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मगध साम्राज्य का उत्कर्ष सबसे पहले तो ये जानते हैं कि मगध राज्य का विस्तार कहाँ था तो यह था वर्तमान बिहार के दक्षिणी भाग में स्थित पटना और गया जिले में था। इसके उत्तर और पश्चिम में क्रमशः गंगा और सोन नदी थी, पूर्व में चम्पा नदी तथा दक्षिण में विंध्य पर्वत की श्रेणियां स्थित थी।, मगध, मगध साम्राज्य का आगे बढ़ने का एक सबसे अच्छा कारण ये था कि यहाँ के रहने वाले लोग ज्यादा लगान (Tax) दिया करते थे। क्योंकि ये गंगा और सोन नदी के दोआब (दो नदियों का तराई क्षेत्र) में पड़ रहा है। तराई क्षेत्र में कृषि ज्यादा होगी, अगर कृषि ज्यादा होगी तो लोग ज्यादा कर (Tax) भरेंगे राजा को। और अगर राजा को ज्यादा कर मिलेगा तो राजा अपनी सेनाओं को, अपने खर्चों को सबको बड़ा करेगा। यही एक वजह रहती है जिससे मगध साम्राज्य अन्य महाजनपदों के मुकाबले बहुत आगे निकल जाता है।, इसकी प्रथम राजधानी राजगीर के निकट गिरिब्रज/राजगृह थी।, वेदों से जानकारी (प्रमाण) :, ऋग्वेद में कीकट (किराट) नामक प्रदेश का उल्लेख मिलता है। जहां राजा प्रमगन्द का शासन था। (कीकट अर्थात मगध), यजुर्वेद में भी मगध के रहने वाले भाटों जनजाति का उल्लेख मिलता है।, अथर्ववेद में एक प्रार्थना है उसमें कहा गया है कि यह बीमारी मगध को जाए। मतलब एक श्राप जैसा बात बोला गया है। वैसे तो आप जानते ही हैं कि अथर्ववेद में जादू-टोना, तंत्र-मंत्र, अंधविश्वास यदि के बारे में बताया गया है।, मगध पर शासन करने वाले प्रमुख राजवंश, बृहद्रथ वंश, हर्यक वंश, शिशुनाग वंश, नंद वंश, मौर्य वंश, शुंग वंश, बृहद्रथ वंश :, अगर महाभारत और पुराणों की बात करें तो उसमें लिखा हुआ है कि मगध के प्रथम राजवंश की स्थापना बृहद्रथ ने की थी। इसकी राजधानी गिरिब्रज/राजगृह थी। महाभारत में बृहद्रथ का बेटा जरासंध का उल्लेख है यह वही जरासंध है जिसका भीम के साथ मल्ल युद्ध हुआ था। और भीम ने मारा था इनको यानी जरासंध को।, हर्यक वंश (544 ई०पू-412 ई०पू०) :, बिम्बिसार (544 ई०पू०-493 ई०पू०), इस वंश का सर्वाधिक प्रतापी और ताकतवर राजा बिम्बिसार था। बिम्बिसार ने हर्यक वंश की स्थापना 544 ई०पू० में की थी। वह बौद्ध धर्म को मानता था। बिम्बिसार महात्मा बुद्ध के समकालीन था। इसने अपनी राजधानी गिरिब्रज/राजगृह को बनाया था। बिम्बिसार ने मगध पर लगभग 52 वर्षों तक राज किया। बिम्बिसार का पुत्र था- अजातशत्रु (493 ई०पू०-461 ई०पू०) तथा अजातशत्रु का पुत्र था- उदायिन। इन सब ने अपने-अपने पिता की हत्या की इसलिए इस वंश को पितृहन्ता वंश भी कहा जाता है।, बिम्बिसार एक सच्चा राजनीतिज्ञ था। इसने कोशल एवं वैशाली के राज घरानों से वैवाहिक संबंध बना कर रखा था। कोशल साम्राज्य की जो राजकुमारी थी कोशल देवी जिसका नाम महाकोशला मिलता है और जो कि प्रसेनजीत की बहन थी, इससे इनका विवाह होता है। उसकी दूसरी पत्नी थी चेल्लना जो वैशाली के लिच्छवी प्रमुख चेटक की पुत्री थी। जैन ग्रंथो के अनुसार अजातशत्रु इसी चेल्लना के पुत्र थे और बौद्ध ग्रंथों के अनुसार ये कोशल देवी के पुत्र थे। इसके बाद उसने मद्र देश (आज का पंजाब) की राजकुमारी छेमा से विवाह करके इन्होंने वैवाहिक संबंध कायम किया और अपने आप को और ज्यादा मजबूत बनाया। अवन्ति के राजा थे चण्डप्रद्योत महासेन इनको जब पीलिया रोग होता है तब इन्होंने बिम्बिसार से रिक्वेस्ट की थी कि आपका जो राजवैद्य है उनको भेजा जाए। तब बिम्बिसार ने जीवक नामक राजवैद्य को इनके इलाज के लिए भेजा था।