईसवी से अब तक, निम्न तालिका में देवनागरी लिपि के विकास पर प्रकाश डाला गया है। यह तालिका डॉ भोलानाथ तिवारी द्वारा लिखित पुस्तक भाषा विज्ञान से ली गई है जो देवनागरी लिपि वर्णमाला को प्रकाशित करती हैं, हिंदी वर्णमाला और तालिका, स्वर---11 अ,आ,इ,ई,उ,ऊ,ए,ऐ,ओ,औ,ॠ, स्वरों की मात्राएं--, आगत स्वर--ऑ, व्यंजन--कवर्ग=क,ख,ग,घ,, चवर्ग=च,छ,ज,झ, टवर्ग=ट,ठ,ड,ढ,ण, तवर्ग=त,थ,द,ध,न, पवर्ग=प,फ,ब,भ,म, ऊष्म=श,ष,स,ह, अन्तस्थ=य,र,ल,वह, आगत व्यंजन--ख़,फ़,जो, संयुक्त व्यंजन--क्ष,ज्ञ,श्र,त्र, विसर्ग--ः, अनुस्वार--ं, प्रश्न----देवनागरी लिपि की विशेषताओं का विस्तार से वर्णन करें।, उत्तर--सामान्य भूमिका--देवनागरी लिपि भारत की सर्वाधिक महत्वपूर्ण और सर्व प्रमुख लिपि है। संविधान में इससे राज लिपि का दर्जा प्राप्त है। हिंदी भाषा की विभिन्न बोलियां और उप भाषाएं तथा मराठी और नेपाली आदि इसी भाषा में लिखी जाती है। संस्कृत का संपूर्ण साहित्य चाहे उत्तर भारत का हो या दक्षिण भारत का सभी साहित्य इसी लिपि में प्राप्त होता है तथा पाली प्राकृत अपभ्रंश आदि भाषाओं का साहित्य भी देवनागरी लिपि की देन है। विद्वानों का कहना है कि भारत में संगठित एकता उत्पन्न करने के लिए देश की विभिन्न प्रादेशिक भाषाओं में इसी लिपि का प्रयोग किया जाए। विदेशी विद्वानों ने देवनागरी लिपि को विश्व की सर्वाधिक वैज्ञानिक लिपि के रूप में स्वीकार किया है और इसकी प्रशंसा की है। सबसे प्राचीन लिपि होते हुए भी यह लिपि वैज्ञानिक कसौटी पर खरी उतरती है और अपनी विशेषताओं के कारण समस्त भाषा वैज्ञानिकों की दृष्टि का केंद्र बिंदु बनी हुई है।, नोट--यह भूमिका देवनागरी लिपि से संबंधित कोई भी प्रश्न आता है तो यही सामान्य भूमिका सभी प्रश्नों के लिए लिखनी है।, देवनागरी लिपि की विशेषताएं और गुण, भाषा वैज्ञानिकों के अनुसार विश्व की कोई लिपि अगर सबसे अधिक संपूर्ण है और व्यवस्थित है तो वह एकमात्र देवनागरी लिपि है अर्थात जो वैज्ञानिक लिपि की विशेषताएं हो सकती हैं वह सभी देवनागरी लिपि में विद्यमान हैं जिनका विस्तार से वर्णन इस प्रकार है---, 1.. वर्णमाला की पूर्णता, देवनागरी लिपि का उद्भव ब्रह्मी लिपि से हुआ है। ब्रह्मी लिपि में जहां कुल 64 लिपि संकेत थे वही देवनागरी लिपि में केवल 52 लिपि चिन्ह है। इस लिपि संकेतों की संख्या विश्व की अन्य भाषाओं की लिपियों में सबसे अधिक है। अंग्रेजी में कुल 26 लिप्पी संकेत हैं तो जर्मनी भाषा में 29 लिपि संकेत शामिल है। देवनागरी लिपि की बड़ी संख्या सभी ध्वनियों को लिखित रूप में लिखने के लिए सक्षम है।, 2.. क्रमबद्धता, देवनागरी लिपि में स्वर और व्यंजन पूर्ण रूप से वैज्ञानिक तरीके से क्रमबद्ध हैं इनमें स्वर 11 हैं और व्यंजनों की संख्या 33 है। संयुक्ताक्षर है क्ष,ज्ञ,श्र,त्र। कुछ अन्य व्यंजन ड़,ढ़,क़,ख़,ग़,फ़ भी इस लिपि में शामिल कर लिए गए हैं।, 3.. गतिशीलता, देवनागरी लिपि बदलते समय के अनुसार अनेक बदलावों को समेटती चली गई इसलिए इसमें बहुत अधिक गतिशीलता है। यह व्यवहारिक लिपि भी है और इसमें आवश्यकतानुसार कुछ नए लिपि चिन्हों को भी शामिल कर लिया गया है जैसे कुछ जिह्वामूलीय ध्वनियों के लिपि चिन्हों को उर्दू फारसी लिपि से ग्रहण कर लिया गया है और इस प्रकार यह मिट्टी वैज्ञानिक बन गई है। अंग्रेजी भाषा की ऑ ध्वनि इसमें शामिल हुई है और इस प्रकार यह लिपि भारत की सभी भाषाओं को लिखने में समर्थ हैं और इस में लचीलापन भी मौजूद है।, 4.. प्रत्येक स्वनिम (स्वर और व्यंजन) के लिए अलग लिपि संकेत, देवनागरी लिपि में प्रत्येक स्वनिम के लिए अलग लिपि संकेत है। नागरी लिपि का यह सबसे अधिक प्रशंसनीय वन है जैसे उर्दू भाषा में ध्वनि के लिए सीन, स्वर लिपि संकेत प्राप्त होते हैं। वही रोमन लिपि में क ध्वनि के लिए K,Q,Or,Ch चार लिपि संकेत प्राप्त होते हैं इसी प्रकार अंग्रेजी में S वर्ण के लिए चार ध्वनियां बन जाती हैं जैसे ज,स,श,य। इस प्रकार की वैधता और दोष देवनागरी लिपि में नहीं है इसमें स्पष्टता है।, 5.. वर्णों की लिखावट कलात्मक सुंदर और सुगठित, इस लिपि में अक्षर सुंदर कलात्मक और सुगठित तरीके से लिखे जाते हैं। यह अन्य लिपियों की अपेक्षा बहुत कम स्थान घेरते हैं और इनकी शिरोरेखा भी इनकी सुंदरता में अभिवृद्धि करती है जैसे हिंदी का महेश्वर शब्द यदि रोमन लिपि में लिखा जाए तो यह अधिक स्थान घेरता है जैसे Maheshwara, 6.. प्रत्येक वर्ण का उच्चारण, देवनागरी लिपि में यदि अक्षर लिखा जाता है तो उसका उच्चारण अवश्य होता है इसलिए यह लिपि बहुत स्पष्ट है जबकि रोमन लिपि में कुछ वर्ण लिखे तो जाते हैं लेकिन उनका उच्चारण नहीं होता है ऐसे वर्णों को साइलेंट वर्ण कहते हैं। जैसेKnife,know, night.। दोनों शब्दों में k और g,h साइलेंट वर्ड है और इसी प्रकारWalk or talk मैं एल का उच्चारण नहीं होता लेकिन एल लिखा जाता है।, 7. वर्णों का उच्चारण निश्चित, नगरी लिपि में अक्षरों का उच्चारण निश्चित है अर्थात प्रत्येक स्थान पर यह अक्षर एक होकर उच्चारण देते हैं जबकि रोमन लिपि में अनेक स्थानों पर वर्णों के उच्चारण बदल जाते हैं जैसे हिंदी में खटपट सरपट आदि रोमन लिपि में put=पुट,But=बट। इन शब्दों में उ और अ की ध्वनि अलग अलग है। एक ही लिपि चिन्ह का उच्चारण एक शब्द में कुछ और है जबकि दूसरे शब्द में वह दूसरे प्रकार का रूप धारण कर लेता है।, 8...