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शिक्षा : जे. कृष्णमूर्ति
लघु उत्तरीय प्रश्न
1. जीवन में विद्रोह का क्या स्थान है?
2. जहाँ भय है वहाँ मेधा नहीं हो सकती। क्यों?
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
1. शिक्षा का क्या अर्थ है? इसके कार्य एवं उपयोगिता को स्पष्ट करें।
2. 'शिक्षा' पाठ का सारांश लिखें।
सप्रसंग व्याख्यात्मक प्रश्न
1. 'आप उस समय महत्त्वाकांक्षी रहते हैं जब आप सहज प्रेम से कोई कार्य सिर्फ कार्य के लिए करते हैं।"
2. 'हम नूतन विश्व के निर्माण करने की आवश्यकता महसूस करते हैं....हम में से प्रत्येक व्यक्ति पूर्णतया मानसिक और आध्यात्मिक क्रांति में होता है।
Answer.
लघु उत्तरीय प्रश्न
1. जीवन में विद्रोह से कुरुपता को हम दूर कर सकेंगे। जीवन के ऐश्वर्य, इसकी अनन्त गहराई और इसके अद्भूत सौन्दर्य की धन्यता तभी महसूस करेंगे, जब प्रत्येक वस्तु के खिलाफ विद्रोह करेंगे। हमें संगठित धर्म के खिलाफ, सड़ी-गली परम्परा के खिलाफ और इस सड़े हुए समाज के खिलाफ विद्रोह करना ही होगा तभी हम अपने लिए उचित एवं अपेक्षित सत्य की खोज कर सकेंगे। विद्रोही ही अनुकरण से बचकर नवीन मार्ग का सृजन कर सकता है। हमें वैसा जीवन नहीं चाहिए, जिसमें केवल भय, हास और मृत्यु हो । समाज में थोड़े से ही जीवन विद्रोही होते हैं। विद्रोही खोजते हैं— सत्य क्या है? सत्य की खोज के लिए परम्पराओं से मुक्ति आवश्यक है. जिसका अर्थ है समस्त भयों से मुक्ति ।
2. मेधा स्वतंत्र वातावरण में ही पैदा होती है। हमारा विकास अक्सर भयाक्रांत वातावरण में ही होता रहता है। नौकरी छूटने का भय, परीक्षा में फेल होने का भय, परम्परा टूटने का भय और अंत में मृत्यु का भय। अधिकांश व्यक्ति किसी-न-किसी रूप में भयभीत है। जहाँ भय है वहाँ मेधा नहीं हो सकती। जहाँ भय है, वहाँ जीवन का ह्रास है, मृत्यु है। हमें अपनी जिन्दगी में सत्य की खोज करनी पड़ती है, यह तभी संभव है जब स्वतंत्रता हो, अन्तरतम में क्रांति की भावना बलवती होती रहे। शिक्षा ही हमें भयमुक्त एवं मेधावान बना सकती है।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
1. शिक्षा का कार्य है कि वह सम्पूर्ण जीवन की प्रक्रिया को समझने में हमारी सहायता करे, न कि हमें केवल कुछ व्यवसाय या ऊँची नौकरी के योग्य बनाए। शिक्षा का प्रमुख कार्य है कि वह उस मेधा का उद्घाटन करे जिससे हम जीवन की समस्त समस्याओं का हल खोज सकें। हमें सत्य और वास्तविकता की खोज करने में सक्षम बनाए। हमें भयरहित बनाए । भय रहने पर मेधा विकसित नहीं हो पाती। शिक्षा का कार्य है कि वह आंतरिक और बाह्य भय का उच्छेदन करे। शिक्षा का उद्देश्य/अर्थ है-व्यक्तित्व का उन्नयन करना। शिक्षा का अर्थ में सामंजस्य लाना। शिक्षा का अर्थ है-बालक का मानसिक, शारीरिक, बौद्धिक आध्यात्मिक विकास करना ।
2. "जे. कृष्णमूर्ति बीसवीं शती के महान् जीवनद्रष्टा, दार्शनिक, शिक्षामनीषी एवं संत थे। वे एक सार्वभौम तत्त्ववेत्ता और परम स्वाधीन आत्मविद थे। वे भारत के प्राचीन स्वाधीनचेता ऋषियों की परम्परा की एक आधुनिक कड़ी थे, जिनमें भारतीय प्रज्ञा और विवेक परंपरा नवीन विश्वबोध बनकर साकार हुई थी। "
शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य के व्यवहार का उन्नयन करना है। शिक्षा सामंजस्य सिखलाती है। शिक्षा व्यवहार में सुधार लाती है। शिक्षा मनुष्य के सर्वांगीण विकास के लिए होती है।
केवल उद्योग या कोई व्यवसाय करना ही शिक्षा या जीवन नहीं है। जीवन बड़ा अद्भूत है, यह असीम और अगाध है, यह अनंत रहस्यों को लिए हुए है, यह एक विशाल साम्राज्य है जहाँ हम मानव कर्म करते हैं और यदि हम अपने आपको केवल आजीविका के लिए तैयार करते हैं तो हम जीवन का पूरा लक्ष्य ही खो देते हैं। कुछ परीक्षाएँ उत्तीर्ण कर लेने और गणित, रसायनशास्त्र अथवा अन्य किसी विषय में प्रवीणता प्राप्त कर लेने की अपेक्षा जीवन को समझना कहीं ज्यादा कठिन है।
शिक्षा का कार्य है कि वह संपूर्ण जीवन की प्रक्रिया को समझने में हमारी