, बिम्बिसार ने अंग प्रदेश को जीतकर अपने साम्राज्य का अंग बना लिया। बिम्बिसार का अवन्ति से बहुत अच्छा संबंध था। अवन्ति के राजा थे चण्डप्रद्योत महासेन इनको जब पीलिया रोग होता है तब इन्होंने बिम्बिसार से रिक्वेस्ट की थी कि आपका जो राजवैद्य है उनको भेजा जाए। तब बिम्बिसार ने जीवक नामक राजवैद्य को इनके इलाज के लिए भेजा था।, अजातशत्रु (493 ई०पू-461 ई०पू०), अजातशत्रु ने अपने पिता बिम्बिसार की हत्या करके मगध साम्राज्य की गद्दी हासिल की। इन्हें कुणिक नाम से भी जाना था। इन्होंने 32 साल तक शासन किया। इन्हीं के समय राजगृह में 483 ई०पू० में पहली बौद्ध संगीति का आयोजन किया गया, जहाँ पर बुद्ध की शिक्षाओं को सुत्तपिटक एवं विनयपिटक में विभाजित किया गया। बुद्ध की मृत्यु अजातशत्रु के शासन के 8वें वर्ष में हुई थी ऐसा बौद्ध ग्रंथों में लिखा गया है। इनका काशी और वज्जि के साथ 16 साल तक संघर्ष चलता है और फाइनली इन दोनों को मगध साम्राज्य का अंग बना लिया जाता है। ये वही वज्जि है जो 8 राज्यों का संघ था।, अजातशत्रु के विजय का सबसे बड़ा कारण जो है वह यह था कि उनके एक तो मंत्री थे- वर्षकार/वरस्कार और देखिए जैसा कि मैंने आपको पहले ही बताया कि वज्जि 8 राज्यों का संघ था और उनकी सबसे बड़ी ताकत थी उनकी एकता। इस वर्षकार ने उनमें आपस में फूट डाल दी और फूट डालने के बाद वे कमजोर हो गए। और अजातशत्रु ने विजय प्राप्त कर ली। दूसरा कारण था कि अजातशत्रु के पास दो यंत्र थे एक था- महाशिलाकंटक जो पत्थर फेंकने वाला युद्ध यंत्र था और दूसरा था- रथमूसल यह रथ में एक गदा जैसा हथियार होता था जिससे एक साथ कई सैनिकों को मारा जा सकता था।, उदायिन (461 ई०पू०-445 ई०पू०), उदायिन अजातशत्रु का पुत्र था और इसने 461 ई०पू० में अपने पिता की हत्या कर मगध की गद्दी पर बैठा। इसके समय की मुख्य घटना यह थी कि इसने गंगा और सोन नदी के संगम पर पाटलिपुत्र नगर की स्थापना की और इसने इसी पाटलिपुत्र को अपना राजधानी बनाया। आधुनिक बिहार की राजधानी पटना यही पाटलिपुत्र है। उदायिन जैन मतानुयायी था। इसके बाद शाशक हुए अनिरुद्ध, मुण्ड और नागदशक। इन तीनों ने मिलकर करीब 412 ई०पू० तक शासन किया। हर्यक वंश का अंतिम शासक नागदशक था और यहां तक आते-आते इनका जो शासन है वो अच्छा नहीं रहा। इस वजह से जनता में अव्यवस्था फैलने लगी और इनके जो अमात्य थे शिशुनाग उसने नागदशक की हत्या करके मगध पर शिशुनाग वंश की स्थापना की।, शिशुनाग वंश (412 ई०पू० – 345 ई०पू०), शिशुनाग (412 ई०पू०-394 ई०पू०) ने अपनी राजधानी पाटलिपुत्र से हटाकर वैशाली में स्थापित की। शिशुनाग का उत्तराधिकारी हुआ कालाशोक (394 ई०पू०-366 ई०पू०) जिसने पुनः राजधानी को पाटलिपुत्र ले गया। कालाशोक के शासनकाल में ही 383 ई०पू० में वैशाली में द्वितीय बौद्ध संगीति का आयोजन किया गया था। इस वंश का अंतिम राजा नंदिवर्धन था। उसके बाद नंद वंश की स्थापना होती है।