व्यंजन की आक्षरिकता, नागरी लिपि के सभी व्यंजनों के साथ स्वर का भी उच्चारण होता है। यह गुण व्यंजनों की आवश्यकता कहलाता है। जैसे क=के+अ,प=पर+अ आदि। इससे समय की बचत होती है जबकि रोमन लिपि में यह गुण नहीं है जैसे कमल=kamala, 9.. लेखन टंकन और मुद्रण की एकरूपता, रोमन लिपि में वर्णमाला को तीन प्रकार से लिखा जाता है साथ ही वाक्य का शुरू का वर्ण कैपिटल होता है तथा बाद के अन्य वर्ण छोटे लिखे जाते हैं जबकि देवनागरी में ऐसी स्थिति नहीं है। इसमें एक जैसे वर्ण सभी स्थानों पर प्रयुक्त होते हैं। रोमन लिपि में कैपिटल रूप में लिखने के अतिरिक्त छापने और लिखने की वर्णमाला में आकृति गत अंतर है अर्थात लिखाई और छपाई में अक्षरों की आकृति भिन्न-भिन्न रहती है जबकि हिंदी में लेखन टंकण (typing)और मुद्रण में एकरूपता है।, 10.. विभिन्न भाषाओं पर प्रभाव, नागरी लिपि में संस्कृत पालि प्राकृत मराठी और नेपाली भाषाएं बिना किसी परिवर्तन के लिखी जाती हैं। इसके अतिरिक्त बांग्ला असमिया उड़िया गुजराती गुरुमुखी आदि लिपि देवनागरी से अलग नहीं है अपितु उसी का विकसित रूप है।, 11.. उच्चारण स्थान का वैज्ञानिक क्रम, देवनागरी लिपि में स्वर्ण ध्वनियों के उच्चारण स्थान में रखकर पंक्तिबद्ध बिठाए गए हैं। जैसे स्थूल रूप में सभी ध्वनियों की यात्रा कांट से लेकर ओष्ठ तक संपन्न हुआ करती है। वर्णमाला में क ख ग घ और ध्वनियां कंठ्य कहलाती हैं। जिनमें स्वरों से सर्व प्रथम स्थान पर अ स्वर है तो व्यंजनों में प्रथम पंक्ति वर्ग क से डं ही है इसी प्रकार वाक् यंत्र में तालुका स्थान दूसरा है हैं और लिपि में भी स्वर इस और चवर्ग व्यंजनों का अगला स्थान है। ध्वनियों का नाम भी तालव्य ही है। अतः मानव के वाहक यंत्र के क्रमानुसार ही ध्वनियों का उच्चारण निर्धारित किया गया है।, 12.. बिंदुओं के द्वारा ध्वनि परिवर्तन नहीं, देवनागरी लिपि में फारसी लिपि की तरह एक या अनेक बिंदु चिन्ह अर्थात नुक्ते लगाकर विविध ध्वनियां सूचित नहीं की जाती है। एक कहावत यहां उक्ति ई सी लिपि दोष की ओर संकेत करती है जैसे नुक्ते के हेरफेर से खुदा जुदा हुआ।, देवनागरी लिपि के दोष या सीमाएं, जहां देवनागरी की विशेषताओं और उसकी वैज्ञानिकता के प्रति विद्वानों ने सार्थक दृष्टिकोन रखा है वही उसकी सीमाओं की और भी जिसकी बात किया है। कोई भी लिपि अपनी सीमाओं में ही भाषा की अभिव्यक्ति कर सकती है। पूर्णता की दृष्टि से कोई भी लिपि कभी भी संपूर्ण नहीं रहती है उसमें थोड़ी बहुत कमियां रह ही जाती हैं। यदि इनमें सुधार भी कर दिए जाएं तो भी भाषा के निरंतर बदलाव और परिवर्तन शीलता को ध्यान में रखते हुए लिपि में सुधार और परिष्कार की आवश्यकता बनी रहती है। अतः देवनागरी लिपि में भी ऐसी कमियों और दोषों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। लेखन की दृष्टि से देवनागरी की कमियां इस प्रकार है, 1..एकरूपता का अभाव, देवनागरी लिपि के संकेतों में स्वर था एकरूपता नहीं मिलती पूर्णविराम चाहे समानता की दृष्टि से अन्य लिपियों से यह लिपि अधिक उत्कृष्ट है पर कहीं-कहीं इसमें त्रुटियां पाई जाती हैं जैसे ई की मात्रा शब्द के पहले लगती है लेकिन उच्चारण शब्द के बाद में किया जाता है।, 2..संयुक्त व्यंजन लिखने की असमानता, देवनागरी लिपि में संयुक्त व्यंजनों के लिखने में समानता नहीं है। इसके कई कई रूप मिलते हैं। कभी पहला व्यंजन आधा लिखा जाता है जैसे म्लान, आदि। कहीं दूसरा व्यंजन आधा लिखा जाता है जैसे प्रेम प्रकट क्रम आदि। कभी संयुक्त व्यंजन से नया व्यंजन बन जाता है जैसे क +से=क्ष,,त+र=त्र,,ज+ञ=ज्ञ आदि, 3..शिरोरेखा की समस्या, नागरी लिपि में शिरोरेखा का प्रयोग करने से कभी-कभी उलझन पैदा होती है जैसे जरा सी असावधानी होने पर ध का घ, और भ का म हो जाता है।, 4..दो प्रकार के अक्षरों का प्रचलन, देवनागरी लिपि की यह भी एक कमी है क्योंकि इससे भाषा में भ्रम की स्थिति पैदा हो जाती है। जैसे झ-, 5..अनेक वर्ण कई कई रूपों में प्रयुक्त होते हैं।, 6..देवनागरी की कथित पर वर्षों की भांति उसके अंत भी कई रूपों में लिखे जाते हैं जैसे१२३४५६७८९०, 7..इस लिपि में अखिल भारतीय बनने की क्षमता नहीं है क्योंकि अन्य भाषाओं की कुछ ध्वनियों के लिए समानांतर चिन्ह नहीं है।, देवनागरी की उपर्युक्त कमियों के अतिरिक्त मुद्रण कला के विकास के साथ ही छपाई में भी अनेक कमियां दिखाई पड़ी। नए-नए आविष्कार लेखन मुद्रण और टंकण कला का विकास होने के साथ-साथ ध्वनि चिन्हों का वैज्ञानिक रूप भी अपनाया जाने लगा और इस दृष्टि से देवनागरी लिपि की कमियां परिलक्षित हुई जिसके परिणाम स्वरूप देवनागरी लिपि में निरंतर सुधार और परिष्कार किए जा रहे हैं वर्तमान में यह सुधार की परंपरा निरंतर चली हुई है।, इकाई दो, अध्याय अनुवाद विज्ञान, प्रश्न--अनुवाद का अर्थ परिभाषा स्वरूप और प्रकारों का विस्तार से वर्णन करें, उत्तर---अनुवाद का अर्थ एवं परिभाषा, अनुवाद का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ--अनुवाद शब्द अनु + वाद से मिलकर बना है। अनु का अर्थ है पीछे या अनंतर और वाद शब्द वद धातु से बना है जिसका अर्थ है बोलना। इस प्रकार अनुवाद शब्द का अर्थ है कही गई बात को पुनः कहना। दूसरे शब्दों में एक भाषा में कही गई बात को दूसरी भाषा में कहना अनुवाद कहलाता है। अंग्रेजी भाषा में अनुवाद के लिए ट्रांसलेशन शब्द का प्रयोग किया जाता है। यह शब्द भी ट्रांस प्लस लेशन के योग से बना है। फ्रांस का अर्थ है पार और रिलेशन का अर्थ है ले जाने की प्रक्रिया। इस प्रकार अंग्रेजी में भी इसका अर्थ हुआ एक भाषा के अभाव को दूसरी भाषा में ले जाना जाना या एक पार से दूसरे पार तक ले जाने की क्रिया। अनुवाद शब्द का मूल अर्थ है पुनः कथन या किसी के कहने के बाद कहना। अनुवाद में दो मुख्य भाग होते हैं एक स्त्रोत भाषा अर्थात मूल भाषा जिस में अनुवाद किया होता है। दूसरी लक्ष्य भाषा अर्थात ऐसी भाषा जिसमें अनुवाद किया जाए।