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भारतीय दर्शन में जिस सत्ता को आत्मा की संज़ा से विभूषित किया गया है, उसे ही सांख्य दर्शन में पुरुष कहा, गया है। वस्तुतः पुरुष एवं आत्मा एक ही तत्त्व के भिन्न-भिन्न नाम हैं। आत्मा के स्वरूप के सम्बन्ध में, भारतीय दार्शनिकों में अनेक मतभेद हैं। चार्वाक के अनुसार आत्मा शरीर से भिन्न नहीं है। यह शरीर की भाँति, ही भौतिक है। बौद्ध दर्शन के अनुसार आत्मा चेतना का प्रवाह है। जैन दर्शन के अनुसार आत्मा नित्य एवं, चेतन द्रव्य है। न््याय-वैशेषिक के अनुसार आत्मा स्वयं अचेतन है। जब इसका सम्पर्क शरीर, मन एवं इन्द्रियों, , , , , , से होता है, तब इसमें चैतन्य का उदय होता है। इस प्रकार यहाँ चैतन्य आत्मा का आकस्मिक गुण माना गया, है। शंकर ने आत्मा को सच्चिदानंद कहा है। भट्टमीमांसकों ने आत्मा को एक ऐसा पदार्थ कहा है जो अंशतः, अज़ञान से ढ़का है।, , , , सांख्य दर्शन में आत्मा को ही पुरुष कहा गया है, वस्त॒तः तुतः पुरुष एवं आत्मा एक ही तत्व के भिन्न-भिन्न नाम, हैं। सांख्य का पुरुष स्वयं सिद्ध है तथा इसके अस्तित्व का निषेध करना सम्भव नहीं है। पुरुष की सत्ता का, निषेध करने पर इस निषेध में ही इसका सत्ता का प्रमाण निहित है। पुरुष शुद्ध चैतन्य है। यह चैतन्य आत्मा, की सभी अवस्थाओं (जाग्रतावस्था, स्वपनावस्था, और सुषुप्तावस्था) में विद्यमान रहता है। पुरुष स्वयं, चैतन्य से प्रकाशित होता है और अन्य वस्तुओं को भी प्रकाशित करता है। पुरुष शरीर, मन, इन्द्रिय, बुद्धि,, अहंकार इत्यादि से भिन्न है। यह निष्क्रिय एवं अकर्ता क्योंकि इसमें इच्छा, संकल्प, दवेष आदि का अभाव, होता है। पुरुष सदैव जाता है तथा यह कभी भी ज्ञान का विषय नहीं होता है। यह गुणरहित है। यह नित्य, अनादि, एवं अनन्त है। सांख्य का पुरुष कारण-कार्य शृंखल्रा से मुक्त है। यह न तो किसी वस्तु का कारण हो सकता है, और न ही किसी कारण का कार्य। पुरुष अपरिवर्तनशील है तथा दिक् एवं काल से परे है, क्योंकि यह नित्य है।, पुरुष सुख-दुःख से रहित अवस्था है, क्योंकि इसमें राग-द्वेष का अभाव है। पुरुष पाप-पुण्य से रहित है, क्योंकि, वह निर्गुण है।, , , , , , , , , , , , , , सांख्य के अनुसार पुरुष की संख्या अनेक है। जितने जीव हैं उतनी ही आत्माएँ हैं। सभी आत्माओं का स्वरूप, चैतन्य है। गुण की दृष्टि से सभी आत्माएँ समान हैं, परिमाण की दृष्टि से वे भिन्न-भिन्न हैं। इस प्रकार सांख्य, पुरुष के सम्बन्ध में अनेकान्तवाद का समर्थन करता है। इनके मत का जैन एवं मीमांसक भी समर्थन करते, हैं।, , पुरुष विशेष, , , , , , योग दर्शन में ईश्वर को 'पुरुषविशेष' की संज्ञा दी गयी है । यह पुरुषविशेष योगसिद्धान्त के मुख्य विचारों से, शिथिल्तापूर्वक संलग्न है। वह विशेष प्रकार की आत्मा है जो सर्वज्ञ, शाश्वत एवं पूर्ण है तथा कर्म, पुनर्जन्म, एवं मानविक दुर्बलताओं से परे है। वह योगियों का प्रथम शिक्षक है, वह उनकी सहायता करता है जो ध्यान के, द्वारा कैवल्य प्राप्त करना चाहते हैं और उसके प्रति भक्ति रखते हैं। किन्तु वह सृष्टिकर्ता नहीं कहल्ाता।, उसका प्रकटीकरण रहस्यात्मक मन्त्र 'ओम' से होता है।, , , , , , पुरुषार्थ, , , , इसका शाब्दिक अर्थ है 'पुरुष द्वारा प्राप्त करने योग्य' | आजकल की शब्दावली में इसे 'मूल्य' कह सकते हैं।, भारतीय दर्शन में पुरुषार्थ चार माने गये हैं--(1) धर्म (2) अर्थ (3) काम एवं (4) मोक्ष | धर्म का अर्थ है जीवन के, नियामक तत्त्व, अर्थ का तात्पर्य है जीवन के भौतिक साधन, काम का अर्थ है जीवन की वैध कामनाएँ और मोक्ष, का अभिप्राय है जीवन के सभी प्रकार के बन्धनों से मुक्ति। प्रथम तीन को प्रवर्ग और अन्तिम को अपवर्ग कहते, हैं। इन चारों का चारों आश्रमों से सम्बन्ध है। प्रथम आश्रम ब्रह्मचर्य धर्म का, दूसरा गा्स्थ्य धर्म एवं काम का, , , , , , 3