, नंद वंश (345 ई०पू०-322 ई०पू०), नंद वंश का संस्थापक महापद्मनंद था। यह वंश शुद्र माना जाता है। क्योंकि पुराणों में कहा गया है कि इस वंश का संस्थापक महापद्मनंद एक शुद्र शासक था। पुरणों में महापद्मनंद को ‘सर्वक्षत्रान्तक’ यानि क्षत्रियों का नाश करने वाला कहा गया है। इसे दूसरा भार्गव (दूसरा परशुराम) भी कहा गया है। परशुराम ने कहा था कि मैं इस धरती को क्षत्रियों से विहीन कर दूंगा।, महापद्मनंद के समय सबसे मजबूत सेना नंदों की ही थी। एक प्रकार से सम्पूर्ण भारत पर राज नंदों ने ही की है। महापद्मनंद ने विशाल साम्राज्य स्थापित कर ‘एकराट’ और ‘एकच्छत्र’ की उपाधि धारण की। पाटलिपुत्र जो कि इनकी राजधानी थी मगध साम्राज्य की, उसको समस्त भारत को एक केंद्र बिंदु बना दिया। अष्टाध्यायी (संस्कृत व्याकरण) के लेखक पाणिनि महापद्मनंद के ही दरबार में रहते थे। खारवेल का हाथीगुम्फा अभिलेख से महापद्मनंद की कलिंग विजय सूचित होती है। आज का जो ओडिशा है पहले वह कलिंग साम्राज्य हुआ करता था। इस अभिलेख के अनुसार नंद राजा जिनसेन की एक प्रतिमा उठा ले गया तथा उसने कलिंग में एक नहर का निर्माण कराया। महापद्मनंद के बाद आते हैं धनानंद।, महापद्मनंद के आठ पुत्रों में अंतिम पुत्र धनानंद था। इसे धन जमा करने का बहुत शौक था और इसलिए इनका नाम कहते हैं कि धनानंद था।। धनानंद सिकन्दर का समकालीन था। इसके शासन काल में ही यूनानी शासक सिकन्दर ने करीब 326 ई०पू० में भारत के पश्चिमी तट (पंजाब) पर आक्रमण किया। उस समय पंजाब के राजा थे पोरस उनके साथ सिकन्दर का युद्ध होता है जिसे हाइडेस्पीज के युद्ध या झेलम (वितस्ता) का युद्ध के नाम से जाना जाता है। पोरस इस युद्ध में पराजित हो जाते हैं और सिकन्दर उनसे पूछते हैं कि बताओ आपके साथ क्या व्यवहार किया जाय? तो पोरस कहते हैं वही जो एक राजा दूसरे राजा के साथ करता है। इससे सिकन्दर इतना खुश होता है कि उसे उसका अपना साम्राज्य वापस दे देता है। लेकिन देखिए सिकन्दर की सेना ने व्यास नदी से आगे बढ़ने से मना कर दिया। क्यों? क्योंकि उस समय हिंदुस्तान की सबसे बड़ी सेना/फौज नंद वंश के ही पास थी। तो इनकी सेना की विशालता के कारण वे आगे नहीं बढ़े। कहते हैं कि इनके पास 2 लाख पैदल सैनिक, 20 हजार घुड़सवार, 3 हजार हाथी इस प्रकार से इनके पास बहुत विशाल सेना थी। सिकन्दर स्थल मार्ग-द्वारा 325 ईसा पूर्व में भारत से लौटा। सिकन्दर की मृत्यु 323 ई०पू० में बेबीलोन में हो गया।, यूनानी लेखों में धनानंद के लिए ‘अग्रमीज’ और ‘जैन्द्रमीज’ शब्द का प्रयोग होता है। हालांकि धनानंद का शासन उतना अच्छा नहीं माना जाता है, इनको अच्छा व्यक्ति कोई नहीं मानते हैं। धनानंद के ही दरबार में थे चाणक्य/कौटिल्य/विष्णुगुप्त। एक बार धनानंद इनकी बेज्जती करते हैं। तो चाणक्य कहते हैं कि मैं तुम्हारी इस विशाल साम्राज्य का अंत करके एक योग्यवान व्यक्ति को इस पद पर बैठाऊंगा। तब चाणक्य जो हैं वे चन्द्रगुप्त मौर्य को सैनिक शिक्षा-दीक्षा में अच्छे से पारंगत करके आक्रमण करते हैं और धनानंद को हटाकर चन्द्रगुप्त मौर्य को मगध साम्राज्य की गद्दी पर बैठाते हैं। इस प्रकार एक नए वंश मौर्य वंश की नींव पड़ती है और इसके पहले शासक बनते हैं चन्द्रगुप्त मौर्य। मौर्य साम्राज्य के बारे में हमलोग अगले पोस्ट में पढेंगे।