, अनुवाद की परिभाषा, 'Translate--express the sense of word sentence aur book in in another language (as translate Homer into English from the Greek) अर्थात अनुवाद एक भाषा के शब्दों को दूसरी भाषा में अभिव्यक्त करना है''--ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी, ब्राह्मण ग्रंथों में"दोबारा कहना या पुन:कथन अर्थ में अनुवाद कहा जाता है। बृहदारण्यक उपनिषद में अनुवदति का प्रयोग दोहराने के अर्थ में किया जाता है। निरुक्त में भी अनुवाद का प्रयोग दोहराने के अर्थ में हुआ है। शब्द कल्पद्रुम के अनुसार यह शब्द अनु (पीछे)और वद(बोलना) से निस्पंद है जिसका अर्थ है निंदित अर्थ बताने वाला वाक्य, पुनरुक्ति(पुनः उक्ति) आदि।, डॉ नगेंद्र के अनुसार--किसी भाषा के प्रत्येक वाक्य को प्रायः सभी पदों का अर्थ देते हुए अन्य भाषा में प्रस्तुत करना अनुवाद का वास्तविक अर्थ है।", डॉक्टर जॉनसन के अनुसार--"मूल भाषा के भावों की रक्षा करते हुए उसे दूसरी भाषा में बदल देना ही अनुवाद कहलाता है", रस्कोमन के अनुसार--"मूल लेखक का अनुसरण करना सर्वोत्तम है। उसी के साथ गिरोह और उसी के साथ उठो।", कैटफोर्ड के अनुसार--"अनुवाद स्त्रोत भाषा की पाठ्य सामग्री का लक्ष्य भाषा की समतुल्य पाठ्य सामग्री द्वारा प्रतिस्थापन है", न्यू मार्क के अनुसार--"अनुवाद एक शिल्प है जिसमें एक भाषा में लिखित संदेश को दूसरी भाषा में उसी संदेश को प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया जाता है।", एडवर्ड फिट्स जेराल्ड के अनुसार--"better a live sparrow than a stuffed eagle"--अर्थात भूस भरे बाज से तो जीवित चिड़िया भली।, हंबोल्ट लेखक संप्रेषण को दृष्टि में रखकर कहते हैं--"all communication is translation", मैलिनोवस्की के अनुसार--"अनुवाद सांस्कृतिक संदर्भों का एकीकरण है।", अनुवाद का स्वरूप, आज के आधुनिक और अति विकासवादी युग में अनुवाद मानव की सामाजिक राजनीतिक साहित्यिक और सांस्कृतिक आवश्यकता के साथ-साथ कार्यालयों में कामकाज की अति आवश्यक जरूरत बन गया है। देश विदेश की विभिन्न क्षेत्रों में फैले हुए मानव जीवन के साथ-साथ उसके विविध रूपों के साथ अनुवाद का निकट संबंध और संपर्क स्थापित हो चुका है।, अनुवाद अपने प्राचीनतम स्वरूप में केवल साहित्य अर्थात काव्य पर ही आधारित था क्योंकि उस समय मनुष्य की दृष्टि जीवन के विभिन्न क्षेत्रों तक नहीं पहुंची हुई थी उसके कार्यक्षेत्र बहुत सीमित। जबकि आज प्रत्येक धरातल पर मानव अलग-अलग क्षेत्रों के साथ गहन संपर्क बनाकर व्यक्तिगत और सामाजिक संबंधों की कड़ी को परस्पर मजबूती से जुड़ना चाहता है। इसलिए भाषा के स्तर पर संप्रेषण व्यापार के लिए अनुवाद एक अहम आवश्यकता के रूप में उभर कर आया है। अनुवाद का सबसे बड़ा लक्ष्य संकुचित सीमाओं को हटाकर विशाल और वैश्विक स्तर पर बहुआयामी परिप्रेक्ष्य में उभर कर सामने आना है। विश्व पटल पर स्थित विविध रंगी वैश्विक संस्कृतियों से निकट संपर्क स्थापित आज मनुष्य करना चाहता है। और विभिन्न भाषा भाषी समुदाय के साथ संप्रेषण रखना चाहता है इसलिए विश्व के अलग-अलग देशों में रहते मनुष्यों के बीच अनुवाद एक महत्वपूर्ण पुल का काम करें कर रहा है। मनुष्य अपने अपने क्षेत्र तक सीमित रह कर ही अपने अपने देश की विशेष भाषा को ही सीखते हैं और बोलते हैं जबकि विश्व के अन्य क्षेत्रों की भाषा से वह परिचित नहीं होते। अब विश्व की प्रत्येक भाषा को सीखना एक दुष्कर और मुश्किल कार्य है इसलिए अनुवाद के माध्यम से अलग-अलग क्षेत्रों की भाषाओं को आपस में जोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य किया जा सकता है।, अनुवाद आधुनिक समय में अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान अर्थात अप्लाइड लिंग्विस्टिक्स के अंतर्गत आता है लेकिन अनुवाद की प्रकृति के बारे में विद्वानों में बहुत मतभेद पाए जाते हैं। विद्वानों के एक वर्ग के अनुसार अनुवाद एक कला है जैसा की प्रसिद्ध कवि एजरा पाउंड का कहना है कि अनुवाद साहित्यिक पुनर्जीवन है जबकि विद्वानों का दूसरा वर्ग अनुवाद को कला के रूप में नहीं एक विज्ञान के रूप में मान्यता प्रदान करता है। अनुवाद को विज्ञान के रूप में प्रतिष्ठित करने में कवि नाएडा का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। एक तीसरा वर्ग भी है जो अनुवाद को शिल्प मानते हैं जबकि कुछ विद्वान अनुवाद को कौशल स्वीकार करते हैं।, वास्तव में अनुवाद एक संश्लिष्ट प्रक्रिया है जो पाठ सापेक्ष होने के साथ-साथ अनुवादक के व्यक्तित्व की छाप को भी अंकित करती चलती है। आधुनिक समय में जीवन के अनेक क्षेत्रों की समृद्धि के साथ-साथ भाषा और संस्कृति के संस्कार की विधि के लिए अनुवाद आवश्यक मांग के रूप में उभर कर सामने आया है। देश विदेश की भाषा और संस्कृति को एक दूसरे के निकट पहुंचा कर उनकी दिशाओं का ज्ञान करवाना भी अनुवाद की अपनी विशेषता है। आधुनिक युग में जहां ज्ञान-विज्ञान के नए-नए क्षेत्र खुल रहे हैं तथा कंप्यूटर और आधुनिक तकनीक में कड़ी प्रतिस्पर्धा हो रही है वही अनुवाद विज्ञान की महत्ता भी समक्ष आने लगी है। अनुवाद केवल एक प्रक्रिया ही नहीं अपितु एक अर्जित कला है। आजकल जो स्वार्थ पूर्ण साधन देश-विदेश की क्रियाओं को विपरीत दिशा में खड़ा करके उनकी भाषा कामा संस्कृति और समाज में अलगाव पैदा करते हैं उन्हें अनुवाद आपस में जोड़कर विकास की दिशा की ओर अग्रसर कर देते हैं। इस प्रकार अनुवाद कला वास्तव में समन्वय कला है और एकता तथा नव निर्माण का विज्ञान है इसलिए आधुनिक युग की अहम जरूरत के रूप में अनुवाद उभरकर सामने आया है तथा समाज कामा भाषा और संस्कृति के मध्य विशाल समन्वय के लिए अनुवाद एक महत्वपूर्ण पुल के रूप में उभरा है।