सहायता करे; न कि केवल कुछ व्यवसाय या नौकरी के योग्य बनाए ।
शिक्षा व्यर्थ साबित होगी, यदि वह इस विशाल और विस्तीर्ण जीवन को, इसके समस्त रहस्यों को, इसकी अद्भूत रमणीयताओं को, इसके दुःखों और हर्षों को समझने में सहायता न करे। शिक्षा का कार्य है कि हम हममें उस मेधा का उद्घाटन करे जिससे हम इन समस्त समस्याओं का हल खोज सकें।
शिक्षा मौलिक सोच विकसित करती है। अनुकरण शिक्षा नहीं है। जिंदगी का
अर्थ है, अपने लिए सत्य की खोज और यह तभी संभव है, जब स्वतंत्रता
हो, जब अंतर में सतत् क्रांति की ज्वाला प्रकाशमान हो । एक प्रतिशत प्रेरणा और निन्यानबे प्रतिशत परिश्रम से ही कोई बड़ा कार्य संपन्न होता है। शिक्षा का कार्य क्या है? क्या वह इस सड़े हुए समाज को
ढाँचे के अनुकूल बनाने में हमारी सहायता करे या हमें स्वतंत्रता दे।
शिक्षा का यह कार्य है कि वह आंतरिक और बाह्य भय का उच्छेदन करे यह भय जो मानव के विचारों को, उसके संबंधों और उसके प्रेम को, नष्ट कर देता है। जब हम स्वयं महत्त्वाकांक्षी नहीं हैं, परिग्रही नहीं हैं एवं अपनी ही सुरक्षा से चिपके हुए नहीं है— तभी सांसारिक चुनौतियों का प्रत्युत्तर दे सकेंगे। तभी हम नूतन विश्व का निर्माण कर सकेंगे। क्रांति करना, सीखना और प्रेम करना-ये तीनों पृथक्-पृथक् प्रक्रियाएँ नहीं है।
तब हम अपनी पूरी शक्ति के साथ एक नूतन विश्व के निर्माण करने की आवश्यकता महसूस करते हैं। जब इनमें से प्रत्येक व्यक्ति पूर्णतया मानसिक और आध्यात्मिक क्रांति में होता है, तब हम अवश्य अपना हृदय अपना मन और अपना समस्त जीवन इस प्रकार के विद्यालयों के निर्माण में लगा देते हैं, जहाँ न तो भय हो, और न तो उससे लगाव फँसाव हो ।
बहुत थोड़े व्यक्ति ही वास्तव में क्रांति के जनक होते हैं। वे खोजते हैं कि सत्य क्या है और उस सत्य के अनुसार आचरण करते हैं, परन्तु सत्य की खोज के लिए परंपराओं से मुक्ति तो आवश्यक है, जिसका अर्थ है समस्त भयों से मुक्ति ।
सप्रसंग व्याख्यात्मक प्रश्न
1. प्रस्तुत उद्धरण हमारी पाठ्य पुस्तक 'दिगंत' (भाग-2) के 'शिक्षा' शीर्षक पाठ से उद्धृत हैं। इस पाठ के रचयिता जे० कृष्णमूर्ति हैं। वे एक महान शिक्षाविद् हैं महत्त्वाकांक्षा मनुष्य को क्रूर बना देती है। लेकिन सहज प्रेम से कोई कार्य सिर्फ कार्य के लिए करते हैं, तो क्रूरता नहीं रहती है। शिक्षा हमें अपना कार्य प्रेम से सम्पन करने की प्रेरणा देती है। नूतन समाज के निर्माण के लिए प्रेम से काम करना होगा।
2. प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य पुस्तक दिगंत' (भाग-दो) के 'शिक्षा' शीर्षक निबंध से उदृधृत हैं। इसके लेखक शिक्षाविद् जे० कृष्णमूर्ति हैं। वे प्रेरणा देते हैं—हमें शिक्षित होकर नूतन विश्व का निर्माण करना है। नूतन विश्व का निर्माण मानसिक और आध्यात्मिक क्रांति से आप्लावित मानस द्वारा ही सम्भव हो सकता है। मानस सबकुछ बदल देने के लिए तैयार हो। आध्यात्मिक चेतना मनुष्य के अन्दर उमड़ती-घुमड़ती रहनी चाहिए। ईश्वरीयभाव, प्रेम का भाव और मानसिक तत्परता होनी चाहिए। तभी शिक्षा भी सही कही जाएगी।
प्रश्न . शिक्षा का क्या अर्थ है एवं इसके क्या कार्य हैं ? स्पष्ट करें।
उत्तर -मानव जीवन के सर्वांगीण विकास का अर्थ शिक्षा है। इसमें मनुष्य की साक्षरता बुद्धिमत्ता, जीवन-कौशल व अन्य सभी समाजोपयोगी गुण पाये जाते हैं। शिक्षा के अन्तर्गत विद्यार्थी का विद्यालय जाना, विविध विषयों की पढ़ाई करना, परीक्षाएँ उत्तीर्ण होना, जीवन में ऊँचा स्थान प्राप्त करना, दूसरों से स्पर्धा करना, संघर्ष करना एवं जीवन के सर्व पहलुओं का समुचित अध्ययन करना-ये सारी चीजें शिक्षा के अन्तर्गत आती हैं। साथ ही जीवन को ही समझना शिक्षा है। शिक्षा के कार्य-शिक्षा का कार्य केवल मात्र कुछ नौकरियों और व्यवसायों के योग्य बनाना ही नहीं है बल्कि संपूर्ण जीवन की प्रक्रिया बाल्यकाल से ही समझाने में सहयोग करना है एवं स्वतंत्रतापूर्ण परिवेश हेतु प्रेरित करना भी।
प्रश्न . जीवन क्या ? इसका परिचय लेखक ने किस रूप में दिया है ?