, कुछ महत्वपूर्ण बिंदु, भारतीय इतिहास में नियमित और स्थायी सेना रखने वाला पहला ज्ञात शासक कौन था- बिम्बिसार, महाजनपद युग में मगध सबसे आक्रामक महाजनपद के रूप में उभरा। मगध के साम्राज्य विस्तार का पहला शिकार कौन-सा महाजनपद हुआ- अंग महाजनपद, कौन-सा वंश भारत में पितृहन्ता वंश के रूप में जाना जाता है- हर्यक वंश, महाजनपदों में किस महाजनपद की राजधानी का नाम गिरिब्रज था- मगध की, मगध की राजधानी राजगृह से पाटलिपुत्र किस शासक के द्वारा स्थानांतरित कर दी गई- उदायिन, किस यूरोपीय विद्वान ने जस्टिन आदि यूनानी लेखकों द्वारा प्रयुक्त ‘सैंड्रोकोटस’ नाम की पहचान चन्द्रगुप्त मौर्य के रूप में की- विलियम जोन्स ने, मेगस्थनीज चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में कितने वर्ष रहा था- छः वर्ष, मगध साम्राज्य का अंतिम विस्तार कलिंग-विजय के रूप में था। इसकी शुरुआत किस विजय से हुई थी- अंग विजय, मगध साम्राज्य का उदय के कारण, byBandey•July 03, 2017, 1, प्राचीन भारतीय इतिहास में मगध का विशेष स्थान है । प्राचीन काल में भारत अनेक छोटे-बड़े राज्यों की सत्ता थी । मगध के प्रतापी राजाओं ने इन राज्यों पर विजय प्राप्त कर भारत के एक बड़े भाग पर विशाल एवं शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना की और इस प्रकार मगध के शासकों ने सर्वप्रथम अपनी साम्राज्यवादी प्रवृत्ति को प्रदर्शित किया । मगध में मौर्य वंश की स्थापना से पूर्व भी अनेक शासकों ने अपने बाहुबल व वीरता से मगध साम्राज्य को शक्तिशाली बनाया था ।, मगध साम्राज्य का उदय के कारण, मगध उत्तर भारत के विशाल तटवर्ती मैदानों के उपरी एवं निचले भागों के मध्य अति सुरक्षित स्थान पर था पांच पहाडियों के मध्य एक दुर्गम स्थान पर स्थित होने के कारण वहां तक शत्रुओं का पहुंचना प्राय: असम्भव था ।, गंगा नदी के कारण भी मगध में व्यापारी सुविधाये बढ़ी और आर्थिक दृष्टि से मगध के महत्व में वृद्धि हुई । मगध साम्राज्य की भूमि अत्यधिक उपजाऊ थी अत: आर्थिक दृष्टि से मगध सम्पन्न राज्य था । मगध साम्राज्य उत्कर्ष में हाथियों के बाहुल्य ने भी मगध साम्राज्य के उत्कर्ष में महत्वपूर्ण योगदान था ।, मगध साम्राज्य में लोहा बहुतायत और सरलता से मिलता था । मगध की शक्ति का यह महत्वपूर्ण स्त्रोत था । इससे जंगल साफ करके खेती के लिये भूमि निकाली जा सकती थी और उपज बढ़ाई जा सकती थी ।, मगध साम्राज्य का उदय, काफी समय तक इस काल का राजनीतिक इतिहास मुख्यत: उपरोक्त राज्यों में सर्वोच्चता के संघर्ष का लेखा-जोखा है । समय के साथ, मगध सर्वाधिक शक्तिशाली राज्य के रूप में उदित हुआ और एक विशाल साम्राज्य के रूप में फैला । मगध, राजा बिम्बसार (544 492-ई.पू.) के शासन काल में शक्तिशाली बना । वह भगवान् बुद्ध का समकालीन था और हरयंक राजकुल से संबंधित था । शुरू से ही बिम्बसार ने विस्तार की नीति अपनाई । अपनी स्थिति को शक्तिशाली बनाने के लिए उसके पास कुछ सुविधाएं थी । उसका साम्राज्य चारों ओर नदियों और पहाडियों के द्वारा सुरक्षित था । उसकी राजधानी राजगीर पहाड़ियों के साथ थी । उसके साम्राज्य की समृद्ध और उपजाऊ मिट्टी में बहुत अधिक उपज होती थी । हिरण्यवता या सोन नदी ने व्यापार को बढ़ावा दिया । इस तरह व्यापारिक और भूमि कर राज्य की आमदनी के पमुख स्त्रोत थे ।