, अनुवाद के प्रकार या भेद, संस्कार शील जीवन के लिए केवल एक भाषा की नहीं अपितु अनेक भाषाओं में अभिव्यक्त जीवन की अनुभूति और सुंदरता की भी जरूरत होती है। इसके साथ-साथ संस्कारों की भी आवश्यकता होती है लेकिन एक अच्छी अनुवाद प्रक्रिया के बिना यह सब कुछ असंभव है इसलिए दुनिया भर की भाषाओं के एक दूसरे के साथ अनुवाद हुए तथा इन के मध्य एक सांस्कृतिक और जीवन के विभिन्न पहलुओं का आदान-प्रदान निरंतर होता रहा। अनुवाद की इस प्रक्रिया में प्रयोजन प्रयोग आदि तत्वों के आधार पर अनुवाद के अनेक भेद या प्रकार हो सकते हैं। इन प्रकारों के चार प्रमुख आधार इस प्रकार है--, 1. गद्य और पद्य का आधार, 2.. साहित्यिक विधा का आधार, 3. विषय का आधार, 4. प्रकृति का आधार, इन सभी आधारों में सबसे महत्वपूर्ण अंतिम आधार अर्थात प्रकृति का आधार माना जाता है।, अनुवाद के प्रकारों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है, 1) गद्य और पद्य के आधार पर, 1. गद्यानुवाद---अनुवाद गद्य में होता है या किया जाता है।, 2. पद्यानुवाद--यह अनुवाद कविता में होता है इसे छंदानुसार भी कहा जाता है।, 2) साहित्यिक विधा के आधार पर, 1. काव्य अनुवाद-काव्य रचना का अनुवाद काव्य अनुवाद कहलाता है।, 2. नाटक अनुवाद-नाटक का किसी दूसरी भाषा के नाटक में अनुवाद नाटक अनुवाद कहलाता है।, 3. कथा अनुवाद-किसी कथा साहित्य अर्थात उपन्यास या कहानी का जब अन्य कथा साहित्य में अनुवाद किया जाता है तो उसे कथा अनुवाद कहते हैं।, 3) विषय के आधार पर, आधुनिक संदर्भ में विषय के आधार पर अनुवाद के प्रकारों का वर्णन इस प्रकार है, तकनीकी साहित्य का अनुवाद, जो भी तकनीकी साहित्य उपलब्ध है उसका 75% से अधिक साहित्य केवल एक विशेष वर्ग के उपयोग में आता है। तकनीकी विषयों की अपनी एक शब्दावली है इनकी अपनी एक परिभाषा है और उसके अपने सूत्र और नियम है। तकनीकी विषय का अनुवाद करते समय यह ध्यान रखना पड़ेगा कि जो नियम किसी वैज्ञानिक के नाम पर है उसका रूपांतरण करने की चेष्टा ना की जाए जैसे ओम का नियम। साथ ही साथ इकाईयों को भी बदलने का प्रयास ना किया जाए।, सूत्रों में कई बार केवल भाषांतर नहीं करना पड़ता है जैसे गणित में A2+b2=(क2+ख2) आदि लिखना पड़ेगा और इसी प्रकार संकेत चिन्ह भी अपरिवर्तित रहेंगे। तकनीकी साहित्य में व्याख्यात्मक पैराग्राफ का अनुवाद करते समय भी थोड़ी सी वाक्य संरचना संबंधी छूट ली जा सकती है। इसमें अभिव्यक्ति पक्ष अथवा शैली पक्ष अधिक महत्वपूर्ण नहीं होता, प्रशासनिक साहित्य का अनुवाद, सरकारी साहित्य तथ्यात्मक अर्थात सच्चाई यों पर आधारित होता है। इसमें कल्पना की उड़ान कम होती है। सरकारी साहित्य का परोक्ष और अपरोक्ष संबंध जनता से ही होता है और उसे जन भाषा में ही प्रस्तुत करने का मुख्य उद्देश्य रहता है ताकि जनता उसे अच्छी तरह समझ सके।, सरकारी साहित्य का अनुवाद भी एक विशिष्ट और अलग विधा बन गई है। इसकी अपनी एक अलग महत्व है। ऐसा अनुवाद सरकार और जनता के बीच एक महत्वपूर्ण सेतु का कार्य करते हुए इन्हें परस्पर जोड़ने का भगीरथ प्रयास करता है। सरकारी कामकाज की भाषा भावुकता से रहित सीधी स्पष्ट बेबाक और तथ्यों पर आधारित होती है। इसमें एक विशेष प्रकार की गंभीरता और अधिकारिता का पुट रहता है। आजकल सरकारी साहित्य के अनुवाद में एक कमी स्पष्ट देखने में आती है वह है अनेकरूपता अर्थात शब्दों में एकरूपता नहीं है। एक राज्य में एक शब्द के लिए कोई शब्द जबकि उसके निकटवर्ती राज्य में उस शब्द के लिए दूसरा अर्थ। जैसेFile के लिए उत्तर प्रदेश में पत्रावली, बिहार में संचिका तथा मध्य प्रदेश में नस्ती शब्द प्रचलन में है।, विधि साहित्य का अनुवाद, सरकारी साहित्य का एक अंग होते हुए भी विधि साहित्य की एक स्वतंत्र सकता है। विधि अपने आप में एक जटिल और महत्वपूर्ण विधा है। इसका एक एक शब्द अपने स्थान पर अपनी विशेष भूमिका निभाता है। विधि शब्द की भाषा में शब्दों का चयन बहुत सावधानी पूर्वक किया जाता है जिससे चतुर से चतुर वकील उसका दूसरा अर्थ ना निकाल लें। इस दृष्टि से विधि साहित्य के अनुवाद की महत्ता कई गुना बढ़ जाती है साथ में अनुवाद का दायित्व भी कहीं महत्वपूर्ण हो जाता है। यद्यपि अन्य साहित्य में एक शब्द की पुनरावृति को अच्छा नहीं माना जाता लेकिन विधि के क्षेत्र में शब्द की पुनरावृति से बच पाना संभव नहीं है।, सृजनात्मक साहित्य, साहित्य का अनुवाद एक गुरुत्तर कार्य है। साहित्य लेखक बैठे ठाले का कार्य नहीं है और फिर उसका अनुवाद निसंदेह है प्रतिभा संपन्न व्यक्ति की मेधा शक्ति का सार्थक उपयोग है। साहित्य के अनुवाद में अनुवादक को इस बात का ध्यान रखना होता है कि उसे मूल लेखक से तादात्म्य स्थापित करके उसकी मनःस्थिति में पहुंचकर उसके भावों को अपनी भाषा में प्रस्तुत करना होता है। इसके अतिरिक्त इसके अनुवादक को ना समुचित नाम मिलता है ना ही वांछित दाम। इस कारण कई बार अनुवाद अनुवाद ना रहकर मूल भाषा का सार मात्र रह जाता है।, दर्शन शास्त्र संबंधी अनुवाद, दर्शन अपने आप में एक गंभीर विषय है इसलिए इसका अध्ययन और अध्यापन सरल और सहज कार्य नहीं है। तर्क और विवेक शक्ति इसका मूल आधार है लेकिन कई बार तक विभिन्न परिवेशी होने के कारण अनुवादक के लिए एक समस्या बन जाता है।