उत्तर - लेखक जे० कृष्णमूर्ति ने जीवन के व्यापक स्वरूप को हमारे समक्ष प्रस्तुत किया है। जीवन बड़ा अद्भुत, असीम और अगाध तत्व है। जीवन अनंत रहस्यों से युक्त एक विशाल साम्राज्य है, जिसमें मानव कर्म करते हैं। जीवन समुदायों, जातियों और देशों का पारस्परिक संघर्ष है। जीवन ध्यान है, जीवन धर्म है, जीवन गूढ़ है, जीवन विराट है, जीवन सुख-दुख और भय से युक्त होते हुये भी आनंदमय है।
जीवन का परिचय देते हुए लेखक का मानना है कि इसमें अनेक विविधताओं, अनंतताओं के साथ रहस्य अनेकों भी मौजूद हैं। यह कितना विलक्षण है। प्रकृति में उपस्थित पक्षीगण, फूल, वैभवशाली वृक्षों, सरिताओं, आसमान के तारों में भी लेखक को जीवन का रूप दिखाई पड़ता है। लेखक जे० कृष्णमूर्ति ने जीवन का परिचय सर्वरूपों में दिया है।
प्रश्न . 'बचपन से ही आपका ऐसे वातावरण में रहना अत्यंत आवश्यक है जो स्वतंत्रतापूर्ण हो।' क्यों ?
उत्तर- बचपन से ही स्वतंत्रतापूर्ण वातावरण में रहना आवश्यक है जहाँ भय की गुंजाइश नहीं हो। मनचाहे कार्य करने की स्वतंत्रता नहीं बल्कि ऐसा वातावरण जहाँ स्वतंत्रतापूर्वक जीवन की संपूर्ण प्रक्रिया समझी जा सके। जिससे सच्चे जीवन का विकास संभव हो पाये। क्योंकि भयपूर्ण वातावरण मनुष्य का ह्रास कर सकता है विकास नहीं। इसलिए लेखक जे० कृष्णमूर्ति का यह सत्य और सार्थक कथन है कि बचपन से ही आपका ऐसे वातावरण में रहना अत्यंत आवश्यक है जो स्वतंत्रतापूर्ण हो।
Q.नूतन विश्व का निर्माण कैसे हो सकता है ?
उत्तर- समाज में सर्वत्र भय का संचार है, लोग एक-दूसरे के प्रति ईर्ष्या-द्वेष से भरे हुए हैं। इस स्थिति से दूर पूर्ण स्वतंत्र, निर्भयतापूर्ण वातावरण बनाकर एक भिन्न समाज का निर्माण कर हम नूतन विश्व का निर्माण कर सकते हैं। हमें स्वतंत्रतापूर्ण वातावरण तैयार करना होगा जिसमें व्यक्ति अपने लिए सत्य की खोज कर सके, मेधावी बन सके। क्योंकि सत्य की खोज तो केवल वे ही कर सकते हैं जो सतत इस विद्रोह की अवस्था में रह सकते हैं, वे नहीं, , जो परंपराओं को स्वीकार करते हैं और उनका अनुकरण करते हैं। हमें सत्य, परमात्मा अथवा प्रेम तभी उपलब्ध हो सकते हैं जब हम अविच्छिन्न खोज करते हैं, सतत् निरीक्षण करते हैं और निरंतर सीखते हैं। इस तरह हमारे समाज में न ईर्ष्या-द्वेष और न भय का वातावरण रहेगा, मेधाशक्ति का पूर्ण उपयोग हो। स्वतंत्रतापूर्ण व्यक्ति जीवन जिएगा तो निसंदेह ही नूतन विश्व का निर्माण होगा।