, मगध और आस-पास के क्षेत्रों की लोहे की समृद्ध खानों ने लोहे के हथियार बनाने में मदद की । अंग का अपन े राज्य में शामिल करना बिम्बसार की सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपलब्धियों में से था। अंग की राजधानी चंपा व्यापार का महत्वपूर्ण केन्द्र थी । बिम्बसार ने अपने पुत्र अजातशत्रु को इस राज्य का राज्यपाल बनाया । मगध का सबसे मुख्य शत्रु अवंती था । बिम्बसार का इसके शासन प्रद्योत महासेन के साथ लंबा युद्ध चला, जो हालांकि अंतत: मित्रता में तबदील हुआ । बौद्ध ग्रंथो में हमें पता चलता है कि गंभीर रोग से पीड़ित प्रद्योत महासेन के इलाज के लिए बिम्बसार ने अपने चिकित्सक जीवक को भेजा था । बिम्बसार ने कोसल, वैशाली और भद्र के महत्वपूर्ण राज्य-परिवारों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किए । कोसल नरेश प्रसेनजित की बहन से विवाह में बिम्बसार को काफी गांव दहेज में प्राप्त हुआ । इन विवाहों ने उसकी स्थिति को मजबूत किया और सम्मान को बढ़या । इस तरह वैवाहिक संबंधों और विजयों से बिम्बसार ने मगध को अत्यधिक शक्तिशाली राज्य बना दिया ।, बिम्बसार ने कार्यकुशल प्रशासन व्यवस्थित किया । महावीर और बुद्ध दोनों इसके शासन काल के दौरान अपने सिद्धांतो के उपदेश दिए और ऐसा बताया जाता है कि उसने दोनों से ही करीबी संबंध रखे । संभवत: वह अजातशत्रु के हाथों मारा गया जिसने राजगद्दी पर कब्जा किया ।, अजातशत्रु ने स्वयं को अनेक शत्रुओं से घिरा पाया । राजा प्रसेनजित ने उसके खिलाफ युद्ध घोषित कर दिया और लिच्छवियों तथा विज्जियों के साथ भी उनके लंबे युद्ध हुए । काशी और अवंती साम्राज्य भी उसके शत्रु हो गए । अजातशत्रु ने इन चुनौतियों का सामना साहस और सफलता के साथ किया तथा उसने मगध को और बड़ा राज्य बना दिया । उसके पुत्र उदयन (460 ई.पू.- 444 ई.पू.) ने पाटलिपुत्र शहर का निर्माण किया, जो मगध की नई राजधानी बनी । बिबिसार के राजवंश के बाद शिशुनागों का शासन आया और अंतत: मगध की राजगद्दी की महापद्म नंद ने हथिया लिया ।, पुराणों के अनुसार नंद-नीची जाति के थे और क्षत्रिय नहीं थे । लेकिन उन्होंने स्वयं को सर्वाधिक शक्तिशाली शासक साबित किया और संभवत: उन्होंने कलिंग को अपने साम्राज्य में मिला लिया । सिकंदर के आक्रमण के समय (326 ई.पू.) नंद मगध पर शासन कर रहे थे । कुछ ऐतिहासिक अभिलेखों के अनुसार नंदों की शक्ति ने सिंकदर को भारत में और आगे बढ़ने से हतोत्साहित किया और उसे घर लौटने को विवश किया । यूनानी विवरणों के अनुसार धननंद के पास 20,000 घोड़ों, 2,00,000 पदाति, 2,000 रथों और कम से कम 3,000 हाथियों की विशाल सेना थी । नंद विभिन्न कारणों से अलोकप्रिय हो गए । विशाल सेना के रख-रखाव के लिए उन्होंने लोगों पर भारी कर लगाए और वे दमनकारी और साथ ही बहुत अहंकारी भी हो गए । परंपरा के अनुसार, नंदों के निरंकुश शासन को चन्द्रगुप्त मौर्य ने लगभग 323 ई.