, इतिहास का अनुवाद, किसी भी राष्ट्र का इतिहास उस राष्ट्र के विगत वर्षों का लेखा-जोखा होता है लेकिन कई बार विविध और विदेशी इतिहासकार तथ्यों को इस प्रकार तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत करते हैं कि उनका अनुवाद और परिवेश की परिवर्तनता उसे अर्थहीन बना देती है। विदेशी इतिहासकारों ने छत्रपति शिवाजी को पहाड़ी चूहे की संज्ञा दी। जिसका प्रतीकात्मक अर्थ है बेहद चुस्त और चौकन्ना होना।अब यदि इसे अंग्रेजी में तथा अन्य भाषाओं में अनुवाद किया जाए तो अनुवादक के लिए एक समस्या उत्पन्न हो जाती है क्योंकि स्वाधीनता के परिप्रेक्ष्य में एक भारतीय जनमानस उन्हें श्रद्धा और सम्मान की दृष्टि से देखता है इस प्रकार की अन्य समस्याएं अनुवादक के समक्ष उत्पन्न हो जाती है।, शिक्षा के क्षेत्र का अनुवाद, शिक्षा के क्षेत्र में अनुवाद निरंतर शताब्दियों से चलता आ रहा है। वर्तमान युग में विज्ञान समाजशास्त्र अर्थशास्त्र गणित आदि अनेक विषय सीखे और सिखाए जाते हैं। इनके विशिष्ट ग्रंथ ना केवल अंग्रेजी में अपितु विश्व की दूसरी भाषाओं में भी उपलब्ध है इसलिए इनका अनुवाद करना बेहद आवश्यक हो जाता है ताकि देश विदेश के लोगों के ज्ञान में वृद्धि हो सके तथा समस्त देशों के समस्त जन एक दूसरे की परंपराओं जीवन शैली , व्यवहारों और अन्य गतिविधियों के बारे में परिचित हो सकें।, संचार क्षेत्र का अनुवाद, रेडियो समाचार पत्र तथा टेलीविजन आदेश संचार माध्यमों में अनुवाद का प्रयोग अनिवार्य हो जाता है। आधुनिक समय में ये सभी अत्यंत लोकप्रिय माध्यम है। इनका प्रचार प्रसार निरंतर बढ़ रहा है। प्रादेशिक भाषाओं के समाचार पत्र आदि सरकारी सूचना और समाचार एजेंसियों द्वारा प्रदान की गई सामग्री का अनुवाद करके अपनी-अपनी भाषाओं के समाचारों में प्रस्तुत करते हैं। प्रादेशिक भाषाओं में सीमित सामग्री उपलब्ध होती है इसलिए शेष सामग्री का उन्हें अन्य भाषाओं में अनुवाद करना पड़ता है। इस संबंध में आकाशवाणी का उदाहरण लिया जा सकता है जैसे आकाशवाणी भारत की सभी भाषाओं में वार्ताओं का प्रसारण करती है। इसको तैयार करने का कार्य अनुवादक करते हैं। इसी प्रकार का कार्य टेलीविजन का है जहां प्रातः से देर रात तक चलने वाले कार्यक्रम में पर्याप्त मात्रा में अनुदित सामग्री का प्रयोग किया जाता है।, 4) अनुवाद प्रकृति के आधार पर, अनुवाद प्रकृति के आधार पर निम्नलिखित रुप से उल्लेखित हो सकते हैं, शब्दानुवाद, वाद के क्षेत्र में शब्द अनुवाद को उच्च कोटि का अनुवाद नहीं माना जाता है लेकिन अनुवाद प्रक्रिया में कई बार अनेक बिंदुओं ऐसे होते हैं जब शब्द अनुवाद के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं रह जाता है। शब्द अनुवाद वैसे भी भाव अनुवाद का पूरक तत्व माना जाता है। शब्द अनुवाद में स्त्रोत भाषा के शब्दों और उनके अंशों का ज्यों का त्यों लक्ष्य भाषा में रूपांतरित करके अनुवाद कर लिया जाता है अर्थात इसमें मूल पाठ्य सामग्री की प्रत्येक शब्द अभिव्यक्ति का अनुवाद उसी क्रम में लक्ष्य भाषा में किया जाता है जैसे मूल पाठ में प्रस्तुत होता है। तनिक भी हेर फेर या बदलाव नहीं किया जाता है।, इस तरह के अनुवाद को निकृष्ट कहा जाता है क्योंकि प्रकृति भिन्न होने के साथ ही प्रत्येक भाषा का शब्द क्रम भी भिन्न-भिन्न होता है अर्थात प्रत्येक भाषा की अपनी अपनी प्रकृति होती है और अपने अपने अक्षरों की अपनी अपनी बनावट है जैसा कि अंग्रेजी का एक शब्द है Pay जिसका शब्द अनुवाद है भुगतान अथवा वेतन लेकिन बैंक के क्षेत्र में उसे भुगतान करें इस पूरे वाक्य के अर्थ में पे शब्द को लिया जाता है। इसी प्रकार शब्द अनुवाद को लेकर कभी-कभी उलझने पैदा हो जाती हैं। जबकि ऑफिस अर्थात कार्यालय क्षेत्र में Pay का अर्थ वेतन है।, इस प्रकार शब्द अनुवाद में कभी-कभी उलझने भी पैदा हो जाती हैं। शब्द अनुवाद में मूल बातों के यथा तथ्य होने के कारण अनुवाद की भाषा कभी-कभी बनावटी हो जाती है और इसमें सहजता नहीं रह जाती इसलिए ऐसा अनुवाद कभी-कभी बोरिंग सा हो जाता है कुछ एक रोचक उदाहरण इस प्रकार है--, क)My head is eating circles इस वाक्य यथा तथ्य अनुवाद इस प्रकार होगा-मेरा सिर चक्कर खा रहा है।, ख) He became water and water अर्थात वह पानी पानी हो गया।, ग) Warm welcome अर्थात गरमा गरम स्वागत, घ) it was raining cats and dogs अर्थात बिल्ली और कुत्तों की बरसात हो रही थी।, यहां शब्द का शब्द अनुवादित होने से वाक्य हास्यास्पद बन गए हैं जबकि इनका मूल अर्थ और अभिप्राय कुछ और ही है।, भावानुवाद, अनुवाद के क्षेत्र में अन्य सभी अनुवादों की अपेक्षा भाव अनुवाद को उत्कृष्ट कोटि का माना जाता है। ऐसे अनुवाद में शब्द अनुवाद की भांति केवल शब्द या वाक्य प्रयोग आदि पर ध्यान ना देकर स्त्रोत भाषा और लक्ष्य भाषा के मूल अर्थ विचार और भावा भी व्यक्ति पर ही अधिक ध्यान दिया जाता है तथा मूल पाठ की आत्मा अर्थात मूल कथा की सामग्री को ही मुख्य मानकर उसे लक्ष्य भाषा में संप्रेषित किया जाता है।