पू. में उखाड़ फेका । ऐसा भी विश्वास है कि इस उपलब्धि में चाणक्य नामक ब्राम्हण ने चन्द्रगुप्त की बहुत मदद की । महाजनपदों में से कुछ तो साम्राज्यवादी थे और कुछ लोकतंत्रात्म । बिम्बसार और अजातशत्रु के शासन काल में मगध अत्यधिक शक्तिशाली राज्य के रूप में उभरा । नंद राजाओं के शासनकाल के दौरान सिंकदर ने पंजाब में तो प्रवेश कर लिया, लेकिन नंद की सेना के डर से और आगे नहीं बदला । चन्द्रगुप्त मौर्य ने राजा नंद को हरा कर मगध का शासन प्राप्त किया । अपने पिता की मृत्यु के बाद 20 वर्ष की आयु में वह मकदूनिया (यूनान का एक राज्य) के सिंहासन पर आसीन हुआ । दो वर्ष पश्चात् वह एक विशाल सेना लेकर विश्व विजय के लिये चल पड़ा । 331 ई.पू. में उसने विशाल मखमली साम्राज्य को नष्ट कर डाला और 327 ई.पू. में बल्ख या बैक्ट्रियां पर अधिकार करके उसने भारतीय द्वार पर दस्तक दी । सिकन्दर के भीतरी अभियान के दो चरण थे ।, व्यास नदी तक सिकन्दर का अभियान, सिकन्दर की वापसी, चौथी शताब्दी ई.पू. के दौरान यूनान और फारस पश्चिमी एशिया पर अधिकार के लिए लड़े । अन्तत: मकदूनिया के सिकन्दर के नेतृत्व में यूनानियों ने इखमनी साम्राज्य को नष्ट कर दिया । उसने एशिया माइनर, ईराक और ईरान को जीता और फिर वह भारत की ओर बढ़ा । यूनानी इतिहासकार हिरोदोतम् के अनुसार सिकन्दर भारत की धन-सम्पदा से बहुत आकर्षित हुआ था । सिकन्दर के आक्रमण के समय उत्तर पश्चिम भारत छोटे-छोटे राजतंत्रों में बंटा हुआ था। एकता के अभाव में यूनानियों को उन्हें एक के बाद एक जीतने में मदद की । उनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण राजा थे- आंभी और पोरस । यदि वे अपने मतभेद भुलाकर संयुक्त मोर्चा लेते, तो शायद यूनानियों को हराया जा सकता था । इसके विपरित, तक्षशिला नरेश आंभी ने पोरस के खिलाफ सिकन्दर की मदद की । आंभी ने बिना कोई विरोध किए सिकन्दर के सम्मुख समर्पण कर दिया। लेकिन बहादुर पोरस, जिसका राज्य झेलम के किनारे था, ने कड़ा विरोध प्रदर्शित किया । हालांकि वह हार गया, लेकिन सिकन्दर उसकी बहादुरी से प्रभावित हुआ और उसके साथ सम्मान जनक व्यवहार किया व उसका राज्य भी लौटा दिया ।, इसके बाद सिकन्दर व्यास नदी की ओर बढ़ा और उसने पंजाब के काफी राज्यों को हरा दिया । वह पूर्व दिशा में आगे बढ़ना चाहता था, लेकिन उसके सैनिकों ने मगध के नंदा की विशाल सेना और शक्ति के बारे में सुना और हतोत्साहित होकर, उन्होंने आगे बढ़ने से इंकार कर दिया। यूनानी इतिहासकारों के अनुसार दस वर्षो के लंबे अभियान के बाद उन्हें घर की याद भी सताने लगी थी । सिकन्दर के बार-बार अनुरोध करने के बावजूद सैनिकों ने पूर्व दिशा की ओर बढ़ने से इंकार कर दिया और सिकन्दर को लौटना पड़ा । इस तरह पूर्व में साम्राज्य स्थापित करने का उसका सपना पूरी तरह साकार नहीं हुआ ।, वापसी यात्रा में सिकन्दर ने अनेक छोटे-मोटे गणतंत्रों जैसे सिबि और शुद्रक को हराया । सिकन्दर भारत में 19 महीनों (326 ई.पू.-325 ई.पू.) तक रहा । इन महीनों में उसने युद्ध ही युद्ध किए । 323 ई.