, अनुवाद के क्षेत्र में कभी-कभी ऐसी स्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं जब अनुवादक किसी भी पाठ्य का ठीक-ठीक अनुवाद करने में असमर्थ हो जाता है। ऐसी स्थिति में उस सामग्री के अनुवाद के लिए भव अनुवाद का ही सहारा लिया जाता है। इस प्रक्रिया को सबसे महत्त्वपूर्ण पद्धति माना जाता है क्योंकि भाव अनुवाद में मूल भाषा पाठ के प्रमुख विचार भाव और अर्थ को लक्ष्य भाषा में उसकी समस्त विशेषताओं के साथ संप्रेषित कर दिया जाता है। ऐसे अनुवाद में अनुवादक का ध्यान कथानक के भाव विचार और अर्थ पर विशेष रूप से केंद्रित रहता है। इस प्रकार यहां पर अनुवादक सचेत और सावधान होकर ही मूल पाठ की सामग्री के अर्थ को अच्छी तरह से समझ कर उसके बाद उससे लक्ष्य भाषा पाठ में लाने की कोशिश करता है। इसलिए यहां पर स्त्रोत भाषा की रचना धर्मिता सुरक्षित रहती है और अनुवाद की प्रतिभा शक्ति भी उभर कर आती है। इसलिए भाव अनुवाद सबसे अधिक उपयोगी और उत्कृष्ट कोटि का माना जाता है।, छायानुवाद, छाया अनुवाद के संदर्भ में छाया शब्द से अर्थ है धुंधला प्रभाव अर्थात इस संवाद में मूल पाठ की अर्थ छाया को ग्रहण करके ही अनुवाद किया जाता है, इसमें स्त्रोत भाषा की मुख्य बातें दृष्टिकोण और विचार आदि को भलीभांति ग्रहण करके उनके सार भूत प्रभाव को लक्ष्य भाषा में रूपांतरित कर दिया जाता है। छाया अनुवाद में शब्द अनुवाद की भांति स्त्रोत भाषा के शब्दों का अनुसरण ना करके या भाव अनुवाद की भांति मूल विचारों के अर्थों का अनुसरण ना करके इन दोनों से अलग रहकर केवल इनकी छाया मात्र लेकर ही स्वतंत्र रूप से अनुवाद किया जाता है। यह अनुवाद बेहद संक्षिप्त होता है।, व्याख्या अनुवाद, व्याख्या अनुवाद में मूल पाठ की व्याख्या के साथ अनुवाद किया जाता है। व्याख्या सहज रूप से अनुवादक के व्यक्तित्व और चिंतन चिंतन प्रणाली पर आधारित होता है जिससे अनुवादक का महत्व उभरकर सामने आता है और उसकी बौद्धिक क्षमता की जांच पड़ताल भी भलीभांति हो जाती है। ऐसे अनुवाद में अनुवादक मूल विचारों को अपनी व्यक्तिगत शैली के अनुसार अनुवादित करता है। जैसे लोकमान्य तिलक द्वारा किया गया गीता का अनुवाद पुस्तक गीता रहस्य में तथा महाराष्ट्र के संत ज्ञानेश्वर द्वारा किया गया भगवत गीता का अनुवाद ज्ञानेश्वरी पुस्तक के रूप में इसी श्रेणी का अनुवाद कहलाता है।, सारा अनुवाद, लंबी लंबी रचनाओं और बड़े-बड़े भाषणों प्रतिवेदन ओ तथा राजनैतिक वार्ताओं आदि को उनके मूल कथानक ओ के साथ साथ सुरक्षित रखते हुए प्रसंग की आवश्यकता के अनुसार संक्षेप में अनुवादित करने की प्रक्रिया को सारा अनुवाद कहते हैं। ऐसे अनुवाद में स्त्रोत भाषा की सामग्री का सारांश लक्ष्य भाषा में अनुवादित कर दिया जाता है। इस पद्धति का प्रयोग मुख्य रूप से दुभाषिए, समाचार पत्रों के संवाददाता तथा संसद और विधान पालिकाओं की कार्यवाही के रिकॉर्ड कर्मचारी ही करते हैं।, आशु अनुवाद, आधुनिक युग में सांस्कृतिक सामाजिक और राजनीतिक विचारों के आदान-प्रदान के लिए आशु अनुवाद पद्धति का सहारा लिया जाता है। पद्धति को विश्व में बहुत अधिक महत्व प्राप्त है। विश्व के दो या दो से अधिक विभिन्न भाषा भाषी जब महत्वपूर्ण बातचीत या चर्चा करते हैं तब उनके विचारों और भावों को एक दूसरे तक पहुंचाने का महत्वपूर्ण कार्य दुभाषिया करता है। दुभाषिया अपने कार्यों को आशु अनुवाद के माध्यम से संपन्न करता है और इसके साथ-साथ आशु अनुवादक की कुछ विशेष जिम्मेदारियां भी हो जाती हैं जैसे दोनों भाषाओं के सूक्ष्म ज्ञान के साथ-साथ उन भाषाओं की सामाजिक और सांस्कृतिक विशेषताओं की समुचित जानकारी का पता होना दुभाषिए के लिए बेहद आवश्यक होता है।, आदर्श अनुवाद, इसे बेहद स्वाभाविक और सटीक अनुवाद भी कहा जाता है। इसमें अनुवादक मूल पाठ की मूल सामग्री का अनुवाद अभिव्यक्ति सहित लक्ष्य भाषा में स्वभाविक मानकों के द्वारा करता है। संक्षेप में अनुवाद मूल के अनुसार ही होता है और उसमें अनुवादक अपना व्यक्तिगत चिंतन शामिल नहीं करता है। आदर्श अनुवाद मूल भाषा पाठ जैसा ही दिखाई देता है अर्थात अनुवादक पाठ को पढ़ते समय पाठक को यही लगता है कि वह अनुवादित रचना नहीं अपितु मूल रचना ही पड़ रहा है। इस प्रकार के अनुवाद में अनुवाद को मनमानी करने की इजाजत नहीं रहती।, रूपांतरण, रूपांतरण से अर्थ है किसी रूप में बदलना अर्थात इस में अनुवाद के माध्यम से विधा का रूप परिवर्तन हो जाता है अर्थात अनुवादक किसी विधा का रूप बदलकर उसे दूसरी विधा में परिवर्तित कर देता है। इसमें उपन्यास अथवा कहानी को नाटक व एकांकी में बदल दिया जाता है। साथ ही साथ स्थितियों और संदर्भ की आवश्यकतानुसार पात्र कालक्रम और घटनाओं को भी बदला जा सकता है। रेडियो और दूरदर्शन पर इस प्रकार के रूपांतर रूपक नाटक आदि के रूप में देखने को मिलते हैं।, प्रश्न--अनुवाद की विशेषताएं या गुण बताएं, या, एक सफल अनुवाद किसे माना जा सकता है स्पष्ट करें, उत्तर--किसी भी विषय का सैद्धांतिक अध्ययन उस विषय को अपनी सीमा में वैज्ञानिकता प्रदान करने में सहायक होता है। अनुवाद को भी वर्तमान समय में अनुवाद विज्ञान माना जाने लगा है। इसका मूल कारण यह है कि सफल और सर्वश्रेष्ठ अनुवाद के अपने तत्व होते हैं अपनी विशेषताएं होती है। आज अनुवाद का क्षेत्र विविध रूपी और अति विशाल हो चुका है इसलिए हर क्षेत्र के सफल और श्रेष्ठ अनुवाद के अपने मानदंड होते हैं नियम होते हैं जिसके आधार पर अनुवाद विद्या को परखा जा सकता है। यहां हम उन तत्वों पर दृष्टिपात करेंगे जो किसी भी अनुवाद को श्रेष्ठ बनाने में आधार भूमि का कार्य करते हैं।, 1. सहजता, अनुवाद वहीं सर्वश्रेष्ठ कहलाता है जो बहुत सह जो सरल हो। यदि लक्ष्य भाषा भाषी किसी रचना में खींचतान हिया किसी किस्म की कठिनाई अनुभव करते हैं तो वह रचना सिर्फ अनुदित और बनावटी सी प्रतीत होती है। जब कोई रचना मूल स्वरूप में ना लगकर अनुदित प्रतीत हो तो अनुवाद की सफलता में संदेह उत्पन्न होता है जोकि अनुवादक की असफलता का प्रतीक है। अनुवादक जब सहजता की रक्षा का पूरा पूरा प्रयास करते हुए रचना का अनुवाद करता है तो लक्ष्य भाषा में प्रस्तुत अनुदित सामग्री मूल वत लगती हैं और उसकी सफलता में कोई संदेह नहीं रहता है। इसलिए स्पष्ट है अनुवाद में सहजता का अपना विशेष महत्व होता है और इसके अभाव में अनुदित रचना बनावटी लगने लगती है। स्रोत भाषा की सामग्री को लक्ष्य भाषा में डालते हुए लक्ष्य भाषा की संरचना प्रकृति सभ्यता संस्कृति और प्रादेशिक ता आदि का पूरा पूरा ध्यान रखते हुए इतनी सरलता से अनुवाद किया जाए कि सभी कुछ सहज और स्वाभाविक सा लगे।, 2.. समीपता, सहजता के साथ-साथ अनुवाद में समीपता या निकटता का तत्व भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। यदि अनुवाद अत्यंत सहज और सुबोध होते हुए भी मूल भाषा से दूर होता है यहां स्वतंत्र सा लगता है तो वह सफल या श्रेष्ठ किसम का नहीं माना जा सकता। जब अनुवाद में सहजता के साथ साथ मूल के साथ निकटता की रक्षा भी हो जाए तो उसकी सफलता में कोई संदेह नहीं रह जाता। यह समीपता का तत्व भाषा , संरचना और व्याकरण आदि के आगे तथ्य ,कथ्य तथा सभी प्रकार के संदर्भों से पैदा होता है। इसके साथ साथ यह निकटता शिल्प के स्तर पर भी होनी चाहिए।, 3.. समतुल्यता, समतुल्य शब्द अंग्रेजी के किस शब्द का पर्यायवाची है जिसका अर्थ है इक्वल इन वैल्यू। अनुवाद के क्षेत्र में देखा जाए तो स्त्रोत भाषा के पाठकों के लिए रचना का जो महत्व और मूल्य होता है वही लक्ष्य भाषा के पाठकों का भी होना चाहिए अनुवाद की प्रक्रिया में एक भाषा की बात दूसरी भाषा में इस प्रकार से लाई जाएगी दूसरी भाषा वालों को वह पूरी तरह से समझ में आ जाए। समतुल्यता और सममूल्यता ही अनुवाद को मूल के निकट ले आती है। सफल अनुवाद में समतुल्य था केवल अर्थ के स्तर पर ही नहीं होती अपितु शैली के स्तर पर भी होती हैं।, 4. मूलनिष्ठता, सफल तथा श्रेष्ठ अनुवाद की एक और अनिवार्य शर्त है मूलनिष्ठता। अनुवादक को चाहिए कि वह मूल सामग्री के साथ पूरी पूरी निष्ठा रखें। जहां अनुवाद की इस निष्ठा में कमी आएगी वही अनुवाद में उन्मुक्त सामग्री का समावेश हो जाएगा जो स्त्रोत सामग्री से भिन्न हो सकती है। यदि अनुवादक पूरी तरह से मुक्त होकर मूल का लक्ष्य भाषा में रूपांतरण करेगा तो वह अनुवाद के नाम पर विद्रोह को ही माना जाएगा।, 5. समूलता, स्रोत भाषा की सामग्री का मूल सहित लक्ष्य भाषा में प्रतिस्थापित होना ही सब मिलता है। जब मूल सामग्री अपनी जड़ अर्थात मूल के साथ लक्ष्य भाषा में संप्रेषित होती है तो वह अनुवाद स्तरीय तथा विश्वसनीय बन जाता है। यह समूल का अनुवाद में मूल के उद्देश्य विषय, भावार्थ ,विचार ,सामाजिक ,सांस्कृतिक ,आंचलिक तथा अन्य संदर्भ के साथ-साथ कथ्य और शिल्प आदि स्थलों पर भी अपेक्षित रहती है।, 6. सरलता, किसी भाषा की सामग्री से अन्य भाषा भाषियों को परिचित कराना ही अनुवाद का मुख्य हेतु है। लेकिन यह रूपांतरण यदि सीधा और सरल ना हो तो अनुवाद का कार्य व्यर्थ हो जाता है इसलिए अनुवाद की सफलता के लिए उसका सरल होना अनिवार्य है। किसी प्रकार की कठिनता, जटिलता और बोझिलता अनुवाद को मुश्किल बना देती है।, 7. बोधगम्यता, अनुवाद साहित्यिक सामग्री का हो या साहित्येतर सामग्री का, उसमें बोधगम्यता का समावेश होना अनिवार्य है। नहीं तो वह असफल और अनुपयुक्त माना जाएगा। ऐसे अनुवाद का कोई महत्व यहां उपयोग नहीं रह जाता। सरलता तथा सुबोधता आदि के कारण ही अनुवाद बोधगम्य बनता है इसलिए अनुवाद में दुर्बोध एवं मिश्रित वाक्य तथा अनेकार्थी शब्दों के प्रयोग से बचना चाहिए क्योंकि इससे बोधगम्यता के तत्व को क्षति पहुंचती है। अनुवाद भ्रष्ट होता है और पाठक वर्ग तक सही सही अर्थ संप्रेषित नहीं हो पाता।, 8. स्पष्टता, अनुवाद को श्रेष्ठ और सुंदर बनाने वाले सभी तत्वों में स्पष्ट ता का स्थान सबसे विशिष्ट है। अनूदित सामग्री यदि स्पष्ट हो तभी अनुवाद सफल माना जाता है। अनुवाद के अस्पष्ट और क्लिष्ट होने से वह स्त्रोत भाषा से पूरी तरह से व्हिच इन हो जाता है इसलिए अनुवाद में जटिल और बोझिल भाषा प्रयोग से बचना चाहिए। इससे वर्णित विषय अस्पष्ट रहता है। सुस्पष्ट शब्द योजना तथा भाषा संरचना ही स्त्रोत सामग्री को लक्ष्य भाषा में सफलतापूर्वक रूपांतरित कर सकती है। मूल के कथित तथ्यों और वर्णित विषय को उसकी गरिमा के साथ संप्रेषित करने के लिए अनुवाद में स्पष्टता का ध्यान रखना विशेष रूप से अपेक्षित है।, निष्कर्ष, कुल मिलाकर देखा जाए तो मूल सामग्री के गहन अध्ययन चिंतन और मनन के बाद उसके स्वरूप तथा उद्देश्य को लक्ष्य भाषा के पाठकों तक सहज और प्रभावी रूप से संप्रेषित होने वाला तथा लक्ष्य भाषा का परिष्कार करने वाला अनुवाद ही सफल अच्छा और श्रेष्ठ अनुवाद कहलाता है। यदि उपरोक्त सभी तत्वों का ध्यान रखा जाए तो निश्चय ही स्त्रोत भाषा सामग्री को उसकी मूल प्रकृति के अनुसार लक्ष्य भाषा में प्रस्तुत किया जा सकता है।, प्रश्न--अनुवाद की उपयोगिता या प्रासंगिकता या महत्व का वर्णन करें।, उत्तर भूमिका, भारत के संविधान में 22 स्वीकृत भाषाएं हैं। इन भाषाओं के अतिरिक्त मालवी निमाड़ी बुंदेलखंडी मैथिली अवधी ब्रज खासी बोडो राजस्थानी आदि सैकड़ों बोलियां अपना-अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखती है। किसी भी व्यक्ति के लिए इन सब भाषाओं को बोलना जाना और समझ लेना आसान काम नहीं है और संभव भी नहीं है लेकिन आज के युग में इनको जाने बिना काम नहीं चलता क्योंकि आज मनुष्य एक दूसरे पर निर्भर है और आप 80 तालमेल रखने की जरूरत अनुभव करने लगा है। जब अनेक भाषाओं को जान लेना संभव नहीं है तथा ने लोगों के भावों और विचारों की अभिव्यक्ति के बिना कार्य करना सरल नहीं है तब क्या किया जाए? इस स्थिति से मुक्ति पाने हेतु अनुवाद की आवश्यकता प्रतीत होती है। अर्थात हर प्रकार की भाषा से जुड़ी दुविधाओं से अनुवाद मुक्ति दिलाता है।