पू. में 32 वर्ष की अल्पायु में उसकी बेबीलोन (बगदाद के निकट) में मृत्यु हो गई । सिकन्दर को अपनी विजयों को व्यवस्थित करने का समय नहीं मिला । ज्यादा राज्यों को उसके शासकों को, जिन्होंने उसकी सत्ता स्वीकार कर ली, लौटा दिया गया । उसने अपने अधिकृत क्षेत्र, जिनमें पूर्वी यूरोप के कुछ भाग और पश्चिमी एशिया का कुछ बड़ा भाग शामिल था, को तीन भागों में बांटा । उसके लिए सिकन्दर ने तीन राज्यपाल नियुक्त किए । उसके साम्राज्य का पूर्वी हिस्सा सेल्यूक्स निकेटर को मिला, जिसने अपने स्वामी सिकन्दर की मृत्यु के बाद, स्वयं को राजा घोषित कर दिया ।, सिकन्दर के आक्रमण ने भारत में राजनीतिक एकता का मार्ग प्रशस्त किया । सिकन्दर ने सभी छोटे और झगडालू राज्यों को जीत लिया था, और इस क्षेत्र में मोर्यो का विस्तार आसान हो गया । सिकन्दर 326 ई.पू. में भारत पर आक्रमण किया । उसने पंजाब को झेलम नदी तक जीत लिया था । लेकिन वह अपना साम्राज्य को व्यवस्थित नहीं कर पाया । सिकन्दर के आक्रमण ने राजनीतिक एकता की प्रक्रिया में मदद की ।, छठी शताब्दी ई.पू. में भगवान बुद्ध के समय में सोलह महाजनपद या विस्तृत प्रादेशिक राज्य थे । उनमें से कुछ साम्राज्यवादी थे और कुछ लोकतंत्रात्मक । इन सोलह राज्यों में से मगध अन्तत: सर्वोच्च शक्ति बन गया । गमध के उत्थान में कुछ कारक उत्तरदायी थे । वहां प्राप्त लोहे की खानों से लोगों को मजबूत हथियार बनाने में मदद मिली । उपाजा़ऊ भूमि, अतिरिक्त अन्न और समुद्री मार्ग बनाने वाली नदियों ने व्यापार और वाणिज्य के विकास में मदद की । फलत: मगध सर्वाधिक उन्नतिशील और शक्तिशाली राज्य बन गया ।, बिम्बसार ऐसा पहला राजा था, जिसने मगध को बड़ा बनाया । उसने यह विजयों और वैवाहिक संबंधों के द्वारा किया । अजाजशत्रु के शासनकाल मगध में विशाल साम्राज्य बन गया । नदं काल में यह शिखर पर पहुंच गया । धीरे-धीरे मगध न े अनेक सीमावतीर् राज्या ें को अपने साथ मिला लिया । सिकन्दर ने जब उत्तर पश्चिमी भारत पर आक्रमण किया, तो नंद शासक थे । भारत में बहुत आगे बढ़ने के बजाय यूनानी नेता शीघ्र ही वापिस चला गया । संभवत: यूनानियों ने सोचा कि मजबूत मगध साम्राज्य के साथ मुकाबला बुद्धिमत्ता नहीं है ।, मगध की सर्वोच्चता - मुख्य कारक, मजबूत केंद्रिक सरकार के अन्र्तगत मगध एक बड़े राज्य के रूप में विकसित हुआ, यह बिम्बसार, अजातशत्रु और महापद्म नंद जैसे अनेक महत्वाकांक्षी राजाओं की जीतोड़ मेहनत का नतीजा था, जिन्होंने साम्राज्यवादी नीति के तहत अपनी शक्ति को बढ़या । धार्मिक दृष्टि से भी मगध बहुत महत्वपूर्ण बन गया । जैन धर्म और बौद्ध धर्म दोनों इसी क्षेत्र में विकसित हुए, जिन्होंने लोगों के सामाजिक जीवन को बहुत प्रभावित किया । कृषि और व्यापार के विकास से वैश्य समुदाय समृद्ध हो गया, लेकिन ब्राम्हणवाद समाज से उसे कोई मान्यता नहीं मिली । इसलिए उन्होंने जैन धर्म और बौद्ध धर्म को स्वीकार करना अधिक अच्छा समझा, जो रूढ़ जाति पद्धति को मान्यता नहीं देते थे और साथ ही पशु बलि पर भी प्रतिबंध लगाते थे, जो कृषि अर्थ व्यवस्था में अत्यन्त महत्वपूर्ण थे । जैसा कि पहले बताया जा चुका है, मगधवासियों ने इस क्षेत्र में उपलब्ध समृद्ध लोहे की खनों का इस्तेमाल मजबूत हथियार और कृषि औजार बनाने के लिए किया । इसने उन्हें राजनीतिक और आर्थिक दृष्टि से लाभ की स्थिति प्राप्त करने में मदद की । मगध को कुछ और सुविधाएं भी थी । मगध की दोनों राजधानियां पहले राजगीर और बाद में पाटलीपुत्र, सामाजिक दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थिति में थी । राजगीर का दुर्ग पांच पहाड़ियों से घिरा हुआ था । इसलिए इसे गिरिवज्र भी कहा जाता था । आक्रमणकारियों के लिए राजधानी से घुसना अत्यन्त कठिन था ।, पांचवी शताब्दी ई.पू. मगध की राजधानी पाटलिपुत्र में स्थानांतरित हो गई, जिसे अजातशत्रु के पुत्र उदयिन ने बनाया था । पाटलिपुत्र तीन नदियों, गंगा, गंडक और सोन के संगम पर स्थित था । चौथी नदी सरयू भी पाटलीपुत्र के निकट गंगा में मिलती थी । चारों ओर से इसे नदियों ने घेरा हुआ था, जिसने इसे वस्तुत: ‘‘जलदुर्ग’’ बना दिया था जहां शत्रुओं की पहुंच प्राय: असंभव थी। इन नदियों को राज मार्ग, की तरह इस्तेमाल करके मगध के राजा अपने सैनिकों को किसी भी दिशा में भेज सकते थे ।, गंगा और उसकी सहायक नदियों द्वारा लाई गई उपजाऊ कछारी मिट्टी ने मगध क्षेत्र को बहुत अधिक समृद्ध बना दिया । लोहे के औजारों और उपकरणों से जंगलों को साफ करके अधिकाधिक भूमि पर खेती की जाने लगी । उष्ण वातावरण और भारी वर्षा से किसान बिना किसी खास कठिनाई के भारी फसल उगा पाते थे । बौद्ध ग्रंथों में आया है कि मगध के किसान चावलों की अनेक किस्में उगाते थे । अतिरिक्त उपज का इस्तेमाल राजा अपने सैनिकों और अधिकारियों को वेतन देने के लिए कर सकते थे । अतिरिक्त अन्न के कारण व्यापार भी फला फूला । मगध के जल मार्गो ने पूर्व भारत के व्यापार और वाणिज्य को नियंत्रित किया । इन नदियों के किनारे अनेक महत्वपूर्ण नगर, महत्वपूर्ण व्यापार केन्द्रों के रूप में विकसित हुए, जिस ने मगध के राजाओं को वस्तुओं की बिक्री पर मार्ग कर लगाने की अभिप्रेरणा दी । इससे उन्हें अपार संपदा एकत्रित करने और विशाल सेना रखने में मदद हुई ।, युद्ध हाथी मगध की सेना का विशेष अंग थे । मगध पहला राज्य था, जिसने युद्ध में हाथियों का इस्तेमान बड़े पैमाने पर किया । बाकी अन्य राज्य प्राय: रथों और, घोड़रों पर निर्भर थे । दुर्गो को गिराने और दलदल में चलने में हाथी उपयोगी थे । युनानी स्त्रोतां से हमें पता चलता है कि मगध की सेना में 6,000 हाथी थे, जिन्होंने सिकन्दर के नेतृत्व में पंजाब पर कब्जा कर चुके सैनिकों के मन में दहशत पैदा कर दी थी । संभवत: यह उन कारणों में से एक था, जिनकी वजह से मगध साम्राज्य पर आक्रमण करने के स्थान पर वह यूनान वापस लौट गए । मगध के समाज के गैर रूढिवादी चरित्र ने भी अप्रत्यक्ष रूप से इसके विकास में मदद की। कुछ प्रमुख इतिहासकारों का मत है कि शक्तिशाली राज्य के रूप में मगध के उदय का प्रमुख कारण इस क्षेत्र के लोगों का जातीय मिश्रण था । अनेक समुदायों का मिला-जुला रूप मगध में था, जिससे एक मिश्रित संस्कृति का विकास हुआ, जो प्रकृति में रूढिवादी वैदिक समाज से बहुत भिन्न थी ।, मगध की भौगोलिक स्थिति ने इसके इतिहास को बहुत प्रभावित किया । इसने इसे विदेशी आक्रमणों से बचाया और वहां के निवासियों के हित में व्यापार और खेती को बढ़ाया । इसकी लोहे की समृद्ध खानों ने मगध के लोगों को लोहे के हथियार व औजार बनाने में मदद की । मगध के लोगों के जातीय मिश्रण ने उन्हें गैर रूढ़िवादी बनाया ।