, प्रत्येक देश और काल में दूसरे देश और भिन्न काल की भावनाओं और अभिव्यक्ति के माध्यम में अंतर रहता है अर्थात एक देश में युगों से बसी हुई मानव जाति भी अपने पूर्वजों के भावों और विचारों को जानने समझने के लिए अपनी वर्तमान भाषा में उन्हें रूपांतरित करने के लिए इच्छुक रहती है और यह प्रक्रिया सफल होती है केवल एक ही माध्यम से जिससे हम अनुवाद कहते हैं। अनुवाद पुरातन और वर्तमान के बीच एक मजबूत कड़ी की भांति है।, किसी दूसरी भाषा में व्यक्त कथन या संदेश को उससे भिन्न भाषा भाषियों को उसका वास्तविक अर्थ बोध कराने के लिए अनुवाद अति महत्वपूर्ण होता है""---''Since it is not possible for everybody do learn well more than one or two languages, it is absolutely essential that the scientific and technical lead a giraffe more advanced to countries should be available in our university students in our languages''अर्थात प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह संभव नहीं है कि वह एक या दो से अधिक भाषाओं को भलीभांति सीख सके इसलिए यह आवश्यक है कि विश्वविद्यालय छात्रों के लिए विकसित राष्ट्रों का वैज्ञानिक और तकनीकी साहित्य अपनी भाषा में उपलब्ध करवाया जाए।, अनुवाद की अनिवार्य उपयोगिता प्रत्येक युग देश और जीवित समाज के लिए उसकी भाभी प्रकृति को समकालीन रखने के लिए सदा के लिए आवश्यक और महत्वपूर्ण मानी जाएगी।, आधुनिक समय में लेखन एक महत्वपूर्ण कला और व्यवसाय है। प्रत्येक लेखक की यह हार्दिक इच्छा होती है कि उसकी रचना अधिक से अधिक व्यक्ति पढ़ें और उसके विचारों को बहुसंख्यक लोग जाने तथा उसकी विशेष पहचान बन सके। उसकी लेखन क्षमता से अधिक से अधिक लोग प्रभावित हो। वह अपनी आंतरिक अनुभूतियां अधिक से अधिक लोगों के साथ बांटे। मातृभाषा में लिखने मात्र से उसकी यह आकांक्षा पूरी नहीं होती है और इसकी पूर्ति में अनुवाद कला अंधेरे में प्रकाश का कार्य करती है।, विश्व साहित्य के चिरंतन शाश्वत और सार्वभौमिक ग्रंथों का कामा प्राचीन भाषाओं की गौरवशाली रचनाओं का तथा वर्तमान जगत की नवीनतम बहुमूल्य रचनाओं का अनुवाद किए बिना कोई भी भाषा यहां साहित्य अपनी समृद्धि और संपूर्णता के सपने को पूरा नहीं कर सकता इसलिए इन विविध कारणों को ध्यान में रखते हुए अनुवाद की आवश्यकता होती है। अनुवाद की प्राथमिक जरूरत होती है उचित शब्द भंडार का संग्रह और निर्माण। यदि किसी भाषा में तकनीकी प्रौद्योगिकी विज्ञान और प्रशासन संबंधी शब्द भंडार की परंपरा नहीं है तो वहां शब्द भंडारण और संग्रह हेतु यह प्रयास किया जाता है कि उस विदेशी भाषा के शब्दों को यथासंभव थोड़ा बहुत परिवर्तन या संशोधन करके जैसे का तैसा अपना लिया जाए और प्रचलन में आने के बाद भी शब्द अपने अपरिचित होने का चोला उतार कर परिचय के दामन में समा जाए, अनुवाद की आवश्यकता क्यों होती है और वह कौन सी ऐसी परिस्थितियां यहां कारण है इस विषय में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की यह मान्यता है कि अनुवाद सामान्य रूप से चार वर्गों के पाठकों के लिए किया जाता है जिनका वर्णन इस प्रकार है--, क) वह व्यक्ति जो मूल की भाषा नहीं जानता और ना आगे उसे सीखने का प्रयास करेगा।, ख) वह व्यक्ति जो दोनों भाषाओं में निपुण हो दक्ष हो, ग) वह व्यक्ति जो मूल की भाषा सीख रहा है और अनुवादक से सहायता लेना चाहता है।, च) वह व्यक्ति जो मूल की भाषा जानता है लेकिन अब उसे भूल गया है।, अनुवादक पर इन चारों की प्रतिक्रियाएं भिन्न-भिन्न होती है--पहला कहता है इस लेखक का बड़ा नाम सुना है देखें क्या चीज है। दूसरा कहता है लो अच्छा है मुझे मूल समझने में सहायता मिलेगी। तीसरे की प्रतिक्रिया होगी--देखें अनुवाद कैसा हुआ है मेरी कसौटी पर खरा उतरा है या नहीं। और चौथे की प्रतिक्रिया सर्वत्र एक समान व्यंग्यात्मक और कठोर होगी। अनुवाद में चाहे परिश्रम कितना भी किया हो उस भाषाओं का पंडित यही बोलेगा कि देखें इसने कितना चौपट किया है?, जिससे तेज गति से विज्ञान की आधुनिक समय में प्रगति हो रही है और प्रौद्योगिकी क्षेत्र में विकास द्रुत गति से हो रहा है, भूमंडलीकरण के कारण विश्व एक मंच पर खड़ा हो रहा है तथा नए नए साहित्य का सृजन शिखरों के आसमान को स्पर्श कर रहा है। उसको उसी रफ्तार से तो नहीं कुछ धीमी गति द्वारा अपनी भाषा में और अपने राष्ट्र वासियों को सुलभ करवाने का एकमात्र साधन अनुवाद ही है। विश्व की नवीनतम उपलब्धियों से परिचित होना, गतिविधियों को जानना तथा नित्य नए विकास से अपने राष्ट्र के कार्यों में सामंजस्य बैठाने के लिए तथा भिन्न-भिन्न भाषाओं की दूरी को समाप्त करने के लिए अनुवाद आज के युग की महत्वपूर्ण आवश्यकता बन चुका है।, निष्कर्ष, निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि निम्नलिखित कारणों के लिए आज अनुवाद की महती आवश्यकता है--, क) भावात्मक एकता, आपसी समन्वय, पुरातन और नवीन का सामंजस्य, ज्ञान में वृद्धि करना, अभिव्यक्ति क्षेत्र में प्रसार, विश्व की विभिन्न संस्कृतियों से निकट परिचय, विश्व के अन्य राष्ट्रों के समाज राजनीति धर्म संस्कृति साहित्य से सानिध्य स्थापित करना, विधि और न्याय संबंधी गवेषणाएं(खोज आविष्कार), परंपरा और संस्कृति की सुरक्षा, परस्पर व्यापार में वृद्धि, शोध कार्य